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जिया रजा बनारस
Posted in Benaras, journalism, sushil tripathi, tagged chamchagiri, fraud, sandip, sushil on अक्टूबर 6, 2008| 6 Comments »
पत्रकार / कलाकार सुशील त्रिपाठी नहीं रहे
Posted in blogging, journalism, kabeer, sushil tripathi, tagged hindi journalism, hindustan, sushil, sushil tripathi on अक्टूबर 4, 2008| 12 Comments »
लोकसभा का १९७७ का आम चुनाव । जेपी ने कहा कि इस चुनाव में लोगों को तानाशाही और लोकतंत्र के बीच चुनाव करना है । जेपी की कल्पना की तरुणों की जमात – छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का उत्तर प्रदेश में भी गठन हो चुका था । कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए बनी जनता पार्टी से अलग थी – वाहिनी । ‘ डरो मत ! अभी हम जिन्दा हैं ‘ और ”जनता पार्टी को वोट जरूर दो लेकिन वोट देकर सो मत जाना ‘ – जैसे जेपी के मुँह से निकले सूत्रों को लोगों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी वाहिनी की थी । वाहिनी की बनारस की टीम ने प्रचार का एक नायाब तरीका सृजित किया – ‘पोस्टर चित्र प्रदर्शनी’। एक अत्यन्त प्रभावशाली माध्यम । सैंकड़ों की भीड़ प्रदर्शनी देखने उमड़ पड़ती थी । आँकड़ों सूक्तियों और कविताओं के साथ – साथ हर पोस्टर में प्रभावशाली चित्र होते हैं । निरंकुश तानाशाही के दो प्रमुख सत्ता केन्द्रों के चुनाव क्षेत्रों – रायबरेली और अमेठी में इस टीम ने यह प्रदर्शनी दिखाई । टीम का सबसे कम उम्र का किन्तु सबसे हूनरमन्द सदस्य था सुशील । कबीर और लोहिया का तेवर लिए पेन्टिंग का विद्यार्थी । टीम के अन्य सदस्य थे दृश्य कला संकाय में सुशील के सीनियर सन्तोष सिंह , ‘६७ के अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन से युवजन राजनीति में आए अशोक मिश्र और ‘शिक्षा में क्रान्ति’ के लिए जेपी के आवाहन पर विश्वविद्यालयी पढ़ाई छोड़ कर बिहार के सहरसा और मुजफ़्फ़रपुर जिलों के गाँवों में साल भर रहकर आए नचिकेता ।
रायबरेली – अमेठी से लौट कर इस टीम ने पूरे यक़ीन से बताया कि इन्दिरा गांधी और संजय गांधी भी चुनाव हार रहे हैं । जनता खुद कैसे नारे गढ़ती है इसका एक नमूना भी बताया । रामदेव नामक एक कांग्रेसी विधायक को घेर कर लोग उन दिनों कहते- ‘ जब कटत रहे कामदेव ,तब कहाँ रहें रामदेव ?’ सवाल का जवाब और आगे की कार्रवाई की सलाह अगली पंक्ति में स्पष्ट थी – ‘ अब , जब वोट माँगे रामदेव , तब पेड़ में ‘उनका’ बाँध देओ ।’ नारे में अलंकार !
‘ दिनमान ‘ में रघुवीर सहाय आए तो उन्होंने छोटे शहरों , कस्बों और देहात के तरुणों को पत्रकारिता की तालीम खुद दी । ‘सुशील को उनके हाथ से लिखे ख़त मिलते थे ‘ ‘शीर्षक कैसे चुनें’ जैसे विषयों पर । दिनमान में सुशील की रपट भी छपती थी और रेखाचित्र ( स्केच ) भी । सुशील से हम पूछते , ‘सड़क से चिपकी , विकृत-सी मनुष्य आकृति , क्यों ?’ अत्यन्त सहजता से किन्तु दर्द के साथ सुशील परिप्रश्न करते,‘क्या मानवता विकृत नहीं हुई ?’
