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Posts Tagged ‘भ्रष्टाचार’

जन लोकपाल विधेयक के लिए टीम-अन्ना के साथ मंत्रीमण्डल  के पांच प्रमुख सदस्यों की फेहरिश्त को सरकारी गजट में छापने के बाद अण्णा हजारे का पिछला अनशन टूटा था । प्रस्तावित विधेयक के मसौदे पर टीम-अण्णा और टीम – सोनिया की सहमती न बन पाने के बाद जनता के समक्ष दो मसौदे हैं । हृदय-परिवर्तन , आत्मशुद्धि – यह सब उपवास के साथ चलने वाली प्रक्रियाएं हैं , अनशन के साथ की नहीं । इसलिए हृदय – परिवर्तन या आत्मशुद्धि की उम्मीद रखना अनुचित है । उपवास से अलग अनशन में कुछ मांगों के पूरा होने की उम्मीद रखी जाती है । हृदय – परिवर्तन के दर्शन में लोहिया का एक गम्भीर योगदान है । ऐसे मौके पर देश का ध्यान उस ओर दिलाना भी बहुत जरूरी है । लोहिया इस बात पर जोर देते थे कि प्रतिपक्षी के हृदय – परिवर्तन से ज्यादा महत्वपूर्ण है व्यापक जनता का लड़ने के लिए मन और हृदय का बनना । व्यापक जनता का मन जब लड़ने के लिए तैयार हो जाता है तब अनशन जैसे तरीकों की जरूरत टल जाया करती है। भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए निर्णायक संघर्ष में किसी नेता के अनशन से आन्दोलन करने के लिए व्यापक जनता का मन बना लेना कम महत्वपूर्ण नहीं होता है । अण्णा के अनशन द्वारा जनता का हृदय लड़ने के लिए अवश्य परिवर्तित होगा ।

सरकार ने अपना विधेयक संसद में पेश किया है तथा इसी आधार पर टीम सोनिया के मुखर सदस्य टीम अण्णा द्वारा जन-लोकपाल बिल के लिए अनशन-प्रदर्शन को भी संसद की अवमानना कह रहे हैं । आजाद भारत के संसदीय इतिहास में कई बार अलोकतांत्रिक और जन विरोधी विधेयकों का विरोध हुआ है और फलस्वरूप विधेयक अथवा अध्यादेश कानून नहीं बन पाये हैं । बिहार प्रेस विधेयक और ५९वां संविधान संशोधन विधेयक की यही परिणति हुई थी।  मानवाधिकारों के बरक्स पोटा जैसे कानूनों के खरा न उतरने की वजह से संसद ने ही उसे रद्द भी किया । वैसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में जनता के सर्वोपरि होने का एक बड़ा उदाहरण टीम सोनिया को याद दिलाना जरूरी है । देश के संविधानमें आन्तरिक आपातकाल लागू किए जाने के प्राविधान को १९७७ की जनता पार्टी की सरकार द्वारा संशोधित किया जाना जनता की इच्छा की श्रेष्टता का सबसे उचित उदाहरण माना जाना चाहिए । केन्द्र की विधायिका के अलावा संघीय ढांचे को महत्व देते हुए अब दो-तिहाई राज्यों की विधान सभाओं में दो-तिहाई बहुमत के बिना आन्तरिक आपातकाल नहीं लगाया जा सकता । देश के लोकतंत्र पर कांग्रेस सरकार द्वारा लादे गए एक मात्र आन्तरिक आपातकाल का जवाब देश की जनता ने उक्त संविधान संशोधन करने वाली जनता पार्टी को जिता कर किया था। जनता पार्टी की तमाम कमजोरियों के बावजूद इस एक  ऐतिहासिक संविधान संशोधन को याद किया जाएगा जिसके लिए जनता द्वारा दिए गए जनादेश को लोकतंत्र की तानाशाही पर जीत की संज्ञा दी गई । अण्णा हजारे के आन्दोलन के पूर्व इस परिवर्तन को ही ’दूसरी आजादी’ कहा जाता था ।

 जनता और संसद की औकात को गांधीजी ने ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ नामक पुस्तिका में स्पष्ट किया है । उम्मीद है इन बुनियादी बातों को हम इतिहास के इस मोड़ पर याद रखेंगे ।

” हम अरसे से इस बात को मानने के आदी बन गये हैं कि आम जनता को सत्ता या हुकूमत सिर्फ धारा सभा (विधायिका) के जरिये मिलती है। इस खयाल को मैं अपने लोगों की एक गंभीर भूल मानता रहा हूं। इस भ्रम या भूल की वजह या तो हमारी जड़ता है या वह मोहिनी है, जो अंग्रेजों को रीति रिवाजों ने हम पर डाल रखी है। अंग्रेज जाति के इतिहास के छिछले या ऊपर-ऊपर के अध्ययन से हमने यह समझ लिया है कि सत्ता शासन-तंत्र की सबसे बड़ी संस्था पार्लमेण्ट से छनकर जनता तक पहुंचती है। सच बात यह है कि हुकूमत या सत्ता जनता के बीच रहती है, जनता की होती है और जनता समय-समय पर अपने प्रतिनिधियों की हैसियत से जिनको पसंद करती है, उनको उतने समय के लिए उसे सौंप देती है। यही क्यों, जनता के बिना स्वतंत्र पार्लमेण्ट की सत्ता तो ठीक, हस्ती तक नहीं होती। पिछले इक्कीस बरसों से भी ज्यादा अरसे से मैं यह इतनी सीधी-सादी बात लोगों के गले उतरने की कोशिश करता रहा हूं। सत्ता का असली भण्डार या खजाना तो सत्याग्रह की या सिविल नाफरमानी की शक्ति में है। एक सूमचा राष्ट्र अपनी धारा सभा के कानूनों के अनुसार चलने से इनकार कर दे, और इस सिविल नाफरमानी के नतीजों को बरदाश्त करने के लिए तैयार हो जाए तो सोचिये कि क्या होगा ! ऐसी जनता धारा सभा को और उसके शासन-प्रबंधन को जहां का तहां, पूरी तरह, रोक देगी। सरकार की, पुलिस की या फौज की ताकत, फिर वह इतनी जबरदस्त क्यों नहीं हो, थोड़े लोगों को ही दबाने में कारगर होती है। लेकिन जब कोई समूचा राष्ट्र सब कुछ सहने को तैयार हो जाता है, तो उसके दृढ़ संकल्प को डिगाने में किसी पुलिस की या फौज की कोई जबरदस्ती काम नहीं देती। “

गांधी जितनी व्यापक जन सहभागिता वाली सिविल नाफ़रमानी की बात यहां कर रहे हैं उसके लिए भ्रष्टाचार के अलावा उन तमाम जन आन्दोलनों को जोड़ना होगा जो देश भर में आर्थिक नीतियों से उत्पन्न दुष्परिणामों के विरुद्ध चल रहे हैं ।

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वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को पुलिस के साथ ठेकेदारों , बिल्डरों और कॉलॉनाइजरों तथा अन्य न्यस्त स्वार्थी तत्वों के गठजोड़ की जानकारी भली प्रकार है । इस नए किस्म के अनैतिक – गैर – कानूनी गठजोड़ के स्वरूप पर गौर करने से मालूम पड़ता है कि इस कदाचार को उच्च प्रशासन का वरद हस्त प्राप्त है। आश्चर्य नहीं होगा यदि पता चले कि वरि्ष्ठ अधिकारी इस किस्म के भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित भी करते हों ।

