मैं आज स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करूँगा । ’हिन्दुस्तान ’ अखबार द्वारा दिए गये २०१० के पंचाग के अनुसार ६ जनवरी , काशी से प्रकाशित ठाकुर प्रसाद के प्रसिद्ध पंचाग के हिसाब से ७ जनवरी तथा रोमां रोलां द्वारा लिखी गयी स्वामीजी की जीवनी के अनुसार १२ जनवरी को उनकी जयन्ती है । अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से १२ जनवरी में संशय नहीं है । अन्य दो तिथियों में अन्तर अलग – अलग पंचाग के कारण हो सकता है ।
विवेकानन्द का अध्ययन कैसे करें , क्या – क्या पढ़ना जरूरी है ? यह मैंने किशन पटनायक से पूछा था । उन्होंने कहा था कि उनके साहित्य और पत्रावली से उन खण्डों को अवश्य पढ़ना जो उनके शिकागो से लौटने के बाद की भारत यात्रा के दौरान के हैं । इसके साथ ही रोमां रोलां द्वारा लिखी गयी जीवनी पढ़ने के लिए कहा था । रोमा रोलां द्वारा लिखी जीवनी के हिन्दी में दो अनुवाद उपलब्ध हैं । एक अनुवाद रामकृष्ण मिशन से जुड़े एक स्वामीजी द्वारा किया गया है और दूसरा हिन्दी साहित्य के दो दिग्गज अज्ञेय तथा रघुवीर सहाय द्वारा किया गया है । मैंने दूसरे अनुवाद को पढ़ना पसन्द किया । यह साहित्य अकादमी की ओर से लोकभारती पेपरबैक्स द्वारा प्रकाशित है ।
स्वामी विवेकानन्द की एक प्रसिद्ध उक्ति है , ’ भारत शूद्रों का होगा , शूद्र ही इसका संचालन करेगा । ’ किशन पटनायक ने इस उक्ति से लेकर ही अपने निबन्धों की पहली किताब का नाम ’भारत शूद्रों का होगा’ रखा। विवेकानन्द की उक्तियों के दो संकलन मैं पहले अपने चिट्ठों पर दे चुका हूँ । यह उक्तियाँ मैंने ’नया भारत गढ़ो ’ नामक रामकृष्ण मठ , नागपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तिका से ली थीं । ’राष्ट्र की रीढ़’ तथा ’ ईसाई और मुसलमान क्यों बनते हैं’ इन शीर्षकों से यह प्रविष्टियां प्रस्तुत की थीं ।
परमहंस -विवेकानन्द की आध्यात्मिक धारा से राष्ट्रीय आन्दोलन तथा रघुवीर सहाय और किशन पटनायक जैसे समाजवादी प्रभावित हुए । इसकी वजह किशन पटनायक के नीचे के उद्धरण तथा रोमां रोलां रचित जीवनी से लिए गये दो उद्धरणों से काफ़ी स्पष्ट हो जाता है ।
” रामकृष्ण परमहंस कई अर्थों में एक नवीन भारत के धार्मिक संस्थापक थे । विवेकानन्द और केशवचन्द्र सेन के माध्यम से उन्हें पश्चिम का स्पर्श मिला होगा । उनका तरीका बौद्धिक नहीं था , अलौकिक था । उनके सन्देश सांकेतिक थे । उनके जीवन प्रसंगों में ही उनका सन्देश निहित था ।उनके जीवन के चार प्रसंगों को हम लें । अपने प्रियतम शिष्य को उन्होंने मोक्ष के लिए नहीं समाज जागरण के काम में लगाया । खुद हिन्दू मन्दिर का पूजक होकर इस्लाम और ईसाई धर्म की भी साधना की । चांदालों के घरों में जाकर झाड़ू लगाई और उनका पाखाना साफ़ किया । पत्नी को संन्यासिनी किया और विधवा को सुहागिन बनाया । भारतीयता के पुनर्जागरण के लिए ये सारे संकेत थे – समाज सुधार को प्राथमिकता देना , गैर भारतीय संस्कृति के मूल्यों का आदर करना और अपनाना , मनुष्य की गरिमा को स्वीकृति देना , नारी जीवन को स्वतंत्र और सकारात्मक बनाना । शारदा देवी के प्रसंग में दोनों बातें ध्यान योग्य हैं – पति के साथ संन्यासिनी और पति के बाद सुहागिन । ” (सामयिक वार्ता, १ जनवरी , १९८८ )
