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Posts Tagged ‘corruption’

पिछले हिस्से : एक , दो

    आधुनिक केंद्रित व्यवस्थाओं में ऊँचे ओहदे वाले लोग अपने फैसले से किसी भी व्यक्ति को विशाल धन राशि का लाभ या हानि  पहुँचा सकते हैं । लेकिन इन लोगों की अपनी आय अपेक्षतया कम होती है। इस कारण एक ऐसे समाज में जहाँ धन सभी उपलब्धियों का मापदंड मान लिया जाता हो व्यवस्था के शीर्ष स्थानों पर रहने वाले लोगों पर इस बात का भारी दबाव बना रहता है कि वे अपने पद का उपयोग नियमों का उल्लंघन कर नाजायज ढंग से धन अर्जित करने के लिए करें और धन कमाकर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त प्राप्त करें । यहीं से राजनीति में भ्रष्टाचार शुरु होता है । लेकिन विकसित औद्योगिक समाजों में व्यवस्था की क्षमता को कायम रखने के लिए नियम कानून पर चलने और बराबरी की प्रतिस्पर्धा के द्वारा सही लोगों के चयन का दबाव ऐसा होता है जो ऐसे भ्रष्टाचार के विपरीत काम करता है । ऐसे समाजों में लोग भ्रष्ट आचरण के खिलाफ सजग रहते हैं क्योंकि इसे कबूल करना व्यवस्था के लिए विघटनकारी हो सकता है । हमारे समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसे व्यवस्थागत मूल्यों का निर्माण नहीं हो पाया है । इसके विपरीत जहां हमारी परंपरा में संपत्ति और सामाजिक सम्मान को अलग – अलग रखा गया था वहीं आज के भारतीय समाज संपत्ति ही सबसे बड़ा मूल्य बन गई है और लोग इस विवेक से शून्य हो रहे हैं कि संपत्ति कैसे अर्जित की गई है इसका भी लिहाज रखें । इस कारण कोई भी व्यक्ति जो चोरी , बेईमानी , घूसखोरी तथा हर दूसरी तरह के कुत्सित कर्मों से धन कमा लेता है वह सम्मान पाने लगता है । इस तरह कर्म से मर्यादा का लोप हो रहा है ।

    आधुनिकतावादियों पर , जो धर्म और पारंपरिक मूल्यों को नकारते हैं तथा आधुनिक उपकरणों से सज्जित ठाठबाट की जिंदगी को अधिक महत्व देते हैं , भ्रष्ट आचरण का दबाव और अधिक होता है । इस तरह हमारे यहाँ भ्रष्टाचार सिर्फ वैयक्तिक रूप से लोगों की ईमानदारी के ह्रास का परिणाम नहीं है बल्कि उस सामाजिक मूल्यहीनता का परिणाम है जहां पारंपरिक मूल्यों का लोप हो चुका है पर पारंपरिक वफादारियां अपनी जगह पर जमी हुई है । इसीका नतीजा है कि आधुनिकता की दुहाई देने वाले लोग बेटे पोते को आगे बढ़ाने में किसी भी मर्यादा का उल्लंघन करने से बाज नहीं आते । चूँकि हमारे समाज में विस्तृत परिवार के प्रति वफादारी के मूल्य को सार्वजनिक रूप से सर्वोपरि माना जाता रहा है कुनबापरस्ती या खानदानशाही  के खिलाफ सामाजिक स्तर पर कोई खास विरोध नहीं बन पाता । आम लोग इसे स्वाभाविक मानकर नजरअंदाज कर देते हैं । ऐसी स्थिति में इनका विरोध प्रतिष्ठानों के नियम कानून के आधार पर ही संभव हो पाता है ।