वाराणसी जिले के विभिन्न थाना परिसर व पुलिस चौकियों में निर्माण कार्य ठेकेदारों , बिल्डरों , कॉलॉनाईजरों से कराए गए हैं । इन निर्माण कार्यों के लिए पुलिस विभाग ने एक भी पैसा खर्च नहीं किया है । उदारीकरण के दौर की ’प्राईवेट-पब्लिक पार्टनरशिप ’ की अधिकृत नीति के इस भोंड़े अनुसरण ने उसे दुर्नीति बना दिया है । इस नए तरीके में प्रत्यक्ष तौर पर व्यक्ति विशेष के बजाए महकमे को लाभ पहुंचाया जाता है । मुमकिन है कि न्यस्त स्वार्थों से काम कराने वाले दरोगा या उपाधीक्षक को अप्रत्यक्ष लाभ या प्रोत्साहन भी दिया जाता हो ।पडोस के जिले मिर्जापुर में तो देश के सबसे बदए बिल्डरों में एक ’जेपी एसोशिएट्स’ ने तो एक थाना ही बना कर भेंट दिया है।

भ्रष्टाचार की इस नई शैली में घूस को पकड़ना ज्यादा सरल है । नगद घूस की लेन-देन को ’रंगे हाथों’ पकड़ने के लिए आर्थिक अपराध शाखा का छापा मय नौसादर जैसे रसायनों तथा नोटों के नम्बर पहले से दर्ज कर मारा जाता है । कदाचार को पकड़ने के इस पारम्परिक तरीके में कई झोल हैं । छापा मारने वाले विभाग की भ्रष्टाचारियों से साँठ-गाँठ हो जाने की प्रबल संभावना रहती है । जैसे नकलची परीक्षार्थियों द्वारा पकडे जाने पर चिट उदरस्थ करने की तकनीक अपनाई जाती है वैसे ही घूस मिल रहे नोटों को निगलने के प्रकरण भी हो जाया करते हैं ।  अ-सरकारी ’देश प्रेमियों ’ द्वारा कराए गए निर्माण चिट की भाँति निगल जाना असंभव है ।

जिन भ्रष्ट तत्वों द्वारा नये किस्म के दुराचार के तहत निर्माण कराये जाते हैं उनको मिले लाभ भी अक्सर देखे जा सकते हैं । मजेदार बात यह है कि सूचना के अधिकार के तहत जब इन निर्माणों के बारे में पूछा गया तो पुलिस विभाग के लिए बिल्डरों द्वारा कराए गए निर्माण को पूर्णतया नकार दिया गया। इसके बदले बिल्डर के भव्य शॉपिंग कॉम्प्लेक्स को नगर निगम के रिक्शा स्टैण्ड को निगलने की छूट मिल गई। शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के भूतल में वाहनों के लिए जो खाली जगह छोड़ी गई थी वहां भी दुकाने खुल गई हैं। फलस्वरूप वाहन लबे सड़क खड़े होकर जाम लगा रहे हैं । मनोविज्ञान की पाठ्य पुस्तकों के उदाहरण याद कीजिए – पति से हुए विवाद के कारण शिक्षिका पत्नी अपने स्कूल में बच्चे को छड़ी लगाती है और आखिर में बच्चा कुत्ते पर ढेला चला कर सबसे कमजोर पर गुस्सा उतारता है । वैसे ही इस शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में आई गाड़ियों से उत्पन्न यातायात के व्यवधान का गुस्सा पुलिस सबसे कमजोर तबके – पटरी व्यवसाइयों पर लाठी भांज कर,तराजू-बटखरा जब्त कर निकालती है ।

    विनोबा भावे के जुमले का प्रयोग करें तो उदारीकरण के दौर में सृजित भ्रष्टाचार की इस नई विधा का वर्णन करना हो तो कहना होगा – ’ अ-सरकारी तत्वों द्वारा कराया गया यह सरकारी काम इन चोरों की दृष्टि से असरकारी है ।’

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पिछले हिस्से : एक , दो

    आधुनिक केंद्रित व्यवस्थाओं में ऊँचे ओहदे वाले लोग अपने फैसले से किसी भी व्यक्ति को विशाल धन राशि का लाभ या हानि  पहुँचा सकते हैं । लेकिन इन लोगों की अपनी आय अपेक्षतया कम होती है। इस कारण एक ऐसे समाज में जहाँ धन सभी उपलब्धियों का मापदंड मान लिया जाता हो व्यवस्था के शीर्ष स्थानों पर रहने वाले लोगों पर इस बात का भारी दबाव बना रहता है कि वे अपने पद का उपयोग नियमों का उल्लंघन कर नाजायज ढंग से धन अर्जित करने के लिए करें और धन कमाकर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त प्राप्त करें । यहीं से राजनीति में भ्रष्टाचार शुरु होता है । लेकिन विकसित औद्योगिक समाजों में व्यवस्था की क्षमता को कायम रखने के लिए नियम कानून पर चलने और बराबरी की प्रतिस्पर्धा के द्वारा सही लोगों के चयन का दबाव ऐसा होता है जो ऐसे भ्रष्टाचार के विपरीत काम करता है । ऐसे समाजों में लोग भ्रष्ट आचरण के खिलाफ सजग रहते हैं क्योंकि इसे कबूल करना व्यवस्था के लिए विघटनकारी हो सकता है । हमारे समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसे व्यवस्थागत मूल्यों का निर्माण नहीं हो पाया है । इसके विपरीत जहां हमारी परंपरा में संपत्ति और सामाजिक सम्मान को अलग – अलग रखा गया था वहीं आज के भारतीय समाज संपत्ति ही सबसे बड़ा मूल्य बन गई है और लोग इस विवेक से शून्य हो रहे हैं कि संपत्ति कैसे अर्जित की गई है इसका भी लिहाज रखें । इस कारण कोई भी व्यक्ति जो चोरी , बेईमानी , घूसखोरी तथा हर दूसरी तरह के कुत्सित कर्मों से धन कमा लेता है वह सम्मान पाने लगता है । इस तरह कर्म से मर्यादा का लोप हो रहा है ।

    आधुनिकतावादियों पर , जो धर्म और पारंपरिक मूल्यों को नकारते हैं तथा आधुनिक उपकरणों से सज्जित ठाठबाट की जिंदगी को अधिक महत्व देते हैं , भ्रष्ट आचरण का दबाव और अधिक होता है । इस तरह हमारे यहाँ भ्रष्टाचार सिर्फ वैयक्तिक रूप से लोगों की ईमानदारी के ह्रास का परिणाम नहीं है बल्कि उस सामाजिक मूल्यहीनता का परिणाम है जहां पारंपरिक मूल्यों का लोप हो चुका है पर पारंपरिक वफादारियां अपनी जगह पर जमी हुई है । इसीका नतीजा है कि आधुनिकता की दुहाई देने वाले लोग बेटे पोते को आगे बढ़ाने में किसी भी मर्यादा का उल्लंघन करने से बाज नहीं आते । चूँकि हमारे समाज में विस्तृत परिवार के प्रति वफादारी के मूल्य को सार्वजनिक रूप से सर्वोपरि माना जाता रहा है कुनबापरस्ती या खानदानशाही  के खिलाफ सामाजिक स्तर पर कोई खास विरोध नहीं बन पाता । आम लोग इसे स्वाभाविक मानकर नजरअंदाज कर देते हैं । ऐसी स्थिति में इनका विरोध प्रतिष्ठानों के नियम कानून के आधार पर ही संभव हो पाता है ।

