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बीसवीं सदी के आधुनिक भारत का इतिहास जब लिखा जाएगा, तो उसमें दो तारीखें महत्वपूर्ण मानी जाएगी। पहली है 15 अगस्त 1947, जब लंबे संघर्ष के बाद भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ। दूसरी है मई 1991, जब आजाद भारत की सरकारों ने वापस देश को गुलाम और परावलंबी बनाने की नीतियों को अख्तियार करना शुरु किया। कहने को तो राजनीतिक रुप से देश आजाद रहा, किंतु उसकी नीतिया, योजनाए और कार्यक्रम विदेशी निर्देशों पर, विदेशी हितों के लिए संचालित होने लगे। बहुत तेजी से भारत की नीतियों, आर्थिक प्रशासनिक ढांचे और नियम कानूनों में बदलाव होने लगे।
तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह अब देश के प्रधानमंत्री हैं। बीच में वे सरकार में नहीं थे, किंतु जो सरकारें आई, उन्होंने भी कमोबेश इन्हीं नीतियों को जारी रखा। देश के जागरुक लेाग, संगठन और जनआंदोलन इन नीतियों का विरोध करते रहे और इनके खतरनाक परिणामों की चेतावनी देते रहे। दूसरी ओर इन नीतियों के समर्थक कहते रहे कि देश की प्रगति और विकास के लिए यही एक रास्ता है। प्रगति के फायदे नीचे तक रिस कर जाएंगे और गरीब जनता की भी गरीबी दूर होगी। उनकी दलील यह भी है कि वैश्वीकरण के जमाने में हम दुनिया से अलग नहीं रह सकते और इसका कोई विकल्प नहीं है।
प्रारंभ में यह बहस सैद्धांतिक और अनुमानात्मक रही। दोनों पक्ष दलील देते रहे कि इनसे ऐसा होगा या वैसा होगा। हद से हद, दूसरे देशों के अनुभवों को बताया जाता रहा। किंतु अब तो भारत में इन नीतियों को दो दशक से ज्यादा हो चले है। एम पूरी पीढ़ी बीत चली है। किन्हीं नीतियों के या विकास के किसी रास्ते के, मूल्यांकन के लिए इतना वक्त काफी होता है। इन नीतियों वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, मुक्त बाजार, आर्थिक सुधार, बाजारवाद, नवउदारवाद आदि विविध और कुछ हर तक भ्रामक नामों से पुकारा जाता है। वास्तव में यह वैश्विक पूंजीवाद का एक नया, ज्यादा आक्रामक और ज्यादा विध्वंसकारी दौर है। भारत में इसके अनुभव की समीक्षा का वक्त आ गया है। इन पर पूरे देश में खुलकर बहस चलना चाहिए। यह इसलिए भी जरुरी है कि भारत सरकार अभी तक के अनुभव की समीक्षा किए बगैर बड़ी तेजी से इन विनाशकारी सुधारों को आगे बढ़ा रही है। उनकी भाषा में यह ‘दूसरी पीढ़ी के सुधारों‘ पर चल रही है। तो आइए देखें कि भारत में इस तथाकथित उदारीकरण का रिपोर्ट कार्ड क्या रहा है ?
उपलब्धियां
सरसरी तौर पर पिछले दो दशकों में काफी प्रगति दिखाई देती है। राष्ट्रीय आय (जीडीपी) की सालाना वृद्धि दर पहले 2-3 फीसदी हुआ करती थी, जिसे अर्थशास्त्री मजाक में ‘हिन्दू वृद्धि दर‘ कहते है। किंतु इस अवधि में वह बढ़ते-बढ़ते 2005-06 से 2007-08 के बीच 9 से ऊपर पहंुच गई। इससे उत्साहित होकर भारत को चीन के साथ नई उभरती आर्थिक महाशक्ति का दरजा दिया जाने लगा। हालांकि बाद में यह वृद्धि दर उतरते-उतरते चालू साल में 6 से नीचे आ गई है।
1991 के संकट के समय भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो गया था और भारत का सोना लंदन में गिरवी रखना पड़ा था। यह संकट दूर हुआ और भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में काफी बढोतरी हुई। भारत के निर्यात भी काफी बढ़े हैं। यदि विदेशी पूंजी निवेश को उपलब्धि माने, तो इस अवधि में वह भी काफी बढ़ा है। भारतीय कंपनियं अब दुनिया के अन्य देशों में जा रही है और वहां की कंपनियों को खरीद रही हैं, यानी वे भी बहुराष्ट्रीय बन रही हंै। दुनिया के चोटी के अमीरों की सूची में भारतीय नाम भी दिखाई देते हैं।
आधुनिक तकनालाजी में काफी प्रगति हुई है। देश में कम्प्यूटर, सूचना तकनालाजी, मोबाईल, और वाहन क्रांतियां हुई है। बंगलौर, हैदराबाद, पूना, गुड़गांव में इंटरनेट-कम्प्यूटर के केन्द्र विकसित हुए हैं, जिनमें रोजगार के नए अवसर पैदा हुए हैं। नए राजमार्ग और एक्सप्रेस मार्ग बने है, जिन पर कारें सौ से ऊपर की रफ्तार पर दौड़ सकती हैं। दिल्ली की मेट्रो रेल भी एक चमत्कार लगती हैं। नए कार्पोरेट अस्पताल बन गए हैं, जहां इलाज कराने के लिए दूसरे देशों से लोग आ रहे हैं और अब ‘रसायन पर्यटन‘ नाम एक नई चीज शुरु हो गई हैं। शिक्षा में भी प्रबंधन, इंजीनियरिंग, सूचना तकनालाजी, एविएशन आदि के कई तरह के नए संस्थान खुल गए हैं और नए अवसर पैदा हुए हैं।
किंतु इन लुभावने आंकड़ों और चमक-दमक के बीच जो सवाल रह जाता है वह यह कि देश के साधारण लोगों का क्या हुआ ? उनकी जिंदगी पर क्या असर पड़ा ? वही असली कसौटी होगी।
गरीबी और भूखमरी: कहां है रिसाव
कुछ समय पहले भारत सरकार ने अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में असंगठित क्षेत्र के बारे में एक आयोग गठित किया था। इस आयोग के एक बयान ने देश के प्रबुद्ध वर्ग को चैंका दिया था। वह यह कि देश के 78 फीसदी लोग 20रु. रोज से नीचे जीवनयापन करते हैं। इस आंकडे़ ने देश की प्रगति और विकास के दावों की पोल खोल दी और राष्ट्रीय आय की ऊंची वृद्धि दर के जश्न की हवा निकाल दी। सेनगुप्ता आयोग का यह आंकड़ा 2004-05 का था। किंतु उसके बाद तो मंहगाई से लोगों की हालत और खराब हुई है।
