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Posts Tagged ‘सुनील’

  • सुनील
    भा रत में वन्यप्राणियों को बचाने की मुहिम जोर शोर से चल राही है। देश में राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों की संख्या बढ़ते-बढ़ते छ: सौ के करीब पहुंच चुकी है। इस मुहिम में वन्य प्राणियों के बीच शेर या बाघ को विशेष दर्जा दिया गया। यह माना गया है कि वन्य प्राणियों की भोजन श्रृंखला में चूंकि शेर सबसे ऊपर है, इसलिए शेरों की उपस्थिति एवं संख्या कुल मिलाकर उस इलाके की पारिस्थितिकी हालत का पैमाना होती है। अंतर्राष्ट्रीय चिंता एवं दबाव के बीच भारत में 1973 से प्रोजेक्ट टाइगर शुरू हुआ। वर्ष 2005 तक देश में कुल 28 टाइगर रिजर्व बनाए जा चुके थे। बाद में आठ नए संरक्षित क्षेत्रों के टाइगर रिजर्व का दर्जा मिला है। इनमें से सबसे ज्यादा 6 मध्यप्रदेश में हैं। कहते हैं कि देश के लगभग तीन हजार शेरों में से 246 से 364 के बीच मध्यप्रदेश में है। लेकिन इस टाइगर स्टेट में भी शेरों के जीवन पर संकट छाया है। मशहूर कान्हा टाइगर रिजर्व में भी नवंबर 2008 से मार्च 2009 के बीच के मात्र 5 महीनों में 6 शेरों की मौत की खबर है।
    आ जकल जंगल के राजा शेर की हवाई यात्राएं खबरों में छाई है। यह अलग बात है कि बेचारा शेर ये यात्राएं बेहोश हालत में करता है। पिछले वर्ष जून-जुलाई में राजस्थान के रणथंभौर रिजर्व से एक शेर और एक शेरनी के हेलीकॉप्टर से सारिस्का टाइगर रिजर्व में पहुंचाया गया था। स्थानांतरित शेरों में रेडियो कॉलर लगाए गए हैं और उपग्रहों की मदद से उन पर नजर रखी जा रही है। इस हाई-फाई कार्यक्रम पर डेढ़ करोड़ रुपया खर्च हुआ। शेरों को लाने के साथ सरिस्का टाइगर रिजर्व के गांव हटाए जा रहे हैं। एक गांव हटाया जा चुका है तथा दो और गांवों को बाहर बसाने के लिए केन्द्र सरकार ने 26 करोड़ रुपए की मंजूरी दी है।
    फिर ‘टाइगर स्टेट’ मध्यप्रदेश की बारी आई। बांधवगढ़ और कान्हा टाइगर रिंजर्वों से दो शेरनियों को इसी तरह हेलीकॉप्टर व ट्रक से पन्ना टाइगर रिंजर्व में छोड़ा गया। पहले बताया गया कि पन्ना टाइगर रिजर्व में नर शेर ही बचे हैं। इसलिए मादाओं की जरूरत है। लेकिन जब मादा पहुंची, तो इकलौता नर भी गायब हो गया। कई जानकारों ने शंका प्रकट की है कि शेरों के ये नाटकीय व महंगे स्थानांतरण कितने सफल होंगे। प्रकृति में पलने वाले शेर कोई कागंजी शेर नहीं हैं, जिन्हें एक जगह से हटाकर दूसरी जगह स्थापित कर दिया जाए। सवाल यह भी है कि सरिस्का या पन्न रिंजर्वों से शेर गायब कैसे हो गए? साढ़े तीन दशकों से चल रहे प्रोजेक्ट टाइगर में अरबों रुपए खर्च करने के बाद ऐसे हालात क्यों पैदा हो रहे हैं? 2004 का दिसम्बर महीना भारत के वन्य जीव संरक्षण कार्यक्रम और वन्य प्राणी प्रेमियों के लिए एक बड़ा झटका लेकर आया था। पता चला कि राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिजर्व में एक भी शेर नहीं है। इसी वर्ष पहले वहां 16 से 18 शेर होने का दावा किया गया था। इसके पहले सरिस्का में 26-27 शेर बताए जा रहे थे। लगता है शेरों की गिनती काफी हद तक फर्जी थी।
    सरिस्का के इस भंडाभोड़ ने देश के वन्य जीवन संरक्षण के पूरे ढांचे को झकझोर दिया। प्रधानमंत्री ने सरिस्का में सीबीआई जांच का आदेश दिया। भारत के शेर संरक्षण के कार्यक्रम का मूल्यांकन करने और सुझाव देने के लिए एक टास्क फोर्स प्रसिध्द पर्यावरणविद् सुनीता नारायण की अध्यक्षता में बनाई गई। इस टास्क फोर्स ने वर्ष 2005 में ही एक बहुमूल्य रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। लेकिन हालात नहीं बदले। इसके तीन वर्ष बाद मध्यप्रदेश पन्ना टाइगर रिजर्व का घपला सामने आया है। 542 वर्ग किमी में फैले पन्न टाइगर रिजर्व में वर्ष 2008 की गणना में 24 शेर होने का दावा किया गया था। वर्ष 2002 में 31 की संख्या बताई गई थी। अचानक वे गायब हो गए हैं और वहां शेरों को आबाद करने के लिए शेर आयात करना पड़ रहा है। हालांकि एक शोधकर्ता रघु चुंडावत ने 2005 में ही वहां शेरों की संख्या पर सवाल उठाया था। जवाब में इस शोधकर्ता को पन्ना टाइगर रिंजर्व के अधिकारियों ने काफी परेशान किया था और उनके शोध में रूकावटें पैदा की थीं। केंद्र सरकार ने अब पन्न के मामले के भी जांच बिठाई है। इसी प्रकार एक घपला मध्यप्रदेश के मूनो अभ्यारण्य में हुआ है। एशियाई सिंह (बब्बर शेर) सिर्फ गुजरात के गिर अभ्यारण्य में ही बचे हैं, किंतु वहां उनकी संख्या ंज्यादा हो गई है। इसलिए इन्हें कूनो में रखने की योजना बनी। वहां के सहारिया आदिवासियों के 24 गांवों को 1999-2001 के दरम्यान हटाकर बाहर बसाया गया। उनकी हालत अब बहुत खराब है। लेकिन उधर गुजरात सरकार के इंकार कर देने से सिंह भी नहीं आ पाए हैं।
    भारत में वन्यप्राणियों को बचाने की मुहिम जोर शोर से चल राही है। देश में राष्ट्रीय उद्यानों और अभ्यारण्यों की संख्या बढ़ते-बढ़ते छ: सौ के करीब पहुंच चुकी है। इस मुहिम में वन्य प्राणियों के बीच शेर या बाघ को विशेष दर्जा दिया गया। यह माना गया है कि वन्य प्राणियों की भोजन श्रृंखला में चूंकि शेर सबसे ऊपर है, इसलिए शेरों की उपस्थिति एवं संख्या कुल मिलाकर उस इलाके की पारिस्थितिकी हालत का पैमाना होती है। अंतर्राष्ट्रीय चिंता एवं दबाव के बीच भारत में 1973 से प्रोजेक्ट टाइगर शुरू हुआ। वर्ष 2005 तक देश में कुल 28 टाइगर रिजर्व बनाए जा चुके थे। बाद में आठ नए संरक्षित क्षेत्रों के टाइगर रिजर्व का दर्जा मिला है। इनमें से सबसे ज्यादा 6 मध्यप्रदेश में हैं। कहते हैं कि देश के लगभग तीन हजार शेरों में से 246 से 364 के बीच मध्यप्रदेश में है। लेकिन इस टाइगर स्टेट में भी शेरों के जीवन पर संकट छाया है। मशहूर कान्हा टाइगर रिजर्व में भी नवंबर 2008 से मार्च 2009 के बीच के मात्र 5 महीनों में 6 शेरों की मौत की खबर है।
    आम तौर पर ऐसे संकटों के जवाब में सरकार, वन विभाग, वन्य जीव प्रेमियों और मीडिया जगत की प्रतिक्रिया स्टाफ, सुरक्षा और धनराशि बढ़ाने की मांग के रूप में होती है। किंतु मात्र ज्यादा नाकेदारों, ज्यादा बंदूकों और ज्यादा बजट से यह संकट हल नहीं होने वाला है। दरअसल टाइगर टास्क फोर्स ने अपने विश्लेषण में बताया है कि सरिस्का और पन्ना दोनों टाइगर रिजर्व ऐसे हैं, जहां देश के अन्य टाइगर रिजर्वों से काफी ज्यादा पैसा व स्टाफ लगाया गया है। धनराशि और स्टाफ के हिसाब से वे देश के सर्वोच्च पांच टाइगर रिजर्वों में हैं। पन्ना और सरिस्का टाइगर रिजर्व पर अभी तक क्रमश: 20 करोड़ और 25 करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च किए जा चुके हैं। यह वन विभाग के सामान्य बजट तथा कर्मचारियों के वेतन व भत्तों के अतिरिक्त हैं। यदि इतना खर्च करने के बाद भी वहां शेर गायब होते जाते हैं, तो यह इस गरीब देश के बहुमूल्य संसाधनों की बरबादी है। इसे शेर घोटाला कहा जा सकता है। वन विभाग की एक दूसरी प्रतिक्रिया स्थानीय गांववासियों के मत्थे दोष मढ़ने की होती है। यह कहा जाता है कि ये गांव वाले शिकार करते हैं या शिकारियों की मदद करते हैं। उनकी चराई, वनोपज संग्रह, निस्तार और उपस्थिति मात्र से जंगल नष्ट होता है, और शेरों के प्राकृतवास में व्यवधान पैदा होता है। इस समस्या का समाधान स्थानीय गांववासियों के ऊपर कई तरह के प्रतिबंध लगाने तथा गांवों के विस्थापन में खोजा जाता है। किंतु न तो अभी तक संरक्षित क्षेत्रों से गांव हटाने का पूरा काम हो पाया है और न गांववासियों के वन उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाना संभव हो पाया है। दरअसल जंगल में रहने वाले आदिवासियों और अन्य गांववासियों की जिंदगी व रोजी-रोटी पूरी तरह जंगल पर आधारित है। इसलिए ये प्रतिबंध और विस्थापन न तो व्यावहारिक हैं और न वांछनीय। इस चक्कर में यह जरूर हो गया है कि वन विभाग और स्थानीय समुदाय के बीच स्थाई रूप से झगड़ा खड़ा हो गया है। वन्य जीवन संरक्षण और शेर बचाने के प्रयासों की नाकामी के पीछे यह एक बड़ा कारण है।
    टाइगर टास्क फोर्स की रिपोर्ट में बताया है कि देश के 600 आरक्षित क्षेत्रों में करीब 40 लाख लोग रहते हैं, जिनमें बड़ी संख्या आदिवासियों की है। देश के 28 टाइगर रिजर्वों में 1487 गांव हैं, जिनमें करीब 4 लाख लोग रहते हैं। ‘सरिस्का’ में 27 गांव है और ‘पन्ना’ में 45 गांव है। इतने सालों के बाद भी इनमें चार-पांच गांवों को ही हटाकर दूसरी जगह बसाया जा सका है। गांव को दूसरी जगह बसाना व समुचित पुनर्वास करना भी आसान नहीं है। लोगों की जिंदगी बरबाद हो जाती है। फिर सवाल पैसे का भी है। सारे गांव के पुनर्वास में अरबों-खरबों रुपयों की जरूरत होगी। जिस दर से अभी गांवों को बाहर बसाया जा रहा है, देश के सारे आरक्षित क्षेत्रों को गांवमुक्त बनाने में सौ दो सौ साल लग जाएंगे। क्या तब तक देश के शेर व अन्य वन्य प्राणी सुरक्षित नहीं हो पाएंगे?
    दरअसल भारत के वन्य जीव संरक्षकों की बुनियादी दृष्टिकोण इस संकट की जड़ में है। वे यह भूल गए कि जंगल में सिर्फ शेर, हाथी, गैंडे या हिरन ही नहीं रहते है बल्कि मनुष्य भी रहते हैं। भारत के आदिवासियों के बहुत सारे गांव घने जंगलों के बीच ही हैं। जंगल उनकी भी धरोहर है और उनका जीवन भी जंगल पर उतना ही आश्रित है। भारत के नक्शे पर आदिवासी इलाके और जंगल वाले इलाके लगभग एक ही हैं। ये ही इलाके देश के सबसे गरीब इलाके भी हैं। इन गरीब आदिवासियों और अन्य वनवासियों से उनका एकमात्र सहारा जंगल छीन लेना आजाद भारत के बड़े अमानवीय कृत्यों और अन्यायों में से एक है। इस दृष्टिदोष के कारण भारत के वन्य जीव संरक्षण के कानूनों, नियमों और योजनाओं में वनवासियों के जरूरतों व अस्तित्व की कोई जगह नहीं रखी गई है, बल्कि उसे गैर कानूनी बना दिया गया है। नतीजा यह हुआ है कि देश के सारे आरक्षित क्षेत्रों में वन विभाग और ग्रामवासियों के बीच तनाव एवं संघर्ष की स्थिति है। विभाग की जो ऊर्जा और संसाधन वास्तविक संरक्षण कार्य में लगने चाहिए, वे स्थानीय लोगों के खिलाफ प्रतिबंधों को लागू करने और उन्हें दूसरी जगह बसाने की तैयारी में लग रहे हैं।
    विडंबना यह है कि देश के किसी भी आरक्षित क्षेत्र में इस बात का कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है कि वहां रहने वाले गांववासियों की चराई, वनोपज संग्रह, निस्तार, खेती या जंगल के वन्य उपयोग से वहां के वन्य प्राणियों को क्या एवं कितनी दिक्कत है? दोनों साथ-साथ रह सकते हैं या नहीं? ग्रामीणों की उपस्थिति से वन्य जीवन को अनिवार्य रूप से नुकसान होता है, यह देश के वन्य जीव संरक्षण प्रतिष्ठान की एक अंधविश्वास है, जिसके कारण समस्या का सही निदान नहीं हो पा रहा है। यह जरूरी नहीं है वन्य जीव तथा ग्रामवासियों के हितों में अनिवार्य रूप से टकराव हो। कुछ साल पहले एक अध्ययन में पता लगा कि राजस्थान के भरतपुर पक्षी अभ्यारण्य में वहां चरने वाली भैसों से पक्षियों को आकर्षित करने और भोजन में मदद मिलती है। लेकिन वहां भैंसों की चराई रोकने के लिए अभ्यारण्य के स्टाफ द्वारा चरवाहों पर गोली चलाने तक की घटनाएं हो चुकी हैं। जंगल में आग नियंत्रण में भी गांववासियों की बड़ी भूमिका है। न केवल वे आग बुझाने की मदद करते हैं, बल्कि उनके पालतू पशुओं की चराई से जंगल की घास व झाड़ियों की वृध्दि नियंत्रित रहती है। यदि जंगल क्षेत्र से गांवों को हटाकर चराई पूरी तरह रोक दी गई, तो घास व झाड़ियां इतनी बढ़ जाएंगी कि उनमें आग लगने पर उसे किसी हालत में काबू करना संभव नहीं होगा। ऑस्टे्रलिया और अमरीका में पिछले कुछ समय में जंगलों में भीषण आग की घटनाएं हमारे लिए एक सबक है। हेलीकॉप्टरों और अनेक फायर ब्रिगेडों के बावजूद इन आग पर काबू न पाया जा सका। भारत में भी जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। यदि ग्रामवासियों को बाहर करने की अंधी व आत्मघाती नीति चलती रही, तो भारत में भी ऐसी घटनाएं हो सकती हैं।
    सच तो यह है कि भारत के जंगलों और जंगली जानवरों का विनाश वहां रहने वाले आदिवासियों के कारण नहीं हुआ है। यदि ऐसा होता, तो काफी पहले जंगल और शेर खत्म हो जाने चाहिए थे। दरअसल, जंगल, जंगली जानवरों और आदिवासियों का तो सह-अस्तित्व रहा है। वनों और वन्य प्राणियों के विनाश का असली कारण तो आधुनिक विकास है, जो पिछले दो सौ सालों में जंगलों को निगलता गया है। राजाओं, नवाबों व अंग्रेंज अफसरों द्वारा जानवरों का शिकार भी एक कारण रहा है। सुनीता नारायण की अध्यक्षता वाले टाइगर टास्क फोर्स ने वन्य प्राणी संरक्षण की इस जन विरोधीनीति की खामी को पहचाना है। वनों में एवं उनके आसपास रहने वाले समुदायों की सक्रिय भागीदारी के बगैर वन्य प्राणी संरक्षण की कोई योजना सफल नहीं हो सकती है, इसकी चेतावनी उसने दी है। इसके लिए उनके हितों, अधिकारों और अस्तित्व को भी सुनिश्चित करना होगा। टास्क फोर्स ने इस बात को सूत्र रूप में कहा है- ‘शेरों का संरक्षण उन जंगलों के संरक्षण से अभिन्न रूप से जुड़ा है जहां वे रहते हैं तथा जंगलों का संरक्षण अभिन्न रूप से जंगल में रहने वाले लोगों की जिंदगियों से जुड़ा है।’ लेकिन लगता है कि सरकार में बैठे वन्य प्राणी संरक्षण के पुरोधाओं ने टाइगर टास्क फोर्स की इस समझदारी पर कोई ध्यान नहीं दिया है, और उसका ढर्रा एवं रवैया नहीं बदला है। इसकी एक झांकी 2007 के अंतिम दिनों में मिली, जब ताबड़तोड़ ढंग से देश के टाइगर रिजर्वों में कोर क्षेत्र या ‘संवेदनशील शेर आवास’ घोषित किए गए। कानून की जरूरत के मुताबिक विशेषज्ञ समिति बनाने से लेकर उसकी रिपोर्ट तैयार होने और राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशन तक की कार्रवाईयां एक महीने में पूरी कर ली गई। मध्यप्रदेश की विशेषज्ञ समिति ने तो टाइगर रिजर्वों का दौरा करने या गांववासियों या अन्य व्यक्तियों से बात करने की भी जरूरत नहीं समझी, और मात्र भोपाल में एक बैठक करके आठ दिन के अंदर अपनी सिफारिशें दे दीं। कानून की भावना का मजाक बनाते हुए यह गजब की हड़बड़ी इसलिए की गई, क्योंकि 1 जनवरी 2008 से देश में वन अधिकार कानून लागू हो रहा था। टाइगर रिजर्वों में रहने वाले ग्रामवासियों को अधिकार न मिल पाए, इसलिए अचानक वन विभाग इतना मुस्तैद हो गया था। यह कदम टकराव को बढ़ाने का ही काम करेगा।