सरस्वती शिशु मन्दिर में प्रारम्भिक शिक्षा पाए मेरे एक मित्र ने स्वामी विवेकानन्द के उद्धरणों की मेरी ब्लॉग प्रविष्टी पढ़कर कहा था ,
’ दिक्कत ये है कि दक्षिणपंथी हों या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्यान देने से कतराते हैं, रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान चला रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहे । उनके लिये विवेकानंद का जिक्र ’उत्तिष्ठ ’ जागृत से शुरू होता है और शिकागो वाले सम्मेलन के जिक्र पर खत्म हो जाता है । बस । ’
आज शिकागो से लौटकर चेन्नै में दिए गये उनके प्रसिद्ध भाषण से उद्धरण दे रहा हूँ :
” तुम अनुभव कर रहे हो कि लाखों जन आज बुभुक्षित हैं और लाखों एक युग से बुभुक्षित रहे हैं ? अनुभव करते हो कि अज्ञान ने अन्धकार की घटा के सदृश देश को आच्छादित कर लिया है ? यह सब अनुभव करके क्या तुम अधीर नहीं होते ? यह सब जानना क्या तुम्हारी नींद नहीं हर लेता , तुम्हें क्षोभ से पागल नहीं कर देता ? क्या तुम दारिद्र्य की यातना को पहचान कर उससे संत्रस्त हुए हो ? नाम , ख्याति,पत्नी-पुत्र ,धन-सम्पत्ति ही नहीं , अपनी देह को भी भूल चुके हो ? ….वही तो देशभक्त की साधना का प्रथम सोपान है । …युगों से जनता को आत्मग्लानि का पाठ पढ़ाया गया है । उसे सिखाया गया है कि वह नगण्य है । संसार में सर्वत्र जनसाधारन को बताया गया है कि तुम मनुष्य नहीं हो । शताब्दियों तक वह इतना भीरु रहा है कि अब पशु-तुल्य हो गया है । कभी उसे अपने आत्मन का दर्शन करने नहीं दिया गया । उसे आत्मन को पहचानने दो – जानने दो कि अधमाधम जीव में भी आत्मन का निवास है – जो अनश्वर है , अजन्मा है – जिसे न शस्त्र छेद सकता है , न अग्नि जला सकती है , न वायु सुखा सकती है ; जो अमर है , अनादि है , अनन्त उसी निर्वीकार ,सर्वशक्तिमान ,सर्वव्यापी आत्मन को जानने दो…”
” हम उस धर्म के अन्वेषी हैं जो मनुष्य का उद्धार करे …. हम सर्वत्र उस शिक्षा का प्रसार चाहते हैं जो मनुष्य को मुक्त करे । मनुष्य का हित करें ,ऐसे ही शास्त्र हम चाहते हैं ।सत्य की कसौटी हाथ में लो… जो कुछ तुम्हें मन से , बुद्धि से , शरीर से निर्बल करे उसे विष के समान त्याग दो , उसमें जीवन नहीं है , वह मिथ्या है , सत्य हो ही नहीं सकता । सत्य शक्ति देता है । सत्य ही शुचि है , सत्य ही परम ज्ञान है… सत्य शक्तिकर होगा ही , कल्याणकर होगा ही , प्राणप्रद होगा ही…यह दैन्यकारक प्रमाद त्याग दो , शक्ति का वरण करो….कण-कण में ही तो सहज सत्य व्याप्त है – तुम्हारे अस्तित्व जैसा ही सहज है वह…उसे ग्रहण करो । “
