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Posts Tagged ‘lohia’

” गांधी – एक सख़्त पिता । जेपी – एक असहाय मां । विनोबा – एक पुण्यात्मा बड़ी बहन ।
लोहिया – गांव-दर-गांव भटकने वाला यायावर । अम्बेडकर – पक्षपाती हालात से नाराज होकर घर से बाहर रहने वाला बेटा ।
यह है हमारा हमारा कुटुंब । हम हैं इस परिवार की संतान। इसे और किस नजरिए से देखा जा सकता है ?”
– देवनूर महादेव , (प्रख्यात कन्नड़ साहित्यकार और अध्यक्ष , सर्वोदय कर्नाटक पक्ष)

देवनूर महादेव

अध्यक्ष ,सर्वोदय कर्नाटक पक्ष

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अब मैं ऐसे मुद्दे पर बोलना चाहता हूँ जिसका ताल्लुक आमतौर पर धर्माचार्यों से है लेकिन जब से वे ग़ैरज़रूरी और बेकार बातों में लिप्त हो गये हैं, इससे विरत हैं. जहाँ तक मेरा सवाल है, यह साफ़ कर दूँ कि मैं एक नास्तिक हूँ. किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो कि मैं ईश्वर पर विश्वास करने लगा हूँ. आज के और अतीत के भी भारत की जीवन-पद्धति, दुनिया के दूसरे देशों की ही तरह, लेकिन और बड़े पैमाने पर, किसी न किसी नदी से जुड़ी रही है. राजनीति की बजाय अगर मैं अध्यापन के पेशे में होता तो इस जुड़ाव की गहन जाँच करता. राम की अयोध्या सरयू के किनारे बसी थी. कुरु, मौर्य और गुप्त साम्राज्य गंगा के किनारों पर फले-फूले, मुग़ल और शौरसेनी रियासतें और राजधानियाँ यमुना के किनारों पर स्थित थीं. साल भर पानी की ज़रूरत एक वजह हो सकती है, लेकिन कुछ सांस्कृतिक वजहें भी हो सकती हैं. एक बार मैं महेश्वर नाम की जगह में था जहाँ कुछ समय के लिए अहल्या ने एक शक्तिशाली शासन स्थापित किया था. वहाँ ड्यूटी कर रहे संतरी ने यह पूछकर मुझे दंग कर दिया कि मैं किस नदी का हूँ. यह दिलचस्प सवाल था क्योंकि मेरी भाषा, मेरे शहर या मेरे क़स्बे के बारे में पूछताछ करने की बजाय उसने मुझसे मेरी नदी के बारे में पूछा. सभी बड़े साम्राज्य नदी-तटों पर बसते आए हैं, – चोल, पांड्य और पल्लव साम्राज्य क्रमशः कावेरी, व्यगीर और पालर नदियों के किनारों पर थे.

हमारे देश की कुल चालीस करोड़ की आबादी में से तक़रीबन एक या दो करोड़ लोग रोज़ाना नदियों में डुबकी लगाते हैं और पचास से साठ लाख लोग नदी का पानी पीते हैं. उनके दिल और दिमाग़ नदियों से जुड़े हुए हैं. लेकिन नदियाँ शहरों से गिरने वाले मल और अवजल से प्रदूषित हो गयी हैं. गंदा पानी ज़्यादातर फैक्ट्रियों का होता है और कानपुर में ज़्यादातर फैक्ट्रियां चमड़े की हैं जो पानी को अब और भी नुक़सानदेह बना रही हैं. फिर भी हज़ारों लोग यही पानी पीते हैं, इसी में नहाते हैं. साल भर पहले इस दिक़्क़त पर कानपुर में मैं बोला भी था.

क्या हमें नदियों के प्रदूषण के ख़िलाफ़ एक आंदोलन शुरू करना चाहिए? अगर ऐसा आंदोलन सफल हो जाय तो अकूत धन की बचत भी हो पायेगी. अवजल को शोधित करके गंगा या कावेरी में ही डाल देने की बजाय ड्रेन पाइपों के ज़रिये उन्हें नदी से दस-बीस मील दूर ले जाया जाय और मैदानों में छोड़ा जाय. इस जगह पर खाद बनाने की फैक्ट्री खोली जा सकती है. देखने में यह ख़र्चीला लगता है. लेकिन समूची दृष्टि को क्रांतिकारी तरीक़े से बदलना होगा. ख़र्च करोड़ों में होगा लेकिन सरकार पंचवर्षीय योजनाओं में २२०० करोड़ रूपये सालाना क्या नहीं ख़र्च कर दे रही है? मुमकिन है, कुछ अन्य परियोजनाओं के अमल को टालना पड़े. लेकिन ऐसी योजना को लागू करने के रास्ते में आने वाले अवरोधों को भी मैं जानता हूँ. हमारे वर्तमान शासक और भविष्य में शासक बनने के आकांक्षी जन नक़ली और सतही तौर- तरीक़ों से देश का यूरोपीयकरण कर डालने के बारे में सोचते हैं. और आज के शासक हैं कौन? वे एक लाख होंगे, या इससे भी कम, जो ज़रा-सी अंग्रेज़ी जानते हैं. वे जानते हैं कि छुरी-काँटे का इस्तेमाल कैसे किया जाता है और टाई और कोट कैसे पहनना चाहिए. उन्होंने एक ताक़तवर संसार बना लिया है और उनके नेता हैं पंडित नेहरू. श्री संपूर्णानंद भी उसी संसार का प्रतीक हैं, हालाँकि अपने कपड़े-लत्ते से वह यूरोपियन नहीं लगते लेकिन अगर श्रीयुत नेहरू को अमेरिका जाना हो तो वहाँ वह भी ऐसी ही शख्सियतों में गिने जायेंगे.

शहर बनारस में भगवान विश्वनाथ को लेकर आंदोलन चला है. अब उनका एक नया मंदिर भी बनाया जा रहा है. दरअसल यह आंदोलन भगवान विश्वनाथ के लिए था ही नहीं. संघर्ष तो ब्राह्मणों के देवता और चमारों के देवता के बीच था. हिन्दू मानस बेकार ही फालतू मामलों में उलझा रहता है. अगर सिर्फ़ करपात्री जी ने उस अंदाज़ में काम कर दिखाया होता जिसका संकेत मैंने किया है, तो समस्या सुलझ गयी होती. लेकिन करपात्री जी कौन सी दुनिया की नुमाइंदगी करते हैं. वे राजस्थान के धनकुबेरों और घनघोर सामंतों के प्रतिनिधि हैं. एक की बजाय दो विश्वनाथ मंदिर बनवा देने से कोई समाधान नहीं होगा. ज़रूरत पूरे देश की पुनर्रचना और गरीबी के उन्मूलन की है.

