हमारे देश के डॉक्टरों ने ग्रामीण स्वास्थ्य में सुधार के लिए प्रस्तावित देहाती चिकित्सा पाठ्यक्रम का पुरजोर विरोध किया है । इस विरोध में हमारे देश के डॉक्टरों की अभिजात्य- वृत्ति छुपे नहीं छुपती । वैसे भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के तहत देहातों में स्थापित प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों में डॉक्टरों का मिल पाना अत्यन्त अचरज की बात होती है । चिकित्सा शिक्षा के दरमियान पढ़ाई के पहले साल में गाँवों के प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र में, दूसरे साल में ब्लॉक चिकित्सा केन्द्र में , तीसरे में जिला अस्पताल में तथा उसके बाद विशिष्ट चिकित्सा केन्द्रों में प्रत्यक्ष तजुर्बा हासिल करने की व्यवस्था की जा सकती थी । इससे मिलती – जुलती सिफारिश चार वर्षीय ग्रामीण चिकित्सा की पढ़ाई के साथ जोड़ी गई है । इस पाठ्यक्रम को पूरा करने के बाद देहात में प्रैक्टिस करने की शर्त पर ही साल-साल भर का लाईसेंस मिलेगा । यह क्रम पाँच वर्षों तक चलेगा ।
दुनिया के रोगों के बोझ का बीस फ़ीसद भारत वहन करता है किन्तु दुनिया भर में उपलब्ध अस्पताल-बिस्तर में ६ फ़ीसद ही भारत में है । फिलहाल आबादी में प्रति हजार के पीछे अस्पताल के बिस्तर ०.८६ है जबकि दुनिया का औसत २.६ , ब्राज़ील का २.६ तथा चीन का २.२ प्रति हजार है । यह गौरतलब है कि ब्राज़ील के रोग-बोझ से भारत का रोग-बोझ ३७ % अधिक है तथा चीन से ८६ % ।
द बुलेटिन ऑफ़ रूरल हेल्थ स्टैटिस्टिक्स इन इंडिया के अनुसार १९९५-९६ से २००४-०५ की अवधि में बीमारियों में ६६ % की व्रुद्धि हुई जबकि उसी अवधि में प्रति हजार आबादी अस्पताल के बिस्तर की उपलब्धता ०.९३ से घटकर ०.८६ हो गयी । रा्ष्ट्रीय सैम्पल सर्वे संगठन के अनुसार १९९५से २००५ की अवधि के बीच अस्पताल में भर्ती होने वाली ग्रामीण आबादी में शहर की तुलना में अस्सी फीसद वृद्धि हुई थी जबकि ग्रामीण इलाकों में कुल अस्पताल-बिस्तरों का मात्र १/९ ही उपलब्ध है । वर्ष २००४ से ’०७ के बीच ग्रामीण इलाकों में अस्पताल-बिस्तर की वृद्धि १९ % थी तथा उसी अवधि में शहरों में यह वृद्धि ३० % थी ।
इलाज के मामले में गाँव और शहर के बीच की इस गहरी खाई की जड़ में डॉक्टरों और नीति निर्धारकों की उपेक्षा है । १९९२ के बाद से चले उदारीकरण – निजीकरण के दौर में शहरों में डीलक्स अस्पतालों की बाढ़-सी आई है । सरकारी एवं निजी वित्तीय संस्थाओं द्वारा इन डीलक्स अस्पतालों को बनाने के लिए आसान शर्तों पर कर्ज , सब्सिडी भी मिलती रही है । खुद को किसान का बेटा कहने वाले देवेगौड़ा ने दिल्ली में एक डीलक्स अस्पताल का उद्घाटन किया था जिसमें मरीज को हेलिकॉप्टर से लाकर भर्ती करने की सुविधा थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल – काशी विश्वविद्यालय स्थित सर सुन्दरलाल चिकित्सालय के ठीक नाक के नीचे आबकारी विभाग के एक भ्रष्ट अधिकारी को सरकारी वित्तीय निगम – पिकप से करोड़ों रुपये कर्ज मुहैय्या कराके भारी मुनाफ़ा कमाने वाला ’हेरिटेज अस्पताल’ बना है । इस अस्पताल की एम आर आई सुविधा का उद्घाटन करने तत्कालीन मुख्य मन्त्री कल्याण सिंह आये थे ।
क्या एक व्यवस्था के अन्तर्गत यह कल्पना की जा सकती है कि इन दोनों प्रकार की चिकित्सा एक साथ फल-फूल सकती हैं ? अथवा एक क्षेत्र में सुविधायें कम करके ही दूसरे क्षेत्र की चकाचौंध कायम होती है ? इंडियन मेडिकल एसोशियेशन बनाम मेडिकल काउन्सिल के मौजूदा विवाद से हम क्या सबक ले सकते हैं ?
[ देश की चिकित्सकों की तड़प को देखकर भवानीप्रसाद मिश्र की कविता – ’आमीन ,गुलाब पर ऐसा वक्त कभी न आये ’ याद आती है । ]
सही कहा आपने। गाँव के कौन डाक्टर रचना चाहता है।
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ये इन्द्रधनुष होगा नाम तुम्हारे…
धरती पर ऐलियन का आक्रमण हो गया है।
बहुत ही उपयोगी आलेख है। इसके विचारों और आंकड़ों का इस्तेमाल मैं अपने अगले आलेखों में करूंगा। वैसे अभी मैं इस बारे में अपनी पक्की राय नहीं बना हूं कि सरकार के इस प्रस्ताव का विरोध किया जाए या समर्थन। ये सरकार की नाकामी को दिखाता है, गांवों के प्रति सरकार की बेरुखी का प्रमाण है, लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार का और क्या उपाय हो सकता है, इसे लेकर दुविधा है। डॉक्टरों का विरोध तो स्वार्थ से प्रेरित है। उम्मीद है आप इस विषय पर और आलेख छापेंगे।
गुलाब का यह फर्ज नहीं है
कि गाँवों में जाकर खिले
अलसी और सरसों वगैरा से हिले-मिले
……….
आमीन , गुलाब पर ऐसा वक्त कभी न आये
बेहतर आलेख…और यह कविता….
आपकी पोस्ट बहुत सुन्दर है!
यह चर्चा मंच में भी चर्चित है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/02/blog-post_5547.html
arre bhaiya !! Roman mein hindi likhen to chalega na ? Devanagri mein haath tang hai ! Doctor jamaat ko kahiye ki gaon jaakar chikitsa karo to badi takleef ho jaati hai ! Phir yeh kaho ki gaon ka alag Doctor bana dete hain to bhi takleef ho jaati hai. Ab sawaal ek hi bachta hai – Yeh log Bharat ki janata ke paise se medical kyon padhte hain ?? Apne maa-baap ke paise se private medical ki padhai karen. Aur tab usool bagharen !!
प्रिय अफलातून बंधू ! देखिये आपकी प्रेरणा से मैं हिंदी में लिखने भी लगा हूँ. ग्रामीण डॉक्टर वाला आपका विषय बेहद सामयिक है और उनकी पोल भी खोलता है. दोष मात्र सरकारों का नहीं हमारे विशेष पढ़े लिखे समाज में राष्ट्रीय कर्त्तव्य की भावना के नितांत अभाव का भी है. उम्मीद है आप ऐसे ही ज्वलंत विषय पैर चर्च आयोजित करेंगे और उसकी सूचना भी देते रहेंगे. अजय.
[…] गाँव में डॉक्टर ? ना , भई ना ! […]
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