    ऊपर की बातों पर विचार करने से लगता है कि जब तक संपत्ति और सत्ता का ऐसा केंद्रीयकरण रहेगा जहाँ थोड़े से लोग अपने फैसले से किसी को अमीर और किसीको गरीब बना सकें और समाज में घोर गैर-बराबरी भी रहेगी तब तक भ्रष्टाचार के दबाव से समाज मुक्त नहीं हो सकता । यही कारण है कि दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी और आदर्शवादी लोग सत्ता में जाते ही नैतिक फिसलन के शिकार बन जाते हैं । एक ऐसे समाज में ही जहाँ जीवन का प्रधान लक्ष्य संपत्ति और इसके प्रतीकों का अंबार लगाकर कुछ लोगों को विशिष्टता प्रदान करने की जगह लोगों की बुनियादी और वास्तविक जरूरतों की पूर्ति करना है भ्रष्ट आचरण नीरस बन सकता ।

    भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समता मूलक समाज बनाने के आंदोलन के क्रम में ही हो सकता है जहाँ समाज के ढाँचे को बदलने के रा्ष्ट्रव्यापी आंदोलन के संदर्भ में स्थानीय तौर से भ्रष्टाचार के संस्थागत बिंदुओं पर भी हमला हो सके । बिहार में चलने वाले १९७४ के छात्र आंदोलन की कुछ घटनायें इसका उदाहरण हैं, जिसमें एक अमूर्त लेकिन महान लक्ष्य ’संपूर्ण क्रांति’ के संदर्भ में नौजवानों में एक ऐसी उर्जा पैदा हुई कि बिहार के किशोरावस्था के छात्रों ने प्रखंडों में और जिलाधीशों के बहुत सारे कार्यालयों में घूसखोरी आदि पर रोक लगा दी थी । लेकिन न तो संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य स्पष्ट था और न उसके पीछे कोई अनुशासित संगठन ही था । इसलिए जनता पार्टी को सत्ता की राजनीति के दौर में वह सारी उर्जा समाप्त हो गई ।

    अंतत: हर बड़ी क्रांति कुछ बुनियादी मूल्यों के इर्दगिर्द होती है । इन्हीं मूल्यों से प्रेरित हो लोग समाज को बदलने की पहल करेते हैं । हमारे देश में , जहां परंपरागत मूल्यों का ह्रास हो चुका है और आधुनिक औद्योगिक समाज की संभावना विवादास्पद है , भ्रष्टाचार पर रोक लगाना तभी संभव है जब देश को एक नयी दिशा में विकसित करने का कोई व्यापक आंदोलन चले । इसके बिना भ्रष्टाचार को रोकने के प्रयास विफलताओं और हताशा का चक्र बनाते रहेंगे ।

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सक्रिय निष्ठा और और सक्रिय द्रोह के मध्य कोई बीच का रास्ता नहीं हुआ करता है । ‘ यदि किसी व्यक्ति को खुद को मनमुटाव का दोषी न होना साबित करना है तो उसे अपने को सक्रिय रूप से स्नेही साबित करना होगा ।’-मरहूम न्यायमूर्ति स्टीफन की इस टिप्पणी में काफ़ी सच्चाई है । लोकतंत्र के इस जमाने में किसी व्यक्ति के प्रति निष्ठा का प्रश्न नहीं उठता। इसके बजाए अब आप संस्थाओं के प्रति निष्ठावान या द्रोही होते हैं । इस प्रकार जब आप आज के जमाने में द्रोह करते हैं तब किसी व्यक्ति का नहीं संस्था का नाश चाह रहे होते हैं । जो मौजूदा राज्य-व्यवस्था को समझ सके हैं  वह जानते हैं कि यह कत्तई निष्ठा उत्पन्न करने वाली संस्था नहीं है । वह भ्रष्ट है । लोगों के व्यवहार को निर्धारित करने के लिए उसके द्वारा बनाए गए कई कानून निश्चित तौर पर अमानवीय हैं । राज्य व्यवस्था के प्रशासन की स्थिति बदतर है । अक्सर एक व्यक्ति की इच्छा कानून बन जाया करती है । यह आराम से कहा जा सकता है कि हमारे देश में जितने जिले हैं उतने शासक हैं। ये शासक कलक्टर कहे जाते हैं तथा इन्हें कार्यपालिका और न्यायिक कार्य करने के अधिकार एक साथ मिले हुए हैं । यूँ तो यह माना जाता है कि इनके कार्य कानूनों से संचालित होते हैं जो अपने आप में अत्यधिक दोषपूर्ण होते हैं । अक्सर ये शासक स्वेच्छाचारी होते हैं तथा अपनी सनक के अलावा इन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता । अपने परदेशी आकाओं अथवा मालिकों के सिवा वे किसी के हित का प्रतिनिधित्व नहीं करते । इन करीब तीन सौ लोगों ने लगभग गुप्त-सा एक संघ बना लिया है जो दुनिया में सबसे ताकतवर है । यह अपेक्षा की जाती है कि एक न्यूनतम राजस्व वे हासिल करें , इसीलिए जनता से व्यवहार में अक्सर वे अनैतिक हो जाते हैं । सरकार की यह व्यवस्था ऐलानिया असंख्य भारतवासियों के निर्दय शोषण पर आधारित है । गाँवों के मुखिया से लगायत इन क्षत्रपों के निजी सहायकों तक इन्होंने मातहतों का एक वर्ग तैयार कर रखा है , जो अपने विदेशी मालिकों के समक्ष घिघियाता है जबकि जनता के प्रति उनका रोजमर्रा का व्यवहार इतना गैर जिम्मेदाराना और कठोर होता है कि उनका मनोबल गिर जाए तथा एक आतंकी व्यवस्था द्वारा जनता भ्रष्टाचार का प्रतिकार करने के काबिल न रह जाए । भारत सरकार की इस भयानक बुराई की जिन्होंने शिनाख्त कर ली है उनका यह दायित्व है कि वे इसके प्रति द्रोह करने का जोर-शोर से प्रचार करें । ऐसे भ्रष्ट राज्यतंत्र के प्रति भक्ति प्रकट करना एक पाप है , द्रोह एक सद्गुण है ।

इन तीन सौ लोगों के आतंक के साये में संत्रस्त तीस करोड़ लोगों का तमाशा  निरंकुश शासकों तथा उनके शिकार दोनों के प्रति समान तौर पर मनोबल गिराने वाली बात है । इस व्यवस्था की बुराई को जो समझ चुके हैं उन्हें इसे बिना देर नष्ट करने में लग जाना चाहिए भले ही बिना सन्दर्भ देखने पर इसकी कुछ विशिष्टतायें आकर्षक प्रतीत हों । ऐसे लोगों का यह स्पष्ट दायित्व है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे हर जोखिम उठायें ।

