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Archive for the ‘blogging’ Category

गुजराती साहित्य को इन्टरनेट पर लोकप्रिय बनाने वाले युवा ब्लॉगर मृगेश शाह नहीं रहे। सादर श्रद्धांजलि। उनका १९ मई को ब्रेन-हेमरेज हुआ।कल उनका दुखद अवसान हुआ। उनकी उम्र ३६ वर्ष थी।वडोदरा के इस युवा ने गुजराती की सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यिक वेबसाइट बनाई।नवम्बर २००६ में मैंने उनसे बात की थी। यह ‘तरकश’ में प्रकाशित हुई थी।
Mrugesh Shah
‘तरकश’ ने उसे प्रकाशित किया था।
मृगेश शाह का www.readgujarati.com  १,३३००० लोगों द्वारा देखा जा चुका है.औसतन ६००-७०० लोग रोज इस स्थल पर पहुंचते हैं.’पुस्तक परिचय’ और ‘साहित्य विभाग’ नामक दो चिट्ठे मूल स्थल से जुडे हैं.’साहित्य-विभाग’ ३,०००,०० लोग देख चुके हैं.मृगेश मानते हैं कि प्रतिष्ठित साहित्यकारों की रचनाओं तथा गुजराती प्रेमियों की व्यक्तिगत चर्चा की कारण इतनी पाठक संख्या हो सकी है.’रीड गुजराती’ के बारे में लगभग सभी गुजराती अखबारों और लोकप्रिय पत्रिकाओं में लेख छपे हैं.

मृगेश शाह से ‘तरकश’ के लिए मेरी बात-चीत प्रस्तुत है – अफलातून. :

 

१. गुजराती में ब्लॉग्स की शुरुआत , प्रसार  और अभी की हालत   पर संक्षिप्त टिप्पणी करें.संख्या का अनुमान दें.

गुजराती में सर्वप्रथम ब्लॉग www.forsv.com/guju  है. इसके पहले कोई ब्लॉग रहा हो ऐसी जानकारी नहीं है.यह चिट्ठा अमेरिका में रहने वाले एक कम्प्यूटर वैज्ञानिक द्वारा चलाया जाता है.वर्षों से वे भी काफी अच्छा काम कर रहे हैं.उनके चिट्ठे पर खासतौर पर काव्य,रास-गरबा सुन्दर होता है.

तमाम गुजराती चिट्ठों का प्रसार ‘मित्र-मंडलियों’ और ‘सर्च इन्जिनों’ द्वारा हुआ है.गुजराती सूचना-तकनीक के क्षेत्र में अच्छी संख्या मे हैं तथा कविता,गज़ल और साहित्य का शौक आम है,इस से ही चिट्ठों की सुविधा का प्रयोग करने की लोगों को प्रेरणा मिली है,साथ- साथ निजी शौक की सृजनात्मक अभिव्यक्ति भी हो जाती है.

पिछले एक साल में गुजराती चिट्ठों की संख्या बहुत बढी है,उससे पहले तीन-चार सक्रिय चिट्ठे थे. अब करीब तीस चिट्ठे हैं.

 

२.फिलहाल , ज्यादातर गुजराती ब्लॉग्स व्यक्तिगत शेरो-शायरी और साहित्य पर ही हैं.ग्यान-विग्यान, राजनीति , सामयिक घटनाक्रम, खेल कूद  आदि पर कम हैं.इन  विषयों पर ब्लॉगिंग बढे-इसके लिए क्या कोई सामूहिक या व्यक्तिगत प्रयास हो रहे हैं ?

आप की बात सही है.अभी ज्यादातर गुजराती चिट्ठे काव्य,गज़ल और साहित्य-केन्द्रित ही हैं.’कलरव’ नामक एक चिट्ठा बच्चों के लिए है तथा ‘गुजराती सारस्वत परिचय’  नामक गुजराती चिट्ठे में गुजराती के साहित्यकारों की जीवनियों की झलकियां देखी जा सकती हैं.चन्द चिट्ठों को छोड ज्यादातर साहित्य-केन्द्रित चिट्ठे  हैं.राजनीति,सामयिक सामाजिक घटनाओं पर आधारित चिट्ठे दिखाई नहीं पडते.इसका कारण यह हो सकता है कि उन्हें रोज नयी प्रविष्टियों से ताजा रखना होगा,जो नही हो पाता.आमतौर पर चिट्ठेबाजी सरलता  से चलने वाली शौकिया वृत्ति है इसलिए पेशे या व्यावसायिक व्यस्तता वाले लोग रोज-ब-रोज ‘अपडेट’ करने वाले विषय सहजता से चुनते ही नहीं.इसके बावजूद अब कुछ गुजराती मंच और समूह संजाल पर गठित हो रहे हैं,यह खुशी की बात है.

