भाग : एक
मुझे इस प्रसंग में अमरीका के राष्ट्रीय नेताओं की चार मूर्तियों की याद आती है । वे प्रचंड हैं । एक दफ़ा अमरीका में हवाई जहाज से जाते समय उन पुतलों पर से मेरा हवाई जहाज उड़ा । मैंने मेरे हवाई जहाज चालक को फिर से उन मूर्तियों पर से हवाई जहाज लेने को कहा। इच्छा थी कि हो सका तो उन अखंड मूर्तियों की कला का सार जान लूँ । यह कहना संभव है कि वास्तविक दृष्टि से वे मूर्तियाँ भारतीय मूर्तियों की अपेक्षा ज्यादा अच्छी हैं । वे मूर्तियाँ ग्रीक और रोमन शिल्प परम्परा को सम्मान पूर्वक आगे चला रही हैं । लेकिन मैं नहीं कह सकता कि उन मूर्तियों से कुछ संदेश मिलता है या नहीं । हालाँकि उन मूर्तियों की पृष्टभूमि की कथाएं ज्यादा वेधक पद्धति से चित्रांकित करने में उस शिल्प ने सफलता हासिल की है । और वे कथाएं ही एक महान संदेश हैं । मूर्तियाँ केवल चेहरों की हैं । मान लीजिए कि शरीर का उर्वटित हिस्सा यदि बनाया जाता तो ज्यादा से ज्यादा लिंकन और वाशिंग्टन के आगे की ओर उठाए हुए पैरों में अविष्कृत जादू केवल प्रेक्षकों को महसूस होता । ऐसा भी कहना संभव है कि मुझे ही मूर्तियों का मतलब पूरी तरह से मालूम नहीं हुआ । जो कि जल्दी में देखने वालों को महान कृतियाँ अपना रहस्य कभी भी बता नहीं सकतीं । लेकिन मुझे वे अमरीकी मूर्तियाँ प्यारी लगीं । खूबसूरती रेखांकित करने में में व्यक्त हुई प्रतिभा और कारीगरी के कारण वे पुतले भारतीय कलाकृतियों से ज्यादा पसंद आये । भारतीय पुतलों में ऐसी सुन्दरता और ऐसी कारीगरी प्रतीत नहीं होती ।
यद्यपि भारतीय मूर्तिकरण की एक अलग विशेषता है । मूर्ति में मानव की केवल शरीराकृति चित्रित करने पर भारतीय शिल्पाकृति चित्रित करने पर भारतीय शिल्प ज्यादा जोर नहीं देता । भारतीय शिल्प में तो उस व्यक्ति के जीवन और आशय को ज्यादा महत्व दिया गया है । उस व्यक्ति का एकाध भाव अथवा सारे के सारे के भाव शिल्पांकित करने में भारतीय कलाकारों को समाधान नहीं मिलता तो जिस अमूर्त जीवन शक्ति के आधार से उस व्यक्ति को , उसकी पाषाण मूर्ति को या हम सभी को अस्तित्व उपलब्ध होता है वह जिंदापन , वह जीवन शक्ति भारतीय शिल्पों में संक्षिप्त रूप में चित्रित होने का अहसास होता है जिसको देखकर आदमी (मोहित) पागल होता है । शायद ऐसा लगेगा कि सभी भारतीय कलाकार बौद्ध व जैन पंथ के प्रभाव में चले गये और उन्हें हिंदू धर्म के बारे में आस्था नहीं रही । लेकिन ऐसा नहीं हुआ ।