 

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खबर है कि जापान के वैज्ञानिक एक ऐसे रोबोट के विकास में लगे है, जो बूढ़े  लोगो की उसी तरह मदद व सेवा करेगा जैसे एक इंसान करता है। वहाँ की बढ़ती हुई आबादी के लिए इसे वरदान बताया जा रहा है। विज्ञान और तकनालाजी के आधुनिक चमत्कारों की श्रृंखला में यह एक और कड़ी जुड़ने वाली है। क्या सचमुच यह वरदान है? क्या फिर आधुनिक जीवन और आधुनिक सभ्यता की एक और विडंबना? क्या इससे जापान के बूढ़े लोगों की समस्याएं हल हो सकेगी? वृद्धावस्था में अपने नजदीकी परिजनों द्वारा देखभाल, स्नेह व सामीप्य की जो जरुरत होती है, क्या वह पूरी हो सकेगी? क्या उनका अकेलापन व बैगानापन दूर हो सकेगा? क्या एक मशीन इंसान की जगह ले सकेगी ? इन सवालों को लेकर एक बहस छिड़ गई है ? जापान और तमाम संपन्न देशों में यह सचमुच एक संकट है। नए जमाने में दंपत्तियों द्वारा कम बच्चे पैदा करने और जन्म दर कम होने से वहाँ की आबादी में बुजुर्गों का अनुपात बढ़ता जा रहा है, लेकिन उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। बढ़ी तादाद में ये बुजुर्ग अब अकेले रहने को मजबूर हैं या फिर उन्हें वृद्धाश्रमों में भेज दिया जाता है। वहां नर्सें व अन्य वैतनिक कर्मचारी उनकी देखभाल करते है। उनके परिजन बीच-बीच में फोन कर लेते हैं। और कभी कभी जन्मदिन या त्योहारों पर गुलदस्ता  लेकर उनसे मिलने चले आते हैं। इन बूढ़ों की जिदंगी घोर एकाकीपन, खालीपन व बोरियत से भरी रहती है। उनके दिन काटे नहीं कटते। इधर मंदी व आर्थिक संकट के कारण ये वृद्धाश्रम भी कई लोगों की पहुंच से बाहर हो रहेहैं। इन देशों में श्रम महंगा होने के कारण निजी नौकर रखना भी आसान नहीं है। इसलिए रोबोट जैसे समाधान खोजे जा रहे हैं, हालांकि यह रोबोट भी काफी महंगा होगा और वहां के साधारण लोगों की हैसियत से बाहर होगा। नार्वे-स्वीडन में पिछले कुछ समय से बुजुर्गों को स्पेन के वृद्धाश्रमों में भेजने की प्रवृति शुरु हुई है, क्योंकि वहां श्रम अपेक्षाकृत सस्ता होने के कारण कम खर्च आता है। याने एक तरह से वृद्धों की देखभाल की भी आउटसोर्सिंग का तरीका पूंजीवादी वैश्वीकरण ने निकाल लिया है।
कुछ साल पहले फ्रांस में एकाएक ज्यादा गर्मी पड़ी, तो वहां के कई बूढ़े लोग अपने फ्लेटों में मृत पाए गए। उनके पास कोई नहीं था, जो उनको सम्भालता या अस्पताल लेकर जाता । कुल मिलाकर , आधुनिक समाज में बूढ़े एक बोझ व बुढ़ापा एक अभिशाप बनता जा रहा है। आधुनिक जीवन का यह संकट अमीर देशों तक सीमित नहीं है। यह भारत जैसे देशों में भी तेजी से प्रकट हो रहा है। संयुक्त परिवार टूटने, बच्चों की संख्या कम होने तथा नौकरियों के लिए दूर चले जाने से यहां भी बूढ़े लोग तेजी से  अकेले  व बेसहारा होते जा रहे है। खास तौर पर मध्यम व उच्च वर्ग में यह संकट ज्यादा गंभीर है। बच्चे तो  उच्च शिक्षा प्राप्त  करके नौकरियों  में दूर महानगरों में या विदेश में चले जाते है, जिनकी सफलता की फख्र से चर्चा भी मां/बाप करते हैं। किंतु बच्चों की यह सफलता उनके बुढ़ापे की विफलता बन जाती है। बहुधा जिस बेटे को बचपन में फिसड्डी, कमजोर या नालायक माना गया था, वही खेती या छोटा-मोटा धंधा करता हुआ  बुुढ़ापे का सहारा बनता है। पहले नौकरीपेशा लोगों के लिए पेंशन व भविष्य निधि से कम से कम बुढ़ापे में आर्थिक सुरक्षा रहती थी। किंतु  अब नवउदारवादी व्यवस्था में ठेके पर नौकरियों के प्रचलन से ये प्रावधान भी खत्म हो रहे है। इस बजट में आयकर की छूट के लिए आयू 65 से घटाकर 60 वर्ष करने से मध्यमवर्गीय वृद्धों कों कुछ राहत मिलेगी। किंतु 80 वर्ष के उपर के वृद्धों के लिए छूट सीमा 5 लाख रु. करना एक चालाकी है। आखिर देश मे कितने बुजुर्ग 80 से ऊपर के हांेगे जिनकी आय 5 लाख रु. तक होगी ? गरीब वृद्धों  के लिए वृद्धावस्था पेंशन की राशि नए बजट में बढ़ाकर 400 रु. प्रतिमाह की गई है, किंतु यह भी महंगाई के इस जमाने में ऊंट के मुहं में जीरे के समान है। भारत में वृद्धाश्रमों का अभी ज्यादा प्रचलन नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह मुसीबत महज बूढ़ों की है। नगरों में रहने वाले जिन परिवारों में महिलाएं काम पर जाती हैं,  वहां छोटे बच्चों की देखरेख एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। बार-बार आजमाए जाते नौकर-नौकरानी भी इस समस्या को पूरी तरह से हल नहीं कर पा रहे हैं। इससे समझ में आता है कि पुराने संयुक्त परिवारों में बच्चे और बूढ़े एक दूसरे के पूरक थे। बच्चों की देखरख के रुप में बुजुर्गों के पास भी काम व दायित्व होता था और बच्चों को भी उनकी छत्रछाया में देखभाल, प्यार, शिक्षा व संस्कार मिलते थे। वयस्कों को भी बच्चों की जिम्मेदारी से कुछ फुर्सत, सलाह, मार्गदर्शन व बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ मिल जाता था। मिंया-बीबी के झगड़े भी उनकी मौजूदगी में नियंत्रित रहते थे और विस्फोटक रुप धारण नहीं करते थे। संयुक्त  परिवार में बचपन से सामंजस्य बिठाने, गम खाने, धीरज रखने व बुजुर्गों का आदर करने का प्रशिक्षण होता था। आज इसके अभाव में नई पीढ़ी में उच्छृंखलता, व्यक्तिवाद व स्वार्थीपन बढ़ रहा है। विकलांगों , विधवाओं, परित्यक्ताओं , बूढ़ों  और अविवाहितों  के लिए भी ये परिवार एक तरह की सुरक्षा प्रदान करते थे, जिसकी भरपाई वृद्धाश्रमों या सामाजिक सुरक्षा की सरकारी  योजनाओं से संभव नहीं है। यदि कोई भाई कमाता नहीं है या कमाने में कमजोर है, सन्यांसी बन गया या किसी मुहिम का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गया, तो भी संयुक्त परिवार में उसके बच्चों का लालन-पालन हो जाता था।
संयुक्त परिवार में सब कुछ अच्छा था, ऐसा नही है। छूआछूत, परदा, बेटियों के साथ भेदभाव जैसी रुढ़ियां व प्रतिबंध उनमें हावी रहते थे और उनको तोड़ने में काफी ताकत की जरुरत होती थी। आजादख्याल लोग उनमें घुटन महसूस करते थे। सबसे ज्यादा नाइंसाफी बहुओं के साथ होती थी। सामंजस्य बिठाने का पूरा बोझ उन पर डाल दिया जाता था। सास-बहू के टकराव तो बहुचर्चित है, जो अब आधुनिक भोग संस्कृति व लालच के साथ मिलकर बहुओं को जलाने जैसी वीभत्स प्रवृतियांे का भी रुप ले रहे हैं। कुछ नारीवादी व अराजकतावादी कह सकते हैं कि संयुक्त परिवार की संस्था पितृसत्ता का गढ़ थी और वह जितनी जल्दी टूटे, उतना अच्छा है। कुल मिलाकर , संयुक्त परिवार की पुरानी व्यवस्था को आदर्श नहीं कहा जा सकता है। उसमें कई दिक्कतें थी। किंतु अफसोस की बात है कि उसकी जगह जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें और ज्यादा त्रासदियाँ है। हम खाई से निकलकर कुए में गिर रहे है। बीच का कोई नया रास्ता निकालने की कोशिश ही हमने नहीं की, जिसमें समतावादी-लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ सामाजिक क्रांति के जरिये संयुक्त परिवार के दोषों को दूर करते हुए भी उनकी खूबियों व सुरक्षाओं को बरकरार रखा जाता । जिसमें अपनी पूरी जिंदगी परिवार, समाज व देश को देने वाले बुजुर्गों के जीवन की संध्या को सुखी, सुकून भरा व सुरक्षित बनाया जा सकता हो। जिसमें ‘पुराने चावलों‘ की इज्जत भी होती और उनका भरपूर उपयोग भी होता। यह कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण के नए जमाने में गतिशीलता बढ़ने से परिवारों का बिखरना  लाजमी है। किंतु तब क्या इस पूरे आधुनिक विकास व भूमंडलीकरण पर भी पुनर्विचार करने की जरुरत नहीं है ? कई अन्य पहलूओं के साथ-साथ बूढों के नजरिये से भी क्या एक विकेन्द्रीकृत स्थानीय समाज ज्यादा बेहतर व वांछनीय नहीं होता ? अभी तक आधुनिकता की आंधी में बहते हुए इन सवालों पर हमने गौर करने की जरुरत ही नहीं समझी। किंतु यदि सामाजिक जीवन को आसन्न संकटों एवं विकृतियों से बचाना है तथा सुंदर व बेहतर बनाना है, तो इन पर मंथन करने का वक्त आ गया है।