३.आपके ब्लॉग की पाठक संख्या बहुत अच्छी है.इसके लिए क्या उपाय किए -कि इतनीपाठक संख्या हो गयी ?’ रीड  गुजराती’ की सफलता की कहानी संक्षेप में बतायें.

सबसे पहले यह स्पष्ट कर दूं कि www.readgujarati.com का स्वरूप चिट्ठे का नहीं,वेबसाइट का है.साहित्य और पुस्तक चर्चा के लिए मैंने  चिट्ठों का उपयोग किया है क्योंकि उससे जालस्थल का गठन सरल हो जाता है तथा फ़ीड का लोग उपयोग कर पाते हैं.इस लिए मेरे द्वारा ब्लॉग्स का उपयोग वेबसाइट की मदद में किया जा रहा है.

हां, ‘रीड गुजराती’ की की भारी पठक संख्या को मैं ईश्वर की कृपा मानता हूं.एक कारण यह भी है कि साहित्यिक  लेखों वाले चिट्ठे या वेबसाइट नहीं है तथा प्रसिद्ध गुजराती लेखकों की कहानियां और निबन्ध पढने को मिलते हों और नियमित तौर पर मिलते हों ऐसा अन्य कोई जालस्थल नहीं है.

रीडगुजराती ने ज्यादातर गुजराती अखबारों और पत्रिकाओं का ध्यान खींचा है.पाठक अपने मित्रों और स्वजनों को भी इसके बारे में बताते हैं.इसकी भारी पाठक संख्या साइट की पब्लिसिटी के कारण नहीं है अपितु साहित्य में लोगों की ऋचि के कारण है.फ़िर यह पाठक संख्या अचानक नहीं हुई है,एक साल की अवधि में धीरे धीरे लोग इसके बारे में जानने  लगे.उत्तम साहित्य पढने की उत्कट इच्छा परदेश में रहने वालों को होती है इसलिए ज्यादा तादात में वे प्रवासी गुजराती इस जालस्थल पर आते हैं.

 

४.भारतीय भाषाओं में ब्लॉगिंग के भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं ?

भारतीय भाषाओं में ब्लोग काफ़ी विकसित हुए हैं.उनमें हिन्दी की व्याप्ति के कारण अगणित ब्लॉग बने हैं , यह आनन्द की बात है.इससे हमारा साहित्य टिकेगा और दूर के लोगों के लिए भी  लोकोपयोगी बन पडता है. इसलिए यह इन्टरनेट का सदुपयोग ही माना जाएगा.चिट्ठे सतत नई प्रविष्टियों से ताजे रखे जांए,विविध विषयों का समावेश करें तो अधिक उपयोगी होंगे.ब्लॉगिंग अच्छी वृत्ति है लेकिन इसके साथ यह ध्यान रखा जाए कि उत्तम सामग्री परोसी जा रही है.यह मनोरंजन का साधन न बने,ज्ञान प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन बने.

 

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गत चार वर्षों में कहां से पहुंचे इस चिट्ठे पर पाठक

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हिन्दी चिट्ठेकारी के प्रति समर्पित तीन ’जनप्रिय लेखकों” को केन्द्र में रखकर काफ़ी लिखा जा रहा है। यह तीनों लम्बे समय से चिट्ठे लिखने में सातत्य बनाये हुए हैं ,जो इस माध्यम के लिए बहुत जरूरी है । ईस्वामी ,  चौपटस्वामी , काकेश , देबाशीष , ईपंडित , जीतेन्द्र जैसे कितने ही धुरन्धर चिट्ठेकारों की तरह ये तीनों ठण्डे नहीं पड़ गये हैं । ये ठण्डे पड़े मित्र यदि आज भी सक्रिय होते तो चिट्ठेकारी का घटियापन निश्चित ही इतना अधिक न होता । यदि बतौर चिट्ठों के पाठक वे अब भी हिन्दी चिट्ठेकारी से जुड़े हों तो मेरे कष्ट को समझने की कोशिश करेंगे ।

बहरहाल , ज्ञानदत्त जी की बेबाक पोस्ट को देखकर मुझे बहुत खुशी हुई थी । निश्चित ही वे मेरी हार्दिक बधाई ग्रहण करें। संघ परिवार में बुद्धिमान अल्पसंख्यक  हैं । उस अल्पसंख्यक तबके में दत्तोपंत ठेंगड़ी एक थे। वे ’बौद्धिकों ’ में किस्सा सुनाते थे जिसका निचोड़ होता था कि-’ किस्म-किस्म के कम्युनिस्ट एक दूसरे की आलोचना करते हैं,एक दूसरे को गलत बताते हैं। हम सिर्फ़ यह कहते हैं कि वे सब सही हैं । ’ मुझे इन जनप्रिय लेखकों के बारे में कही गयी नकारात्मक बातें बिलकुल सही लगीं ।