भारत सरकार और उसका योजना आयोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाली आबादी में लगातार कमी का दावा करता रहता है, उसकी भी असलियत सेनागुप्ता आयोग के इस कथन ने उजागर कर दी। इस बीच में कई विद्वानों ने बताया है कि गरीबी रेखा के निर्धारण और उसकी गणना में कितनी त्रुटियां हंै। पिछले वर्ष जब योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि वह गांवों में 26 रु. और शहरों में 32 रु. रोज से ज्यादा प्रति व्यक्ति खर्च करने वालों को गरीब नहीं मानता है, तब इस हास्यास्पद और दयनीय गरीबी रेखा पर देश में बवाल मचा। दरअसल जानबूझकर इतनी नीची और अव्यवहारिक गरीबी रेखा रखी गई है ताकि गरीबी में कमी और वैश्वीकरण की नीतियों को सफल बताया जा सके। गरीबी रेखा का उपयोग देश की साधारण अभावग्रस्त आबादी के बड़े हिस्से को बुनियादी सुविधाओं में सरकारी मदद से वंचित करने में भी किया जा रहा है, जिससे साधारण लोगों के कष्ट और बढ़े हैं।
भारत को आर्थिक महाशक्ति बताने वालों को यह भी देख लेना चाहिए कि प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से दुनिया के देशों में भारत का स्थान लगातार बहुत नीचे 133 के आसपास बना हुआ है। ऊंची वृद्धि दर के बावजूद भारत दुनिया के निर्धनतम देशों में से एक है।
राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय के मौद्रिक आंकड़े पूरी हकीकत का बयान नहीं करते है। मानव विकास सूचकांक और अंतरराष्ट्रीय भूख सूचकांक में भी भारत का स्थान बहुत नीचे है। संख्या के हिसाब से दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे, कुपोषित और अनपढ़ लोग भारत में ही रहते है। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और अमत्र्य सेन ने पिछले दिनों एक लेख (आउटलुक, 14 नवंबर 2011) में हमारा ध्यान कुछ दुखद तथ्यों की ओर आकर्षित किया है। कुपोषित कमजोर बच्चों का अनुपात पूरी दुनिया में भारत में सबसे ज्यादा है (43.5 फीसदी), अफ्रीका के अकालग्रस्त देशों से भी ज्यादा। दुनिया का एक भी देश ऐसा नहीं है, जिसकी हालत इस मामले में भारत से खराब हो। अफ्रीका के बाहर केवल चार देशों की बाल मृत्यु दर भारत से ज्यादा है और केवल पांच देशों की युवा महिला साक्षरता दर भारत से कम है। कई मामलों में हमारे पडोसी पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल की हालत हम से बेहतर है। क्या ये शरम से सिर झुकाने लायक हालात नहीं है ?
दरअसल पिछले दो दशकों में भारत में पहले से मौजूद गैरबराबरी और तेजी से बढी है। जो समृद्धि दिखाई दे रही है, वह थोड़े से लोगों के लिए है। राष्ट्रीय आय की वृद्धि मुट्ठी भर लोगों के हाथ मंे जा रही है। अमीर और उच्च मध्यम वर्ग के लोग अमीर बनते जा रहे है। बाकी लोग या तो अपनी जगह हैं या कई मायनों में बदतर होते जा रहे हैं। अमीर-गरीब की बढ़ती खाई के अलावा गांव-शहर, खेती-गैरखेती की खाई तथा क्षेत्रीय गैरबराबरी और सामाजिक गैरबराबरी भी बढ़ी है। इस बढ़ती गैरबराबरी के कारण समाज में असंतोष, तनाव, झगड़ों और अपराधों में भी बढ़ोतरी हो रही है।
रोजगारशून्य विकास
राष्ट्रीय आय की वृद्धि का आम लोगों की बेहतरी में न बदलने का एक प्रमुख कारण है कि यह रोजगार रहित वृद्धि है। नए रोजगार कम पैदा हो रहे हैं और पुराने रोजगार तथा आजीविका के पारंपरिक स्त्रोत ज्यादा नष्ट हो रहे हैं। कम्प्यूटर-इंटरनेट के नए रोजगारों की संख्या बहुत सीमित है और अमरीका-यूरोप की मंदी के साथ उनमें भी संकट पैदा हो रहा है। रोजगार का संकट मुख्य रुप से निम्न कारणों से गंभीर हुआ है-
1. बढ़ता मशीनीकरण और स्वचालन। श्रमप्रधान की जगह पूंजी प्रधान तकनालाजी को बढ़ावा। दुनिया के बाजार में प्रतिस्पर्धा के लिए इसे जरुरी माना जा रहा है।
2. वैश्वीकरण के दौर में कई बड़े कारखानों (जैसे कपड़ा मिलें), छोटे उद्योगों, ग्रामोद्योगों और पारंपरिक धंधों का विनाश। इसमें खुले आयात और विदेशी माल की डम्पिंग ने भी योगदान किया।
3. भूमि से विस्थापन। जंगल, नदियों और पर्यावरण के प्रभावों ने भी लोगों की अजीविका को प्रभावित किया है।
रोजगार के मामले में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है कि कंपनियों ने अब स्थायी मजदूर व कर्मचारी रखना कम कर दिया है और वे अस्थायी, दैनिक मजदूरी पर या ठेके पर (ठेकेदार के मारफत) मजदूर रखने लगी हैं या काम का आउटसोर्सिंग करने लगी है। इससे उनकी श्रम लागतों में काफी बचत हो रही हैं। सरकार ने भी श्रम कानूनों को शिथिल कर इस नाम पर इसे बढ़ावा दिया है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय माल प्रतिस्पर्धी बन सकेगा, निर्यात बढे़गा और भारत में विदेशी पंूजी आकर्षित होगी। किंतु इसका मतलब है कि वास्तविक मजदूरी कम हो रही है और श्रम का शोषण बढ़ रहा है। भारत के मजदूर आंदोलन ने लंबे संघर्ष के बाद जो चीजें हासिल की थी, वे खतम हो रही हैं और भारत पीछे जा रहा है।