नई दुनिया से साभार.
(ई-मेलः- sjpsunil@gmail.com )

(लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं सामायिक विषयों पर टिप्पणीकार है।)
पता:- सुनील, ग्राम / पोस्ट केसला, तहसील इटारसी,  जिला होशंगाबादफोनः- 09425040452

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इक्कीसवीं सदी में भारत का भविष्य 

सुनील

(राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, समाजवादी जन परिषद)

(ग्राम पोस्ट- केसला,वाया ईटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) फोनः-09425040452 ई-मेलः-

sjpsunil@gmail.com 

करीब पच्चीस साल पहले हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने हमें याद दिलाना शुरु किया था कि भारत बहुत जल्दी इक्कीसवी में पहुंचने वाला है। हमें इक्कीसवीं सदी में जाना है। यह बात करते करते हम इक्कीसवीं सदी मे पहुंच गए और इस नई सदी के दस साल भी बीत गए। इक्कीसवीं सदी का भारत कहां है, कैसा है, कैसा बनने वाला है, कहां पहुँचने वाला है- यह एक विशद विषय है। यहां उसके कुछ पहलुओं पर विचार करेंगें।

निश्चित ही नई सदी में बहुत सारी चीजें काफी चमकदार दिख रहीं है। बीस साल या पचास साल पहले के मुकाबले भारत काफी आगे दिखाई दे रहा है। कई तरह की क्रांतियां हो रही है। कम्प्यूटर क्रांति चल रही है। मोबाईल क्रांति भी हो गई है- अब गरीब आदमी की जेब में भी एक मोबाईल मिलता है। आॅटोमोबाईल क्रांति चल रही है। एक जमाना था जब स्कूटर के लिए नंबर लगाना पड़ता था, वह ब्लेक में मिलता था। कारों के बस दो ही मॉडल थे – एम्बेसेडर और फिएट। अब किसी भी शोरुम में जाइए, मनपसंद

मॉडल की मोटरसाईकल या कार उठा लाइए। नित नए मॉडल बाजार में आ रहे है। सड़कों पर कारें ही कारें दिखाई देती हैं।  सड़कें फोरलेन-सिक्सलेन बन रही है। हाईवे, एक्सप्रेसवे की चिकनी सड़कों पर गाड़ियां हवा से बात करती हैं। ‘फोरलेन‘ शब्द तो बच्चे-बच्चेे की जुबान पर चढ़ गया है। इसी तरह शिक्षा में भी क्रांति आ गई है। पहले इंजीनियरिंग, मेडिकल, बी.एड. कालेज गिनती के हुआ करते थे। आज एक-एक शहर में दस-दस कॉलेज है और उनमें सीटें खाली रहती है। पहलें चुनिंदा कान्वेंट स्कूल हुआ करते थे,  अब इंग्लिश मिडियम स्कूल गली-गली, मोहल्ले में खुल गए है। 

हमारी राष्ट्रीय आय छः, सात, आठ प्रतिशत की वृद्धि दर से बढ़ती जा रही है। दुनिया में 2007-08 में जो मंदी का झटका आया , वह भी हमें ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया। इस बीच में हमने परमाणु बम भी बना लिए । हम दुनिया की महाशक्ति बनने का सपना देख रहे है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्य तो बन चुके है, स्थाई सदस्य बनने के लिए हम हाथ-पांव मार रहे है। ओबामाजी की मेहरबानी हो जाए, तो यह सपना पूरा होने की उम्मीद हम कर रहे है।

चकाचैंध के पीछे का अंधियारा

किंतु यह चमक-दमक कुछ खोखली मालूम होती है। इस चकाचैंध के पीछे कुछ अंधेरा बीच-बीच में सामने आता रहता है। जैसे, कुछ दिन पहले वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) का समाचार आया । दुनिया के 87 विकासशील देशों में भूख के हिसाब से भारत का स्थान काफी नीचे सड़सठवां निकला। हमारे पड़ोसी देशों का स्थान भी हमसे काफी ऊपर है – श्रीलंका (39), पाकिस्तान (52), नेपाल (56)। सिर्फ बांगलोदश (68) हमसे एक पायदान नीचे है। इसी रिपोर्ट में बताया है कि भारत में 5 वर्ष से छोटी उम्र के 42 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम है और 48 प्रतिशत बच्चों का शारीरिक विकास अवरुद्ध है। दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे लोग और कुपोषित बच्चे इस देश में निवास करते है। सबसे ज्यादा अशिक्षित, सबसे ज्यादा बेघर या कच्चे घरों में रहने वाले लोग, सबसे ज्यादा निमोनिया और मलेरिया से मरने वाले लोग भी इस देश में है। विडंबना यह है कि अमरीका के बाद दुनिया के सबसे ज्यादा धनी अरबपति भी इसी देश में है। मुंबई के मुकेश अंबानी के कई अरबों रुपयों से तैयार होने वाले महल ने तो पुराने राजा-महाराजाओं-नवाबों को अय्याशी में काफी पीछे छोड़ दिया है। यह सत्ताईस मंजिला घर है और एक मंजिल की ऊचाई औसत से दुगनी है। इसमें तीन हेलीपेड़ है, कई स्विमिंग पुल है, छः मंजिलों में 168 कारों की पार्किंग की जगह है। अंबानी के इस आलीशान महल और झोपडपट्टियों-गांवों में रहने वाले की कंगाली का गहरा संबंध है।

खबर यह भी है कि पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष सड़क दुर्घटनाओं में 8-9 लाख लोग मरते है, उनमें एक लाख लोग हिन्दुस्तान में मरते हैं। टेªफिक जाम बढ़ते जा रहे है ओर वाहनों से होने वाला प्रदूषण बढ़ता जा रहा हैं। सड़कों पर चलने की जगह नहीं बची। सड़कें चौड़ी होती जा रही हैं, किंतु उससे ज्यादा कारों की तादाद बढ़ रहीं है। दिल्ली में राष्ट्रमण्डल खेलों के नाम पर जो अनाप-शनाप पैसा लुटाया गया, उसका एक बड़ा हिस्सा सड़कों, पुलों और फ्लाईओवरों पर खर्च हुआ । विडंबना यह है कि उसके बाद भी ट्रेफिक जाम से मुक्ति नहीं है। घर से दफ्तर जाने में कई बार दो-दो घंटे लग जाते है। इतनी असुविधाओं और इतनें फिजूलखर्च के बाद भी यदि यातायात सुगम नहीं, दुर्गम हो रहा है और दिन के ज्यादा घंटे यातायात में बरबाद हो रहे है, तो कुल मिलाकर क्या इसे प्रगति कहा जा सकता है ? इससे तो गांव के किसान की जिंदगी अच्छी है, जो अपने बैल लेकर आधे घंटे में घर से खेत पहुंच जाता है।

दिल्ली में और देश के कई महानगरों में रोज सडकों पर कारों का विशाल रेला चलता है। कारें इतनी ज्यादा हो गई है कि चलती हैं तो मुसीबत और खड़ी होती है तो मुसीबत, क्योंकि पार्किंग की जगह नहीं है। इन महानगरों में आवासीय सोसायटियों ने जब अपनी इमारतें बनाई थी, तो जितनी कारों के खड़े होने की जगह रखी थी, अब उससे दुगनी-तिगुनी कारें हो गई है। मिंया के पास भी कार है, बीबी के पास भी कार हो गई है, तो वहाँ पार्किंग समस्या बन गई है। सड़क पर एक कार चलती है तो एक या दो व्यक्ति को ले जाती है। उसकी जगह बस चलती है तो पचास लोगों को ले जाती हैं। फिर भी कारें बढ़ती जा रही है और सरकार भी कारों को बढ़ावा दे रहीं है, इसी को प्रगति की निशानी मान रही है। देश में हाईवे और एक्सप्रेसवे भी मुख्यतः इन्हीं कारों के लिए बन रहे है। इनमें भी बड़े पैमाने पर खेती की जमीन ली जा रही है। यदि किसान विरोध करते है, तो उन पर लाठी व गोली चलाने में सरकारों को संकोच नहीं होता है।