जिन लोगों को लग रहा है कि ज्ञानदत्तजी की प्रवि्ष्टी से काफ़ी बदमजगी हुई है वे कम -से-कम इतना मान कर चलें कि इन तीनों को कोई घातक आघात नहीं लगा होगा। कुछ समय के लिए मान लिया जाए कि मेरा अनुमान गलत है तब मेरा एक नम्र सुझाव पेश है। फ्रान्स के गांधी कहे जाने वाले लान्जा देल वास्ता के आश्रम में जब कभी आश्रमवासियों में बदमजगी होती तब आश्रमवासियों के सम्मेलन में कहा जाता कि वे उन विचारों को दिमाग में लायें जो वे जिनसे उनका विवाद है उनकी श्रद्धान्जली-सभा में लाते। इस तरकीब से अक्सर विवाद दूर हो जाते। शायद श्रद्धान्जली देते वक्त हम शत्रु की भी अच्छाई के बारे में ही सोचते हैं ,इसलिए?

चिट्ठेकारी की दुनिया व्यापक समाज की एक छोटी सी उप-व्यवस्था है । वहीं चिट्ठेकारी की अपनी भी एक छोटी सी दुनिया है। इसलिए व्यापक समाज के अन्तर्विरोधों का  अक्स यहां भी दीखता है। रचनात्मक संघर्ष की जरूरत यहाँ भी होगी।

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नीतीश कुमार की पहली हिन्दी पोस्ट पर मेरी टिप्पणी रोक ली गई । टिप्पणी मुख्य मन्त्री ने रोकी अथवा उनके किसी सचिव ने ,पता नहीं ।  नीतीश कुमार उसके लिए जिम्मेदार हैं । बहरहाल, नीतीश कुमार द्वारा अंग्रेजी में ब्लॉगिंग शुरु करने को रवीश कुमार जैसे उनके प्रशंसक आपत्तिजनक नहीं मानते। नीतीश कुमार ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी – इस तथ्य को वे जरूर उल्लेखनीय मानते हैं । रवीश ने यह याद भी दिलाया कि वे नीतीश का साक्षात्कार ले चुके हैं । क्या इन्टरनेट की पीढ़ी से संवाद की भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है ? कुछ वर्ष पूर्व लालू प्रसाद ने स्कूली तालीम में अंग्रेजी अनिवार्य करने की बात की थी । आज , नीतीश कुमार बिहार के लिए विदेशी पूँजी निवेश चाहते हैं। उनकी धारणा यह भी हो सकती है कि उनके अंग्रेजी बयानों को पढ़ कर विदेशी पूंजी आ जाएगी। १९९२-९३ में नीतीश कुमार बहुरा्ष्ट्रीय कंपनियों को बुलाने,सीमा शुल्क में कटौती तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की समाप्ति के खिलाफ़ रहे हैं । इन विषयों पर उनके विचारों को हम उनकी तरह सेन्सर नहीं करेंगे ,बल्कि अपने चिट्ठों पर छापेंगे। उनका इलाज यही है ।

नीतीश कुमार और उनके इर्द-गिर्द मौजूद लोगों की पसंद / नापसंद की बानगी का अंदाज पाठक  नीचे दिए जनमत संग्रह में भाग ले कर लगायें ।

आपातकाल और सेंसरशिप को भूल गये हों नीतीश कुमार , मुमकिन है। बिहार प्रेस विधेयक तो नहीं भूला होगा।

अपनी टिप्पणी को शीघ्र ही इस पोस्ट में टिप्पणी के रूप में दूँगा।

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मेरे चिट्ठे पर मित्र जसवीर की मौत पर कवितायें छपी थीं और अनेक मित्रों ने पसन्द की थीं । जसवीर भाई ने अब अपना ब्लॉग ’एकला संघ’ शुरु कर दिया है । आप सब से दिली अपील है कि इस ब्लॉग पर जायें और अपनी बेबाक राय व्यक्त करें । मुझे भरोसा है कि ’एकला संघ’ का अतिशीशीघ्र एक पाठक वर्ग बन जाएगा ।