सरकारी क्षेत्र में भी निजी कंपनियों की इन शोषणकारी चालों की नकल की जा रही है। जैस अब पुराने स्थायी शिक्षकों की जगह पैरा-शिक्षक लगाए जाते हैं, जिनका वेतन एक-चैथाई होता है। कई बार उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती ।
यह भी गौरतलब है कि औद्योगीकरण के प्रयासों के छः दशक और उदारीकरण के दो दशक बाद भी भारत की कुल श्रम शक्ति का 7 फीसदी से भी कम संगठित क्षेत्र में है। (संगठित क्षेत्र में वे पंजीकृत उद्यम, फर्म या कंपनियां शामिल होते है जिनमें दस या ज्यादा लोग काम करते हैं।) बाकी पूरी आबादी असंगठित क्षेत्र में हैं जिनमें किसान, पशुपालन, मछुआरे, खेतीहर मजदूर, हम्माल, घरेलू नौकर, असंगठित मजदूर, फेरीवाले, दुकानदार आदि है। इनमें डाॅक्टरों, वकीलों और मध्यम व बड़े व्यापारियों को छोड़ दें (जो कि करीब 5 फीसदी होंगे), तो बाकी की हालत खराब है। भारत की बहुसंख्यक आबादी की बेहतरी और इस कथित विकास में भागीदारी कब और कैसे होगी ? क्या यह एक मृग-मरीचिका नहीं है ?
खेती का अभूतपूर्व संकट
इस देश के बहुसंख्यक लोग आज भी खेती और कुदरत से जुडे कामों में लगे हैं, किंतु राष्ट्रीय आय में उनका हिस्सा लगातार कम होता जा रहा है। खेती और उससे जुड़े पेशों (पशुपालन, मछली, वानिकी) का कुल राष्ट्रीय आय में हिस्सा 1950-51 में 53.1 फीसदी था, जो 1990-91 में घटकर 29.6 और 2011-12 में 13.9 रह गया। दूसरी तरफ देश की आबादी का 58 फीसदी अभी भी इनमें लगा है। इसका मतलब है कि भारत में गांवों में रहने वाली विशाल आबादी वंचित-शोषित हो रही है।
उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां कई तरह से भारतीय खेती और किसानों के हितों के खिलाफ साबित हुई हैं-
1. अनुदान कम करने, विनियंत्रण और निजीकरण के कारण खेती में प्रयोग होने वाले आदान (डीजल, बिजली, खाद, बीज, पानी आदि) महंगे हुए हैं।
2. कृषि उपज के दाम आम तौर पर लागत-वृद्धि के अनुपात में नहीं बढ़े हैं। कृषि उपज का व्यापार खुला करने और और खुले आयात के कारण भी दाम कम बने रहते हंै। जैसे खाद्य तेलों के आयात से देश में किसानों को तिलहन फसलों के समुचित दाम नहीं मिल पाते हैं। दूसरी ओर, निर्यात फसलों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिनमें कुछ समय तक अच्छे दाम मिलते हैं, किंतु अचानक अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम गिरने से किसानों को नुकसान भी हुआ है। उदारीकरण की नीति के तहत सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदी की व्यवस्था धीरे-धीरे खतम करना चाहती है। यदि यह हुआ तो भारतीय किसान पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय बाजार और निजी कंपनियों के चंगुल में आ जाएगा और बरबाद हो जाएगा। चीनी उद्योग के विनियंत्रण की रंगराजन समिति की हालिया रपट में राज्य सरकारें गन्ने के लिए जो समर्थन मूल्य घोषित करती है, उसे खतम करने की सिफारिश की गई है।
3. हरित क्रांति की गलत तकनालाजी के दुष्परिणाम इस अवधि में सामने आए हैं। भूजल नीचे जा रहा है, मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है, कीट-प्रकोप बढता जा रहा है। विभिन्न फसलों की पैदावार-वृद्धि में ठहराव आ गया है और किसानों को उतनी ही पैदावार लेने के लिए अब ज्यादा खाद और कीटनाशक दवाईयों का इस्तेमाल करना पड रहा है। इस बुनियादी गलती को दुरुस्त करने के बजाय सरकार उसी दिशा में और आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है और ‘दूसरी हरित क्रांति‘ की बात कर रही है। इसी के तहत जीन-मिश्रित बीजों को लाया जा रहा है, जिसके दुष्परिणाम और ज्यादा भयानक एवं दीर्घकालीन हो सकते हैं। नयी हरित क्रांति पूरी तरह कंपनियों के द्वारा संचालित होने वाली है।
4. खेती का स्वावलंबन पूरी तरह समाप्त करके उसे बाजार-केन्द्रित, बाजार-आधारित और बाजार निर्भर बनाया जा रहा है। इस बाजार को भी अंतरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ा जा रहा है। इससे खेती में जोखिम बहुत बढ़ गया है।
5. मौसम और मानसून के पुराने जोखिम के साथ खेती में कई नए तरह के जोखिम जुड़ते जा रहे हैं। एक, आदानों (पानी, बिजली, खाद, बीज, कर्ज) की आपूर्ति का जोखिम समय पर न मिलना, पर्याप्त मात्रा में न मिलना, उचित गुणवत्ता का न मिलना। दो, तकनालाजी का जोखिम कीट प्रकोप, नए बीजों का ज्यादा नाजुक होना। तीन, बाजार का जोखिम- उपज की कीमत गिर जाना, समर्थन मूल्य पर खरीदी न होना। इतने सारे जोखिमों के आगे आधी-अधूरी फसल बीमा योजनाएं नाकाफी साबित हो रही हैं।