सुशील छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के पहले जिला संयोजक बने । जनता पार्टी सत्ता में आ गई लेकिन सुशील के वरिष्ट साथी अरुण कुमार रिहा नहीं हुए । जनसंघी पृष्टभूमि के ओमप्रकाश सिंह मंत्री बने । ‘ बेशक सरकार हमारी है , दस्तूर पुराना जारी है ‘– अरुण कुमार की रिहाई के लिए हुए प्रदर्शन में यह नारा लगा । लाठियाँ लिए ढीली हाफ़ पैन्ट से निकली बूढ़ी टागों वाले संघियों ने नचिकेता के हाथ से कैमेरा छीन कर तोड़ दिया।
युवा रंगकर्मी कुमार विजय , युवा कवि अरविन्द चतुर्वेद और सुशील ने ‘समवेत’ की स्थापना की । बनारस शहर के सांस्कृतिक कर्मियों की लमही जाने की स्वस्थ परम्परा की शुरुआत ‘समवेत’ की पहल पर हुई ।
बतौर विश्वविद्यालय संवाददाता सुशील आज से जुड़े । हर सोमवार छपने वाली ‘विश्वविद्यालय की हलचल’ से सिर्फ़ हलचल नहीं मचती थी । विश्वविद्यालय के कर्मचारियों , अधिकारियों और शिक्षकों द्वारा ‘अवकाश यात्रा छूट ( Leave Travel Concession ) में व्यापक भ्रष्टाचार की खबर सुशील ने छापनी शुरु की । कार्रवाई का आदेश जारी करने के पूर्व तत्कालीन कुलसचिव ने खुद एल.टी.सी. की रकम लौटाई – यह भी खबर बनी ।
महामना मालवीय को देश के विभिन्न भागों में दान में सम्पत्तियां भी मिली थीं । शिमला में ‘हॉली डे होम’ हो , मुम्बई में मिला विशाल भवन हो अथवा बनारस शहर में मिली कई सम्पत्तियाँ । कुछ भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा इन्हें अपने सम्बन्धियों को औने-पौने दामों में बेचने की साजिश चल रही थी । इस पर अपने कॉलम में लगातार लिख कर सुशील ने इन्हें बचाया ।
भ्रष्टाचार से समझौता न करने स्वभाव के कारण सुशील इन मामलों को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से उठाते थे ।
प्रवासी पक्षियों के विवरण हों अथवा कला-शिल्प पर समीक्षा हो – सुशील का कलाकार खिल कर सामने आता था – प्रकृति प्रेम और सौन्दर्य बोध ले कर । सुशील पेन्टिंग और पत्रकारीय लेखन के अलावा दोहे भी लिखे । सधी हुई लय के साथ सुशील गाते भी थे ।
नौगढ़ स्थित गुफाओं के भित्ति चित्रों के बारे में करीब तीस साल पहले सुशील ने हमे बताया था और लिखा भी था । इस बार उन्हीं गुफाओं को देखने सुशील गए तो पाँव फिसल कर २० फुट नीचे गिरे । विश्वविद्यालय स्थित अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में रहे । उसके साथ गए हिन्दुस्तान अखबार के संदीप त्रिपाठी ने कल इन गुफाओं पर अपने ब्लॉग पर लिखा । बिना सुशील का जिक्र किए । अस्पताल में सुशील के भर्ती होने के बाद से यह सज्जन वहाँ दिखायी भी नहीं दिए ।
जिस अखबार में सप्ताह में चार दिन सम्पादक या उसके नात-रिश्तेदारों के ही लेख छपते हों, अखबार – मालिक की पत्नी के गुजरने पर सम्पादक द्वारा मालिक को लिखे पत्र के प्रत्युत्तर को प्रथम पेज की खबर माना जाता हो वहाँ सुशील की प्रतिभा और तजुर्बे से ज्यादा तरजीह चमचागिरी को मिलनी लाजमी है । कल चिट्ठे पर छपे इन गुफाओं के विवरण की रपट पर टिप्पणी कर हमने मांग की थी कि इस रपट में सुशील का जिक्र होना चाहिए था । उस चिट्ठेकार में इस टिप्पणी को अनुमोदित करने का माद्दा नहीं है । आज के अखबार वही रपट छपी है , सुशील का नाम उस अयोज्ञ लड़के की रपट के साथ बाई – लाइन में जोड़ दिया गया है ।
सुशील की खबर लेने रोज़ सैंकड़ों लोग अस्पताल आते थे । बिहार आन्दोलन के दरमियान पटना में आयुर्विज्ञान के छात्र रहे सुशील के अग्रज कवि डॉ. शैलेन्द्र त्रिपाठी ने कहा था , ‘सुशील के लौकिक जीवन का प्रमाण सामने है , बस अब कुछ अलौकिक हो जाए !’ हिन्दी पत्रकारिता का दुर्भाग्य है कि कुछ अलौकिक नहीं हुआ और एक ईमानदार , प्रतिभासम्पन्न पत्रकार हमारे बीच नहीं रहा । आज करीब दस बजे उसने आखिरी साँस ली।
साथी , तेरे सपनों को हम मंजिल तक पहुंचायेंगे !
– अफ़लातून