सविनय,

अफ़लातून

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हिन्दी के वरिष्ट पत्रकार और लेखक बच्चन सिंह ने चिट्ठेकारी शुरु की है । अपने चिट्ठे बेबाक ज़ुबाँ में वे न सिर्फ़ सामयिक घटनाक्रम पर अपनी अनुभवी राय व्यक्त कर रहे हैं अपितु अपनी कविता आदि सृजनात्मक लेखन के नमूने भी दे रहे हैं । उनके सम्पादकत्व में बनारस से जब स्वतंत्र भारत निकलता था तब वह उच्च श्रेणी की पत्रकारिता का नमूना था ।

” उनकी प्रकाशित कृतियां कविता/गीत- तबतक के लिए, गूंजने दो उसे, तिनका तिनका घोसला उपन्यास- ननकी, कीरतराम पत्रकार, संपादक कीरतराम, खबर की औकात, फांसी से पूर्व ( शहीद रामप्रसाद बिस्मिल पर उपन्यास), शहीद ए आजम ( शहीद भगत सिंह पर उपन्यास), शहादत (शहीद चंद्रशेखर आजाद पर उपन्यास), बंजर, कीचकाच, एक थी रूचि, कहानी- पांच लंबी कहानियां, सपाट चेहरे वाला आदमी, धर्मयुद्ध पत्रकारिता पर पुस्तकें- हिंदी पत्रकारिता के नए प्रतिमान, पराड़कर और हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियां, हिंदी पत्रकारिता का नया स्वरुप, आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी और पत्रकारिता, पत्रकारिता का कृष्णपक्ष वैचारिकी- भारत में जातिप्रथा और दलित ब्राह्मणवाद, विश्वनाथ प्रताप सिंह – कैसे पहुंचे वोट की राजनीति तक ।” (उनके चिट्ठे से )

चिट्ठेकार मित्रों से निवेदन है कि बेबाक ज़ुबाँ पर जा कर उनके स्वागत में अपनी उपस्थिति दर्ज करायें । बच्चन सिंह की अनुभवी लेखनी से रू-ब-रू हों । इस चिट्ठे से हमें काफ़ी कुछ सीखने को मिलेगा और हिन्दी चिट्ठेकारी समृद्ध होगी ।

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भाग २,भाग ३
कहीं भी टकरा जाएंगे आप उनसे । मेट्रो में आपके सामने आई पॉड लिए बैठी वह किशोरी जो धड़ाधड अपने सेल फोन पर मेसेज टाइप कर रही है । गर्मियों में आपके दफ़्तर में प्रशिक्षु बन कर आया वह बाजीगरी हुनर वाला वह लड़का , जो आपके ईमेल के क्लाएन्ट के क्रश हो जाने पर क्या करना चाहिए यह जानता है । आठ साल की वह बच्ची जो बाजार में उपलब्ध किसी भी विडियो गेम में आपको शिकस्त दे सकती है , साथ ही आप से कहीं तेज टाइप कर भी लेती है । या लन्दन में पैदा आपकी भान्जी का वह बच्चा , जिससे अब तक आप नहीं मिले हैं , फिर भी हर हफ़्ते आने वाली उसकी तसवीरों को पा कर आपका उससे एक नाता-सा जुड़ गया है।

यह सभी “जन्मजात डिजिटल” हैं । यह सभी सन १९८० के बाद पैदा हुए हैं – जब यूज़नेट और बुलेटिन बोर्ड जैसे सिस्टम का आविर्भाव हो चुका था । डिजिटल टेक्नॉलॉजी इन सबकी पहुँच में है । सभी इन तकनीकों का इस्तेमाल जानते हैं,(सिवाय उस नवजात के ,जो अति शीघ्र उस तकनीक से परिचित हो जाएगा ।)

इन जन्मजात डिजिटलों के कुछ हूनरों से मुमकिन है आप प्रभावित हुए/हुईं हों । शायद आपके युवा मातहत ने आपको ऐसा प्रफुल्लित कर देने वाले राजनैतिक व्यंग्य खोज कर पढ़वाया हो जो आप न खोज पाते । अथवा उसने इतनी प्रभावशाली प्रस्तुति तैय्यार की हो कि आप द्वारा तैय्यार  पॉवर पॉइन्ट स्लाइड्स उसकी तुलना में मध्ययुगीन लगने लगी हों ! या आपके बेटे ने परिवार की छुट्टियों के चित्रों द्वारा फोटोशॉप से काएदे का क्रिसमस कार्ड बना दिया हो । शायद उसी आठ साल की बच्ची ने ऐसा मजाकिया विडियों खुद तैयार किया हो कि जिसे हजारों लोग यूट्यूब पर देख चुके हों ।