विकास की तमाम परियोजनाएं खेतों को निगलती जा रही है, फिर चाहे विशेष आर्थिक जोन (सेज़) हो, औद्योगिक क्षेत्र या कारखाने हो, बड़े बांध हो, एक्सप्रेस मार्ग हो या शहरों का विस्तार हो। कभी हमने सोचा है कि इसका क्या नतीजा होगा ? आज जो अन्न संकट पहले से है, कई लोग भूखे रहते हैं, वह स्थिति कितनी भयानक हो जाएगी ? इसकी एक झलक हमें तीन चार साल पहले मिल गई थी, जब 15 रु किलों के भाव से आस्ट्रेलिया का सड़ा गेहूँ आयात करना पड़ा था। अपने किसानों को गेहूँ का समर्थन मूल्य साढ़े आठ रु. दिया था, किंतु विदेशों को 11 से 15 रु. किलो का भुगतान करना पड़ा था।

गांधीसागर नहीं, हिटलरसागर

दस दिन पहले, 19 नवंबर 2010 को इसी मालवा अंचल में एक घटना हुई, जिसकी ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए। बड़े बांधों को हमारे पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ‘आधुनिक भारत के मंदिर‘ कहा करते थे। ऐसा ही एक मंदिर चंबल नदी पर विशाल गांधीसागर बांध के रुप मे बना । इसके पचास साल  पूरे होने पर बड़े बाँधों के ऊपर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई तथा विस्थापितों का एक सम्मेलन हुआ। 50 साल होने के बाद भी इसके विस्थापित अपने पुर्नवास और अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष कर रहे हंै। उस दिन उन्होंने प्रस्ताव पास किया कि गांधीसागर का नाम बदलकर हिटलरसागर किया जाना चाहिए। इस एक मांग में उनका गहरा दर्द छिपा है, जिस पर समाज व देश ने गौर करने की जरुरत नहीं समझी। इस संगोष्ठी में यह बात भी सामने आई कि इस बांध के कारण पूरे मालवा क्षेत्र में मरुस्थलीकरण को बढ़ावा मिला है। डा. रामप्रताप गुप्ता ने बताया कि गांधीसागर जलाशय जरुरत से ज्यादा बड़ा बन गया, जो दस में से नौ साल खाली रहता है। इसलिए राजस्थान सरकार की तरफ से लगातार दबाव रहा है कि गांधीसागर के जलग्रहण क्षेत्र में पानी रोकने वाली कोई सिंचाई योजना नहीं बननी चाहिए। नतीजा यह हुआ कि पूरे मालवा में नहरी सिंचाई योजनाओं का विकास रुक गया, सिंचाई का पूरा दारोमदार कुओं व ट्यूबवेलों पर यानी भूजल के दोहन पर आ गया । आज मालवा की जमीन का पानी तेजी से नीचे जा रहा है और जमीन बंजर हो रही है। पानी का जबरदस्त संकट आ रहा है। पिछले वर्ष गर्मियों में उज्जैन के नगरवासियों को पांच दिन में एक बार पानी की आपूर्ति करने जैसी नौबत आ गई थी। क्या इससे हमने कोई सबक लिया? दरअसल हमें विकास की पूरी दिशा पर नए सिरे से विचार करने की जरुरत है। आधुनिक सभ्यता ने विज्ञान व टेकनालाॅजी के चमत्कारों से अपने अहंकार में अभी तक यह माना है  कि प्रकृति हमारी दासी है। इसका हम चाहे जैसा शोषण कर सकते है। इसको चाहे जैसा नचा सकते है, रौंद सकते है। प्रकृति भी अपना बदला ले सकती है, यह हम भूल गए।

एक गलती तो देश को आजादी मिलने के बाद हुई। 15 अगस्त 1947 को हम अंग्रेजों के राजनैतिक प्रभुत्व से तो आजाद हुए, लेकिन उनका मानसिक प्रभुत्व हमारे ऊपर बना रहा। पिछले 60-65 सालों में यह प्रभुत्व मजबूत हूआ है, कमजोर नहीं। हमने बगैर सोचे समझे विकास का वही रास्ता चुना जो यूरोप-अमरीका का रास्ता है। हमने दो बातें नहीं सोची। एक तो यह कि यह रास्ता हमारे लिए खुला है या नही? दूसरा इस रास्तें पर चलने या उसकी कोशिश का परिणाम हमारे लिए, देश व समाज के लिए और हमारी भावी पीढ़ियों के लिए क्या होने वाला है?

विकास का यह रास्ता अनिवार्य रुप से पूरी दुनिया के किसानों-मजदूरों के शोषण और प्राकृतिक संसाधनों की बेहिसाब लूट पर आधारित है। अमरीका-यूरोप की वर्तमान समृद्धि के पीछे पिछली तीन-चार सदियों की पूरी दूनिया की लूट है। यदि भारत जैसे एशिया-अफ्रीका के देशों को गुलाम बनाने और बेतहाशा लूटने का मौका अंग्रेजों को न मिला होता, तो इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति संभव ही नहीं होती। आज के दोनों अमरीकी महाद्वीप भी गोरे लोगों द्वारा जीते हुए और कब्जा किये हुए भूभाग है। यहाँ के मूल निवासियों को खत्म करके, उन पर बर्बरता से अत्याचार करके , यूरोपीय सभ्यता आगे बढ़ी है। यहाँ तक कि जब अमरीका के मूल निवासी कम पड़ने लगे या उन्होंने गुलामी करने से इंकार कर दिया, तो वहाँ की खदानों, प्लांटेशनों व रेल्वे लाईनों पर काम करने के लिए अफ्रीका से लोगों को गुलाम बनाकर लाया गया। पैरों में बेड़ियाॅ डालकर अफ्रीकी गुलामों के जहाज भरकर लाए जाते थे। ऐसी ही कुछ कहानी आस्ट्रेलिया की है। आधुनिक सभ्यता की बुनियाद में लूट, बर्बरता, औपनिवेशिक शोषण और साम्राज्यवाद का चार-पांच सौ सालों का इतिहास है।

यदि यह सच. है तो भारत उस रास्ते पर चल ही नहीं सकता है। भारत के पास उपनिवेश नहीं है, दुनिया को लूटने का मौका नहीं है। फिर भी हम उस रास्तें पर चलने की कोशिश कर रहे हैं, तो इस चक्कर में देश के अन्दर उपनिवेश बना रहे हैं। देश के पिछड़े व आदिवासी इलाके इसी तरह के आंतरिक उपनिवेश हैं। गांव और खेती भी उपनिवेश है। भारतीय खेती पर जो जबरदस्त संकट आया है, जिसमें लगातार लाखों किसान आत्महत्या कर रहे है, उसे इसी परिपेक्ष्य में समझा जा सकता है। आधुनिक विकास में यह अंतर्नीहित है कि इसे उपनिवेश चाहिए- बाहरी हो या आंतरिक, प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष। इस विकास में तय है कि थोडे़ से लोगों का ही विकास होगा, बाकी के लिए विस्थापन, गरीबी, भूखमरी व बेरोजगारी होगी। हमारे प्रधानमंत्री को बीच-बीच में समावेशी विकास (इन्क्लूजिव डेवलपमेंट) की बात करना पड़ती है, किंतु इस विकास में तो उल्टा हो रहा है और होगा ही। देश के विकास की गाड़ी 8 प्रतिशत, 9 प्रतिशत, 10 प्रतिशत वृद्धि दर की हाई स्पीड से चल रही है, चलने वाली है।  किंतु देश के ज्यादातर लोग इस गाड़ी में सवार नहीं हो पा रहे हैं और पीछे छूटते जा रहे हैं। जो सवार है उनमें से भी कई गिरते जा रहे है। थोड़े से लोग पूरी स्पीड से दूसरों को छोड़ते, रौंदते , कुचलते हुए गाड़ी को लेकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। क्या ऐसे ही विकास के साथ इक्कीसवीं सदी मे जाने का सपना हमने देखा था।

अमरीका: कैसा आदर्श?

जिस अमरीका की हम नकल करने की कोशिश कर रहे है, वर खुद संकटों से घिरा है। पूंजीवादी सभ्यता के सिरमौर अमरीका और युरोप में दो साल पहले 2008 में जबरदस्त मंदी और वित्तीय संकट आया था जिसने उसे ऊपर से नीचे तक हिलाकर रख दिया। ऐसा दिखाई देता है कि अमरीका अब उससे उबर गया है। किंतु कंपनियां उबरी है, लोग नहीं उबरे हैं । अमरीका में काफी बेरोजगारी है, बेघर लोगों की संख्या बढ़ गई है। हाल ही में एक सर्वे की रपट में बताया था कि अमरीका में साढ़े चैदह प्रतिशत लोग ऐसे है, जिनको साल में कभी न कभी भूखा रहना पड़ता है। अमरीकी समाज में अपराध की दर भी काफी ज्यादा है। आबादी के हिसाब से जेल में बंद लोगों का अनुपात पूरी दुनिया में अमरीका में ही सबसे ज्यादा है। अमरीका में उपभोग भी सबसे ज्यादा है। किंतु इस प्रक्रिया में पर्यावरण का जो नाश हो रहा है, वह उसकी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता है। दुनिया में सबसे ज्यादा प्रतिव्यक्ति पेट्रोल की खपत संयुक्त राज्य अमरीका में है और सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी वहीं होता है। फिर भी उसने ग्रीनहाउस गैसों का उत्र्सजन कम करने के क्योटो समझौते पर दस्तखत नहीं  किए और कोपनहेगन सम्मेलन में भी उसके अड़ियल रवैये के कारण कोई ठोस प्रगति नहीं हो पाई। हर तरीके से अमरीका आज दुनिया पर दादागिरी कर रहा है। ऐसे अमरीका का अनुसरण भारत के लिए कितना वांछनीय है और कितना संभव है- ये दोनों सवाल हमारे सामने है।

जानकारों ने हिसाब लगाया है कि अमरीका की जीवनशैली और वहाँ के जीवन स्तर को पूरी दुनिया के लोगों को अपनाना हो तो उसके लिए तीन पृथ्वियों की जरुरत होगी, एक पृथ्वी कम पड़ेगी। अमरीका की समृद्धि पूरी दुनिया के संसाधनों की लूट पर आधारित है ओर तथाकथित मुक्त व्यापार इसी का एक जरिया है। कहीं से उनके लिए पेट्रोल आता है कहीं से इस्पात आता है, कहीं से कैला और कहीं से बासमती चावल आता है, कहीं से मांस आता है, कहीं से आभूषण और कहीं से चाय-काफी आते हैं। उनके पास डॉलर है , इसलिए पूरी दुनिया  के श्रम व संसाधनों को अपनी सेवा में लगा लेते हैं। भारत जैसे देशों की सरकारें खुश होती है कि हमारा निर्यात बढ़ रहा है। किंतु इस चक्कर में हम अपनी आबादी की जरुरतों की उपेक्षा करके उनकी सेवा में लग जाते है।

ऐसा नहीं है कि मुसीबत सिर्फ नीचे के गरीबों के लिए ही है। महानगरों के खाते-पीते लोगों की जिंदगी भी कोई अच्छी नहीं है। कई तरह के तनावों, व्यस्तता, भागदौड़ से उनका जीवन भी अशान्त है। आप मुम्बई जाइए तो वहाँ हर आदमी दौड़ता हुआ मिलेगा। किसी भी लोकल ट्रेन के स्टेशन पर खड़े होकर देखें- आदमी, महिलाएं, लड़कियाँ, बूढ़े सब दौड़ रहे हैं। उन्हें घर से कार्यस्थल तक पहुँचनें में दो से ढाई घण्टे लगते हैं और उतना ही समय लौटने में लगता है। सुबह पांच बजे उठकर जाने की तैयारी करनी पड़ती है। यह भी कोई जिंदगी है? बड़ी-बडी़ इमारतों के फ्लेट्स में रहने वाले परिवार अपने पड़ोसी को नहीं जानते, महीनों बातचीत नहीं होती, मुलाकात नहीं होती। घोर बेगानेपन, अकेलेपन और व्यक्तिवाद की यह जिंदगी है। इसमें सामूहिकता व मेलजोल खत्म होते जा रहे हैं। बगल के फ्लेट में कोई कत्ल करके भी चला जाए तो पता नहीं चलता। जब तीन-चार दिन बाद बदबू आने लगती है तो पता चलता है। किस तरह के जीवन को हम अपना आदर्श बना रहे है ?