आज हमारी सेना के जवान कौन हैं? ये ग़रीब के बेटे हैं और वे लोग हैं जो जान देते हैं. ये वे हैं जो देहरादून और सैंडहर्स्ट के नक़ली माहौल में प्रशिक्षित अधिकारियों के हुक्म की तामील करते हैं. अफसर समृद्ध वर्गों के हैं. वे आधुनिक विश्व के नुमाइंदे हैं. वे क्यों इस देश के लाखों लोगों के लिए दिक हों? उनके पास भारतीय दिमाग़ है भी नहीं. अगर ऐसा होता तो नदियों की सफ़ाई की योजनाएँ आज बिल्कुल तैयार होतीं. मैं चाहता हूँ कि पार्टी से बाहर के लोग बैठकें करने, जुलूस निकालने और संगोष्ठियाँ आयोजित करके सरकार को नदी-प्रदूषण-निवारण परियोजनाओं को उठाने के लिए बाध्य करने की ख़ातिर सोशलिस्ट पार्टी से हाथ मिला लें. हमें ख़ुद भी इस संकल्प के साथ तैयार रहना होगा कि यदि तीन से छह महीने के भीतर अवजल के प्रवाह को मैदानों की ओर नहीं मोड़ा गया तो हम वर्तमान ड्रेनेज सिस्टम को तोड़ देंगे और इस तोड़फोड़ में किसी किस्म की हिंसा नहीं होगी.

कबीर ने कहा है:
माया महाठगनि मैं जानी
केशव की कमला बन बैठी,
शिव के भवन भवानी
पंडा की मूरत बन बैठी,
तीरथ में भई पानी

तीर्थ में क्या है? – सिर्फ़ पानी. तो लोगों को सरकार को डाँटना चाहिए, ‘तुम बेशर्म लोग, बंद करो यह मलिनता.’ मैं तो फिर भी नास्तिक हूँ. मेरे लिए सवाल तीर्थ का नहीं है, यह है कि हमारा देश तीस लाख लोगों का है कि चालीस करोड़ का.
***

अनुवाद : व्योमेश शुक्ल

{ १९५८ की फरवरी में बनारस में दिया गया भाषण
राममनोहर लोहिया की मशहूर किताब ‘इंटरवल ड्यूरिंग पॉलिटिक्स’, नवहिंद प्रकाशन, हैदराबाद, प्रथम संस्करण १९६५ में शामिल निबंध. साथ में दी गई तस्वीर गूगल से. }

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किसी आबादी के छोटे हिस्से की गणना (सैम्पल सर्वे ) और उस के आधार पर पूरी मूल आबादी के आँकड़ों के अनुमान लगाने के फायदों में प्रमुख पैसे और समय की बचत बताया जाता है । परन्तु जब पूरी आबादी की गणना यूँ भी हर दस साल पर होती है तब सिर्फ़ कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को मर्दुम शुमारी की प्रश्नावली में जोड़ लेना तो खर्चीला भी नहीं होगा । विद्वानों का एक तबका सोच – समझ कर सोचने – समझने की गलतियाँ करना चाहता है इसलिए पूरी आबादी में जातियों की गिनती की मुख़ालफ़त कर रहा है । भारत में जाति – प्रथा को समझने तथा उसको समाप्त करने की दिशा में कदम उठाने की बाबत डॉ. राममनोहर लोहिया ने अपनी पैनी मेधा से प्रकाश डाला । अपनी बातों को बल प्रदान करने के लिए लोहिया आँकड़ों और अनुमानों का जगह – जगह हवाला देते हैं । इन्हें पढ़ते हुए लगता है कि मुल्क के पैमाने पर काश इस प्रकार के आँकड़े उपलब्ध होते।

इस आलेख में लोहिया के ऐसे वैचारिक उद्धरण लिए जा रहे हैं जिनमें उन्होंनेआँकड़े या अनुमानों का हवाला दिया है :

* सारे देश के पैमाने पर अहीर , जिन्हें ग्वाला , गोप भी कहा जाता है , और चमार , जिन्हें महार भी कहा जाता है , सबसे ज्यादा संख्या की छोटी जातियाँ हैं । अहीर तो हैं शूद्र और चमार हैं हरिजन। हिन्दुस्तान की जाति प्रथा के वे वृहत्काय हैं , जैसे द्विजों में ब्राह्मण और क्षत्रीय । अहीर , चमार, ब्राह्मण और क्षत्रीय , हर एक २ से ३ करोड़ हैं । सब मिला कर ये हिन्दुस्तान की आबादी के करीब १० से १२ करोड़ हैं । फिर इनकी सीमा से हिन्दुस्तान की कुल आबादी के तीन चौथाई से कुछ कम बाहर ही रह जाते हैं । कोई भी आन्दोलन जो उनकी हैसियत और हालत को बदलता नहीं , उसे थोथा ही मानना चाहिए । इन चार वृहत्कायों की हैसियत और हालत के परिवर्तन में उन्हें ही बहुत दिलचस्पी हो सकती है पर पूरे समाज के लिए उनका कोई खास महत्व नहीं है ।

उत्तर हिन्दुस्तान के अहीरों और चमारों ने भी , शायद पर्याप्त जागरूक न रहते हुए , रेड्डियों और मराठों जैसे ही प्रयत्न किये हैं । उन्हें असफल होना ही था, पहले तो इसलिए उत्तर में द्विज बहुत संख्या में हैं और दूसरे इसलिए कि उत्तर की नीची जातियों के बीच संख्या में वे उतने शक्तिशाली नहीं हैं । इसके बावजूद कुछ दब कर प्रयत्न हो ही रहा है । कई मानी में जनतंत्र है संख्या का ही शासन । ऐसे देश में जहाँ समुदायों का संसर्ग जन्म और पुरानी परम्परा के आधार पर होता है , सबसे ज्यादा संख्या वाले समुदाय राजनैतिक और आर्थिक विशेषाधिकार प्राप्त कर ही लेते हैं । संसद और विधायिकाओं के लिए उन्हीं के बीच से उम्मीदवारों का चयन करने के लिए राजनीतिक दल उनके पीछे भागते फिरते हैं । और व्यापार और नौकरियों में अपने हिस्से के लिए ये ही सबसे ज्यादा शोर मचाते हैं । इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होते हैं । सैंकड़ों नीची जातियाँ जो संख्या में प्रत्येक कमजोर हैं, पर सब मिला आबादी का बहुत बड़ा तबका हैं ,निश्चल हो जाती हैं । जाति पर हमले का मतलब होना चाहिए सबकी उन्नति न कि सिर्फ किसी एक तबके की उन्नति । एक ही तबके की उन्नति से जातिप्रथा के अन्दर कुछ रिश्ते परिवर्तित होते हैं , किन्तु जातियों के आधार में कोई बदलाव नहीं आता ।