लेकिन यह भी मुमकिन है कि कोई जन्मजात डिजिटल आपकी नाराज़गी का कारण बना हो । यह बहुत संभव है कि आपका वही मातहत आपके ग्राहकों को अत्यन्त बेपरवाह हो कर ईमेल भेजता हो और काएदे का मुद्रित पत्र कैसे बनाया जाए यह जानता ही न हो । हो सकता है कि आपकी बिटिया कभी खाने पर वक्त से पहुँचती ही न हो क्योंकि वह मित्रों से चैटियाती हुई ऑनलाइन व्यस्त रहती हो । भोजन के टेबल पर पहुँचने के बाद भी यह संभव है कि वह टेबल के नीचे मोबाइल छुपा कर एसेमेस कर रही हो ।

अलग-से हैं ये बच्चे । पढ़ने , काम करने , लिखने , परस्पर संवाद के उनके तरीके आप जब बड़े हो रहे थे तब इन्हीं कामों को जैसे करते थे उन तरीकों से बिलकुल जुदा हैं । क्या पता इन पैदाइशी डिजिटलों से आप कुछ डरते भी हों । आपका बेटा बताता है कि नौवीं कक्षा उसके एक सहपाठी ने अपने वेब पन्ने पर डरावनी और हिंस्र सामग्री चढ़ाई हैं ! या आपने भी सुना है कि कॉलेज-छात्रों की एक गोल ने ४८७ क्रेडिट कार्ड चुरा लिए थे , फिर पुलिस ने जिन्हें धर दबोचा ।

इनके बारे में यह तो पक्का है के वे अलग-से हैं । पढ़ने , काम करने,लिखने और संवाद उनके तौर तरीके जुदा है । वे ब्लॉग पढ़ते हैं , अखबार नहीं पढ़ते । रू-ब-रू मिलने के पहले कई बार वे ऑनलाइन मिल चुके होते हैं । संभवत: वे नहीं जानते होंगे कि लाइब्रेरी कार्ड कैसा दिखता है , उनका अपना कार्ड होने की बात तो दूर की बात है । यदि उनके पास लाइब्रेरी कार्ड हो तब भी ज्यादा मुमकिन है कि उसका इस्तेमाल उन्होंने किया ही न हो । उन्हें संगीत ऑनलाइन मिल जाता है -अक्सर मुफ़्त ही – रेकॉर्ड की दुकानों से उन्होंने संगीत नहीं खरीदा।शाम को मिलने का कार्यक्रम पक्का करने के लिए वे फोन नहीं करते,एसेमेएस करते है । वे पिल्ले पालते नहीं आभासी नियोपेट्स रखते हैं । वे एक दूसरे से एक संस्कृति विशेष से बँधे हैं । उनके सामाजिक-संवाद , दोस्तियाँ , गतिविधियाँ जैसे जीवन के मुख्य पहलू सब डिजिटल तकनीक की मध्यस्थता से निर्धारित हैं । इससे अलग किसी जीवन शैली से उनका तार्रुफ़ नहीं हुआ होता ।

७० के दशक के आखिरी सालों में शुरुआत हुई और दुनिया बड़ी तेजी से बदलने लगी।पहला बुलेटिन बोर्ड सिस्टम आया जिससे लोग दस्तावेजों का आदान करने लगे,ऑनलाइन खबरें पढ़ने लगे और सूचनाओं का आदान प्रदान करने लगे । ८० के दशक की शुरुआत में यूज़नेट समूह समुदायों में परिचर्चा आयोजित करने लगे , यह काफ़ी लोकप्रिय हुईं । ८० के दशक के आखिरी सालों में ईमेल लोकप्रिय होने लगा। १९९१ में वर्ल्ड वाइड वेब  का प्रादुर्भाव हुआ और ब्राउज़र कुछ ही वर्षों में आ गए।  ९० के दशक के आखिरी सालों में सर्च इंजन , पोर्टल और ई-कॉम्रर्स जाल स्थल आ गए।

शताब्दी की शुरुआत में पहले सामाजिक नेटवर्क और ब्लॉग आ गए । सन २००१ में पॉलेरॉएड ने खुद को दीवालिया घोषित किया , ठीक उसी समय जब डिजीटल कैमेरा बाजार में आना शुरु हुए।( पॉलेरॉएड कम्पनी के कैमेरा ‘तुरन्त-खींचा-तुरन्त पाया’ के लिए जाने जाते थे।)