शिक्षा: तीन कदमों की सहमति और विश्वासघात

जब हमारा देश आजाद हुआ, तो देश की शिक्षा के बारें में तीन बातों पर लगभग सहमति थी। एक, आजाद भारत का हर बच्चा शिक्षित होना चाहिए। दो, अंगे्रजों के साथ देश से अंग्रेजी भाषा की भी विदाई होगी। तीन, साम्राज्य की जरुरत के हिसाब से बनी मौकाले की शिक्षा पद्धति को आमूल बदलकर आजाद भारत की लोकतांत्रिक जरुरतों के हिसाब से नई शिक्षा पद्धति लाई जाएगी। अफसोस की बात है कि ये तीनों काम नहीं हुए। कई और मामलो की तरह शिक्षा के मामले में भी आजाद भारत की सरकारों ने जनता के साथ विश्वासघात किया।

एक नई जाति व्यवस्था

हमारा संविधान बना तो उसके नीति-निर्देशक तत्वों में लिखा गया था कि सरकार  दस वर्ष के अंदर 14 बरस की उम्र तक देश के  हर बच्चे की मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा की  व्यवस्था करेगी। किंतु दस तो क्या, साठ साल हो गये , यह काम आज तक नहीं हुआ।  भले ही अब हमने इसका एक कानून बना दिया है, लेकिन काम तो उल्टा कर रहे है, जिससे इस लक्ष्य से और दूर जा रहे है। वह है शिक्षा का निजीकरण, व्यवसायीकरण , मुनाफाखोरी। अब हमने शिक्षा में विभाजन पूरा कर दिया हैः अमीरों के बच्चों के लिए निजी स्कूल, गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूल। इस विभाजन के चलते अब सरकारी स्कूलों में  सिर्फ गरीब बच्चें पढ़ते हैं, जिससे उनकी उपेक्षा व बदहाली बढ़ती जा रही है। उनमें पढ़ाई नहीं के बराबर होती है। शिक्षा में निजीकरण और मुनाफाखोरी का मतलब है भारी फीस। और जो फीस नहीं दे सकते हैं, ऐसे देश के बहुसंख्यक बच्चों के लिए शिक्षा के दरवाजे बंद होते जा रहे है। एक तरफ हम ‘सर्व शिक्षा अभियान‘ चला रहे हैं, दूसरी तरफ देश के साधारण बच्चों को पैसे के अभाव में शिक्षा से वंचित करने की तैयारी कर रहे हैं। उनके लिए आगे बढ़ने के रास्ते में पहले अंग्रेजी की दीवार थी, अब पैसे की दूसरी ऊँची दीवार बनाई जा रही है। जो इस दीवार को फांद सकता है, वही समुचित शिक्षा पाने का अधिकारी होगा। देश में तो घोर असमानता है, किंतु शिक्षा में इस भेदभाव का मतलब है अवसरों की भी असमानता । यानी हम बच्चों में भी भेदभाव कर रहे हैं। देश की घोर असमानता को मजबूत करने और उसके सीमेन्टीकरण का काम कर रहे हैं। एक नई तरह की जाति व्यवस्था बना रहे हैं, जिसमें नीचे वाला नीचे ही रहेगा, ऊपर वाला ऊपर ही रहेगा।

बाजार, मुनाफे व लालच की सभ्यता

यह बाजारवाद बहुत खतरनाक है। सोवियत संघ व चीन के अनुभव के बाद हम यह तो नहीं कह सकते कि बाजार होना ही नहीं चाहिए। किंतु इस बाजार की कोई सीमा होगी या नहीं ? क्या जीवन के हर क्षेत्र को बाजार के हवाले कर देंगे ? गेहूँ, आलू, कपड़े, जूते, सोने, चांदी का बाजार तो ठीक है। किंतु शिक्षा का बाजार होना चाहिए क्या? पानी का बाजार होना चाहिए क्या ? स्वास्थ्य का बाजार ठीक है क्या ? पहले कभी हमने सोचा भी नहीं था कि पानी जो प्रकृति की मुफ्त देन है, वह भी बाजार में बिकेगा। पानी की बोतलों का बाजार बढ़ता जा रहा है। जितनी बिक्री बढ़ती है, उतनी ही मनमोहन सिंह की जी.ड़ी.पी (राष्ट्रीय आय) बढ़ती है। इसका मुनाफा भी जबरदस्त है। दो पैसे का पानी, पचास पैसे की पैकिंग और 12 रुपये की बोतल। इससे बढ़िया कमाई दुनिया में और क्या होगी ? और इस लूट में दो विदेशी अमरीकी कंपनिया सबसे ऊपर हैं। कोका कोला और पेप्सीको कंपनियों की दोनो ब्रांडों- किनले व एक्वाफिना- की ही  बिक्री सबसे ज्यादा है। किंतु इस लूट के अलावा पानी के बाजार का एक और मतलब है। वह यह है कि जिसके पास पैसा होना, उसी को पानी मिलेगा। जिसके पास पैसा नहीं होगा, उसे पानी का भी हक नहीं होगा। इससे ज्यादा बर्बरता और क्या हो सकती है ? क्या यही सपना हमनें देखा था ? हमनें तो सपना यह देखा था कि आधुनिक युग में हर व्यक्ति की बुनियादी जरुरतें पूरी होगी। कोई भूखा नहीं रहेगा, कोई फूटपाथ पर नहीं सोएगा, कोई अशिक्षित नहीं रहेगा, इलाज के अभाव में किसी की मौत नहीं होगी। हमने क्या सोचा था ? और कहाँ पहुँचे हैं ?  यह कौन सी सभ्यता है ? कभी हमारे देश मंे शिक्षक और चिकित्सक बहुत सम्मान के अधिकारी होते थे। आज वे घृणा और आक्रोश के पात्र बनते जा रहे हैं। क्योंकि वे बाजार के दास हो चुके है, लालच उनका आदर्श बनता जा रहा है। ऐसी घटनाएं आम होती जा रही है कि निजी अस्पताल से लाश तक नहीं उठने दी जाती है – पैसा दो और लाश ले जाओ। लालच और मुनाफा इस सभ्यता की बुनियादी चीजें हैं।

दुनिया के सारे शिक्षाशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए। किंतु भारत के बच्चों पर विदेशी भाषा माध्यम थोपने का सिलसिला बढ़ता जा रहा है, क्योंकि देश में अंग्रेजी का बोलबाला बना हुआ है। यह बच्चों के ऊपर बड़ा अत्याचार है । उनके ऊपर दौहरा बोझ आ जाता है- पहले भाषा समझना और फिर विषय को समझना । उसका तो नंबर ही नहीं आता है और बच्चे रटने की कोशिश करते हैं। किंतु एक विदेशी भाषा में रटना और भी मुश्किल है। दुनिया का कोई भी देश एक विदेशी भाषा को लाद कर आगे नहीं बढ़ पाया है । किंतु भारत जैसे गुलाम दिमाग वाले देश फिर भी वही करने की फिजूल कोशिश कर रहे हैं।

बच्चों पर अत्याचार, स्पर्धा के इस युग के चलते भी हो रहा है। हमने बच्चों का बचपन छीन लिया है। छुटपन से ट्यूशन, कोचिंग, होमवर्क व बस्ते के बोझ के साथ उसे स्पर्धा की तैयारी में झौंक दिया जाता है। जो बच्चे किसी भी कारण से इस अंधी दौड़ में पहले और दूसरे नंबर पर नहीं रह पाते है, वे कुंठित, हीनभावनाग्रस्त और अवसादग्रस्त हो जाते हैं। बच्चों में किताबी ज्ञान को रटने के अलावा कई तरह की अन्य प्रतिभाएं हो सकती हैं। वे एक अच्छे कलाकार, संगीतकार, खिलाड़ी, मिस्त्री या किसान भी हो सकते हैं। समाज में सब की जरुरत है। किंतु इन सब प्रतिभाओं का तिरस्कार करके बाबू और अफसर तैयार करने वाली शिक्षा पद्धति को हमने आज भी जारी रखा है। शिक्षा ही नहीं, अंग्रेजी राज का प्रशासन, कानून, न्याय सबका पूराना केन्द्रीकृत ढ़ांचा आज भी चल रहा है। उन्नीसवीं सदी के ढ़ांचों को हम इक्कीसवीं सदी में ढ़ो रहे हैं।

गांधी के तीन कथन

सवाल यह है कि विकल्प क्या है? पहले तो यह समझना होगा कि गड़बड़ी बहुत गहरी है। दोष आधुनिक सभ्यता की अंधी नकल और विकास की दिशा में है। इसका विकल्प खोजने के लिए महात्मा गांधी के तीन उद्धरण हमारे मददगार हो सकते हैं। ये तीनों सूत्र मार्गदर्शक का काम कर सकते हैं।

एक, कुदरत में सबकी जरुरतों को पूरा करने की गुंजाईश तो हैं, किंतु एक इंसान के भी लालच के लिए जगह नहीं है। ;

दो, जब कभी तुम दुविधा में हो, फैसला न कर पा रहे हो, तो आखिरी व्यक्ति को ध्यान में लाओ कि उसके ऊपर क्या असर पड़ेगा। इसे गांधी जी ने अचूक ताबीज कहा था।

तीन, गांधी जी का तीसरा कथन कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर से संवाद में कहा गया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था कि क्या आप देश को कूपमंडूक बनाना चाहते हौ? क्या विदेशों से कोई लेनदेन व समन्वय-संवाद नहीं चाहते हो ? जबाव में गांधी जी ने कहां-

’‘मैं भी नहीं चाहता कि मेरा घर चारों तरफ दीवारों से घेर दिया जाए और खिड़िकयाँ भी बंद कर दी जाए । मैं चाहता हूँ कि सब देशों की संस्कृतियों की खुली हवा मेरे घर के आसपास खुले रुप से बहती रहे। किंतु आंधी से मेरे पैर ही उखड़ जाए, यह मूझे मंजूर नहीं है। मैं दूसरों के घर में घूसपैठिए, भिखारी या गुलाम बनकर रहने से इंकार करता हूँ।‘‘

इन तीन सूत्रों को लेकर यदि कोई नया भारत बनता है तो उसका भविष्य उज्जवल हो सकता है। तब एक बार फिर भारत पूरी दुनिया को नई दिशा दे सकेगा। किंतु यदि हम मौजूदा आत्मघाती रास्ते पर ही चलते रहें, तो इक्कीसवीं सदी में भारत का कोई भविष्य नहीं है। समय तो आगे बढ़ता जाएगा, किंतु हम आगे बढ़ेंगें या पीछे जाऐंगे, यह सवाल बहुत गहरे रुप से आज हमारे सामने है। इस सवाल पर आज हम सबको गहराई से सोचना है।

धन्यवाद ।

(भारतीय ज्ञानपीठ, उज्जैन द्वारा आयोजीत पद्यमभूषण डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन स्मृति अखिल भारतीय सद्भावना व्याख्यानमाला 2010 में 29 नवंबर 2010 को दिया गया व्याख्यान)

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पिछले भाग से आगे :