    ऊपर की बातों पर विचार करने से लगता है कि जब तक संपत्ति और सत्ता का ऐसा केंद्रीयकरण रहेगा जहाँ थोड़े से लोग अपने फैसले से किसी को अमीर और किसीको गरीब बना सकें और समाज में घोर गैर-बराबरी भी रहेगी तब तक भ्रष्टाचार के दबाव से समाज मुक्त नहीं हो सकता । यही कारण है कि दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी और आदर्शवादी लोग सत्ता में जाते ही नैतिक फिसलन के शिकार बन जाते हैं । एक ऐसे समाज में ही जहाँ जीवन का प्रधान लक्ष्य संपत्ति और इसके प्रतीकों का अंबार लगाकर कुछ लोगों को विशिष्टता प्रदान करने की जगह लोगों की बुनियादी और वास्तविक जरूरतों की पूर्ति करना है भ्रष्ट आचरण नीरस बन सकता ।

    भ्रष्टाचार का उन्मूलन एक समता मूलक समाज बनाने के आंदोलन के क्रम में ही हो सकता है जहाँ समाज के ढाँचे को बदलने के रा्ष्ट्रव्यापी आंदोलन के संदर्भ में स्थानीय तौर से भ्रष्टाचार के संस्थागत बिंदुओं पर भी हमला हो सके । बिहार में चलने वाले १९७४ के छात्र आंदोलन की कुछ घटनायें इसका उदाहरण हैं, जिसमें एक अमूर्त लेकिन महान लक्ष्य ’संपूर्ण क्रांति’ के संदर्भ में नौजवानों में एक ऐसी उर्जा पैदा हुई कि बिहार के किशोरावस्था के छात्रों ने प्रखंडों में और जिलाधीशों के बहुत सारे कार्यालयों में घूसखोरी आदि पर रोक लगा दी थी । लेकिन न तो संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य स्पष्ट था और न उसके पीछे कोई अनुशासित संगठन ही था । इसलिए जनता पार्टी को सत्ता की राजनीति के दौर में वह सारी उर्जा समाप्त हो गई ।

    अंतत: हर बड़ी क्रांति कुछ बुनियादी मूल्यों के इर्दगिर्द होती है । इन्हीं मूल्यों से प्रेरित हो लोग समाज को बदलने की पहल करेते हैं । हमारे देश में , जहां परंपरागत मूल्यों का ह्रास हो चुका है और आधुनिक औद्योगिक समाज की संभावना विवादास्पद है , भ्रष्टाचार पर रोक लगाना तभी संभव है जब देश को एक नयी दिशा में विकसित करने का कोई व्यापक आंदोलन चले । इसके बिना भ्रष्टाचार को रोकने के प्रयास विफलताओं और हताशा का चक्र बनाते रहेंगे ।

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माननीय अन्ना,

जन लोकपाल कानून बनाने से जुड़ी मांग पूरी हुई । देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो गुस्सा है वह इस जायज मांग के समर्थन में कमोबेश प्रकट हुआ । आपने इसके समर्थन में अनशन किया और भ्रष्टाचार से त्रस्त तरुणों की जमात ने उसका स्वत:स्फूर्त समर्थन किया ।

अनशन की शुरुआत में जब आपने इस लड़ाई को ’दूसरी आजादी की लड़ाई’ कहा तब मुझे एक खटका लगा था ।  मेरी पीढ़ी के अन्य बहुत से लोगों को भी निश्चित लगा होगा।  जब जनता को तानाशाही  और  लोकतंत्र  के बीच चुनाव का अवसर मिला था तब भी लोकनायक ने  जनता से कहा था ,’जनता पार्टी को वोट दो , लेकिन वोट देकर सो मत जाना’ । जनता की उस जीत को ’दूसरी आजादी ’ कहा गया ।  जाने – अन्जाने उस आन्दोलन के इस ऐतिहासिक महत्व को गौण नहीं किया जाना चाहिए ।