परन्तु यह भी साथ-साथ स्पष्ट रहे कि इस व्यवस्था के इन तीन सौ संचालकों और प्रशासकों को नष्ट करने की मंशा यदि यह तीस करोड़ लोग पाल लेते हैं तो वह कायरता होगी । इन प्रशासकों तथा उनके भाड़े के टट्टूओं को खत्म करने की युक्ति निकालना घोर अज्ञान का द्योतक होगा । इसके अलावा यह भी जान लेना चाहिए कि प्रशासकों का यह तबका परिस्थितिजन्य कठपुतलियां हैं । इस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला सर्वाधिक निष्कलुष व्यक्ति भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता तथा इस बुराई के  दुष्प्रचार का औजार बन जाता है । इसलिए  स्वभावत: इस व्याधि का इलाज प्रशासकों के प्रति क्रुद्ध होकर उन्हें  चोट पहुंचाकर नहीं होगा अपितु व्यवस्था से समस्त -संभव ऐच्छिक सहयोग वापस लेकर एवं कथित लाभ लेने से इनकार द्वारा अहिंसक असहयोग से होगा । तनिक विचार द्वारा हम पायेंगे कि सिविल नाफ़रमानी असहयोग का अनिवार्य हिस्सा है । आदेशों और फ़रमानों का पालन कर हम किसी भी प्रशासन का सर्वाधिक कारगर ढंग  से सहयोग करते हैं । कोई भी अनिष्टकर प्रशासन ऐसी साझेदारी का कत्तई पात्र नहीं होता । इससे वफ़ादारी का मतलब पाप का भागी होना होता है । इसीलिए हर अच्छा व्यक्ति ऐसी बुरी व्यवस्था या प्रशासन का अपनी पूरी आत्मा से प्रतिकार करेगा । किसी बुरे राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों की नाफ़रमानी इसलिए दायित्व बन जाता है । हिंसक नाफ़रमानी का साबका उन लोगों से होता है जिनका स्थान अन्य कोई ले सकता है । हिंसक नाफ़रमानी द्वारा पाप अछूता रह जाता है तथा अक्सर उसे बल मिलता है । जो खुद को इस बुराई से जुदा रखना चाहते हैं उनके लिए अहिंसक यानी सिविल नाफ़रमानी एक मात्र तथा सबसे कारगर इलाज है तथा यह करना उनका फर्ज है ।

बतौर इलाज सिविल नाफ़रमानी अब तक आंशिक तौर पर आजमाया हुआ उपाय ही है , यह ही इसका खतरा भी है चूंकि हिंसाग्रस्त वातावरण में ही इसका प्रयोग किया जाना चाहिए ।  जब अबाध तानाशाही फैली हुई होती है तब उससे पीडित जनता में क्रोध पैदा होता है। पीडितों की कमजोरी के कारण यह क्रोध अव्यक्त रहता है किन्तु मामूली बहाने से ही इसका विस्फोट पूर्ण उन्माद के साथ होता है । सिविल नाफ़रमानी इस गैर-अनुशासित , जीवन-नाशक छिपी उर्जा को अचूक सफलता वाली अनुशासित ,जीवन-रक्षक उर्जा में रूपान्तरित करने का राम-बाण उपाय  है । सफलता के वादे के कारण इस प्रक्रिया में निहित जोखिम उठाना कुछ भी नुकसानदेह नहीं है । उड्डयन के विज्ञान का विकास एक ऊंचा स्तर हासिल कर चुकने के बावजूद जब दुनिया सिविल नाफ़रमानी के इस्तेमाल की आदी हो जाएगी तथा जब इसके सफल प्रयोगों की शृंखला बन चुकी होगी तब इसमें उड्डयन से भी कम जोखिम रह जाएगा ।

यंग इंडिया , २७-३-’३० , पृ. १०८

( मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अफ़लातून )

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माननीय अन्ना,

जन लोकपाल कानून बनाने से जुड़ी मांग पूरी हुई । देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो गुस्सा है वह इस जायज मांग के समर्थन में कमोबेश प्रकट हुआ । आपने इसके समर्थन में अनशन किया और भ्रष्टाचार से त्रस्त तरुणों की जमात ने उसका स्वत:स्फूर्त समर्थन किया ।

अनशन की शुरुआत में जब आपने इस लड़ाई को ’दूसरी आजादी की लड़ाई’ कहा तब मुझे एक खटका लगा था ।  मेरी पीढ़ी के अन्य बहुत से लोगों को भी निश्चित लगा होगा।  जब जनता को तानाशाही  और  लोकतंत्र  के बीच चुनाव का अवसर मिला था तब भी लोकनायक ने  जनता से कहा था ,’जनता पार्टी को वोट दो , लेकिन वोट देकर सो मत जाना’ । जनता की उस जीत को ’दूसरी आजादी ’ कहा गया ।  जाने – अन्जाने उस आन्दोलन के इस ऐतिहासिक महत्व को गौण नहीं किया जाना चाहिए ।

’भ्रष्टाचार करेंगे नहीं , भ्रष्टाचार सहेंगे नहीं ’ का संकल्प लाखों युवा एक साथ लेते थे । ’भ्रष्टाचार मिटाना है , भारत नया बनाना है ’ के नारे के साथ जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार , फिजूलखर्ची और दो तरह की शिक्षा नीति के खिलाफ लगातार कार्यक्रम लिए जाते थे। सम्पूर्ण क्रांति के लोकनायक जयप्रकाशसंघर्ष वाहिनी के साथियों ने पटना के एक बडे होटल में बैठक में जाने से जेपी को भी रोक दिया था ।फिजूलखर्ची , शिक्षा में भेद भाव और दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथा से भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है , यह समझदारी थी। हजारों नौजवानों ने बिना दहेज ,जाति तोड़कर शादियाँ की। सितारे वाले होटलों और पब्लिक स्कूलों के खिलाफ प्रदर्शन होते थे । टैक्स चुराने वाले तथा पांच सितारा संस्कृति से जुड़े तबकों को जन्तर –मन्तर में देखने के बाद यह स्मरण करना लाजमी है ।

उस दौर में हमें यह समझ में आया कि तरुणों में दो तरह की तड़प होती है । ’मैं इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूँ ’  – पहली किस्म की तड़प ।मात्र इस समझदारी के होने पर जिन्हें नौकरी मिल जाती है और भ्रष्टाचार करने का मौका भी, वे तब शान्त हो जाते हैं । ’ यह व्यवस्था अधिकांश लोगों को नौकरी दे ही नहीं सकती इसलिए पूरी व्यवस्था बदलने के लिए हम संघर्ष करेंगे ’– इस दूसरे प्रकार की समझदारी से यह तड़प पैदा होती है ।

प्रशासन के ढाँचे में भ्रष्टाचार और दमन अनर्निहित हैं । सरकारी अफसर , दरोगा , कलेक्टर,मजिस्ट्रेट और सीमान्त इलाकों में भेजा गए सेना के अधिकारी आम नागरिक को जानवर जैसा लाचार समझते हैं । रोजमर्रा के नागरिक जीवन में यह नौकरशाही बाधक है । प्रशासन का ढांचा ही गलत है इसलिए घूसखोरी ज्यादा होती है ।