शिवशंकर पर अन्य किसी भी देवता की अपेक्षा भारतीय शिल्पकारों को ज्यादा प्रेम है । शिव के शांत , स्तब्ध व्यक्तित्व ने तत्ववेत्तओं को अधिक सर्वांगीण विचार करने की प्रेरणा दी । उसी तरह शिव के व्यक्तित्व ने शिल्पकारों को शिल्पकला का सम्पन्न रूप ज्यादा पैमाने पर दुनिया के सामने रखा । सातवीं सदी के और उसके बाद काल के शिल्पों में अथवा बारहवीं सदी के और उसके बाद के काल में खजुराहो के शिल्प में शंकर पार्वती के शरीर को लपेटकर और वक्ष:स्थल के नीचे हाथ घेरकर बैठा हुआ है और पार्वती उसके बायीं गोदमें बैठी है । निहायत संतुष्ट अवस्था में वे दोनों बैठे दिखाई देते हैं । काल निश्चल खड़ा है । कालगति पर नियंत्रण रखनी की चाह कहीं भी दिखाई नहीं देती । क्षय अनन्त है । भविष्यकाल अपने पीछे दौड़े ऐसी उत्कंठा वर्तमान काल में नहीं दिखायी देती । भूतकाल को भी चिंता नहीं है । तत्काल स्वयंपूर्ण होती है और अपने अस्तित्व का औचित्य स्वयं ही बताती है । तत्काल कृति एक निस्तब्ध कृति है । अचर का चर कर्म । क्या आदमी अपने व्यवहार में तात्कालिकता का यह तत्व अमल में ला सकता है ? कहना मुश्किल है । शिल्पकार द्वारा खोदा गया शिव का सनातन व्यक्तित्व मात्र आदमी को उस दिशा की ओर गति दिखाता है । अगले क्षण के बारे में आदमी की उत्सुकता शायद पूरी तरह से कभी भी खत्म नहीं होगी । लेकिन वर्तमान काल में स्वयं को काफ़ी उलझाकर , उससे ज्यादा से ज्यादा फल प्राप्त करना उससे संभव हो सकता है।
शिव के असीम व्यक्तित्व के कारण भारतीय शिल्पकारों को हिंदुओं का धर्म सम्बन्धी चिन्तन श्रेष्ठ और संपन्न रूप में और संक्षिप्त रीति से व्यक्त करना संभव हुआ । धारापुरी के आठवीं सदी के और नौवीं व सोलहवीं सदी के चितुर की गुफाओं में शिव की तीन विभिन्न रूप की मोहक मूर्तियाँ हैं । एक ध्यानमग्न दूसरी रौद्र और तीसरी लारयुक्त । शिल्पकारों ने शिव का एक भी रूप चित्रित करने से बहीं छोड़ा । तन्हाई में महान और प्रसिद्ध तांडवनृत्य शिव करता है । उस शिल्प में शिव की निश्चलता में चलता , और चलता में निश्चलता प्रत्यक्षकारक है । सिंह और भेड़ को एक जगह रखने जैसा बुद्धि का अगम्य चमत्कार उस मूर्ति में शिल्पित
किया है । आधे हिस्से में स्त्री और आधे हिस्से में पुरुष ,अर्धाँग शंकर वह अर्ध नारी नटेश्वर का रूप सर्वोच्च और सजीव जैसे सभी भेद मिटाने वाला सृजन लगता है ।
धन्यवाद! इस आलेख को पढ़ाने के लिए। आलेख की निम्न पंक्ति भारतीय जनभावना को अभिव्यक्त करती है।
शिवशंकर पर अन्य किसी भी देवता की अपेक्षा भारतीय शिल्पकारों को ज्यादा प्रेम है ।
भारतीय शिल्प के बारे में अच्छी जानकारी मिली .. आभार !!
बहुत ही स्वत:स्फूर्त और विलक्षण लेख. क्या यह लेख लोहिया जी ने हिंदी में लिखा था? कहीं-कहीं अनुवाद जैसा लगता है.
इसे पढा़ने के लिए आभार!
Thanks for these articles.
[…] पिछले भाग : एक , दो […]
[…] भारतीय शिल्प (२) : राममनोहर लोहिया […]
[…] भारतीय शिल्प (२) : राममनोहर लोहिया […]