एक और मानी में भी किसी एक तबके की उन्नति घातक होती है । नीची जातियों के जो लोग ऊँची  जगहों पर पहुँच जाते हैंवे मौजूदा ऊँची जातियों में घुल मिल जाना चाहते हैं । इस प्रक्रिया में वे लाजमी तौर पर ऊँची जातियों के दुर्गुण सीख जाते हैं । ऊँची जगह पर पहुँचने के बाद , सभी जानते हैं कि नीची जाति के लोग कैसे अपनी औरतों को परदे में कर देते हैं जो कि उच्च जातियों नहीं होता , बल्कि बिचली उच्च जाति में ही होता है । इसके अलावा, ऊँची उठने वाली नीची जातियाँ द्विज की तरह जनेऊ पहनने लगती हैं ,जिससे वे अब तक वंचित रखे गये , लेकिन जिसे अब सच्ची ऊँची जाति उतारने लगी है । इस तरह की उन्नति से नीची जातियों के बीच कोई गरमी नहीं आती । जो उन्नत हो जाते हैं वे अपने ही समुदाय से अलग हो जाते हैं, अपने ही मूल नीचे समुदायों को गरमाने के बजाय , वे जिन जगहों पर पहुँचते हैं वहां की ही ऊंची जातियों का अंग बन जाने की कोशिश करते हैं । इस उन्नति को अच्छे गुण सीखने या योग्य बनने का टेक नहीं मिलता, बल्कि जाति भड़काने और लड़ाने का भिड़ाने का टेक मिलता है ।

……. औरत , शूद्र , हरिजन,मुसलमान और आदिवासी , समाज के इन ५ दबे हुए समुदायों को , उनकी योग्यता आज जैसी भी हो , उसका लिहाज किए बिना , उन्हें नेतृत्व के स्थानों पर बैठाना इस आन्दोलन का लक्ष्य होगा । योग्यता का प्रेक्षण भी ऐसा होता है कि वह ऊँची जाति के ही पक्ष में जाता है । इतिहास के हजारों बरसों ने जो किया उसे धर्मयुद्ध के द्वारा ही दूर किया जा सकता है । समाज के दबे हुए समुदायों में सभी औरतों को ,द्विज औरतों समेत जो कि उचित ही है , शामिल कर लेने पूरी आबादी में इनका अनुपात ९० प्रतिशत हो जाता है ।

….इस बात बार बार जोर डालना चाहिए कि नीची जातियों के सैंकड़ों , जिन पर अन्यथा ध्यान नहीं जा पाता, उन पर पूर्व नियोजित नीति द्वारा ध्यान देना चाहिए,बनिस्बत उन दो वृहत्काया वालों के जो किसी न किसी तरह ध्यान आकर्षित कर ही लेते हैं ।

…. हिन्दुस्तान की जनता को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं १. द्विज या जनेऊधारी , २. हरिजन या अछूत , और ३. शूद्र ।पहले की जनसंख्या ७ करोड़ के आसपास है, हरिजनों की ५ करोड़ और शूद्रों की १७ करोड़ ।

…द्विज लाख की चोरी करके भी उसे आदर्शवाद का जामा पहना सकता है , जबकि शूद्र अठन्नी-चवन्नी की चोरी में भी बुरी तरह पकड़ा जाता है ।

काफ़ी हाउस में बैठ कर बातें करने वालों में एक दिन मैं भी बैठा था जब किसी ने कहा कि काफ़ी के प्यालों पर होने वाली ऐसी बातचीत ने ही फ्रांस की क्रान्ति को जन्म दिया । मैं गुस्से में उबल पड़ा । हमारे बीच एक भी शूद्र नहीं था । हमारे बीच एक भी औरत न थी । हम सब ढीले ढाले , चुके हुए और निस्तेज लोग थे , कल के खाये चारे की जुगाली करते हुए ढोर की तरह ।

…. देश की सारी राजनीति में – कांग्रेसी , कम्युनिस्ट अथवा समाजवादी चाहे जानबूझ कर अथवा प्रम्परा के द्वारा राष्ट्रीय सहमति का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है , और वह यह कि शूद्र और औरत को , जो कि पूरी आबादी का के तीन चौथाई हैं, दबा कर और राजनीति से अलग रखो ।

जनगणना में जाति की गिनती और विधायिका में महिला आरक्षण की बहस में कितनी औरते और शूद्र शरीक हैं ?




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Wheel of History : Lohia ,Cover : Hussain

जाति प्रथा : लोहिया, चित्र - हुसैन

भारत विभाजन के अपराधी : ले. लोहिया , चित्र: हुसैन

उत्तराखण्ड की किसी वादी में हुसैन नैसर्गिक सौन्दर्य को अपनी पेन्टिंग में उकेर रहे थे । वहीं लोहिया ने उनसे कहा कि हिन्दुस्तान के दिमाग़ पर ऐतिहासिक लोगों से भी ज्यादा असर राम और कृष्ण और शिव का है । राम और कृष्ण तो इतिहास के लोग माने जाते हैं , हों या न हों , यह दूसरे दर्जे का सवाल है। लोहिया ने कहा ,’किसी भी देश की हँसी और सपने ऐसी महान किंवदंतियों में खुदे रहते हैं । हँसी और सपने , इन दो से और कोई चीज बड़ी दुनिया में हुआ नहीं करती है । जब कोई राष्ट्र हँसा करता है तो वह खुश होता है , उसका दिल चौड़ा होता है। और जब कोई राष्ट्र सपने देखता है , तो वह अपने आदर्शों में रंग भर कर किस्से बना लिया करता है ।”

हुसैन ने आठ साल लगा कर रामायण पर पेन्टिंग्स की सिरीज बनाई जिसकी प्रदर्शनी हैदराबाद शहर से सटे देहातों में साईकिल रिक्शों पर सजा कर दिखाई गई । प्रदर्शनी के पूर्व उन्होंने काशी के पंडितों से उनकी बारीकियों पर चर्चा की । यह छठे दशक के शुरुआत की बात है । किसी भी बड़े काम के पहले हुसैन गणेश आँकते हैं । रामायण सिरीज रचना के दौरान कुछ कट्टर मुसलमानों ने हुसैन से पूछा था कि वे इस्लाम की थीम पर क्यों नहीं बनाते ? हुसैन ने उनसे पूछा था कि क्या आप में उतनी सहनशीलता है?