समाजवादी नेता किशन पटनायक कहते थे,’यह कितनी विडम्बना है कि आम आदमी न्यायपालिका के नाम से आतंकित होता है – जबकि न्यायपालिका राहत की जगह है । पुलिस,मंत्री,जज और वकील रोज करोड़ों की रिश्वत सिर्फ़ इसलिए लेते हैं कि अदालत समय से बँधी नहीं है । न्यायपालिका एक क्रूर मजाक हो गई है । निर्दोष आदमी ही अदालत से अधिक डरता है । जिस समाज में न्याय होगा उसकी उत्पादन क्षमता और उपार्जन क्षमता बढ़ जाएगी इसलिए निश्चित समय में फैसले के लिए जजों की संख्या बढ़ाने का बोझ सहा जा सकता है।’

अन्ना , सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के बरसों बाद नौजवानों का आक्रोश  समाज को उल्टी दिशा में ले जाने के लिए प्रकट हुआ था,मण्डल विरोधी आन्दोलन से । मौजूदा शिक्षा व्यवस्था श्रम के प्रति असम्मान भर देती है ।सामाजिक न्याय के लिए दिए जाने वाले आरक्षण के संवैधानिक उपाय को रोजगार छीनने वाला समझ कर वे युवा मेहनतकश तबकों के प्रति अपमानजनक तथा क्रूर भाव प्रकट करते रहे हैं । रोजगार के अवसर तो आर्थिक नीतियों के कारण संकुचित होते हैं । आपके आन्दोलन में इन युवाओं का तबका शामिल है तथा इस बाबत उनमें प्रशिक्षण की जिम्मेदारी नेतृत्व की होगी । कूएँ में यदि पानी हो तब सबसे पहले प्यासे को देने की बात होती है । यदि कूँए में पानी ही न हो तब उसका गुस्सा प्यासे पर नहीं निकालना चाहिए । उम्मीद है कि भ्रष्टाचार विरोधी युवा यह समझेंगे ।

मौजूदा प्रधानमंत्री जब वित्तमंत्री थे तब शेयर बाजार की तेजी से उत्साहित हो वे वाहवाही लूट रहे थे , दरअसल तब हर्षद मेहता की रहनुमाई में प्रतिभूति घोटाला किया जा रहा था। इस मामले की जाँच के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने पाया था कि चार विदेशी बैंकों चोरी का तरीके बताने में अहम भूमिका अदा की थी । उन बैंकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई । उदारीकरण के दौर का वह प्रथम प्रमुख घोटाला था । तब से लेकर अभी कुछ ही समय पूर्व अल्युमिनियम की सरकारी कम्पनी नाल्को के प्रमुख ए.के श्रीवास्तव तथा उनकी पत्नी चाँदनी के १५ किलोग्राम सोने के साथ पकड़े जाने तक भ्रष्टाचार के सभी प्रमुख मामले उदारीकरण की नीति की कोख से ही पैदा हुए हैं। इन नीतियों के खिलाफ भी जंग छेड़नी होगी ।

अंतत: किन्तु अनिवार्यत: नई पीढ़ी को साधन-साध्य शुचिता के  विषय में भी बताना होगा ।आप से बेहतर इसे कौन समझा सकता है ? लोकपाल कानून के दाएरे में सरकारी मदद पाने वाले स्वयंसेवी संगठन तो शायद आ जाएंगे । आवश्यकता इस बात की है विदेशी पैसा लाने के लिए सरकार से विदेशी सहयोग नियंत्र्ण कानून (एफ.सी.आर.ए.) का प्रमाण पत्र  लेने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं पर भी लोकपाल कानून की निगरानी तथा पारदर्शिता के लिए सूचना के अधिकार के प्रावधान भी लागू किए जाने चाहिए ।

इस व्यवस्था ने योग्य नौजवानों के समूह को भी रिश्वत देनेवाला बना दिया है । चतुर्थ श्रेणी की नौकरी पाने के लिए भी मंत्री , दलाल और भ्रष्ट अधिकारियों को घूस देनी पड़ती है । भ्रष्टाचार के खिलाफ बनी जागृति के इस दौर में आप तरुणों की इस जमात से घूस न देने का संकल्प करवायेंगे इस उम्मीद के साथ ।

(साभार : जनसत्ता , १२ अप्रैल,२०११ )

५, रीडर आवास,जोधपुर कॉलोनी ,काशी विश्वविद्यालय , वाराणसी – २२१००५.

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सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे जन लोकपाल विधेयक के समर्थन में आज से अनशन करेंगे । देश भर में ,कई शहरों-कस्बों में आज उनके समर्थन में दिन भर का प्रतीक अनशन होगा । मेरे शहर बनारस के भ्रष्टतम लोगों की जमात ’जागो बनारस’ के नाम पर लामबन्द है । स्कू्ली पढ़ाई के धन्धे से जुड़ा शहर का सबसे बदनाम व्यक्ति इस पहल का प्रमुख है । दीपक मधोक नगर पालिका में नौकरी करता था और साथ में ठेकेदारी।ठेकेदारी ज्यादा चलने लगी तो नौकरी छोड़ दी । पैसेवालों के लिए स्कूलों का जाल बिछा दिया । स्वाभाविक है कई जगह ऐतिहासिक महत्व के भूखण्डों पर कब्जा करके भी इनके स्कूल बने हैं । क्या दो तरह की तालीम भी रहेगी और देश भ्रष्टाचार विहीन हो जाएगा?

इसी प्रकार निजी अस्पतालों में गरीबों की मुफ़्त चिकित्सा के नाम पर बड़ा घोटाला इस शहर में हाल ही में हुआ था। गरीबी की रेखा के नीचे वाले मरीजों की चिकित्सा के लिए सरकार से जो आर्थिक मदद मिलती है उसे बिना किसी को भर्ती किए डकार जाने वाले डॉक्टरों के निजी अस्पताल! इनके समर्थन में तथा सरकार से नॉन प्रैक्टिसिंग एलाउन्स पाने के बावजूद निजी प्रक्टिस करने वाले डॉक्टरों के हक में बोलने वाले इंडियन मेडिकल एसोशियेशन की इकाई भी जुट गई है। क्या आई.एम.ए ने इन अस्पतालों और चिकित्सकों के खिलाफ़ कोई प्रस्ताव पास किया है? क्या समाज के ये महत्वपूर्ण तबके भ्रष्टाचार किए बिना ऐसे अभियान में शामिल हो रहे हैं ?

अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाये अपने कर्मचारियों को चेक से वेतन नहीं देतीं। कागज पर ज्यादा राशि होती है और अन्तर संस्था-संचालक की कमाई । ऐसी कुछ संस्थायें भी इस अभियान में शरीक हैं ।

तमाम कमियों के बावजूद संसदीय लोकतंत्र सर्वाधिक योग्य प्रणाली है। इसमें सुधार की गुंजाइश है लेकिन जिस भी रूप में यह लोकतंत्र है उसका संचालन राजनीति और दलीय राजनीति द्वारा ही होता है। जनता के मन में स्वच्छ-सकरात्मक राजनीति के प्रति अनास्था पैदा करना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है ।

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पिछले भाग : एक , दो , तीन , चार

दृढ़ इच्छा के साथ समाधान ढूँढने पर सैकड़ों तरीके निकल सकते हैं लेकिन इस वक्त आम आदमी के अलावा दूसरा कोई समूह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए आतुर नहीं है । आम आदमी की आतुरता असहायता में व्यक्त होती है । राजनेता या बुद्धिजीवी समूह अगर आतुर होगा तो उससे उपाय निकलेगा । इस बढ़ते हुए अन्धविश्वास को खतम करना होगा कि भ्रष्टाचार विकास का एक अनिवार्य नतीजा है । विकासशील देशों के सारे अर्थशास्त्री इस अन्धविश्वास के शिकार बन चुके हैं कि मूल्यवृद्धि विकास के लिए जरूरी है । अब भ्रष्टाचार के बारे में इस प्रकार की धारणा बनती जा  रही है । बुद्धिजीवियों की चुप्पी से लगता है वे इसको सिद्धान्त के रूप में मान लेंगे । जवाहरलाल विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री ईश्वरी प्रसाद का कहना है कि विश्व बैंक अपनी रपट और विश्लेषण आदि में इस प्रकार की टिप्पणी करने लगा है कि लोग टैक्स चोरी , रि्श्वत , तस्करी आदि को नैतिकता का सवाल न बनायें , इनको व्यापारिक कुशलता जैसा गुण समझें । विश्व बैंक के साथ विकाशील देशों के प्रतिभासम्पन्न अर्थशास्त्रियों का एक खास सम्बन्ध रहता है । विकासशील देशों के अर्वश्रेष्ठ समाजशास्त्रियों , अर्थशास्त्रियों को विश्वबैंक , अमरीका आदि की संस्थायें बड़ी- बड़ी नौकरियाँ देती हैं । विकासशील देशों के बारे में पश्चिम के विद्वान जिस प्रकार का शास्त्र बनाना चाहते हैं , उसी के अनुकूल निबन्ध और शोध लिखनेवालों को वे प्रोत्साहित करना चाहते हैं । इसलिए जाने-अनजाने विकासशील देशों के विद्वान उन्हीं सिद्धान्तों को पुष्ट करने लगते हैं जो पश्चिम के विद्वानों के मनमुताबिक हों । इस तरह हमारे सर्वश्रेष्ठ विद्वानों के अन्दर भ्रष्ताचार फैला हुआ है । राष्ट्र का मस्तिष्क भ्रष्टाचार का शिकार बनता जा रहा है ।

( स्रोत – सामयिक वार्ता , फरवरी , १९८८ )

आगे : भ्रष्टाचार की बुनियाद कहाँ है ?

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पिछले भाग : एक , दो , तीन

प्रशासनिक सुधार

प्रशासनिक सुधार भ्रष्टाचार रोकने के लिए दूसरे नम्बर पर आता है । फिर भी अगर मौलिक ढंग का सुधार हो तो काफी असरदार हो सकता है । राज्य मूलरूप से एक दण्ड व्यवस्था और सुरक्षा व्यवस्था है । जहाँ दण्ड और सुरक्षा विश्वसनीय नहीं रह जाती हैं वहाँ राज्य और उसके अनुशासन के प्रति आस्था कमजोर हो जाती है । अदालतों के द्वारा सजा देना दण्ड का स्थूल हिस्सा है । राज्य के प्रशासक अपना दायित्व निर्वाह करें और उसमें असफलता के लिए उत्तरदायी रहें – यह असल चीज है । आजादी के बाद के भारत में प्रशासकों का उत्तरदायित्व खतम हो गया है , जो प्रशासक एक विदेशी मालिक के सामने भय से जवाबदेही का निर्वाह करते थे , वे खुद अपने लिए शासन के नियम आदि बनाने लगे । आजादी के बाद प्रशासन का नया नियम बनाना इन्हीं पर छोड़ दिया गया और उन्होंने इस प्रकार का एक नौकरशाही का एक ढाँचा बनाया जिसमें जवाबदेही की कोई गुंजाइश ही नहीं है । कोई ईमारत या पुल या बाँध बनाया है और बनने के एक साल बाद ढह जाता है – ऐसी घटनायें सैकड़ों होती रहती हैं । उसकी जवाबदेही के बारे में सर्वसाधारण को कुछ मालूम नहीं रहता है । इस प्रकार की असफलता या लापरवाही के लिए कोई प्रतिकार भारतीय शासन व्यवस्था में नहीं है । जन साधारण के प्रति प्रशासक कभी भी जवाबदेह नहीं रहता है ।गुलामी के दिनों में अपने विदेशी मालिकों के प्रति भारतीय प्रशासकों की जितनी वफ़ादारी थी , अपने देश के जनसाधारण के प्रति अगर उसकी आधी भी रहती तो भ्रष्टाचार का एक स्तर खत्म हो जाता । लोकतंत्र में केवल राजनेता प्रशासकों को जवाबदेह नहीं बना सकता है क्योंकि लोकतंत्र में राजनेता और प्रशासन का गठबंधन भी हो जाता है । जनसाधारण को अधिकार रहे कि उसको सही समय पर , सही ढंग से कानून के मुताबिक प्रशासन मिले । अगर कोई पेंशन का हकदार है और अवकाश लेने के बाद दो साल तक उसको पेंशन नहीं मिलती है; किसानों को जल आपूर्ति नहीं हो रही है और उनसे सालों से जल कर लिया जा रहा है ; किसी का बकाया सरकार पर है और सालों बाद उसे बिना सूद वापस मिलता है – ये सारी हास्यास्पद घटनायें रोज लाखों लोगों के साथ होती रहती हैं । इसलिए आम आदमी के लिए लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है । विकसित देशों में लोकतंत्र हो या तानाशाही , आम आदमी इतना असहाय नहीं रहता है । इसका सम्पर्क लोकतंत्र या तानाशाही से नहीं है बल्कि प्रशासन प्रणाली से है । प्रशासन के स्तर पर किस प्रकार के सुधार भ्रष्टाचार निरोधक होंगे , उसके और कुछ उदाहरण हम नीचे दे रहे हैं ।

पुलिस , मिनिस्टर , जज और वकील रोज करोड़ों की रिश्वत सिर्फ इसलिए लेते हैं कि अदालत समय से बँधी नहीं है । किसी अपराध में १०० रु. का जुरमाना है या दस दिन की सजा होनी है , उसके लिए २५ बार वकील को फीस देनी पड़ती है , छह महीने जेल में रहना पड़ता है । न्यायपालिका एक क्रूर मजाक हो गई है । यह कितनी विडम्बना है कि आम आदमी न्यायपालिका के नाम से आतंकित होता है – जबकि न्यायपालिका राहत की जगह है । निर्दोष आदमी ही अदालत से अधिक डरता है । अगर सिर्फ एक सुधार हो जाए कि न्यायालय में एक निश्चित समय के अन्दर फैसला होगा तो देर होने की वजह से होनेवाले भ्रष्टाचार में दो तिहाई कमी आ जाएगी । यदि जजों की संख्या दस गुनी भी अधिक कर दी जाए, तब भी राष्ट्र का कोई आर्थिक नुकसान नहीं होगा क्योंकि जिस समाज में न्याय होगा उसकी उपार्जन-क्षमता भी बढ़ जाती है ।