२००६ में रेकॉर्ड बनाने वाली कम्पनियों का भट्टा बैठने लगा , २००८ आते-आते अमेरिका में संगीत बिक्री की सबसे बड़ी कम्पनी आई-ट्यून्स बन गयी। आज ज्यादातर युवा ,दुनिया के अधिकतर समाजों में ऐसे मोबाइल , साईडकिक , आई-फोन्स हर समय लिए फिरते हैं और इन उपकरणों से आप न सिर्फ़ फोन कर सकते हैं अपितु एसेमेस भेज सकते हैं , इन्टरनेट पर विचर सकते हैं तथा संगीत भी डाउनलोड कर सकते हैं ।

यह अब तक के सबसे त्वरित तकनीकी रूपान्तरण का दौर है , कम से कम सूचना के सन्दर्भ में सर्वाधिक त्वरित परिवर्तनों का। चीनियों ने यूरोप के जोहैनस गुटेनबर्ग द्वारा मध्य १५वीं सदी में विकसित छापेखाने से सैंकड़ों पहले यह खोज कर ली थी । इसके बाद की कुछ सदियों तक कुछ ही लोग मुद्रित पुस्तकें खरीदने की औकात रखते थे। इसके विपरीत पूरी दुनिया में एक अरब से ज्यादा लोग डिजिटल टेक्नॉलॉजी अपना चुके हैं । इसके बावजूद कि कई समाज डिजिटल तकनीक से संतृप्य हो चुके हैं अभी तक डिजिटल-युग में कोई पीढ़ी  जन्म से मौत तक नहीं गुजरी ।

पैदाइशी डिजिटल

पैदाइशी डिजिटल

सूचना तकनीक का प्रयोग हम जैसे कर रहे हैं उससे जीवन का कोई भी आयाम अछूता नहीं रह गया है । मसलन व्यापार को लें , गति बढ़ गयी है और ज्यादा दूर तक संभव हो गया है , अक्सर बहुत कम पूंजी की जरूरत पड़ती है । राजनेता अपने क्षेत्र के लोगों को ईमेल भेजते हैं ,  अपने अभियानों का परिचय अपनी वेबसाइट पर विडियो चढ़ा कर देते हैं,तथा अपने कार्यकर्ताओं डिजिटल औजारों से लैस कर सकते हैं ताकि वे अपने कार्यक्रम बेहतर ढंग से पेश कर सकें । धर्म भी रूपान्तरित हो रहा है : पादरी , पुजारी ,ईमाम,रैबी(यहूदी धर्म गुरु) , गुरु तथा बौद्ध भिक्षु तक अपने अनुयाइयों तक अपने ब्लॉगों के जरिए पहुंच रहे हैं । फिर भी , सबसे ज्यादा गौरतलब है कि डिजिटल-युग में लोगों के जीवन में जो परिवर्तन आया है तथा उनके परस्पर सम्बन्ध तथा आसपास की दुनिया से सम्बन्ध में जो तब्दीली आई है।

कुछ उम्रदराज पैदाइशी डिजिटल नहीं थे लेकिन वे इस लोक में ‘बस गये’ । ये ऑनलाइन भी आते हैं लेकिन पुरानी तकनीक के इस्तेमाल को भी जारी रखते हैं । नये माहौल से कुछ कम परिचित अन्य ऐसे हैं जो ‘डिजिटल प्रवासी’ कहे जा सकते है तथा ज्यादा उमर में यह सब सीखें हैं । इन पर काफ़ी व्यंग्य भी होते हैं । जो पैदाइशी डिजिटल हैं वे पुरानी तकनीक की दुनिया जिसमें पत्र लिखे और छापे जाते थे के बारे में कुछ नहीं जानते,हाथ लिखे ख़तों की बात की तो बात ही मत कीजिए। वह यह भी नहीं जानते कि लोग-बाग औपचारिक नृत्य समारोहों में मिला करते थे न कि फ़ेसबुक पर । मानव सम्बन्धों की प्रकृति में जो तब्दीलियां आ रही हैं वे कुछ के लिए दूसरा स्वभाव है तो कुछ के लिए सीखा हुआ बर्ताव ।

यह वृतान्त उनके बारे में है जो अपनी पहली नौकरी पर जाते हुए कानों में आई-पॉड के बटन खोसे हुए होते हैं , हम में से उनके बारे में नहीं है जिन्हें सोनी का वॉकमैन बजाना अभी भी याद है अथवा जिन्हें रेकॉर्ड अथवा टेप खरीदना याद है । युवा पीढ़ी संगीत के लिए कितना खर्च करती है ( अथवा नहीं करती,मुफ़्त जुगाड़ कर लेती है) -इस प्रश्न से बढ़कर तब्दीलियां हो रही हैं । विश्वविद्यालय के छात्र बनने वाले युवा अथवा नौकरी में नए शामिल तरुण ,अपने जीवन का काफ़ी समय ऑनलाइन बिताते हैं ,हम से कई पहलुओं से जुदा हैं। हमसे उम्र में थोड़ा अधिक लोगों की तरह इस नयी पीढ़ी को नये सिरे से कुछ सीखने की जरूरत नहीं पड़ी । इस पीढ़ी ने सीधे डिजिटल विश्व को ही जाना सीखा है ।