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पिछले भाग : एक , दो

विष्णु ने मात्र  भारतीय शिल्पकारों को शिव के जैसा प्रभावित नहीं किया है । तो भी विष्णु के विशेषतापूर्ण कई शिल्प-रूप मालूम होते हैं । मुझे अक्सर लगता है कि विष्णु अपने वस्त्र आवरण के नीचे कुछ छिपा रहा है । हालाँकि वह छिपाना मानवी हित के लिए और और मानव के लोभ को मर्यादित करने हेतु एवं उसके व्यापक संरक्षण की खातिर हो सकता है । विष्णु बिलकुल आराम करते हुए लेटे हैं । जय-पराजय से होने वाले हर्ष विषाद की कक्षा लांघ गये हैं । लगता है अखंड निद्रा लेते हुए वह अपने कृपालय के नीचे रहने वाले विश्व की निगरानी कर रहा है । उदयगिरी का विष्णु का शिल्प मुझे सबसे ज्यादा पसंद है । उसमें दिखाया गया है कि विष्णु वराह का रूप धारण करके एक अलौकिक सुन्दर कुमारिका को ,साक्षात ,  पृथ्वी की मुक्तता कर रहा है । यह पृथ्वी ही विष्णु की पत्नी है । समुद्र उसका वसन और पर्वत , वक्षस्थल । यह वर्णन एक स्तोत्र में है ।

उदयगिरी , वराह अवतार - विष्णु

उदयगिरी , वराह अवतार - विष्णु

आश्चर्य लगता है कि भारतीय शिल्पकारों को राम का कुछ भी आकर्षण क्यों नहीं लगा और कृष्ण को भी उन्होंने अपने कलाविष्कार के विषय में स्थान क्यों नहीं दिया । शायद उन्होंने राम और कृष्ण की शिल्पाकृतियाँ बनाई भी होंगी । एक तो वे नष्ट हुई होंगी या अब तक अज्ञात रही होंगी । अब तक अस्तित्व में दिखाई देने वाला द्वारिका कृष्ण मन्दिर का बालकृष्ण चतुर और होशियार प्रतीत होता है ।

भारतीय शिल्पों के सौन्दर्य की खोज करते समय मुझे उन शिल्पों में प्रकट होने वाले भारतीय इतिहास का अधिकाधिक और बार-बार दर्शन होता गया । रोम के कोलिशियम मानस्तम्भ और कहिरा के पिरामिड्स या स्फिन्क्स जैसे अवशेष जिस तरह इतिहास का दर्शन कराते हैं वैसे ही अन्य पाषाण , ईंटें , धातुओं के टुकड़े वगैरह खास कर जिन पर कुछ खोदा गया है ऐसी चीजें इतिहास खोलकर बताती हैं । हालांकि उनके द्वारा मालूम होने वाला इतिहास प्रत्यक्ष घटित इतिहास होता है ।

ये इतिहास साधन कहीं केन्द्रीय जगह पर वस्तु संग्रहालय में रखे जाते हैं । अन्यत्र कहीं पर मूल रूप में प्रत्यक्ष होने वाली वस्तुओं का वे एक जगह रखे हुए नमूने मात्र होते हैं । अलग – अलग काल की सात दिल्लियों में ऐसे कई ऐतिहासिक पाषाण और धातु के नमूने देखने को मिलते हैं । भिन्न भिन्न सात काल खण्डों की उए सात या आठ दिल्लियाँ एक ही इलाके में बसी हुई हैं ।उनकी रचना का काल और पद्धतियों में एक तरह की विसंगति मालूम होती है । उनमें से हरेक दिल्ली में कुछ आसानी से ध्यान खींचने वाली विशेषताएं भी व्यक्त होती हैं । और उस वजह से ही सभी दिल्लियों की रचना का विशिष्ट काल भी ध्यान में आता है तथापि उनमें से ज्यादातर दिल्लियों की बनावट एक दूसरे जैसी दिखाई देती है । इन दिल्लियों में चार असाधरण सुन्दर वस्तुएं हैं । उनकी रचना कुछ हाले ही के काल की है । मैजिक लैंन्टन की मदद से दिखाई जाने वाली किसी छाया चित्र कथा की चित्र माला के समान मन पर जो छाप छूटती है वह आदमी के सहज भूलने की शक्ति की और भारत के गत हजारों वर्षों की नादानी की । बदकिस्मती से मैं अथेना कभी नहीं जा सका किन्तु मुझे लगता है कि अथेना के अवशेष अथेनियन एवं ग्रीक इतिहास के प्रतीक हैं ।हिन्दुस्तान का उल्टा है । यहाँ का इतिहास ही यहाँ के अवशेषों का चिन्ह हैं ।

अन्य देशो में ऐतिहासिक अवशेष और प्राचीन कला वस्तुओं की अपेक्षा लिखित इतिहास ज्यादा विपुल पैमाने पर मिला है । भारत में मात्र लिखित इतिहास की तुलना में प्राचीन कला वस्तु और अवशेष ज्यादा पैमाने पर मिलते हैं । मानवी विस्मृति  अपने को मिटा न पाये , अपनी कला की अभिव्यक्ति अधिक लम्बे समय तक टिकने वाले धार्मिक माध्यम से करना संभव हो  और स्त्री सुन्दरता एवं मानवी जीवन की खुशनुमा कृतियाँ  बढ़िया ढंग से चित्रित की जाए इस दृष्टि से भारतीय कलावंतों ने कोशिश की और उनके प्रयत्नों के कारण ही सही माने में भारतीय इतिहास के वे श्रेष्ठ उद्गाने बने । उनकी कलाकृतियों में केवल भारतीय इतिहास के प्रसंग नहीं चित्रित किए गए , तो भारतीय आत्मा की कथा चित्रित की हई है । प्रत्येक बदलने वाले युग के साथ भारतीय आत्मा ने अलग अलग  रूप धारण किया है ।

संपूर्ण इटली में अथवा पूरे इजिप्त में देखना असंभव ऐसी शिल्प कला खजुराहो , भुवनेश्वर , कोणारक , धारवाड़ भाग के एक एक शिल्प में दिखाई देती है । अजंता , वेरूल या चितुर के बारे में तो बोलना ही नहीं चाहिए । इस विशाल देश में जगह जगह ऐसे साठ से अधिक शिल्प फैले हैं । विविध मानवी समाजों द्वारा शिल्पकला और वास्तुकला में की  हुई प्रगति तोलने के लिए तराजू के एक पलड़े में भारतीय कला वस्तुएँ और दूसरे पलड़े में उर्वरित सारी दुनिया की कला वस्तुएँ रखो तो पलड़ा किस तरफ़ झुकेगा कहना मुश्किल है ।

भारतीय कला केन्द्र शौकीन यात्रियों के नियमित मार्ग पर नहीं हैं । ज्यादातर जगह शहरों से दूर हैं । महाबलीपुरम मद्रास से चालीस मील पर तो धारापुरी समुद्र मार्ग द्वारा बम्बई से लगभग १ घण्टे के रास्ते पर है । खजुराहो , अजंता , वेरुल , कोणारक नजदीक के रेल स्टेशन से इसी तरह चालीस मील पर है ।सारे कला केन्द्र बड़े शहरों से दूर हैं और यह स्वाभाविक भी है ।चूँकि भारतीय इतिहास की ’आत्मा’ माने परदेशियों की नजर के जिस पर लगातार आघात होते हैम , ऐसी वह एक नाजुक सुन्दरी है । इस वजह से ही आने जाने वालों की आकस्मिक नजर नहीं पहुंचेगी । इसलिए दूर और निर्जन जगह पर यह खूबसूरत स्त्री छिपी है ।

( जारी )