’भ्रष्टाचार करेंगे नहीं , भ्रष्टाचार सहेंगे नहीं ’ का संकल्प लाखों युवा एक साथ लेते थे । ’भ्रष्टाचार मिटाना है , भारत नया बनाना है ’ के नारे के साथ जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार , फिजूलखर्ची और दो तरह की शिक्षा नीति के खिलाफ लगातार कार्यक्रम लिए जाते थे। सम्पूर्ण क्रांति के लोकनायक जयप्रकाशसंघर्ष वाहिनी के साथियों ने पटना के एक बडे होटल में बैठक में जाने से जेपी को भी रोक दिया था ।फिजूलखर्ची , शिक्षा में भेद भाव और दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथा से भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है , यह समझदारी थी। हजारों नौजवानों ने बिना दहेज ,जाति तोड़कर शादियाँ की। सितारे वाले होटलों और पब्लिक स्कूलों के खिलाफ प्रदर्शन होते थे । टैक्स चुराने वाले तथा पांच सितारा संस्कृति से जुड़े तबकों को जन्तर –मन्तर में देखने के बाद यह स्मरण करना लाजमी है ।

उस दौर में हमें यह समझ में आया कि तरुणों में दो तरह की तड़प होती है । ’मैं इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूँ ’  – पहली किस्म की तड़प ।मात्र इस समझदारी के होने पर जिन्हें नौकरी मिल जाती है और भ्रष्टाचार करने का मौका भी, वे तब शान्त हो जाते हैं । ’ यह व्यवस्था अधिकांश लोगों को नौकरी दे ही नहीं सकती इसलिए पूरी व्यवस्था बदलने के लिए हम संघर्ष करेंगे ’– इस दूसरे प्रकार की समझदारी से यह तड़प पैदा होती है ।

प्रशासन के ढाँचे में भ्रष्टाचार और दमन अनर्निहित हैं । सरकारी अफसर , दरोगा , कलेक्टर,मजिस्ट्रेट और सीमान्त इलाकों में भेजा गए सेना के अधिकारी आम नागरिक को जानवर जैसा लाचार समझते हैं । रोजमर्रा के नागरिक जीवन में यह नौकरशाही बाधक है । प्रशासन का ढांचा ही गलत है इसलिए घूसखोरी ज्यादा होती है ।

समाजवादी नेता किशन पटनायक कहते थे,’यह कितनी विडम्बना है कि आम आदमी न्यायपालिका के नाम से आतंकित होता है – जबकि न्यायपालिका राहत की जगह है । पुलिस,मंत्री,जज और वकील रोज करोड़ों की रिश्वत सिर्फ़ इसलिए लेते हैं कि अदालत समय से बँधी नहीं है । न्यायपालिका एक क्रूर मजाक हो गई है । निर्दोष आदमी ही अदालत से अधिक डरता है । जिस समाज में न्याय होगा उसकी उत्पादन क्षमता और उपार्जन क्षमता बढ़ जाएगी इसलिए निश्चित समय में फैसले के लिए जजों की संख्या बढ़ाने का बोझ सहा जा सकता है।’

अन्ना , सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन के बरसों बाद नौजवानों का आक्रोश  समाज को उल्टी दिशा में ले जाने के लिए प्रकट हुआ था,मण्डल विरोधी आन्दोलन से । मौजूदा शिक्षा व्यवस्था श्रम के प्रति असम्मान भर देती है ।सामाजिक न्याय के लिए दिए जाने वाले आरक्षण के संवैधानिक उपाय को रोजगार छीनने वाला समझ कर वे युवा मेहनतकश तबकों के प्रति अपमानजनक तथा क्रूर भाव प्रकट करते रहे हैं । रोजगार के अवसर तो आर्थिक नीतियों के कारण संकुचित होते हैं । आपके आन्दोलन में इन युवाओं का तबका शामिल है तथा इस बाबत उनमें प्रशिक्षण की जिम्मेदारी नेतृत्व की होगी । कूएँ में यदि पानी हो तब सबसे पहले प्यासे को देने की बात होती है । यदि कूँए में पानी ही न हो तब उसका गुस्सा प्यासे पर नहीं निकालना चाहिए । उम्मीद है कि भ्रष्टाचार विरोधी युवा यह समझेंगे ।