तबादला या ट्रांसफ़र प्रशासनिक भ्रष्टाचार का एक प्रमुख स्तम्भ है । तबादला कराने और रोकने के लिए बाबू से लेकर मंत्री तक सब रिश्वत लेते-देते हैं । तबादले की प्रथा ही एक औपनिवेशिक प्रथा है । प्रशासकों को जन विरोधी बनाने के लिए विदेशी शासकों ने इसका प्रचलन किया था । तबादला सिर्फ पदोन्नति या अवनति के मौके पर होना चाहिए । मध्यम और नीचे स्तर के कर्मचारियों की नियुक्ति यथासम्भव उनके गाँव के पास होनी चाहिए । अगर नियुक्ति गलत जगह पर नहीं हुई है तो तबादला दस साल के पहले नहीं होना चाहिए । बड़े अफ़सरों की नियुक्ति जहाँ भी हो , लम्बे समय तक होनी चाहिए ताकि उनके कार्यों का परिणाम देखा जा सके । अधिकांश निर्णय नीचे के कर्मचारियों और पंचायत जैसी इकाइयों के हाथ में होना चाहिए ताकि निर्णय की जिम्मेदारी ठहराई जा सके । गुलामी के दिनों में जब कलक्टर और पुलिस अफ़सर भी अंग्रेज होते थे , गोरे लोग ही हर निर्णय पर अपना अन्तिम हस्ताक्षर करते थे – यही प्रथा अब भी चालू है । मामूली बातों से लेकर गंभीर मामलों के हरेक विषय के लिए निर्णय की इतनी सीढ़ियाँ हैं कि गलत निर्णय की जिम्मेदारी नहीं ठहराई जा सकती है ।

पिछले वर्षों में योग्य नौजवानों का समूह रिश्वत देनेवाला बन गया है । प्रथम श्रेणी में एम.एससी पास करने के बाद सप्लाई इन्स्पेक्टर की नौकरी पाने के लिए मंत्री और दलाल को रुपए देने पड़ते हैं । रिश्वत की रकम अक्सर बँधी रहती है | रोजगार के अधिकार को सांवैधानिक अधिकार बनाकर इस रिश्वत को खतम किया जा सकता है । बेरोजगारी का भत्ता इसके साथ जुड़ा हुआ विषय है । इसकी माँग एक लम्बे अरसे से देश के नौजवानों की ओर से की जा रही है , फिर भी योजना आयोग या विश्वविद्यालयों की ओर से अभी तक एक अध्ययन नहीं हुआ कि इसके अच्छे या बुरे परिणाम क्या होंगे , सरकार पर इसका कितना बोझ पड़ेगा इत्यादि । नौजवानों को भ्रष्टाचार का शिकार होने देना और बेकारी भत्ते को सांवैधानिक बनाकर सरकारी खर्च बढ़ाना – इसमें से कौन बुराई कम हानिकारक है ? हो सकता है कि दोनों के परे कोई रास्ता दिखाई दे ।

[ अगला भाग : विकास और मूल्यवृद्धि ]

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पिछले भाग :  एक , दो

फिजूलखर्ची और विलास

फिजूल खर्च या विलासी खर्च दिखाई देता है , उसका हिसाब किया जा सकता है । रिश्वत , गबन , सार्वजनिक धन की चोरी आदि के लिए विशेष प्रकार के अनुसन्धान और प्रमाणों की जरूरत होती है । भारत जैस गरीब या पिछड़े देशों में भ्रष्टाचार की शुरुआत फिजूल खर्च और विलासी खर्च से होती है । शायद यह बात सारे मानव समाज के लिए सही होगी , लेकिन इस वक्त हम सिर्फ़ एशिया और अफ़्रीका के देशों के लिए यह समाजशास्त्रीय – अर्थशास्त्रीय नियम बता रहे हैं कि जैसे – जैसे इन समाजों में आर्थिक गैर-बराबरियाँ , खासकर जीवन स्तर की गैर-बराबरियाँ बढ़ती जाएँगी , सामाजिक भ्रष्टाचार की मात्रा भी बढ़ती जाएगी । अगर आज के चीन में माओ के जमाने के चीन के मुकाबले में अधिक भ्रष्टाचार है तो कारण यह है कि आज का चीन गैर-बराबरियों को प्रोत्साहित कर रहा है । इन समाजों में एक विचित्र विरोधाभास है – इनकी अर्थनीति जितने किस्म के आराम और विलास का सामान निजी उपभोग के लिए उत्पादन या आयात की इजाजत दे रही है , वह किसके लिए ? सरकारी गजटी अफ़सर , विधायक , जज या मंत्रियों की जो तनख्वाह है या वकील , डॉक्टरों की आय पर जो टैक्स की व्यवस्था है , उस आय के अन्दर पाँच सितारा होटल ,  वातानुकूलित मकान आदि का उपभोग कैसे हो सकता है ? वेतनमान और बाजार में स्पष्ट विरोधाभास है । विलासिता – बाजार का यह दबाव है कि लोग अपने वेतनमान से दो गुना – दस गुना अधिक उपार्जन करें । विलासिता के बाजार को बन्द कर देना , कम-से-कम बीस साल के लिए विलास की सामग्रियों को समाज और बाजार से बहिष्कृत कर देना – एशिया और अफ़्रीका के देशों में भ्रष्टाचार से मुक्ति का एकमात्र तरीका है । इसके बगैर सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक अनुशासन की परम्परा विकासशील देशों में बन नहीं पाएगी । औपनिवेशिक काल में यह अनुशासन खतम हो गया था । पुन: विकास के काल में इन समाजों को स्वस्थ बनाने के लिए सबसे पहले आर्थिक अनुशासन की जरूरत होगी ।

खर्च पर टैक्स लगाने से खर्च रुकेगा नहीं । किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि खर्च पर टैक्स लगाने का विचार एक प्रगतिशील विचार है । जनसाधारण को गुमराह करने के लिए बीच – बीच में इस प्रकार की चर्चाएँ चलाई जाती हैं । औपनिवेशिक प्रभाव वाले समाज में खर्च रोकने का एक ही तरीका है कि खर्चीले सामान को समाज और बाजार से बहिष्कृत कर दो । यह एक आर्थिक नीति होगी , लेकिन यह सचमुच एक सामाजिक नीति है जो राजनीति , संस्कृति , अर्थव्यवस्था – हर क्षेत्र को सशक्त ढंग से प्रभावित करेगी । इस नीति को कारगर बनाने के लिए एक नई संस्कृति का प्रचार आवश्यक होगा । रूस और चीन में खर्च पर काफ़ी रोक लगाई गई थी , क्रान्ति के बाद के अरसे में उनका जो भी विकास हुआ उसके पीछे खर्च रोकने की नीति का एक मौलिक योगदान है । शास्त्र और ग्रंथ लिखनेवालों ने अभी तक इसको महत्व नहीं दिया है । कम्युनिस्टों ने इस नीति को दीर्घकाल तक स्थायी बनाने के लिए कोई संस्कृति पैदा नहीं । मार्क्स ने एक नई मानव-सभ्यता का वायदा किया था , एक नई संस्कृति होगी जिसमें मनुष्य की प्रवृत्तियाँ भी बुर्जुआ समाज के मनुष्य से भिन्न होंगी । कम्युनिस्टों ने ऐसी संस्कृति बनाने की दिशा में  कोई प्रयास भी नहीं किया । वे भौतिकवाद के दबाव में आकर अमरीकी नागरिक को आदर्श मानने लगे ।रूस के बाद अब चीन भी कहता है कि हम इतने साल के अन्दर अमरीका के समकक्ष हो जाएँगे । जो आर्थिक बराबरी क्रान्ति के फलस्वरूप आई थी उसको भी नष्ट करने में रूस और चीन लगे हुए हैं ; क्योंकि एक नया जीवन दर्शन , एक नई संस्कृति का निर्माण वे कर नहीं सके ।