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भाग : एक

    मुझे इस प्रसंग में अमरीका के राष्ट्रीय नेताओं की चार मूर्तियों की याद आती है । वे प्रचंड हैं । एक दफ़ा अमरीका में हवाई जहाज से जाते समय उन पुतलों पर से मेरा हवाई जहाज उड़ा । मैंने मेरे हवाई जहाज चालक को फिर से उन मूर्तियों पर से हवाई जहाज लेने को कहा। इच्छा थी कि हो सका तो उन अखंड मूर्तियों की कला का सार जान लूँ । यह कहना संभव Dean_Franklin_-_06.04.03_Mount_Rushmore_Monument_(by-sa) है कि वास्तविक दृष्टि से वे मूर्तियाँ भारतीय मूर्तियों की अपेक्षा ज्यादा अच्छी हैं । वे मूर्तियाँ ग्रीक और रोमन शिल्प परम्परा को सम्मान पूर्वक आगे चला रही हैं । लेकिन मैं नहीं कह सकता कि उन मूर्तियों से कुछ संदेश मिलता है या नहीं । हालाँकि उन मूर्तियों की पृष्टभूमि की कथाएं ज्यादा वेधक पद्धति से चित्रांकित करने में उस शिल्प ने सफलता हासिल की है । और वे कथाएं ही एक महान संदेश हैं ।  मूर्तियाँ केवल चेहरों की हैं । मान लीजिए कि शरीर  का उर्वटित हिस्सा यदि बनाया जाता तो ज्यादा से ज्यादा लिंकन और वाशिंग्टन के आगे की ओर उठाए हुए पैरों में अविष्कृत जादू केवल प्रेक्षकों को महसूस होता । ऐसा भी कहना संभव है कि मुझे ही मूर्तियों का मतलब पूरी तरह से मालूम नहीं हुआ । जो कि जल्दी में देखने वालों को महान कृतियाँ अपना रहस्य कभी भी बता नहीं सकतीं । लेकिन मुझे वे अमरीकी मूर्तियाँ प्यारी लगीं । खूबसूरती रेखांकित करने में में व्यक्त हुई प्रतिभा और कारीगरी के कारण वे पुतले भारतीय कलाकृतियों से ज्यादा पसंद आये । भारतीय पुतलों में ऐसी सुन्दरता और ऐसी कारीगरी प्रतीत नहीं होती ।

    यद्यपि भारतीय मूर्तिकरण की एक अलग विशेषता है । मूर्ति में मानव की केवल शरीराकृति चित्रित करने पर भारतीय शिल्पाकृति चित्रित करने पर भारतीय शिल्प ज्यादा जोर नहीं देता । भारतीय शिल्प में तो उस व्यक्ति के जीवन और आशय को ज्यादा महत्व दिया गया है । उस व्यक्ति का एकाध भाव  अथवा सारे के सारे के भाव शिल्पांकित करने में भारतीय कलाकारों को समाधान नहीं मिलता तो जिस अमूर्त जीवन शक्ति के आधार से उस व्यक्ति को , उसकी पाषाण मूर्ति को या हम सभी को अस्तित्व उपलब्ध होता है वह जिंदापन , वह जीवन शक्ति भारतीय शिल्पों में संक्षिप्त रूप में चित्रित होने का अहसास होता है जिसको देखकर आदमी (मोहित) पागल होता है । शायद ऐसा लगेगा कि सभी भारतीय कलाकार बौद्ध व जैन पंथ के प्रभाव में चले गये और उन्हें हिंदू धर्म के बारे में आस्था नहीं रही । लेकिन ऐसा नहीं हुआ ।

    शिवशंकर पर अन्य किसी भी देवता की अपेक्षा भारतीय शिल्पकारों को ज्यादा प्रेम है । शिव के शांत , स्तब्ध व्यक्तित्व ने तत्ववेत्तओं को अधिक सर्वांगीण विचार करने की प्रेरणा दी । उसी तरह शिव के व्यक्तित्व ने शिल्पकारों को शिल्पकला का सम्पन्न रूप ज्यादा पैमाने पर दुनिया के सामने रखा । सातवीं सदी के और उसके बाद काल  के शिल्पों में अथवा बारहवीं सदी के और उसके बाद के काल में खजुराहो के शिल्प में शंकर पार्वती के शरीर को लपेटकर और वक्ष:स्थल के नीचे हाथ घेरकर बैठा हुआ है और पार्वती उसके बायीं गोदमें बैठी है । निहायत संतुष्ट अवस्था में वे दोनों बैठे दिखाई देते हैं । काल निश्चल खड़ा है । कालगति पर नियंत्रण रखनी की चाह कहीं भी दिखाई नहीं देती । क्षय अनन्त है । भविष्यकाल अपने पीछे दौड़े ऐसी उत्कंठा वर्तमान काल में नहीं दिखायी देती । भूतकाल को भी चिंता नहीं है ।  तत्काल स्वयंपूर्ण होती है और अपने अस्तित्व का औचित्य स्वयं ही बताती है । तत्काल कृति एक निस्तब्ध कृति है । अचर का चर कर्म । क्या आदमी अपने व्यवहार में तात्कालिकता का यह तत्व अमल में ला सकता है ? कहना मुश्किल है । शिल्पकार द्वारा खोदा गया शिव का सनातन व्यक्तित्व मात्र आदमी को उस दिशा की ओर गति दिखाता है । अगले क्षण के बारे में आदमी की उत्सुकता शायद पूरी तरह से कभी भी खत्म नहीं होगी । लेकिन वर्तमान काल में स्वयं को काफ़ी उलझाकर , उससे ज्यादा से ज्यादा फल प्राप्त करना उससे संभव हो सकता है।

    शिव के असीम व्यक्तित्व के कारण भारतीय शिल्पकारों को हिंदुओं का धर्म सम्बन्धी चिन्तन श्रेष्ठ और संपन्न रूप में और संक्षिप्त रीति से व्यक्त करना संभव हुआ । धारापुरी के आठवीं सदी के और नौवीं व सोलहवीं सदी के चितुर की गुफाओं में शिव की तीन विभिन्न रूप की मोहक मूर्तियाँ हैं । एक ध्यानमग्न दूसरी रौद्र और तीसरी लारयुक्त ।  शिल्पकारों ने शिव का एक भी रूप चित्रित करने से बहीं छोड़ा । तन्हाई में महान और प्रसिद्ध तांडवनृत्य शिव करता है ।   उस शिल्प में शिव की निश्चलता में चलता , और चलता में निश्चलता प्रत्यक्षकारक है । सिंह और भेड़ को एक जगह रखने जैसा बुद्धि का अगम्य चमत्कार उस मूर्ति में शिल्पित 3026465933_f75b1b8bd4किया है । आधे हिस्से में स्त्री और आधे हिस्से में पुरुष ,अर्धाँग शंकर वह अर्ध नारी नटेश्वर का रूप सर्वोच्च और सजीव जैसे सभी भेद मिटाने वाला सृजन लगता है ।