6. खेती के हर पहलू में देशी विदेशी कंपनियों की घुसपैठ हुई है और उनका नियंत्रण एवं वर्चस्व बढ़ा है। कॉन्ट्रेक्ट खेती, बीजों का पेटेन्ट जैसा कानून, कृषि उपज मंडी कानूनों में बदलाव, और अब खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत ने इस का रास्ता साफ किया है। जमीन मालिकी, बीज आपूर्ति, खाद आपूर्ति, कीटनाशक आपूर्ति, विपणन, भंडारण, प्रसंस्करण आदि हर क्षेत्र में कंपनियां आ रही हैं और छा रही हैं। भारत के किसानों, भारत की खेती और खाद्य-आपूर्ति के नजरिये से यह खतरनाक है।
7. बडे़ पैमाने पर, सीधे अधिग्रहण करके या बाजार के जरिये, जमीन किसानों के हाथ से निकल रही है और खेती के बाहर जा रही है। जमीन एक सीमित संसाधन है और इसे बढ़ाया नहीं जा सकता। वर्ष 1992-93 से 2002-03 के दौरान देश की कुल खेती की जमीन 12.5 करोड हेक्टेयर से घटकर 10.7 करोड़ हेक्टेयर रह गई। इस तरह महज दस बरस की अवधि में 1.8 करोड़ हेक्टेयर जमीन खेती से निकलकर दीगर उपयोग में चली गई। यही बात पानी के बाबत भी हो रही है। बड़े पैमाने पर नदियों, बांधों, नहरों, व तालाबो का पानी तथा जमीन के नीचे का पानी औद्योगिक और शहरी प्रयोजन के लिए लिया जा रहा है, जिससे खेती के लिए पानी का संकट पैदा हो रहा है।
इन सब का मिला-जुला नतीजा यह हो रहा है कि भारतीय खेती और खेती से जुडे़ समुदाय जबरदस्त मुसीबत में है। बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्याएं इसका एक लक्षण है। वर्ष 1995 से लेकर 2011 तक खुद सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2 लाख 70 हजार से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं। इस अवधि में हर साल औसतन करीब 16 हजार किसानों ने आत्महत्या की है। यानी रोज 44 किसान देश के किसी कोने में आत्महत्या करते हैं। यह एक अभूतपूर्व संकट है।
यह भी गौरतलब है कि सबसे ज्यादा संख्या में किसान आत्महत्याएं महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में हो रही हैं। पंजाब और गुजरात में भी काफी किसान आत्महत्याएं हुई हैं। ये वो राज्य है, जहां की खेती काफी बाजार आधारित, उन्नत और खुशहाल मानी जाती है, जहां विश्व बैंक काफी मेहरबान है और जहां खेती में कंपनियों की काफी घुसपैठ है। बीटी कपास के नए जीन-मिश्रित बीजों को बहुत सफल, फायदेमंद और लोकप्रिय बताया जा रहा है। किंतु महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के कपास इलाके में बड़ी तादाद में किसानों की आत्महत्याएं बदस्तूर जारी हैं।
सेवाओं की लूट
भारत की राष्ट्रीय आय में जो तेज वृद्धि पिछले सालों में दिखाई दी है, वह लगभग पूरी की पूरी खेती या उद्योग से न होकर, तथाकथित सेवा क्षेत्र से आई है। भारत का सेवा क्षेत्र पिछले बरसों में दस से पंद्रह फीसदी दर से बढ़ रहा है। भारत की राष्ट्रीय आय में खेती का हिस्सा घट रहा है, तो उसकी जगह उद्योग न लेकर सेवाएं ही ले रही हैं। राष्ट्रीय आय में उद्योग का हिस्सा 1950-51 में 16.6 फीसदी, 1990-91 में 27.7 और 2011-12 में 27.0 फीसदी था। यानी पहले तो कुछ बढ़ रहा था , किंतु पिछले दो दशकों में तो स्थिर है या कम हुआ है। दूसरी ओर, सेवाओं का हिस्सा 1950-51 में 30.3 फीसदी था, 1990-91 में 42.7 हुआ और 2011-12 में 59 हो गया।
यह दुनिया के मौजूदा अमीर देशों के अनुभव से अलग है। वहां तीव्र औ़द्योगीकरण के चलते पहले उद्योगों का हिस्सा बढ़ा और बाद के तीसरे चरण में सेवाओं का अनुपात बढ़ा। भारत ने एक तरह से बीच वाले चरण को बायपास कर लिया है। यूरोप-अमरीका-जापान में औद्योगिकरण से जो रोजगार पैदा हुए और लोगों का जीवन-स्तर ऊंचा हुआ, भारत में वह नहीं हुआ है। यह मानना चाहिए कि भारत जैसे हाशिये के देशों में पूंजीवादी विकास इसी तरह होगा, क्योंकि भारत के पास लूटने के लिए बाहरी उपनिवेश नहीं है और आंतरिक उपनिवेश की एक सीमा है।
खेती-उद्योग का विकास न होकर महज सेवाओं के विस्तार से भारतीय अर्थव्यवस्था में गहरे असंतुलन पैदा हुए है। सही मायने में उत्पादन और मूल्य-सृजन खेती और उद्योग में ही होता है तथा अर्थव्यवस्था का आधार उनसे ही बनता व बढता है। सेवाएं तो खेती-उद्योग से पैदा हुए धन का ही पुनर्बंटवारा करती है। कह सकते है कि वे मूलतः परजीवी होती है। एक पेड़ पर ज्यादा परजीवी लताएं हो जाएंगी, तो वे पेड़ को ही सुखा देगी। यही हालत भारतीय अर्थव्यवस्था की हो रही है।
सेवाओं में तेजी से बढती हुई एक सेवा है वित्तीय सेवाएं। इनमें बैंक, बीमा, चिटफंड, माईक्रो फाईनेन्स, म्युचुअल फंड, शेयर व्यवसाय, वायदा कारोबार, लॉटरी सेवाएं आदि शामिल है। सेवाओं के परजीवी चरित्र का यह बढ़िया उदाहरण है। कोई मेहनत न करके, केवल लेनदेन, ब्याज और सौदों से इनमें जमकर कमाई की जाती है। इनकी गतिविधियों का बडा हिस्सा सट्टा जैसा होता है, जिनमें कीमतों में उतार-चढ़ाव का अनुमान लगाकर सौदे किए जाते है और कमाई की जाती है। किंतु इसके चलते छोटे निवेशक कई बार बरबाद हो जाते हैं, बड़े खिलाडियों में बाजार को किसी तरह प्रभावित करके बड़ा हाथ मारने की प्रवृति बढ़ती है, मंहगाई बढती है और अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने का खतरा बढ़ता है। इनसे एक कृत्रिम और भ्रामक तेजी भी दिखाई दे सकती है। किंतु इसके बुलबुले फूटने पर गहरा संकट आ सकता है जैसा कि अमरीका-यूरोप में 2008 में आया है।