( जारी , अगला भाग : प्रशासनिक सुधार )

यह भी देखें : राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक

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राजनैतिक दल और भ्रष्टाचार

राजनैतिक और आर्थिक दोनों क्षेत्रों में अवरोध पैदा करनेवाले इस सामाजिक रोग का निदान और प्रतिकार ढूँढ़ने का कोई गम्भीर प्रयास न होना मौजूदा भारतीय स्थिति का एक स्वाभाविक पहलू है । बुद्धिजीवी और राजनेता , दोनों एक सर्वग्रासी जड़ता के शिकार हैं । भ्रष्टाचार का मुद्दा पिछले कई महीनों से भारतीय राजनीति का सबसे गरम मुद्दा बना हुआ है । राजीव गांधी की गद्दी हिल गई है । इस मुद्दे को हथियार बनाकर सारा विपक्ष चुनाव लड़ेगा । लेकिन किसी दल की ओर से यह नहीं बताया जाता है कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए उसके पास क्या कार्यक्रम है ? कम्युनिस्ट राजनेता और बुद्धिजीवी यह कहकर छुटकारा पा लेते हैं कि क्रांति के द्वारा भ्रष्टाचार का उन्मूलन हो जायेगा ।यह उस तरह की बात है जैसे कुछ लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए तानाशाही चाहिए ।

जब कम्युनिस्ट चीन को भी भ्रष्टाचार बढ़ने की चिन्ता होने लगी और भारत में क्रांति होने के पहले ही कम्युनिस्टों ने राज्यों की सरकार सँभालने के लिए रणनीति बनाई है तो कम्युनिस्ट प्रवक्ताओं को भी क्रांति की सपाट बात न कहकर अधिक ब्यौरे में जाकर इस प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा ।

जब तक भ्रष्टाचार के सामाजिक – आर्थिक कारणों के बारे में समझ पैदा नहीं होगी , तब तक यह सिद्धान्त प्रचलित रहेगा कि शासकों के व्यक्तिगत चरित्र को उन्नत करना ही भ्रष्टाचार निरोध का निर्णायक उपाय है । यही वजह है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए जाँच और छापे मारने की कार्रवाइयों के अलावा दूसरे उपाय भी हो सकते हैं , यह बात लोगों के दिमाग में नहीं आती ।

सबसे पहले यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार का कारण न व्यक्ति है , न विकास है । अगर विकास के ढाँचे में भ्रष्टाचार का बढ़ना अनिवार्य है तो तो वह फिर विकास ही नहीं है । मनुष्य स्वभाव की विचित्रता में बुराइयाँ भी हैं , कमजोरियाँ भी हैं । मनुष्य स्वभाव में जिस मात्रा में बुराई होती है वह तो मनुष्य समाज में रहेंगी ही । उस पर नियंत्रण रखने के लिए सभ्यता में धर्म , संस्कृति , राज्यव्यवस्था आदि की उत्पत्ति हुई है । अगर उन पर नियंत्रण नहीं रह पाया तो धर्म , संस्कृति , राज्य, अर्थव्यवस्था – हरेक पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा । अगर प्रशासन और अर्थव्यवस्था सही है तो समाज में भ्रष्ट आचरण की मात्रा नियंत्रित रहेगी । उससे राज्य को कोई खतरा नहीं होगा । उतना भ्रष्टाचार प्रत्येक समाज में स्वाभाविक रूप से रहेगा । परंतु जब प्रशासन और अर्थव्यवस्था असंतुलित है और सांस्कृतिक परिवेश भी प्रतिकूल है तब भ्रष्टाचार की मात्रा इतनी अधिक हो जाएगी  कि वह नियंत्रण के बाहर होगा , उससे जनजीवन और राज्य दोनों के लिए खतरा पैदा हो जाएगा । इसी अर्थ में हम कहते हैं कि विकसित देशों में भ्रष्टाचार की समस्या नगण्य है। इसका मतलब यह नहीं है कि वहाँ भ्रष्टाचार की घटनायें नहीं होती हैं । उन देशों में भ्रष्टाचार राज्य और समाज के इतने नियंत्रण में है कि उसकी मात्रा खतरे की सीमा से ऊपर नहीं जाती ।

यह भी समझना चाहिए कि बड़ा’ और ’छोटा’ भ्रष्टाचार एक जैसा नहीं होता है ।जनसाधारण को यह सिखाया गया है कि छोटा चोर और बड़ा चोर दोनों एक हैं । कानून में भी वे दोनों एक नहीं हैं । भ्रष्टाचार की जिस घटना से राज्य और मानव समाज को अधिक हानि पहुँचती है उसे अक्षम्य अपराध माना जाना चाहिए । सत्ता में प्रतिष्ठित व्यक्तियों का भ्रष्टाचार अधिक हानिकारक होता है । रक्षक का भक्षक होना अधिक जघन्य है । सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित व्यक्तियों के गलत तौर- तरीकों को नीचेवाले लोग सहज ढंग से अपनाते हैं । इसीलिए नीचे के स्तर का भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत कम दोषवाला होगा । इस आपेक्षिक दृष्टि को बगैर अपनाये हम भ्रष्टाचार की जड़ तक नहीं पहुँच पाएँगे । १९६२ में राममनोहर लोहिया ने जब यह सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री पर इतना अधिक तामझाम , फिजूल खर्च क्यों होता है ? तब देश के राजनेताओं ने और बुद्धिजीवियों ने इस सवाल को अप्रासंगिक मानकर या तो मखौल उड़ाया या चुप्पी साध ली ।मंत्रियों का खर्च और उनकी नकल करने वालों का खर्च इस दरमियान बढ़ गया । वर्तमान प्रधा्नमंत्री का फिजूल खर्च तो इतना बढ़ गया है कि अखबारवाले भी ताना कस रहे हैं । जो लोग लोहिया के आरोपों को बकवास या द्वेषपूर्ण कहते थे इस वर्ग के लोग भी प्रधामंत्री , मंत्रियों और सांसदों की फिजूलखर्ची से चिन्तित हैं । लोहिया ने उन्हीं दिनों कहा था कि सर्वोच्च पद पर बैठे हुए आदमी का फिजू्ल खर्च तथा भोग-विलास पूरे समाज को भ्रष्ट बनाता है । अगर उसको हटाया नहीं गया तो उसके सहयोगियों में , नौकरशाहों में भोगवृत्ति बढ़ जाएगी ।

( जारी ,अगला भाग – फिजूलखर्ची और विलास) पिछला भाग (१) , सम्बन्धित आलेख (राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक )

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