[ जारी ]

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लोकसभा का १९७७ का आम चुनाव । जेपी ने कहा कि इस चुनाव में लोगों को तानाशाही और लोकतंत्र के बीच चुनाव करना है । जेपी की कल्पना की तरुणों की जमात – छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का उत्तर प्रदेश में भी गठन हो चुका था । कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए बनी जनता पार्टी से अलग थी – वाहिनी । ‘ डरो मत ! अभी हम जिन्दा हैं ‘ और ”जनता पार्टी को वोट जरूर दो लेकिन वोट देकर सो मत जाना ‘ – जैसे जेपी के मुँह से निकले सूत्रों को लोगों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी वाहिनी की थी । वाहिनी की बनारस की टीम ने प्रचार का एक नायाब तरीका सृजित किया – ‘पोस्टर चित्र प्रदर्शनी’। एक अत्यन्त प्रभावशाली माध्यम । सैंकड़ों की भीड़ प्रदर्शनी देखने उमड़ पड़ती थी । आँकड़ों सूक्तियों और कविताओं के साथ – साथ हर पोस्टर में प्रभावशाली चित्र होते हैं । निरंकुश तानाशाही के दो प्रमुख सत्ता केन्द्रों के चुनाव क्षेत्रों – रायबरेली और अमेठी में इस टीम ने यह प्रदर्शनी दिखाई । टीम का सबसे कम उम्र का किन्तु सबसे हूनरमन्द सदस्य था सुशील । कबीर और लोहिया का तेवर लिए पेन्टिंग का विद्यार्थी । टीम के अन्य सदस्य थे  दृश्य कला संकाय में सुशील के सीनियर सन्तोष सिंह , ‘६७ के अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन से युवजन राजनीति में आए अशोक मिश्र और ‘शिक्षा में क्रान्ति’ के लिए जेपी के आवाहन पर विश्वविद्यालयी पढ़ाई छोड़ कर बिहार के सहरसा और मुजफ़्फ़रपुर जिलों के गाँवों में साल भर रहकर आए नचिकेता ।

    रायबरेली – अमेठी से लौट कर इस टीम ने पूरे यक़ीन से बताया कि इन्दिरा गांधी और संजय गांधी भी चुनाव हार रहे हैं । जनता खुद कैसे नारे गढ़ती है इसका एक नमूना भी बताया । रामदेव नामक एक कांग्रेसी विधायक को घेर कर लोग उन दिनों कहते- ‘ जब कटत रहे कामदेव ,तब कहाँ रहें रामदेव ?’  सवाल का जवाब और आगे की कार्रवाई की सलाह अगली पंक्ति में स्पष्ट थी – ‘ अब , जब वोट माँगे रामदेव , तब पेड़ में ‘उनका’ बाँध देओ ।’ नारे में अलंकार !

   ‘ दिनमान ‘ में रघुवीर सहाय आए तो उन्होंने छोटे शहरों , कस्बों और देहात के तरुणों को पत्रकारिता की तालीम खुद दी । ‘सुशील को उनके हाथ से लिखे ख़त मिलते थे ‘ ‘शीर्षक कैसे चुनें’ जैसे विषयों पर । दिनमान में सुशील की रपट भी छपती थी और रेखाचित्र ( स्केच ) भी । सुशील से हम पूछते , ‘सड़क से चिपकी , विकृत-सी मनुष्य आकृति , क्यों ?’ अत्यन्त सहजता से किन्तु दर्द के साथ सुशील परिप्रश्न करते,‘क्या मानवता विकृत नहीं हुई ?’