अभाव और महंगाई
आम तौर पर किसानों और उपभोक्ताओं के हितों को एक-दूसरे के खिलाफ बता कर पेश किया जाता है और दलील के रुप में इस्तेमाल भी किया जाता है। किसानों को दाम कम देना हो तो महंगाई बढ़ने का डर दिखाया जाता है। महंगाई के जवाब में कहा जाता है कि यह तो किसानों को बेहतर दाम देने के कारण आई है। किंतु उदारीकरण के इस दौर की सच्चाई यह है कि किसान भी मुसीबत में फंसे है और आम जनता को भी भीषण महंगाई को झेलना पड़ रहा है।
पिछले पांच-छः बरस से भारत की जनता पर महंगाई की जबरदस्त मार पड़ रही है। यह मूलतः भारतीय विकास नीति और अर्थनीति की बुनियादी त्रुटियों और गलत प्राथमिकताओं का नतीजा है। इसे निम्नानुसार देखा जा सकता है-
1. खेती की उपेक्षा, जमीन का ट्रांसफर, खाद्य-स्वावलंबन लक्ष्य के त्याग और निर्यात खेती के कारण देश में खाद्य पदार्थों का अभाव पैदा हुआ है। देश में बढ़ते अनाज उत्पादन के आंकड़े तो उपलब्धि के बतौर पेश किए जाते है, किंतु यह नहीं बताया जाता कि प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धता में 1991 के बाद से भारी गिरावट आई है। 1961 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अनाज उपलब्धता 399.7 ग्राम थी, जो बढ़कर 1991 में 468.5 ग्राम हो गई थीं किंतु उसके बाद से गिरते हुए यह 2010 में 407 ग्राम पर पहुंच गई है। एक तरह से हम वापस पचास-साठ के दशक के अकालों व अभावों वाले वक्त में वापस पहुंच रहे हंै। दालें तो हरित क्रांति और आधुनिक विकास का सबसे ज्यादा शिकार हुई है। प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता पिछले पचास सालों में लगातार गिरती रही है। प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दाल उपलब्धता 1961 में 69 ग्राम थी, जो घटते हुए 1991 में 41.6 ग्राम और 2010 में 31.6 ग्राम रह गई।
दूध, अंडे, मांस और मछली के उत्पादन में जरुर भारी बढ़ोतरी दिखाई देती है। ‘श्वेत क्रांति‘ की बदौलत आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध-उत्पादक देश बन गया है। किंतु इसमें भी वही दिक्कतें हैं, जो हरित क्रांति में है। पूंजी-प्रधान तकनालाजी, भारी लागतों, रसायनों व पानी के भारी उपयोग, बाजार पर निर्भरता और देशी नस्लों के नाश के साथ यह क्रांति आई है और कितने दिन चल पाएगी, यह देखना होगा। दूध उत्पादन में बढ़ोतरी का एक हिस्सा कागजी भी होगा यानी जो दूध पहले घर में और गांव में खप जाता था और आंकड़ों में नहीं आता था, वह अब शहर और बाजार में आने लगा। यानी दूध का संग्रह बढ़ा है, और उतना उत्पादन नहीं। इसी के साथ इस दूध का बढता हुआ हिस्सा आईसक्रीम, पनीर, मक्खन, घी, मिठाईयों व चाकलेटों के रुप में अमीरों के उपभोग में जा रहा है। इसी कारण दूध ज्यादा पैदा होने पर भी सस्ता नहीं हुआ है। एक हद तक गांव के गरीब और उनके बच्चे दूध से वंचित हुए है। अब वे चाय से ही काम चलाते हैं। यही समस्या मांस-मछली-अंडे के आधुनिक उत्पादन के साथ भी है। डेयरी फार्मों, मुर्गी फार्मों, मशीनीकृत बूचड़खानों और सघन मछली फार्मों वाले आधुनिक पशुपालन के साथ कई गंभीर आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय समस्याएं पैदा हो रही हंै। बर्ड फ्लू, स्वाईन फ्लू, मेड काऊ डिजीज, एन्थे्रेक्स जैसे नई महामारियां इसी की देन है।
2. गैरबराबरी बढ़ने, कुछ लोगों के हाथ में काफी पैसा आने, उपभोक्तावादी संस्कृति और विलासिता को बढ़ावा देने से देश के संसाधनों (मौद्रिक, प्राकृतिक और श्रम संसाधन) का ज्यादा हिस्सा अब विलासितापूर्ण उत्पादन-उपभोग में जा रहा है। फिजूलखर्च और बरबादी बढ़ रहे हैं। इससे जरुरी चीजों का उत्पादन और आपूर्ति प्रभावित हो रही है।
3. वायदा कारोबार और खुले आयात-निर्यात ने भी देश में महंगाई बढाई है। कई उद्योगों में विलय-अधिग्रहण के चलते एकाधिकारी वर्चस्व बढा है, जिससे कीमतों पर चंद कंपनियों का नियंत्रण हो गया। नई नीतियों से देश को प्रतिस्पर्धा के फायदे मिलेंगे, यह दलील दी जाती थी। किंतु असलियत में उल्टा हुआ है। खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों के आने से भी यही होगा।
4. जो सेवाएं और वस्तुएं पहले सरकार मुफ्त या सस्ती मुहया कराती थी, नई नीति के तहत उन्हें या तो मंहगा किया जा रहा है या निजीकरण करके बाजार के हवाले किया जा रहा है। इनमें राशन, किरोसीन, डीजल, पेट्रोल, रसेाई गैस, पेयजल, बिजली, सफाई, सड़क (टोलटेक्स), बस और रेल किराया, शिक्षा, इलाज आदि को देखा जा सकता है। कुल महंगाई में इनका काफी बड़ा हिस्सा है जो कीमत सूचकांक के सरकारी आंकड़ों में पूरी तरह दिखाई नहीं होता। दवा व्यवसाय में जितना ज्यादा मार्जिन और मुनाफा है, वह नई व्यवस्था में नीहित लूट का एक उदाहरण है।