” मेरी परिकल्पना है , हमारे शास्त्रों का सत्य देश – देशान्तर में प्रचारित करने की योग्यता नवयुवकों को प्रदान करनेवाले विद्यालय भारत में स्थापित हों । मुझे और कुछ नहीं चाहिए , साधन चाहिए ; समर्थ , सजीव , हृदय से सच्चे नवयुवक मुझे दो , शेष सब आप ही प्रस्तुत हो जाएगा । सौ ऐसे युवक हों तो संसार में क्रान्ति हो जाए । आत्मबल सर्वोपरि है , वह सर्वजयी है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है ….निस्संषय तेजस्वी आत्मा ही सर्वशक्तिमान है …”
[ रोमां रोलां द्वारा लिखी गयी विवेकानन्द की जीवनी से । हिन्दी अनुवाद अज्ञेय तथा रघुवीर सहाय । ]
कई दिन व्यस्त रही पिछले आलेख तो पढ नहीं पाई अब एक दो दिम बाद फुर्सत मे पढूँगी। ये आलेख बहुत अच्छा लगा। स्वामी विवेका नन्द जी को विनम्र श्रद्धाँजली। धन्यवाद ।
स्वामी विवेका नन्द जी के स्मरण को इस पुण्य मौके पर नमन!!
स्वामी विवेकानंद पर हंसराज रहबर द्वारा लिखी जीवनी ‘यौद्धा सन्यासी विवेकानंद’ भी पढ़ी जा सकती है…
सरोकारी स्मरण…
Great description of great man
विवेकानंद जी पर और भी अन्वेषण की जरुरत है !
आभार!
इस वर्ष २०१० की दूसरी सुबह संयोग से मैं कोलकाता में था और वेल्लूर मठ देखने गया. वे जगहें देखीं, जहां रामकृष्ण परम हंस, साध्वी शारदा और विवेकानंद जी रहते थे. जिस कमरे में वे सोते थे, उसे देख कर एक अलग सी संवेदना जागती है. सीढियों के ऊपर से गंगा का विस्तार किसी तरल शांति का दृश्य आंखों के सामने रचता है. चेतना जैसे नहा उठी हो. मुझे लगता है, किसी अध्यात्मिक-दार्शनिक pursuit के लिए ही नहीं, साहित्य या किसी भी कलात्मक सृजन के लिए ऐसा नीरव-प्रशांत वातावरण कुछ समय के लिए चाहिए. समाज के उथल-पुथल के बीच से लौट कर यहां उन स्मृतियों और अनुभवो की पुनर्रचना की जा सकती है. आज आपका आलेख पढा़ तो वे दृश्य फिर आंखों के सामने घूमने लगे. आभार.
रोमां रोला की जीवनी के दो अनुवाद हैं हिन्दी में – पता चला ।
मैंने नहीं पढ़ा , पढ़ना चाहूँगा ।
उदय जी की टिप्पणी से उत्सुक हो रहा हूँ यात्रा के लिये ! कब संयोग बने !
बहुमूल्य प्रविष्टि का आभार ।
@ हिमांशु , ख़्याल रहे रोमां रोला की जीवनी नहीं, उनके द्वारा लिखी गई स्वामी विवेकानन्द की जीवनी के दो अनुवाद हैं । वाराणसी स्टेशन के सर्वोदय बुक स्टॉल पर दोनों ही उपलब्ध थे । क्या पता मुगल सराय स्टेशन के सर्वोदय बुक स्टॉल पर भी मिलें ।
[…] स्वामी विवेकानन्द जयन्ती पर […]
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दिनेश कुमार शर्मा – बीकानेर ..!
१०० मे ७० आदमी फिलहाल जबब नाशाद है… दिल पे रख के हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है..? कोठियों से मुल्क की मैयार को मत आंकिये , असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है..! -कविवर- श्री दुष्यंत जी ने कहा था..! ———
दिनेशजी आपने एक मशहूर गजल की पहली लाइन उद्धृत की है । इस गजल के रचयिता दुष्यन्त नहीं हैं । अदम गोंडवी इसके रचयिता हैं।