  

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तिहास के ग्रन्थों का कभी ना कभी नाश होना अटल है । यह जान कर ही शायद भारतीय जनता ने अनंत काल तक प्रचलन में रहने वाली  कथा कहानियों के माध्यम से इतिहास बनाया है। इतिहास को क्रोध आया । उसने बदला लिया और सबसे ज्यादा समय तक अभंग रहने वाले पाषाणों पर उसने अपनी आत्मा खोदकर रखी । भारतीय धर्म ने भी अपनी कथा पाषाणों पर ही चित्रित की है ।

भारतीयों का धर्म जैसे जैसे उत्कर्ष तक पहुंचने लगा वैसे वैसे उसका रूप अधिकाधिक सत्वहीन और चिंतनहीन बनता गया । पाषाण जैसी सबसे भारी चीज पर जब भारत का धर्म ज्यादा पैमाने पर खोदा जा रहा था , उसी समय चिंतन में खोखलापन बढ़ रहा था । दुनिया के किसी भी अन्य देश ने अपनी आत्मा के इतिहास को  और अपने इतिहास की आत्मा को भारत के समान पत्थर पर खोदकर लुभावनी शकल नहीं दी होगी । एक तरफ इतिहास और धर्म विषयक चिंतन में स्मिता और वहीं दूसरी तरफ धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं के काल्पनिक चित्रों में श्वास रोकने वाली लगभग चिरंतन सुन्दरता ।

भगवान बुद्ध व महावीर न जाने वास्तव में कैसे दिखाई देते थे । मगर उनकी मृत्यु के के करीबन ३ सौ साल बीत जाने के बाद जिन शिल्पकारों ने उनकी मूर्तियाँ खोदीं , उन्होंने उन मूर्तियों में महापुरुषों की शिक्षा का मर्म  इस तरह साकार किया है कि वे गोया सजीव प्रतीत होती हैं । कई तरह के रूपों में बुद्ध  और महावीर को मूर्तियों में चित्रित किया गया है । कहीं चिंतन मग्न तो कहीं करुणा निधि , कहीं अभय मुद्रा में तो कहीं विकारों पर विजय प्राप्त किये हुए । जिस तरह  हाथों और पैरों पर ठोंकी हुई कीलों की एक ही शकल में ईसा मसीह का स्वरूप दिखाई देता है वैसे बुद्ध और महावीर की मूर्तियों का नहीं । भारतीय शिल्पकारों ने उनका एक ही एक रूप  चित्रित करने का बन्धन नहीं स्वीकारा। अपनी इच्छा के अनुसार अपने आराध्य देवता का चित्र रेखांकित करने की आजादी युरोपीय चित्रकारों को होगी । लेकिन शिल्पकारों को नहीं होगी भारतीय शिल्पकार ही इस सम्बन्ध में पूर्णतया स्वतंत्र मालूम होते हैं ।

महावीरबुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ अनेक रूपों में होने पर भी उन सभी की आस्था व शिल्पशैली एक जैसी है । सभी मूर्तियाँ किसी एक्च ही शिल्पकार ने नहीं खोदीं हैं । कितने भी महान शिल्पकार के लिए यह असंभव था । पीढ़ी पीढियों के अथक परिश्रमों का वह फल है । तो भी बुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ एक जैसी दिखती हैं ऐसा शायद ही कोई कह सकता है ।

बुद्ध की प्रतिमा में बुद्ध निश्चिंत दिखाई देते हैं तो महावीर की मुद्रा एक तरह से तंग दिखाई देती है ।  दोनों की मूर्तियाँ देखने पर लगता है कि मानव को उपलब्ध होने वाली श्रेष्ठ विजय दोनों को प्राप्त हुई है । मगर विजीत बुद्ध मुद्रा पर निश्चिंतता है तो विजयी महावीर का चेहरा जो तंग है । इन धर्म प्रवर्तकों की सीख समझाने का जो काम बड़े बड़े ग्रन्थ और धर्म प्रबन्ध कर नहीं पाये , वह काम इन शिल्पकारों ने अपने धर्म पुरुषों की प्रतिमाएं खोदकर अत्यधिक संक्षिप्त लेकिन साफ साफ तय किया है ।

सारनाथ उसी तरह मथुरा , नालंदा , अजंता , वेरूळ के महान बुद्ध की मूर्ति के चेहरे पर सब जगह प्रसन्न विजेता का भाव मालूम होता है । श्रवण बेळगोळा में महावीर परम्परा के बाहुबली की एक बहुत ही प्रचंड मूर्ति है । जो कि दुनिया की सबसे प्रचंड मूर्ति है । विजयी बाहुबली की मुद्रा पर अन्यत्र के समान यहां भी आत्मनिग्रह प्रतीत होता है ।उस मुद्रा की तरह ही लगता है कि यह मुद्रा गोया हमें कहती है कि आदमी कभी भी स्वयं पर अति विजय नहीं पा सकता । मन के बैल को पकड़ने में सफलता मिल जाने के बाद भी उसे अनिर्बंध नहीं छोड़ना चाहिए । जैन धर्म और उसके अनुयायिओं की , विशेष रूप से जैन मुनियों कीकठोर व्रत साधना उस धर्म के कट्टर पंथ की एवं निरंतर दक्षता वृत्ति की साख है । बुद्ध का ऐसा नहीं है । बुद्ध मूर्ति देखने पर ऐसा लगता है कि विजय प्राप्ति के बाद भी विजय के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लगेगा ऐसी मनोदशा प्राप्त करना संभव है । यहाँ यह सवाल ही नहीं उपस्थित होता कि दोनों में से कौन सी प्रवृत्ति ठीक है । जो कि दोनों धर्म पंथों का आगे चलकर अध:पतन ही हुआ है । कौन अधिक अच्छा था यह सवाल भी अप्रस्तुत है । चूंकि कहा जा सकता है कि मानवीय दृष्टि से बुद्ध ज्यादा योग्य था  तो ऐसा भी कहना संभव है कि तार्किक दृष्टि से महावीर ज्यादा ठीक थे । मैं यहाँ केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि शिल्पकारों ने उन दोनों की विचार प्रणाली को उनकी शरीराकृतियों के और मुद्राओं के माध्यम के द्वारा उत्तम रीति से पाषाणांकित की है । 

बुद्ध

( जारी )

जारी( भाग २ )