शिक्षा और सेहत में मुनाफाखोरी

देश में भले ही नामी कार्पोरेट अस्पताल और उच्च शिक्षण संस्थान खुल गए हों, देश के साधारण लोगों के लिए उनके दरवाजे बंद हैं। वे बहुत महंगे हैं। नई सोच के तहत शिक्षा और इलाज की सरकारी व्यवस्था को जानबूझकर उपेक्षित किया गया है और बिगाड़ा गया है ताकि इनके बाजार को बढ़ावा मिले। शिक्षा-चिकित्सा के बढ़ते निजी क्षेत्र और उसकी महंगी सेवाओं से राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर बढ़ाने में तो मदद मिली हैं, किंतु वे साधारण जनता की पहुंच से बाहर हुई है और उनकी लूट बढ़ी है। चिकित्सा में मुनाफाखोरी एक विकृति है जो पिछले बरसों में काफी तेजी से बढ़ी है।
प्राकृतिक संसाधनों की लूट, पर्यावरण का क्षय
विकास के नाम पर जल, जंगल, जमीन, खनिज आदि को कंपनियों के हाथों में सस्ते दामों पर लुटाने का सिलसिला इस दौर में तेज हुआ है। राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर को तेज करने और पूंजी निवेश के लिए देशी-विदेशी कंपनियों को ललचाने के लिए यह जरुरी माना गया। यह पागलपन इतना बढ़ गया है कि हम लोह अयस्क जैसे खनिजों को सीधा निर्यात कर रहे है। यहा उसका इस्पात बनाते और इस्पात से दूसरा सामान बनाते तो यहां के लोगों को रोजगार मिलता और यहां की आमदनी बढ़ती। पोस्को जैसी विवादास्पद परियोजनाओं में विदेशी कंपनियों को सीधे लौह अयस्क निर्यात करने की छूट दी गई है। इस तरह हम अंतरराष्ट्रीय व्यापार के औपनिवेशिक युग में पहुंच रहे हैं, जिसमें उपनिवेशों से कच्चा माल जाता था और साम्राज्यवादी देशों से तैयार माल आता था।
निर्यात पर जोर का मतलब है कि हम अपने संसाधनों का उपयोग देश की सधाराण गरीब जनता के लिए न करके विदेशों के अमीरों की सेवा में कर रहे हैं। प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं, इसलिए विदेशीयों की सेवा में उनको खतम या बरबाद करना और ज्यादा अक्षम्य है। उदाहरण के लिए, बासमती चावल के निर्यात का मतलब देश के पानी का निर्यात है।
प्राकृतिक संसाधनों के बढ़ते अंधाधुंध उपयोग और हस्तांतरण का मतलब उन समुदायों को उजाडना और बेदखल करना है, जिनकी जिंदगी प्रकृति से जुड़ी है। पिछले दो दशकों में जमीन से विस्थापन की बाढ़ आ गई है और इससे प्रभावित होने वालों में आदिवासी तथा गैरआदिवासी किसान दोनों हैं। इसी तरह किसानों से पानी छीनकर कंपनियों को दिया जा रहा है। इससे देश में नये संघर्ष पैदा हो रहे हैं। सिंगुर, नंदीग्राम, कलिंगनगर, पोस्को, नियमगिरि, हिराकुंड, सरदार सरोवर, ओंकारोश्वर, इंदिरा सागर, यमुना एक्सपे्रसवे, जैतापुर, कुडनकुलम, फतहपुर, श्रीकाकुलम जैसी एक लंबी सूची है।
प्राकृतिक संसाधनों की इस बंदरबाट ने देश में बड़े-बड़े घोटालों को जन्म दिया है। कोयला घोटाला इसका ताजा उदाहरण है जो इस देश का अभी तक का सबसे बड़ा घोटाला है।
इस दौर में प्रदूषण और पर्यावरण विनाश की दर भी तेज हुई है। नदियों, भूजल, मिट्टी, हवा, भोजन सबमें तेजी से जहर घूलता जा रहा है। कचरा एक बहुत बडी समस्या बनकर उभरा है। वाहन क्रांति के साथ ट्रैफिक जाम, वायु-प्रदूषण और शोर-प्रदूषण की जबरदस्त समस्या सामने आई है। जंगलों के विनाश और जैविक विविधता के नाश की गति बढ़ी है। यह एक बड़ी कीमत है जो हम और हमसे ज्यादा हमारी भावी पीढ़िया चुकाने वाली है। राष्ट्रीय आय की गणना में इसका कोई हिसाब नहीं होता है।
घटता स्वावलंबन, बढ़ता विदेशी वर्चस्व
इस दौर में गांव का और देश का स्वावलंबन तेजी से खतम हुआ है। कई मामलों में (जैसे खाद्य तेल या रेल का इंजन) हमने काफी मेहनत से देश को स्वावलंबी बनाया था, अब वापस विदेशों से आयात, विदेशी कंपनियों और विदेशी तकनालाजी पर निर्भर हो गये हैं। स्वावलंबन का लक्ष्य ही छोड दिया गया है। अर्थव्यवस्था और जीवन के करीब-करीब हर क्षेत्र में विदेशी कंपनियों की घुसपैठ हुई है और कई क्षेत्रों में उन्होंने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। यह एक खतरनाक स्थिति है।
विदेशी पूंजी भारत मंे आई है किंतु इसकी काफी कीमत चुकानी पड़ रही है। इसके लिए भारत सरकार को अपने कई कायदे-कानून बदलने पड़े हैं ( जैसे पेटेन्ट कानून, विदेशी मुद्रा नियमन कानून, एमआरटीपी एक्ट आदि), मुनाफे और लूट की इजाजत देनी पड़ी है, कर-चोरी और कर-वंचन को अनदेखा करना पड़ा है (जैस मारीशस मार्ग)। विदेशी पूंजी, खास तौर पर शेयर बाजार में लगने वाली, चाहे जब वापस लौटने की धमकी देने लगती है। भारत सरकार एक तरह से उनकी बंधक बन गई है। इन विदेशी कंपनियों के हितों को बढ़ाने के लिए कई बार विदेशी सरकारें भी दबाव बनाती हैं।
भारत के निर्यात बढ़े है, तो आयात उससे ज्यादा बढे़ हैं। इस पूरी अवधि में भारत का विदेश व्यापार घाटे में रहा है और यह घाटा बढ़ता जा रहा है। भुगतान संतुलन का संकट घना हो रहा है। भारत इस घाटे को विदेशों में बसे भारतीयों द्वारा भेजी धनराशि, विदेशी कर्ज ओर विदेशी पूंजी से पूरा करता रहा था। किंतु अब इन स्त्रोतों के सूखने तथा व्यापार घाटा ज्यादा होने से इस को पूरा करने का कोई तरीका नहीं बचा है। नतीजतन विदेशी मुदा्र भंडार खाली होने लगा है। हम वापस 1991 की हालात की ओर जाने लगे हैं। डॉलर और दूसरी विदेशी मुद्राओं के मुकाबले रुपया लुढक रहा है। पिछले डेढ़ साल में डाॅलर की कीमत 45 रु. से बढ़कर 55 के करीब हो गई है, जबकि वर्ष 1991 मे डाॅलर करीब 16 रु. का था। डालर के मुकाबले रुपया लुढ़क रहा है। पिछले डेढ़ साल में डालर की कीमत 45 रु. से बढकर 55 के करीब हो गई। जबकि वर्ष 1991 में डालर करीब 16 रु. का था। डालर की कीमत बढ़ने और रुपए की कीमत गिरने का मतलब विदेशियों की क्रयशक्ति बढ़ना तथा भारत की लूट बढ़ना है।