यह कहा जा रहा है कि राष्ट्रमंडल खेलों के लिए जो इन्फ्रास्ट्रक्चर बन रहा है, वह बाद में भी काम आएगा। लेकिन किनके लिए ? निजी कारों को दौड़ाने और हवाई जहाज में उडने वाले अमीरों के लिए तो दिल्ली विश्व स्तरीय शहर बन जाएगा। (वह भी कुछ समय के लिए, क्योंकि निजी कारों की बढती संख्या के लिए तो सड़कें और पार्किंग की जगहें फिर छोटी पड़ जाएंगी।) लेकिन तब तक दिल्ली के ही मेहनतकश झुग्गी झोपड़ी वासियों और पटरी-फेरी वालों को दिल्ली के बाहर खदेड़ा जा चुका होगा। उनको हटाने और प्रतिबंधित करने की जो मुहिम पिछले कुछ समय से चल रही है, उसके पीछे भी राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन है। किन्तु सवाल यह भी है कि पूरे देश का पैसा खींचकर दिल्ली के अमीरों के ऐशो-आराम के लिए लगाने का क्या अधिकार सरकार को है ? देश के गांवो और पिछड़े इलाकों को वंचित करके अमीरों-महानगरों के पक्ष में यह एक प्रकार का पुनर्वितरण हो रहा है।

एक दलील यह है कि राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन के बाद भारत ओलंपिक खेलों की मेजबानी का दावा कर सकेगा और यह इन्फ्रास्ट्रक्चर उसके काम आएगा। लेकिन यह तो और बड़ा घपला व अपराध होगा। कई गुना और ज्यादा खर्च होगा, और ज्यादा गरीबों को खदेड़ा जाएगा एवं वंचित किया जाएगा। चीन में बीजिंग ओलंपिक के मौके पर यही हुआ। चीन में तो तानाशाही है, क्या भारत में भी हम वहीं करना चाहेंगे ?
चीन ने बीजिंग ओलंपिक के मौके पर विशाल राशि खर्च करके बड़े-बड़े स्टेडियम बनाए, वे बेकार पड़े हैं। उनके रखरखाव का खर्च निकालना मुद्गिकल हो रहा है और उनको निजी कंपनियों को देकर किसी तरह काम चलाने की कोशिश हो रही है।  उसी तरह सफेद हाथी पालने की तैयारी हम क्यों कर रहे हैं ?
राष्ट्रमंडल खेलों के पक्ष में एक दलील यह दी जा रही है कि बड़ी संखया में विदेशों से दर्शक आएंगे और पर्यटन से भी आय होगी। पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन जितना विशाल खर्च हो रहा है, उसका १० प्रतिशत भी टिकिटों की बिक्री और पर्यटन की आय से नहीं निकलेगा। सवाल यह भी है कि विदेशी दर्शकों और पर्यटकों के मनोरंजन के खातिर हम अपने देश की पूरी प्राथमिकताएं बदल रहे हैं और देश के लोगों की ज्यादा जरुरी जरुरतों को नजरअंदाज कर रहे हैं। क्या यह जायज है ?

गलत खेल संस्कृति

यह भी दलील दी जा रही है कि इस आयोजन से देश में खेलों को बढ़ावा मिलेगा। यह भी एक भ्रांति है। उल्टे, ऐसे आयोजनों से बहुत महंगे, खर्चीले एवं हाई-टेक खेलों की एक नई संस्कृति जन्म ले रही है, जो खेलों को आम जनता से दूर ले जा रही है और सिर्फ अमीरों के लिए आरक्षित कर रही है। आज खर्चीले कोच, विदेशी प्रशिक्षण, अत्याधुनिक स्टेडियम और महंगी खेल-सामग्री के बगैर कोई खिलाड़ी आगे नहीं बढ  सकता। पिछले ओलिंपिक में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाला भारतीय निशानेबाज अभिनव बिन्द्रा एक उदाहरण है, जिसके परिवार ने खुद अपना शूटिंग रेन्ज बनाया था और उसे यूरोप में प्रशिक्षण दिलवाया था। उसके परिवार ने एक करोड  रु. से ज्यादा खर्च किया होगा। इस देश के कितने लोग इतना खर्च कर सकते हैं ?
इन खेलों और उससे जुड़े़ पैसे व प्रसिद्धि ने एक अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है, जिसमें प्रतिबंधित दवाओं, सट्‌टे और मैच-फिक्सिंग का बोलबाला हो चला है जबरदस्त व्यवसायीकरण  के साथ खेलों में खेल भावना भी नहीं रह गई है और खेल साधारण भारतवासी से दूर होते जा रहे हैं। टीवी चैनलों ने भारतीयों को खेलने के बजाय टीवी के परदे पर देखना, खिलाडियों के फैन बनना, ऑटोग्राफ लेना आदि जरुर सिखा दिया है। व्यापक दीवानगी पैदा करके टीवी चैनल और विज्ञापनदाता कंपनियों की खूब कमाई होती है। मशहूर खिलाड़ी विज्ञापनों में उनके प्रचारक बन जाते हैं। अब तो खेल आयोजनों में चियर गर्ल्स और ड्रिंक्स गर्ल्स के रुप में इनमें भौंडेपन, अश्लीलता और नारी की गरिमा गिराने का नया अध्याय शुरु हुआ है। जनजीवन के हर क्षेत्र की तरह खेलों का भी बाजारीकरण हो रहा हैं, जिससे अनेक विकृतियां पैदा हो रही हैं। क्रिकेट और टेनिस जैसे कुछ खेलों में तो बहुत पैसा है। इनमें जो खिलाड़ी प्रसिद्धि पा लेते हैं, वे मालामाल हो जाते हैं।  लेकिन हॉकी, फुटबाल, वॉलीबाल, कबड्‌डी, खो-खो, कुश्ती, दौड -कूद जैसे पारंपरिक खेल उपेक्षित होते गए हैं। इनमें चोटी के खिलाड़ि यों की भी उपेक्षा व दुर्दशा के किस्से बीच-बीच में आते रहते हैं। हमारे खेलों का एक पूंजीवादी और औपनिवेशिक चरित्र बनता जा रहा है। सारे अन्य खेलों की कीमत पर क्रिकेट छा गया है। यह मूलतः अंग्रेजों का खेल है और दुनिया के उन्हीं मुट्‌ठी भर देशों में खेला जाता है जहां अंग्रेज बसे हैं या जो अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
भारत ने १९८२ में एशियाई खेलों का आयोजन किया था और उसमें विशाल धनराशि खर्च की थी। लेकिन उसके बाद न तो देश के अंदर खेलों को विशेष बढ़ावा मिला और न अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भारत की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। पदक तालिका में १०० करोड  से ज्यादा आबादी के इस देश का स्थान कई ४-५ करोड  के देशों से भी नीचे रहता है। इस अनुभव से भी हम ऐसे आयोजनों की व्यर्थता को समझ सकते हैं (२)

राष्ट्रमंडल खेलों के बजाय इसका आधा पैसा भी देश के गांवों और कस्बों में खेल-सुविधाओं के प्रदाय और निर्माण में, देहाती खेल आयोजनों में और देश के  बच्चों का कुपोषण दूर करने  में लगाया जाए तो देश में खेलों को कई गुना ज्यादा बढ़ावा मिलेगा। खेलों में छाये भ्रष्टाचार, पक्षपात और असंतुलन को भी दूर करने की जरुरत है। तभी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भारत की दयनीय हालत दूर होगी और वह पदक तालिका में ऊपर उठ सकेगा।

प्रतिस्पर्धा में खजाना लुटाया

कुछ साल पहले २००७ में जब भारतीय ओलंपिक संघ ने २०१४ के एशियाई खेलों की मेजबानी पाने के की असफल कोशिश की थी, तब स्वयं भारत के तत्कालीन खेल मंत्री श्री मणिशंकर अय्यर ने इसकी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि भारत के करोड़ों वंचित बच्चों, किशोरों और युवाओं को खेल-सुविधाएं न देकर इस तरह के अंतरराष्ट्रीय आयोजनों से कुछ नहीं होगा और सिर्फ भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि सुधारने के लिए इतनी फिजूलखर्ची उचित नहीं है। किन्तु श्री अय्यर की बात सरकार में बैठे अन्य लोगों को पसंद नहीं आई और जल्दी ही खेल मंत्रालय उनसे ले लिया गया।
राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी भी भारत ने जिस तरह से पाई, वह गौरतलब और शर्मनाक है। वर्ष २०१० की मेजबानी के लिए कनाडा के हेमिल्टन शहर का भी दावा था। कनाडा को प्रतिस्पर्धा से बाहर करने के लिए भारतीय ओलंपिक संघ ने सारे खिलाडि यों के मुफ्त प्रशिक्षण पर ७० लाख डॉलर (३३ करोड  रु. लगभग) का खर्च अपनी तरफ से करने का प्रस्ताव दिया। इतना ही नहीं सारे खिलाड़ियों की मुफ्त हवाई यात्रा और उनके ठहरने-खाने की मुफ्त व्यवस्था का प्रस्ताव भी उसने दिया, जो इसके पहले नहीं होता था। जो खर्च कनाडा जैसा अमीर देश नहीं कर सकता, वे खर्च भारत जैसा गरीब देश उदारता से कर रहा है।

असली एजेण्डा

वर्ष २०१० के राष्ट्रमंडल खेलों की वेबसाईट में इसका उद्देश्य बताया गया है। हरेक भारतीय में खेलों के प्रति जागरुकता और खेल संस्कृति को पैदा करना। आयोजकों ने इसके साथ की तीन लक्ष्य सामने रखे हैं – अभी तक का सबसे बढिया राष्ट्रमंडल खेल आयोजन, दिल्ली को दुनिया की मंजिल (ग्लोबल डेस्टिनेशन) के रुप में प्रोजेक्ट करना और भारत को एक आर्थिक महाशक्ति के रुप में पेश करना। बाकी तो महज लफ्फाजी है, किन्तु इन अंतिम बातों में ही इस विशाल खर्चीले आयोजन का भेद खुलता है। भारत की सरकारें विदेशी पूंजी को देद्गा में किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर बुलाने के लिए बेचैन है। विदेशी कंपनियों और उनके मालिकों-मैनेजरों-प्रतिनिधियों को आने-ठहरने-घूमने के लिए अमीर देशों जैसी ही सुविधाएं चाहिए, जिसे गलत ढंग से ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर’ कहा जाता है। राष्ट्रमंडल खेलों ने भारत सरकार को दिल्ली जैसे महानगरों में अमीरों की सुविधाओं पर देश का विशाल पैसा खर्च करने का बहाना व मौका दे दिया, जो अन्यथा इस लोकतांत्रिक देश में आसान नहीं होता। भारत को ‘आर्थिक महा्शक्ति’ के रुप में पेश करना भी इसी एजेण्डा का हिस्सा है, जिससे देश के लोग अपनी असलियतों और हकीकत को भूलकर झूठे राष्ट्रीय गौरव और जयजयकार में लग जाएं। राष्ट्रमंडल खेलों से भारतीय शासकों के इस अभियान में मदद मिलती है। चीन सरकार ने भी बीजिंग ओलम्पिक का उपयोग देश में उमड़ रहे जबरदस्त असंतोष को ढकने व दबाने तथा आम नागरिको को एक झूठी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में भरमाने को किया। (स्वयं चीन सरकार की जानकारी के मुताबिक वहां एक वर्ष में एक लाख से ज्यादा स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन हुए हैं।) भारत सरकार उसी राह पर चलने की कोशिश कर रही है।

लब्बो-लुआब यह है कि राष्ट्रमंडल खेल इस देश की गुलामी, संसाधनों की लूट, बरबादी, विलासिता और गलत खेल संस्कृति के प्रतीक हैं। सभी देशभक्त लोगों को पूरी ताकत से इसके विरोध में आगे आना चाहिए। विद्यार्थी युवजन सभा और समाजवादी जन परिषद्‌ ने तय किया है कि पूरी ताकत से इस राष्ट्र-विरोधी एवं जन विरोधी आयोजन का विरोध करेंगे। आप भी इसमें शामिल हों।
यह देश अब अंग्रेज साम्राज्य का हिस्सा नहीं है। न ही यह देश मनमोहन सिंह, शीला दीक्षित और सुरेद्गा कलमाड़ी का है। उन्हें दे्श को लूटने, लुटाने और बरबाद करने का कोई हक नहीं है। यह दे्श हमारा है। यहां रहने वाले करो्ड़ों मेहनतकश लोगों का है। हम किसी को इस देश के संसाधनों को लूटने-लुटाने, अय्य्याशी करने और गुलामी को प्रतिष्ठित करने की इजाजत नहीं देंगे।