  सुशील छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के पहले जिला संयोजक बने । जनता पार्टी सत्ता में आ गई लेकिन सुशील के वरिष्ट साथी अरुण कुमार रिहा नहीं हुए । जनसंघी पृष्टभूमि के ओमप्रकाश सिंह मंत्री बने । ‘ बेशक सरकार हमारी है , दस्तूर पुराना जारी है ‘– अरुण कुमार की रिहाई के लिए हुए प्रदर्शन में यह नारा लगा । लाठियाँ लिए ढीली हाफ़ पैन्ट से निकली बूढ़ी टागों वाले संघियों ने नचिकेता के हाथ से कैमेरा छीन कर तोड़ दिया।

    युवा रंगकर्मी कुमार विजय , युवा कवि अरविन्द चतुर्वेद और सुशील ने ‘समवेत’ की स्थापना की । बनारस शहर के सांस्कृतिक कर्मियों की लमही जाने की स्वस्थ परम्परा की शुरुआत ‘समवेत’ की पहल पर हुई ।

    बतौर विश्वविद्यालय संवाददाता सुशील आज से जुड़े । हर सोमवार छपने वाली ‘विश्वविद्यालय की हलचल’ से सिर्फ़ हलचल नहीं मचती थी । विश्वविद्यालय के कर्मचारियों , अधिकारियों और शिक्षकों द्वारा ‘अवकाश यात्रा छूट ( Leave Travel Concession )  में व्यापक भ्रष्टाचार की खबर सुशील ने छापनी शुरु की । कार्रवाई का आदेश जारी करने के पूर्व तत्कालीन कुलसचिव ने खुद एल.टी.सी. की रकम लौटाई – यह भी खबर बनी ।

    महामना मालवीय को देश के विभिन्न भागों में दान में सम्पत्तियां भी मिली थीं । शिमला में ‘हॉली डे होम’ हो , मुम्बई में मिला विशाल भवन हो अथवा बनारस शहर में मिली कई सम्पत्तियाँ । कुछ भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा इन्हें अपने सम्बन्धियों को औने-पौने दामों में बेचने की साजिश चल रही थी । इस पर अपने कॉलम में लगातार लिख कर सुशील ने इन्हें बचाया ।

    भ्रष्टाचार से समझौता न करने स्वभाव के कारण सुशील इन मामलों को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से उठाते थे ।

     प्रवासी पक्षियों के विवरण हों अथवा कला-शिल्प पर समीक्षा हो – सुशील का कलाकार खिल कर सामने आता था – प्रकृति प्रेम और सौन्दर्य बोध ले कर । सुशील पेन्टिंग और पत्रकारीय लेखन के अलावा दोहे भी लिखे । सधी हुई लय के साथ सुशील गाते भी थे ।

      नौगढ़ स्थित गुफाओं के भित्ति चित्रों के बारे में करीब तीस साल पहले सुशील ने हमे बताया था और लिखा भी था । इस बार उन्हीं गुफाओं को देखने सुशील गए तो पाँव फिसल कर २० फुट नीचे गिरे । विश्वविद्यालय स्थित अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में रहे । उसके साथ गए हिन्दुस्तान अखबार के संदीप त्रिपाठी ने कल इन गुफाओं पर अपने ब्लॉग पर लिखा । बिना सुशील का जिक्र किए । अस्पताल में सुशील के भर्ती होने के बाद से यह सज्जन वहाँ दिखायी भी नहीं दिए ।

    जिस अखबार में सप्ताह में चार दिन सम्पादक या उसके नात-रिश्तेदारों के ही लेख छपते हों, अखबार – मालिक की पत्नी के गुजरने पर सम्पादक द्वारा मालिक को लिखे पत्र के प्रत्युत्तर को प्रथम पेज की खबर माना जाता हो वहाँ सुशील की प्रतिभा और तजुर्बे से ज्यादा तरजीह चमचागिरी को मिलनी लाजमी है । कल चिट्ठे पर छपे इन गुफाओं के विवरण की रपट पर टिप्पणी कर हमने मांग की थी कि इस रपट में सुशील का जिक्र होना चाहिए था । उस चिट्ठेकार में इस टिप्पणी को अनुमोदित करने का माद्दा नहीं है । आज के अखबार वही रपट छपी है , सुशील का नाम उस अयोज्ञ लड़के की रपट के साथ बाई – लाइन में जोड़ दिया गया है ।

    सुशील की खबर लेने रोज़ सैंकड़ों लोग अस्पताल आते थे । बिहार आन्दोलन के दरमियान पटना में आयुर्विज्ञान के छात्र रहे सुशील के अग्रज कवि डॉ. शैलेन्द्र त्रिपाठी ने कहा था , ‘सुशील के लौकिक जीवन का प्रमाण सामने है , बस अब कुछ अलौकिक हो जाए !’ हिन्दी पत्रकारिता का दुर्भाग्य है कि कुछ अलौकिक नहीं हुआ और एक ईमानदार , प्रतिभासम्पन्न पत्रकार हमारे बीच नहीं रहा । आज करीब दस बजे उसने आखिरी साँस ली।

 साथी , तेरे सपनों को हम मंजिल तक पहुंचायेंगे !

– अफ़लातून

 

 

  

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