विदेश नीति, रक्षा, उर्जा जैसे क्षेत्रों में भी भारत की स्वतंत्रता, संप्रभुता और स्वावलंबन पर समझौता किया जाने लगा है। एक वक्त था जब भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेता था। अब वह अमरीका का पिछलग्गू बनता जा रहा है। भारत-अमरीका परमाणु करार इसका एक उदाहरण है तो ईरान के साथ गैस पाईप लाईन में आगा-पीछा करना और संयुक्त राष्ट्र संघ में ईरान के मसले पर अमरीका के प्रस्ताव पर वोट देना दूसरा उदाहरण है। फिलीस्तीन के मुद्दे पर पहले भारत की स्पष्ट लाईन थी और वह इजराइल की खुलकर आलोचना करता था। अब उसने इजराइल के साथ दोस्ती कर ली है। अमरीका के साथ संयुक्त सैनिक अभ्यास भी शुरु हो गए है, जो पहले नहीं होते थे।
घोटालों और भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान
पहले यह कहा जाता था कि भ्रष्टाचार का कारण अर्थव्यवस्था में सरकार का अत्यधिक हस्तक्षेप-नियंत्रण और ‘परमिट-लाईसेन्स राज‘ है। सरकार हट जाएगी, तो यह कम हो जाएगा। निजीकरण और विनियंत्रण के पक्ष में माहौल भी इस आधार पर बनाया गया। किंतु दो दशक बाद हम पाते हैं कि भ्रष्टाचार कम होने के बजाय बढ़ गया है। बड़े-बडे़ घोटाले सामने आ रहे हैं और घोटालों के नए रिकार्ड कायम हो रहे हैं।
1991 के पहले का सबसे बड़ा और सबसे चर्चित घोटाला बोफोर्स घोटाला था, जिसने केंद्र की सरकार को पलट दिया था। इस घोटाले में बोफोर्स तोपों के सौदे में कमीशनखोरी का आरोप लगा था, जिसकी राशि करीब 50-60 करोड़ रु. होगी। किंतु 1991 में नयी नीतियां लागू होने के एक साल बाद ही हर्षद मेहता वाला शेयर-प्रतिभूति घोटाला हुआ, जिसमें 5000 से 10000 करोड़ रु. तक की हेरा-फेरी का आरोप लगा। उसके बाद तो यह सिलसिला बढ़ता गया। अब तो घोटालों की बाढ़ आ गई है। जो बड़े घोटाले सामने आए है, उनमें राष्ट्रमंडल खेल घोटाला करीब 80,000 रु., 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला 176000 करोड़ रु. ओर कोयला घोटाला 186000 करोड़ रु. को होने का अनुमान है। यानी हमने घोटालों में कितनी जबरदस्त प्रगति की और कहां से कहां पहुंच गए!
दरअसल निजीकरण, विनियंत्रण और विनिवेश ने भ्रष्टाचार के नए रास्ते खोले हैं। जिस सरकारी उद्यम में पहले आपूर्ति और खरीदी में कमीशखोरी होती थी, उस पूरे उद्यम (या उसके शेयरों) को बेचने में एकमुश्त बड़ी दलाली और कमीशनखोरी होने लगी। प्राकृतिक संसाधनों (जमीन, पानी, खनिज, तरंगे यानी स्पेक्ट्रम आदि) की जिस लूट को विकास और निवेश-प्रोत्साहन के नाम पर बढ़ावा दिया गया, उससे भी बड़े-बड़े घोटालों को जन्म दिया।
यह भी देखा जा सकता है कि सत्ता में बैठे नेताओं-अफसरों ने जनहित-देशहित के खिलाफ होने के बावजूद नई नीतियों को अपनाया और आगे बढाया, क्योंकि इनमें उन्हें बड़े रुप में निजी फायदे नजर आ रहे थे। नीति और नीयत दोनों मे खोट का यह अद्भुत मेल था।
समाजिक -सांस्कृतिक विकृतियां
राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर बढ़ाने के लिए और अर्थव्यवस्था को एक बनावटी तेजी देने के लिए सरकार ने गैरबराबरी (कुछ लोगों के हाथ में धन, आमदनी और क्रयशक्ति का केंद्रीकरण) तथा उपभोक्ता संस्कृति को काफी प्रोत्साहन दिया। उन्मुक्त बाजारवाद के साथ मिलकर इसने कई तरह के तनावों और विकृतियों को बढाया। पैसा और मुनाफा आज का भगवान हो गया है जिसकी चारों तरफ पूजा हो रही है। नैतिक मूल्यों, भाईचारा, सामूहिकता, सादगी, बराबरी आदि सब को इसकी वेदी पर बलि चढाया जा रहा है । शिक्षा, चिकित्सा, मीडिया,राजनीति, धर्म, कला, खेल, संस्कृति सब बाजारु बनते जा रहे हैं और गिरावट के शिकार हो रहे हैं। यह एक चैतरफा गिरावट है।
मूलतः ये पूंजीवाद की विकृतियां है। वैश्वीकरण-उदारीकरण के इस दौर ने इन विकृतियों को भयानक रुप से बढाया, फैलाया तथा उग्र बनाया है।
लोकतंत्र का हनन
इस दौर में विदेशी प्रभावों और दबावों के आगे इस विशाल लोकतंत्र की जनता की आवाज गौण होती जा रही है। कंपनियों को रिझाने और बुलाने में लगी सरकारें जनता की तरफ से आंख मूंद लेती है। मिसाल के लिए 1994 में डंकल मसौदे पर दस्तखत करने जैसे काफी बड़े फैसले के पहले भारत सरकार ने देश की जनता तो दूर, संसद से भी मंजूरी लेने की जरुरत नहीं समझी। फैसले के बाद जाकर सरकार ने ससंद को सूचना दी और चर्चा कराई।
देश में एक तरह से ‘कंपनी राज‘ कायम होता जा रहा है। कंपनियों द्वारा संसद में विश्वास मत और मंत्रियों के चयन को प्रभावित करने के मामले सामने आ रहे हैं।
एक और तरीके से लोकतंत्र का नुकसान हो रहा है। बढ़ती घोर गैरबराबरी से कुछ लोगों के हाथ में विशाल पैसा आ रहा है। चुनावों में इसे पानी की तरह बहाया जाता है और मतदाताओं को प्रभावित किया जाता है। इस मामले में अब चुनाव स्वतंत्र नहीं रह गए हैं। पैसे का उपयोग टिकिटों के बंटवारे और लोकसभा, विधानसभा, नगरनिगम, नगरपालिका, पंचायतों में समर्थन जुटाने और जनप्रतिनिधियों को खरीदने में भी जमकर होने लगा है।
(यह अधूरा है- सुनील)
लेखक : सुनील ,राष्ट्रीय उपाध्यक्ष,समाजवादी जनपरिषद