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फुटनोट :-    १.    अक्टूबर २००९ में मशहूर टेनिस खिलाड़ी और आठ बार के ग्रांड स्लैम चैंपियन आन्द्रे अगासी की आत्मकथा में की गई इस स्वीकारोक्ति ने खेल- जगत में खलबली मचा दी कि वह एक प्रतिबंधित दवा- क्रिस्टल मैथ- का सेवन करता था। एक बार जांच में पकड़ाने पर उसने झूठ बोल दिया था। (द हिन्दू, २९ अक्टूबर २००९) १५ दिसंबर २००९ को लोकसभा में खेलमंत्री ने बताया कि पिछले वर्ष से २४ खिलाडियों पर प्रतिबंधित दवाओं के सेवन का दोषी पाए जाने पर दो वर्ष की पाबंदी लगायी गयी है, ११ का मामला अभी लंबित है तथा १३ नए मामले सामने आए हैं। ( पत्रिका, भोपाल, १६ दिसंबर २००९)

२.    इसके बाद १५ दिसंबर २००९ को खेल राज्य मंत्री प्रकाश बाबू पाटील ने भी लोकसभा में स्वीकार किया कि बीजिंग ओलंपिक में भारतीय खिलाडियों के प्रदर्शन में कुछ सुधार हुआ है, किन्तु यह अभी भी संतोषजनक नहीं है। इसका कारण संगठित खेल अधोसंरचना तक पहुंच की कमी और खासतौर से ग्रामीण इलाकों में प्रतियोगिताओं की कमी है। इन कमियों के कारण हमारे पास प्रतिभावान खिलाडियों का सीमित भंडार है। (पत्रिका, भोपाल,१६ दिसंबर २००९)

[ सुनील समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं । उनका पता ग्राम/पोस्ट- केसला,वाया इटारसी , जि. होशंगाबाद,म.प्र. है । ]

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आजाद भारत के लिए यह एक शर्म का दिन था। २९ अक्टूबर २००९ को आजाद और लोकतांत्रिक भारत की निर्वाचित राष्ट्रपति सुश्री प्रतिभा पाटील अगले राष्ट्रमंडल खेलों के प्रतीक डंडे ब्रिटेन की महारानी से लेने के लिए स्वयं चलकर लंदन में उनके महल बकिंघम पैलेस में पहुंची थी। मीडिया को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगा। वह तो इसी से अभिभूत था कि भारतीय राष्ट्रपति को सलामी दी गई तथा शाही किले में ठहराया गया। किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि ब्रिटिश साम्राज्य के समाप्त होने और भारत के आजाद होने के ६२ वर्ष बाद भी हम स्वयं को ब्रिटिश सिंहासन के नीचे क्यों मान रहे हैं। साम्राज्य की गुलामी की निशानी को हम क्यों ढो रहे हैं ?

राष्ट्रीय शर्म का ऐसा ही एक अवसर कुछ साल पहले आया था, जब भारत के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में मानद उपाधि मिलने के बाद दिए अपने भाषण में अंग्रेजों की गुलामी की तारीफों के पुल बांधे थे। उन्होंने कहा था कि भारत की भाषा, शास्त्र, विश्वविद्यालय, कानून, न्याय व्यवस्था, प्रशासन, किक्रेट, तहजीब सब कुछ अंग्रेजों की ही देन है। किसी और देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ऐसा कह देता तो वहां तूफान आ जाता। लेकिन यहां पत्ता भी नहीं खड़का। ऐसा लगता है कि गुलामी हमारे खून में ही मिल गई है। राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान की बातें हम महज किताबों और भाषणों में रस्म अदायगी के लिए ही करते हैं।

साम्राज्य के खेल

३ से १४ अक्टूबर २०१० तक दिल्ली में होने वाले जिन ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों के लिए भारत सरकार और दिल्ली सरकार दिन-रात एक कर रही है, पूरी ताकत व अथाह धन झोंक रही है, वे भी इसी गुलामी की विरासत है। इन खेलों में वे ही देश भाग लेते हैं जो पहले ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहे हैं। दुनिया के करीब १९० देशों में से महज ७१ देश इसमें शामिल होंगे। इन खेलों की शुरुआत १९१८ में ‘साम्राज्य के उत्सव’ के रुप में हुई थी। राष्ट्रमंडल खेलों की संरक्षक ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय है और उपसंरक्षक वहां के राजकुमार एडवर्ड हैं। हर आयोजन के करीब १ वर्ष पहले महारानी ही इसका प्रतीक डंडा आयोजक देश को सौंपती हैं और इसे ‘महारानी डंडा रिले’ कहा जाता है। इस डंडे को उन्हीं देशों में घुमाया जाता है, जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य में रहे हैं। यह रैली हर साल बकिंघम पैलेस से ही शुरु होती है।

पूरे देश का पैसा दिल्ली में

साम्राज्य और गुलामी की याद दिलाने वाले इन खेलों के दिल्ली में आयोजन की तैयारी कई सालों से चल रही है। ऐसा लगता है कि पूरी दिल्ली का नक्शा बदल जाएगा। कई स्टेडियम, खेलगांव, चौड़ी सडकें , फ्लाईओवर, रेल्वे पुल, भूमिगत पथ, पार्किंग स्थल और कई तरह के निर्माण कार्य चल रहे हैं। पर्यावरण नियमों को ताक में रखकर यमुना की तलछटी में १५८ एकड  में विशाल खेलगांव बनाया जा रहा है, जिससे इस नदी और जनजीवन पर नए संकट पैदा होंगे।

इस खेलगांव से स्टेडियमों तक पहुंचने के लिए विशेष ४ व ६ लेन के भूमिगत मार्ग और विशाल खंभों पर ऊपर ही चलने वाले मार्ग बनाए जा रहे हैं। दिल्ली की अंदरी और बाहरी, दोनों रिंगरोड को सिग्नल मुक्त बनाया जा रहा है, यानी हर क्रॉसिंग पर फ्लाईओवर होगा। दिल्ली में फ्लाईओवरों व पुलों की संखया शायद सैकड़ा पार हो जाएगी। एक-एक फ्लाईओवर की निर्माण की लागत ६० से ११० करोड  रु. के बीच होती है। उच्च क्षमता बस व्यवस्था के नौ कॉरिडोर बनाए जा रहे हैं। हजारों की संख्या में आधुनिक वातानुकूलित बसों के ऑर्डर दे दिए गए हैं, जिनकी एक-एक की लागत सवा करोड  रु. से ज्यादा है।

राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण कार्यों के लिए पर्यावरण के नियम ही नहीं, श्रम नियमों को भी ताक में रख दिया गया है। ठेकेदारों के माध्यम से बाहर से सस्ते मजदूरों को बुलाया गया है, जिन्हें संगठित होने, बेहतर मजदूरी मांगने, कार्यस्थल पर सुरक्षा, आवास एवं अन्य सुविधाओं के कोई अधिकार नहीं है। एशियाड १९८२ के वक्त भी मजदूरों का शोषण हुआ था, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था। किन्तु आज श्रम एवं पर्यावरण कानूनों के खुले उल्लंघन पर सरकार एवं सर्वोच्च न्यायालय दोनों चुप हैं, क्योंकि यह आयोजन एक झूठी ‘राष्ट्रीय प्रतिष्ठा’ का सवाल बना दिया गया है।

दिल्ली मेट्रो का तेजी से विस्तार हो रहा है और २०१० यानी राष्ट्रमंडल खेलों तक यह दुनिया का दूसरा सबसे लंबा मेट्रो रेल नेटवर्क बन जाएगा। तेजी से इसे बनाने के लिए एशिया में पहली बार एक साथ १४ सुरंग खोदनें वाली विशाल विदेशी मशीनें इस्तेमाल हो रही हैं। इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्‌डे पर ९००० करोड़ रुपए की लागत से नया टर्मिनल और रनवे बनाया जा रहा है ताकि एक घंटे में ७५ से ज्यादा उड़ानें भर सकें। इस हवाई अड्‌डे को शहर से जोड ने के लिए ६ लेन का हाईवे बनाया जा रहा है और मेट्रो से भी जोड़ा जा रहा है।
मात्र बारह दिन के राष्ट्रमंडल खेलों के इस आयोजन पर कुल खर्च का अनुमान लगाना आसान नहीं है, क्योंकि कई विभागों और कई मदों से यह खर्च हो रहा है। सरकार के खेल बजट में तो बहुत छोटी राशि दिखाई देगी। उदाहरण के लिए, हाई-टेक सुरक्षा का ही ठेका एक कंपनी को ३७० करोड  रु. में दिया गया। किन्तु यह उस खर्च के अतिरिक्त होगा, जो सरकारी पुलिस, यातायात पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाती के रुप में होगा और सरकारी सुरक्षा एजेन्सियां स्वयं विभिन्न उपकरणों की विशाल मात्रा में खरीदी करेंगी।
जब सबसे पहले दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की बात चलाई गई थी तो कहा गया था कि इसमें २०० करोड  रु. खर्च होंगे। जब २०१० की मेजबानी दिल्ली को दे दी गई, तो बताया गया कि ८०० करोड  रु. खर्च होंगे। फिर इसे और कई गुना बढ़ाया गया। इसमें निर्माण कार्यों का विशाल खर्च नहीं जोड़ा गया और जानबूझकर बहुत कम राशि बताई गई। ‘तहलका’ पत्रिका के १५ नवंबर २००९ के अंक में अनुमान लगाया गया है कि राप्ट्रमंडल खेलों के आयोजन पर कुल मिलाकर ७५,००० करोड  रु. खर्च होने वाला है। इसमें से लगभग ६०,००० करोड  रु. दिल्ली में इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी बुनियादी ढांचा बनाने पर खर्च होगा। एक वर्ष पहले इंडिया टुडे ने अनुमान लगाया था कि राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन पर कुल मिलाकर ८०,००० करोड  रु. खर्च होंगे। अब यह अनुमान और बढ  जाएगा।   कहा जा रहा है कि ये अभी तक के सबसे महंगे राष्ट्रमंडल खेल होंगे। ये सबसे महंगे खेल एक ऐसे देश में होगें, जो प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से दुनिया के निम्नतम दे्शों में से एक है। हर ४ वर्ष पर होने वाले राप्ट्रमंडल खेल अक्सर अमीर देशों में ही होते रहे हैं। सिर्फ जमैका ने १९६६ और मलेशिया ने १९९८ में इनके आयोजन की हिम्मत की थी। लेकिन तब आयोजन इतना खर्चीला नहीं था। भारत से बेहतर आर्थिक हालात होने के बावजूद मलेशिया ने उस राशि से बहुत कम खर्च किया था, जितना भारत खर्च करने जा रहा है।

देश के लिए क्या ज्यादा जरुरी है ?