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      बात मध्यप्रदेश की है, किन्तु कमोबेश पूरे देश पर लागू होती है। मध्यप्रदेश हाईस्कूल का परीक्षा परिणाम इस साल बहुत खराब रहा। मात्र 35 फीसदी विद्यार्थी ही पास हो सके। परिणाम निकलने के बाद प्रदेश के कई हिस्सों से छात्र-छात्राओं की आत्महत्याओं की खबरें आईं।
        इतने खराब परीक्षा परिणाम की विवेचना चल रही है। मंत्री एवं अफसरों ने कहा कि शिक्षकों के चुनाव में व्यस्त होने के कारण परीक्षा परिणाम बिगड़ा है। किसी ने कहा कि आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा खत्म कर देने से यह हुआ है। लेकिन सच तो यह है कि लगातार बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था का यह परिणाम है। सरकार खुद इसे लगातार बिगाड़ रही है।
        इस परीक्षा परिणाम में एक मार्के की बात यह है कि सबसे ज्यादा अंग्रेजी और गणित  इन दो विषयों में ही विद्यार्थी फेल हुए हैं। अंग्रेजी में 3 लाख 21 हजार और गणित में 2 लाख विद्यार्थी फेल हुए हैं। कुछ दिन पहले घोषित मध्यप्रदेश हायर सेकेण्डरी की परीक्षा में भी फेल विद्यार्थियों में ज्यादातर अंग्रेजी व गणित में ही अटके हैं। अमूमन यही किस्सा हर साल का और देश के हर प्रांत का है। अंग्रेजी और गणित विषय आम विद्यार्थियों के लिये आतंक का स्त्रोत बने हुए हैं।
        गणित का मामला थोड़ा अलग है। गणित के साथ समस्या यह है कि इसे रटा नहीं जा सकता। इसकी परीक्षा में नकल भी आसान नहीं है। शुरुआती कक्षाओं में गणित को ठीक से न पढ़ाने की वजह से बाद की कक्षाओं में गणित कुछ भी समझ पाना एवं याद करना बहुत मुश्किल होता है। गणित विषय की बेहतर पढ़ाई की व्यवस्था जरुरी है।
        लेकिन अंग्रेजी क्यों इस देश के बच्चों पर लादी गई है ? पूरी तरह विदेशी भाषा होने के कारण बच्चों के लिए यह बहुत बड़ा बोझ बनी हुई है। देश के कुछ मुट्ठी भर अभिजात्य परिवारों को छोड़ दें , जिनकी संख्या देश की आबादी के एक प्रतिशत से भी कम होगी, तो देश के लोगों के लिए अंग्रेजी एक अजनबी, विदेशी और बोझिल भाषा है। अपनी जिन्दगी में दिन-रात उनका काम भारतीय भाषाओं या उसकी स्थानीय बोलियों में चलता है। उनमें अंग्रेजी के कुछ शब्द जरुर प्रचलित हो गए हैं, लेकिन अंग्रेजी भाषा बोलना, लिखना या पढ़ना उनके  लिए काफी मुश्किल काम है। फिर भी अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रुप में सारे बच्चों पर थोपी जा रहा है। पहले माध्यमिक शालाओं में कक्षा 6 से इसकी पढ़ाई शुरु होती थी, अब लगभग सारी सरकारों ने इसे पहली कक्षा से अनिवार्य कर दिया है।
        अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रुप में भारत के सारे बच्चों को पढ़ाने के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं, जो सब खोखले और गलत हैं। यह कहा जाता है कि अंग्रेजी दुनिया भर में बोली जाती है। अंग्रेजी से हमारे लिए दुनिया के दरवाजे खुलते हैं। हमारे देश को आगे बढ़ना हैं, शोध कार्य करना है, वैज्ञानिक प्रगति करना है, व्यापार करना है, विदेशों में नौकरी पाना है, तो अंग्र्रेजी सीखना ही होगा। लेकिन यह सत्य नहीं है। अंग्रेजी का प्रचलन सिर्फ उन्हीं देशों में     है जो कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं और वहां भी आम लोग अंग्रेजी नहीं जानते हैं। दुनिया के बाकी देश अपनी-अपनी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और वहां जाने, उनके साथ संवाद करने और उनको समझने के लिए उनकी भाषा सीखने की जरुरत होगी। स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, रुसी, पु्र्तगाली, इटेलियन, डच, चीनी, जापानी, अरबी, फारसी, कोरियन आदि भी अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं हैं। यदि दुनिया के दरवाजे वास्तव में भारतीयों के लिए खोलने हैं तो इन भाषाओं को भी सीखना पड़ेगा।
        फिर अंतर्राष्ट्रीय जगत से तो बहुत थोड़े भारतीयों को काम पड़ता है। उच्च स्तरीय शोधकार्य करने वाले मुट्ठी भर लोग ही होते हैं। उसके लिए देश के सारे बच्चों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जाए ? उन्हें क्यों कुंठित किया जाए ? बार-बार फेल करके उनके आगे बढ़ने के रास्ते क्यों रोके जाए ? प्रतिवर्ष पूरे देश में विभिन्न कक्षाओं में अंग्रेजी में फेल होते बच्चों की संख्या जोड़ी जाए, तो यह करोड़ों में होगी। क्या यह स्वतंत्र भारत का बहुत बड़ा अन्याय नहीं है ? जिन्हें उच्च स्तरीय शोधका्र्य करना है या विदेश जाना है, वे जरुरत होने पर अंग्रेजी या कोई भी विदेशी भाषा का छ: महीने का कोर्स करके कामचलाऊ ज्ञान हासिल कर सकते हैं। दूसरों देशों के नागरिक ऐसा ही करते हैं। सिर्फ भारत जैसे चंद पूर्व गुलाम देशों में ही एक विदेशी भाषा पूरे देश में थोपी जाती है। सच कहें तो, दुनिया का कोई भी देश एक विदेशी भाषा में प्रशासन, शिक्षा, अनुसंधान आदि करके आगे नहीं बढ़ पाया है।
        कई अभिभावक सोचते हैं कि अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाकर वे उसे ऊपर तक पहुंचा सकेगें। ‘‘इंग्लिश मीडियम’’ का एक पागलपन इन दिनों चला है और हर जगह घटिया निजी स्कूलों के रुप में इंग्लिश मीडियम की कई दुकानें खुल गई हैं। इंग्लिश मीडियम का मतलब है कि बच्चों को अंग्रेजी सिर्फ एक विषय के रुप में नहीं पढ़ाना, बल्कि सारे विषय अंग्रेजी भाषा में पढ़ाना। यह बच्चों के साथ और बड़ा अन्याय होता है। अपनी मातृभाषा में अच्छे तरीके से और आसानी से जिस विषय को वे समझ सकते थे, उसे उन्हें एक विदेशी भाषा में पढ़ना पड़ता है। उनके ऊपर दोहरा बोझ आ जाता है। अक्सर वे भाषा में ही अटक जाते हैं, विषय को समझने का नंबर ही नहीं आता है। फिर वे रटने लगते हैं। लेकिन विदेशी भाषा में रटने की भी एक सीमा होती है। इसमें कुछ ही बच्चे सफल हो पाते हैं, बाकी बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए यह एक मृग-मरीचिका ही साबित होता है। देश के करोड़ों बच्चे अंग्रेजी के इस मरुस्थल में क्लान्त और हैरान भटकते रहते हैं, कोई-कोई दम भी तोड़ देते हैं।
        यह सही है कि आज भी देश का ऊपर का कामकाज अंग्रेजी में होता है। प्रशासन, न्यायपालिका, उच्च शिक्षा, उद्योग, व्यापार सबमें ऊपर जाने पर अंग्रेजी का वर्चस्व मिलता हैं। अंग्रेजी न जानने पर ऊपर पहुंचना और टिकना काफी मुश्किल होता है। लेकिन इसका इलाज यह नहीं है कि सारे बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाई जाए। यह एक अस्वाभाविक स्थिति है और गुलामी की विरासत है, इसे जल्दी से जल्दी बदलना चाहिए। देश के शासक वर्ग ने अंग्रेजी की दीवार को इसीलिए बनाकर रखा है कि देश के करोड़ो बच्चे आगे नहीं बढ़ पाए और उनकी संतानों का एकाधिकार बना रहे। अंग्रेजी को अनिवार्य रुप से स्कूलों में पढ़ाने से यह एकाधिकार
टूटता नहीं, बल्कि मजबूत होता है।  अभिजात्य वर्ग के बच्चों को तो अंग्रेजी विरासत में मिलती है। फर्राटे से अंग्रेजी न बोल पाने और न लिख पाने के कारण साधारण पृष्ठभूमि के बच्चे प्राय: हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। आधुनिक भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व न केवल भेदभाव, विशेषाधिकारों और यथास्थिति को बनाए रखने का बहुत बड़ा औजार है, बल्कि देश की प्रगति को रोकने का बहुत बड़ा कारण भी है। जिस देश के ज्यादातर बच्चे कुंठित एवं हीन भावना के शिकार होंगें, उनके ऊपर दोहरी शिक्षा का अन्यायपू्र्ण बोझ लदा रहेगा, वे ज्ञान-विज्ञान के विषयों को समझ ही नहीं पाएंगे और उनके आगे बढ़ने के रास्ते अवरुद्ध रहेगें, वह देश कैसे आगे बढ़ेगा।
        अंग्रेजी के वर्चस्व का दूसरा नुकसान यह भी होता है कि देशी परिस्थितियों के मुताबिक मौलिक सोच, स्वतंत्र चिन्तन व देशज शोध-अनुसंधान भी काफी हद तक नहीं हो पाता है। पूरा देश नकलचियों का देश बना रहता है और कई बार नकल में अकल भी नहीं लगाई जाती है।
        इसीलिए समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया ने आजाद भारत में सार्वजनिक जीवन से अंग्रेजी के वर्चस्व को हटाने का आह्वान किया था। डॉ. लोहिया की जन्म शताब्दी इस वर्ष मनाई जा रही है और यदि इस दिशा में हम कुछ कर सकें, तो यह उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी। यह वर्ष महात्मा गांधी की  अद्वितीय पुस्तक ‘‘हिन्द स्वराज’’ का भी शताब्दी वर्ष है। इसमें लिखे गांधी जी के इन शब्दों को भुलाकर हमने अपनी बहुत बड़ी क्षति की है –
        ‘‘ अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। ……………यह क्या कम जुल्म  की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। ………. यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है ?’’