मौजूदा प्रधानमंत्री जब वित्तमंत्री थे तब शेयर बाजार की तेजी से उत्साहित हो वे वाहवाही लूट रहे थे , दरअसल तब हर्षद मेहता की रहनुमाई में प्रतिभूति घोटाला किया जा रहा था। इस मामले की जाँच के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने पाया था कि चार विदेशी बैंकों चोरी का तरीके बताने में अहम भूमिका अदा की थी । उन बैंकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई । उदारीकरण के दौर का वह प्रथम प्रमुख घोटाला था । तब से लेकर अभी कुछ ही समय पूर्व अल्युमिनियम की सरकारी कम्पनी नाल्को के प्रमुख ए.के श्रीवास्तव तथा उनकी पत्नी चाँदनी के १५ किलोग्राम सोने के साथ पकड़े जाने तक भ्रष्टाचार के सभी प्रमुख मामले उदारीकरण की नीति की कोख से ही पैदा हुए हैं। इन नीतियों के खिलाफ भी जंग छेड़नी होगी ।

अंतत: किन्तु अनिवार्यत: नई पीढ़ी को साधन-साध्य शुचिता के  विषय में भी बताना होगा ।आप से बेहतर इसे कौन समझा सकता है ? लोकपाल कानून के दाएरे में सरकारी मदद पाने वाले स्वयंसेवी संगठन तो शायद आ जाएंगे । आवश्यकता इस बात की है विदेशी पैसा लाने के लिए सरकार से विदेशी सहयोग नियंत्र्ण कानून (एफ.सी.आर.ए.) का प्रमाण पत्र  लेने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं पर भी लोकपाल कानून की निगरानी तथा पारदर्शिता के लिए सूचना के अधिकार के प्रावधान भी लागू किए जाने चाहिए ।

इस व्यवस्था ने योग्य नौजवानों के समूह को भी रिश्वत देनेवाला बना दिया है । चतुर्थ श्रेणी की नौकरी पाने के लिए भी मंत्री , दलाल और भ्रष्ट अधिकारियों को घूस देनी पड़ती है । भ्रष्टाचार के खिलाफ बनी जागृति के इस दौर में आप तरुणों की इस जमात से घूस न देने का संकल्प करवायेंगे इस उम्मीद के साथ ।

(साभार : जनसत्ता , १२ अप्रैल,२०११ )

५, रीडर आवास,जोधपुर कॉलोनी ,काशी विश्वविद्यालय , वाराणसी – २२१००५.

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आजादी के बाद से सबसे अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है । गरीबी , बेरोजगारी , महँगाई , सीमा सुरक्षा या क्रिकेट से भी अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है । देश का कोई भी वर्ग नहीं है जो इससे विचलित नहीं है। फिर भी हमारे बुद्धिजीवियों ने इसको एक खोज का विषय , सामाजिक चिन्तन का विषय नहीं बनाया। जानकार व्यक्तियों से हमने पूछा कि इस विषय पर लिखी गई किसी किताब का नाम बताएँ । उन्होंने कहा कि ऐसी कोई किताब नहीं है जो भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसके कारण तथा प्रतिकार से सम्बन्धित हो। एक-दो किताबें हैं ( ज्यादा भी हो सकती है ) जिनमें भ्रष्टाचार की घटनाओं का विवरण है ; विभिन्न जाँच आयोगों की रपटों पर यह किताबें आधारित हैं । प्रशासनिक सुधार के उद्देश्य से एक संथानम आयोग नियुक्त हुआ था । प्रशासनिक दायरे में लिखी गई यह रिपोर्ट अभी तक भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में सर्वाधिक प्रसिद्ध दस्तावेज है । इसी तरह बाद के दिनों की बोहरा कमेटी की रिपोर्ट है ।