सवाल यह है भारत जैसे गरीब देश में साम्राज्यवादी अवशेष के इस बारह-दिनी तमाशे पर इतनी विशाल राशि खर्च करने का क्या औचित्य है ? देश के लोगों की बुनियादी जरुरतें पूरी नहीं हो रही हैं। आज दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे, कुपोषित, आवासहीन और अशिक्षित लोग भारत में रहते हैं। इलाज के अभाव में मौतें होती रहती है। गरीबों को सस्ता राशन, पेयजल, इलाज की पूरी व्यवस्था, बुढ़ापे की पेन्शन और स्कूलों में पूरे स्थायी शिक्षक एवं भवन व अन्य सुविधाएं देने के लिए सरकार पैसे की कमी का रोना रोती है और उनमें कटौती करती रहती है। निजी-सरकारी भागीदारी और निजीकरण के लिए भी वह यही दलील देती है कि उसके पास पैसे की कमी है। फिर राष्ट्रमंडल खेलों के इस तमाशे के लिए इतना पैसा कहां से आ गया ? इस एक आयोजन के लिए उसका खजाना कैसे खुला हो जाता है और वह इतनी दरियादिल कैसे बन जाती है ? सरकार का झूठ और कपट यहीं पकड़ा जाता है।

देश के ज्यादातर स्कूलों में पूरे शिक्षक और पर्याप्त भवन नहीं है। प्रयोगशालाओं , पुस्तकालयों और खेल सुविधाओं का तो सवाल ही नहीं उठता। पैसा बचाने के लिए विश्व बैंक के निर्दे्श पर सरकारों ने स्थायी शिक्षकों की जगह पर कम वेतन पर, ठेके पर, अस्थाई पैरा – शिक्षक लगा लिए हैं। संसद में पारित शिक्षा अधिकार कानून ने भी इस हालत को बदलने के बजाय चतुराई से ढकने का काम किया है। उच्च शिक्षा के बजट में भी कटौती हो रही है तथा कॉलेजों और विद्गवविद्यालयों में ‘स्ववित्तपोषित’ पाठ्‌यक्रमों पर जोर दिया जा रहा है। इसका मतलब है गरीब एवं साधारण परिवारों के बच्चों को शिक्षा के अवसरों से वंचित करना।
भारत सरकार देश के सारे गरीबों को सस्ता रा्शन, मुफ्त इलाज, मुफ्त पानी, पेन्शन और दूसरी मदद नहीं देना चाहती है। एक झूठी गरीबी रेखा बनाकर विशाल आबादी को किसी भी तरह की मदद व सुविधाओं से वंचित कर दिया गया है। सवाल यह है कि देश की प्राथमिकताएं क्या हो ? देश के लिए क्या ज्यादा जरुरी है – देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा देना, सबको इलाज, सबको भोजन, सबको पीने का पानी, सिंचाई आदि मुहैया कराना या फिर भयानक फिजूलखर्ची वाले राष्ट्रमंडल खेलों जैसे आयोजन ? क्या यह झूठी शान और विलासिता नहीं है।
भारत की सरकारें इसी तरह हथियारों, फौज, अंतरिक्ष अभियानों, अणुबिजलीघरों जैसी कई झूठी शान वाली गैरजरुरी चीजों पर इस गरीब देश के संसाधनों को बरबाद करती रहती हैं। इसी तरह १९८२ में दिल्ली में एशियाई खेलों के आयोजन में वि्शाल फिजूलखर्च किया गया था। दिल्ली में फ्लाईओवर बनाने का सिलसिला उसी समय शुरु हुआ। दिल्ली में कई नए पांच सितारा होटलों को इजाजत भी उस समय दी गई थी, उन्हें सरकारी जमीन और मदद दी गई थी और विलासिता व अय्याशी की संस्कृति को बढ़ावा दिया गया था। राप्ट्रमंडल खेलों से एक बार फिर नए होटलों को इजाजत व मदद देने का बहाना सरकार में बैठे अमीरों को मिल गया है।

सारे नेता, सारे प्रमुख दल, बुद्धिजीवी और मीडिया झूठी शान वाले इस आयोजन की जय-जयकार में लगे हैं। विपक्षी नेता और मीडिया आलोचना करते दिख रहे हैं तो इतनी ही कि निर्माण कार्य समय पर पूरे नहीं होंगे। लेकिन इसके औचित्य पर वे सवाल नहीं उठाते। इस तमाशे में ठेकेदारों, कंपनियों तथा कमीशनखोर नेताओं की भारी कमाई होगी। उनकी पीढ़ियां तर जाएगी। विज्ञापनदाता देशी-विदेशी कंपनियों की ब्रिकी बढ़ेगी। मीडिया को भी भारी विज्ञापन मिलेंगे। घाटे में सिर्फ देश के साधारण लोग रहेंगे। यह लूट और बरबादी है।

( जारी )

अगली किश्त में – कैसा इन्फ़्रास्ट्रक्चर ? किसके लिए ?

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भारत सरकार के प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक ने देश में एक बहस छेड़ दी है। सरकार ने इस खाद्य सुरक्षा का मतलब सस्ती दरों पर खाद्यान्नों की सार्वजनिक वितरण प्रणाली से माना है और इसे वह गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों तक सीमित करना चाहती है। राज्य सरकारों को लिखे एक पत्र में भारत सरकार के खाद्य मंत्रालय ने यह भी कहा है कि ये सरकारें अपनी मर्जी से गरीबो की संख्या बढ़ाना तथा बीपीएल राशन कार्ड बांटना बंद करें और योजना आयोग द्वारा हर प्रांत के लिए तय की गई गरीबों की संख्या पर ही कायम रहें।

पत्र में इस बात पर चिंता जाहिर की गई है कि योजना आयोग के अनुसार देश में 6.52 करोड़ गरीब परिवार होना चाहिए, लेकिन देश में 10.68 करोड़ बीपीएल कार्ड हो गए हैं, यानी 4.16 करोड़ कार्ड ज्यादा बन गए हैं। गरीबी के नए अनुमानों के मुताबिक तो देश में अब बीपीएल कार्डों की संख्या 5.91 करोड़ ही होना चाहिए।

यदि शरद पवार वाले इस मंत्रालय की चली, तो देश के गरीबों की जिन्दगियों पर यह एक और हमला होगा। भारत सरकार का योजन आयोग जिस तरह गरीबी रेखा का निर्धारण कर रहा है, उस पर कई सवाल खड़े हो रहे हैं। योजना आयोग के आंकड़ोंमें तो देश की गरीबी कम होती जा रही है और विकास व प्रगति की एक उजली तस्वीर उभरती है। इन के मुताबिक देश में 1973-74 में 55 प्रतिशत लोग गरीब थे, जो 1983 में घटकर 44 प्रतिशत, 1993-94 में36 प्रतिशत, 1999-2000 में 26 प्रतिशत रह गए। वर्ष 2004-05 में मामूली बढ़कर यह प्रतिशत 27.5 हो गया। इन्ही आंकड़ों के दम पर सरकार दावा करती है कि विकास के फायदे नीचे तक ‘रिस’ रहे हैं और वह लोगों को धीरज रखने को कहती है।

योजना आयोग का गरीबी का आकलन सत्तर के दशक में न्यूनतम कैलोरी उपभोग पर आधारित है। वर्ष 1973 में ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी (प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति) वाला भोजन करने वाले परिवारों की आय देखी गई और उसे ही गरीबी रेखा मान लिया गया। बाद के वर्षों में उसी आय को कीमतों के सूचकांक में वृद्धि के अनुपात में बढ़ाया जाता रहा। लेकिन इस बीच साधारण भारतवासी के बजट में अन्य वस्तुओं व सेवाओं के खर्च व उनकी कीमतों में काफी वृ्द्धि हुई, जिसे योजना आयोग ने नजरअंदाज कर दिया। नतीजा यह हुआ कि बाद के वर्षों मेंसरकारी गरीबी रेखा वाली आय के परिवार अब पहले से काफी कम कैलोरी वाला भोजन कर पा रहे हैं। उनके भोजन में कटौती हो गई है।

उदाहरण के लिए वर्ष 2004-05 में सरकार ने जिस आय को गरीबी रेखा माना है, राष्ट्रीय सेम्पल सर्वेक्षण के मुताबिक उस आय वाले परिवार मात्र 1800 कैलोरी का ही उपभोग कर रहे थे। यदि निर्धारित न्यूनतम 2400 (ग्रामीण) और 2100 (शहरी) कैलोरी भोजन वाले परिवारों की आय निकाली जाए तो वह सरकारी गरीबी रेखा आय से लगभग दुगुनी होगी। देश में गरीबों का प्रतिशत 27.5 के स्थान पर 75.8 हो जाएगा। स्पष्ट है कि 48 प्रतिशत से ज्यादा आबादी या 54 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा के बाहर रखकर सरकारी योजनाओं व मदद से वंचित किया जा रहा है।

डॉ. उत्सा पटनायक जैसे कई मूर्धन्य अर्थशास्त्रियों ने इस विसंगति को बार-बार उजागर किया है। लेकिन लगता है कि योजना आयोग जानबूझकर आंकड़ों का यह घपला जारी रखना चाहता है, ताकि सरकार की जिम्मेदारी कम रहे, विकास का भ्रम बना रहे और नवउदारवादी सुधारों की गाड़ी चलती रहे। विश्व बैंक एवं अन्य अंतरराष्ट्रीय ताकतें भी यही चाहती है।

पिछले दिनों एक सरकारी समिति ने भी गरीबी रेखा के आकलन में इस अंतर्विरोध को स्वीकार किया है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने डॉ. एन.सी.सक्सेना की अध्यक्षता में गरीबों को चिन्हित करने के लिए विशेषज्ञ समूह का गठन किया है। इस की अंतरिम रपट में स्वीकार किया गया है कि गरीबी रेखा का यह निर्धारण दोषपूर्ण है। इसके पहले अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में बने असंगठित  क्षेत्र आयोग ने भी बताया था कि देश की 77 प्रतिशत आबादी या 83 करोड़ लोग 20 रु. रोज से नीचे गुजारा कर रहे है। इसे ही गरीबी का सबसे अच्छा आकलन मानना चाहिए।

गरीबी रेखा के गलत व त्रुटिपू्र्ण नि्र्धारण के पीछे एक राजनीति भी है। इससे देश के गरीबों की बड़ी संख्या को किसी भी प्रकार की सरकारी मदद से वंचित किया जा सकता है। साथ ही गरीबों को आपस मे बांटा व उलझाया जा सकता है। देश के गांवों और शहरी झोपड़पटि्टयों के गरीब लोग इसी मुद्दे पर उलझे रहते हैं कि फलां का नाम कैसे गरीबी रेखा की सूची में है और उनका नाम क्यों नहीं है। आपसी द्वेष और द्वन्द्व भी पैदा होता है। कई समझदार लोग भी मान लेते हैं कि  भ्रष्टाचार एवं गलत लोगों के नाम इस सूची में शामिल होने से समस्या पैदा हुई है। लेकिन कुछ संपन्न लोगों के नाम हटा देने से यह समस्या हल नहीं होने वाली है, क्योंकि गरीबी रेखा की सूची को जरुरत से काफी छोटा रखा जाता है। यह मामला क्रियान्वयन में कमी या भ्रष्टाचार का नहीं, सरकार की नीति व नियत में ही खोट का है।

कुल मिलाकर, गरीबी रेखा के इस भ्रमजाल को समझना और इससे बाहर आना जरुरी है। अर्थशास्त्रियों और विद्वानों की बौद्धकि कसरतों के लिए यह ठीक है, किन्तु सरकारी योजनाओं व कार्यक्रमों के लिए इसे आधार बनाना ठीक नहीं हैं। जनकल्याण की समस्त योजनाएं व सुविधाएं देश की साधारण जनता के लिए होने चाहिए, सिर्फ गरीबी रेखा की सूची के परिवारों तक उन्हें सीमित नहीं किया जाए। जिस देश में 75-80 प्रतिशत आबादी गरीबी एवं अभावों में जी रही हो, वहां इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। यदि कोई भेद करना है, तो वह अमीरों को बाहर करके किया जा सकता है। आयकर का भुगतान करने वाले, निजी मोटरगाड़ी रखने वाले, जैसे कुछ मानक बनाकर अमीर परिवारों की एक नकारात्मक सूची बनाई जा सकती है। यह ज्यादा सरल एवं व्यवहारिक भी होगा। दूसरे शब्दों में, देश को गरीबी रेखा के बजाय एक अमीरी रेखा की जरुरत है। इस अमीरी रेखा की सूची के लोगों को सरकारी मदद व अनुदान से वंचित किया जा सकता है और उन पर भारी टैक्स लगाए जा सकते हैं। देश में जमीन की हदबंदी की ही तरह संपत्ति व आमदनी की एक ऊपरी सीमा बनाने पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। आखिर हम यह नहीं भूल सकते कि अमीरी और गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
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(लेखक समाजवादी जन परिषद् का राष्ट्रीय अध्यक्ष है।)

सुनील, ग्राम पोस्ट -केसला, वाया इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) 461 111

फोन नं० – 09425040452, फोन 09425040452]  ईमेल & sjpsunilATgmailDOTcom

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