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(लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय अध्यक्ष है।)

 

    सुनील
    ग्राम पोस्ट -केसला, वाया इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) 461 111
    फोन नं० – 09425040452

ई – मेल   sjpsunilATgmailDOTcom

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हिन्दू बनाम हिन्दू – डॉ. राममनोहर लोहिया के इस महत्वपूर्ण निबन्ध कल प्रस्तुत किया गया था ।  सम्पूर्ण निबन्ध पीडीएफ़ -रूप में यहाँ उपलब्ध है । सुधी पाठकों से प्रोत्साहन मिला तो और पॉडकास्ट भी प्रस्तुत किए जाएंगे ।

 

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[  जुलाई १९६७ में बनारस में हुए नेपाल के युवा समाजवादियों के सम्मेलन को डॉ. लोहिया ने यह सन्देश दिया था । प्रदीप गिरि , केदारनाथ श्रेष्ठ और नेमकान्त दाहल सम्मेलन के आयोजक थे । लोकतंत्र के करीब आने के बाद शायद यह सन्देश पहली बार प्रसारित हो रहा है ।

    नेपाल के बारे में डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने जो कुछ कहा – लिखा उनमें से यह आखिरी सन्देश है । नेपाल के जनसंघर्ष की अन्तर्पीड़ा को इस सन्देश की सदीच्छा शायद अब पूरी होगी ।  ]

 

   

   

    नेपाली युवजन का एक जगह इकट्ठा होना ही बड़ी बात है । जब राज्य स्वच्छन्द हो जाता है , उसे किसी भी तरह के समूह से डर लगने लगता है । मेरा अन्दाज है कि पशुपतिनाथ की भीड़ से भी वर्तमान राजा को डर लगता होगा । ऐसी अवस्था में जनतन्त्र और समाजवाद का उद्देश्य लेकर जो भीड़ बनारस में इकट्ठा हो रही है वह नेपाली इतिहास के लिए निर्णायक हो सकती है ।

   वर्तमान राजा के पिता ने जब वे राणाशाही के कैदी जैसे थे , मुझसे एक बार पुछवाया था कि क्या किसी जुलूस के नेतृत्व करने का उनका समय आ गया है । राणा और राजा की लड़ाई का आज जैसा जनतन्त्र विरोधी नतीजा निकलेगा ऐसा अन्दाज हम नहीं लगा सके थे । खैर , कोई बात नहीं , क्योंकि इतिहास बिल्कुल सीधी चाल नहीं चलता थोड़े बहुत उलट फेर या आगे पीछे ही करते हैं । एक बात मैं वर्तमान राजा को जरूर कहना चाहूँगा । बेचारे मानें न मानें , आज वे गद्दी पर बैठ हैं उसमें थोड़ा बहुत मेरा भी हाथ रहा है । चाहे इसी नाते मेरी वे सलाह मानें कि नेपाल के नागरिकों को भाषण और संगठन की आजादी मिले बाकी चीजें बाद में होती रहेंगी ,  उनकी और जनता की पारस्परिक रजामन्दी से ।

    नेपाल के युवजनों को मैं सलाह दूँगा कि जनतन्त्र और समाजवाद ऐसे देवता हैं कि जिन पर कभी – कभी बड़ी आहुति चढ़ानी पड़ती है । ऐसा कुछ, थोड़ा बहुत नेपाल के युवजनों ने किया है । लेकिन वह बहुत कम है । देखों योरोप के युवजनों को और उनकी संकल्प शक्त को । संकल्प चाहे छोटा करो लेकिन उसके हासिल करने में अपना तन मन न्योछावर करने की शक्त हासिल करो । मैं बहुत चाहता था आप लोगों के बीच आता लेकिन इसी संदेश से संतोष कर रहा हूँ ।

 डॉ. राममनोहर लोहिया  ,                        जुलाई १९६७ .

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