भारत पर लिखने वाले विदेशी बुद्धिजीवियों को हमने ढूँढ़ा तो एक दशक पहले लिखा गया स्वीडेन के अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल (अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता) का विशाल ग्रंथ एशियन ड्रामा मिला । दक्षिण एशिया के राष्ट्रों की गरीबी और उसके कारणों को समझने के लिए ग्रंथ लिखा गया था । मिर्डल को हम यह श्रेय देते हैं कि भ्रष्टाचार की समस्या पर उन्होंने एक स्वतंत्र अध्याय लिखा है ( अध्याय २० , भाग – २)। मिर्डल ने भी यह टिप्पणी की है कि भारत पर लिखनेवाले देशी-विदेशी बुद्धिजीवियों ने इस समस्या पर चिन्तन या विश्लेषण की कोई किताब नहीं लिखी है ।

इस कमी का का जो भी कारण मिर्डल की समझ में आया हो , हमारे लिए इसका एक कारण बहुत स्पष्ट है । भारतीय बुद्धिजीवियों ने नहीं लिखा है तो उसकी एक वजह यह है कि पश्चिमी बुधिजीवियों ने अभी तक भ्रष्टाचार की समस्या को एक विषय नहीं बनाया है और इस विषय पर सोचने का कोई तरीका पेश नहीं किया है। न ही किसी विदेशी संस्था ने इस विषय पर अनुसंधान के लिए अनुदान दिया है । इन दिनों भारतीय अनुसंधान का विषय काफ़ी हद तक अनुदान देनेवाली विदेशी संस्थाओं द्वारा निर्धारित होता है । जहाँ तक विदेशी बुधिजीवियों द्वारा किताब न लिखने का सवाल है , आजकल विदेशी बुद्धिजीवियों का जो हिस्सा एशिया के देशों पर किताब लिखता है , वह उच्च कोटि का नहीं होता । इन विदेशी बुद्धिजीवियों की दृष्टि में एशिया के लोग पश्चिम के लोगों से घटिया होते हैं , इसलिए भ्रष्टाचार जैसी चीजें उनके लिए स्वाभाविक हैं, पारम्परिक हैं । ये लोग ’विकास’ को एक विशेष अर्थ में समझते हैं ,और इस विकास के चलते अगर महँगाई , बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसी समस्याएँ बढ़ने लगती हैं तो उन्हें विकास के लिए आवश्यक भी मानते हैं । (मनमोहन सिंह द्वारा हाल ही में लोक सभा में ’विकास’ बनाम मंहगाई और भ्रष्टाचार की बाबत  ऐसी बकवास किए जाने को सुनकर किशनजी के इन शब्दों को मैंने बोल्ड किया है – अफ़लातून। )

इस प्रकार के विदेशी बुद्धिजीवियों के मुकाबले में काफ़ी ऊँचे दरजे का विचारक होने के बावजूद मिर्डल की दृष्टि बहुत साफ़ नहीं है , एक स्थान पर वह कहता है कि एशिया के देशों में भ्रष्टाचार की एक परम्परा है, इसी अध्याय के दूसरे स्थान पर कहता है कि यूरोप के देशों में काफ़ी पहले इस पर काबू पा लिया गया है । ऐसी मान्यता के कारण मिर्डल कोई समाधान नहीं सुझा पाता । लेकिन उसने भ्रष्टाचार को एक मौलिक समस्या का दरजा दिया है क्योंकि एशिया के देशों में रजनैतिक हलचल का और गद्दी पलटने का सबसे बड़ा मुद्दा यही है । यह तानाशाही के मार्ग को भी प्रशस्त करता है , आर्थिक क्षेत्र में भी इसका दुष्परिणाम निर्णायक होता है , विकास की योजनाओं का कार्यान्वयन सम्भव नहीं हो पाता है। ( जारी , अगला हिस्सा- राजनैतिक दल और भ्रष्टाचार ).( यह भी देखें : राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक )

 

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