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‘भारत एक अमीर देश है, जहां गरीब लोग रहते हैं’ – यह कहावत काफी दिनों से चली आ रही है। आधुनिक विकास की विडंबना को जाहिर करने वाली इस कहावत का मतलब है कि भारत में प्राकृतिक संसाधन तो भरपूर हैं, कुल मिलाकर इसकी राष्ट्रीय आय और उसकी वृद्धि दर भी अच्छी दिखाई दे सकती है, किन्तु इसके ज्यादातर लोगों की हालत खराब और दयनीय बनी रहती है।

यह कहावत भारत के बीचोंबीच स्थित, ‘हृदय प्रदेश’ कहलाने वाले राज्य मध्यप्रदेश पर भी लागू होती है। खनिज, जंगल, वर्षा, नदियों, उर्वर मिट्टी, जैविक संपदा आदि के हिसाब से मध्यप्रदेश काफी संपन्न है। पिछले कुछ समय से इसकी वृद्धि दर भी काफी अच्छी और प्रभावशाली दिखाई दे रही है। किन्तु देश के सबसे गरीब, सबसे कुपोषित राज्यों में इसकी गिनती होती है और यह ‘बीमारु’ (बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश – हिन्दी पट्टी के इन चार गरीब-पिछड़े राज्यों के लिए प्रचलित संक्षिप्त नाम) की श्रेणी से बाहर नहीं निकल पा रहा है। इस मायने में यह प्रदेश भारत का सच्चा प्रतिबिम्ब है। पूंजीवादी विकास जिस तरह लगातार साम्राज्यवाद, औपनिवेषिक शोषण, आंतरिक उपनिवेश, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और गैरबराबरी के दम पर पनपता है, उसका एक उदाहरण भारत है, तो दूसरी मिसाल मध्यप्रदेश है। यदि भारत नव-औपनिवेषिक व्यवस्था का एक मोहरा है, तो मध्यप्रदेश आंतरिक उपनिवेश का मॉडल है।

ऊँची वृद्धि दर का जश्न

जैसे भारत के स्तर पर राष्ट्रीय आय की ऊँची वृद्धि दर को लेकर कुछ साल पहले जश्न का माहौल था, हालांकि अब उसके लगातार गिरने से इस जश्न की हवा निकल गई है, वैसे ही मध्यप्रदेश सरकार के गलियारों में भी ऊँची वृद्धि दर को लेकर खुद अपनी पीठ थपथपाई जा रही है। पहले की कम या ऋणात्मक वृद्धि दर के बाद पिछले चार बरस से मध्यप्रदेश की वृद्धि अच्छी रही है और इनमें से तीन बरसों में तो यह दहाई अंकों मे रही है (देखें तालिका-1)। मध्यप्रदेश मुख्यतः कृषि प्रधान राज्य है। कृषि क्षेत्र में वर्ष 2011-12 मंे 18 फीसदी की प्रभावशाली वृद्धि को लेकर भी सरकार ने खुद को शाबाशी दी है, हालांकि कृषि क्षेत्र में बहुत उतार-चढ़ाव होते हैं। सवाल यह है कि यह ऊँची वृद्धि दर कितने समय तक चल पाती है। उससे बड़ा सवाल यह है कि आंकड़ों के परे इस वृद्धि से लोगों की जिंदगी और उसकी गुणवत्ता में कितनी बेहतरी आई है। वही विकास की असली कसौटी होगी और विकास नीति की सही परीक्षा होगी। अफसोस की बात है कि इस मोर्चे पर संकेत बहुत अच्छे नहीं दिखाई दे रहे हैं।

तालिका 1: राष्ट्रीय आय/राज्य घरेलू उत्पाद की वृद्धि दरें (प्रतिशत में)

वर्ष 2000-01 2001-02 2002-03 2003-04 2004-05 2005-06 2006-07 2007-08

मध्यप्रदेश -6-9 7.1 -3.9 11.4 3.0 5.3 9.2 4.6

भारत 4.35 5.81 3.84 8.52 7.60 9.49 9.6 9.30

वर्ष 2008-09 2009-10 2010-11 2011-12

मध्यप्रदेश 12.3 10.5 8.1 11.98

भारत 6.7 8.4 8.39 6.88

स्रोत : योजना आयोग के आंकड़े

हाशिए पर जाती खेती

चूंकि मध्यप्रदेश एक कृषि प्रधान और गांव प्रधान प्रांत है, इसके गांवों और इसकी खेती की क्या स्थिति है, उससे बहुत कुछ इस प्रांत की हालत का फैसला होता है। इसके कुल रोजगार में खेती का हिस्सा 1980 में 76 फीसदी था, बीस साल बाद इसमें केवल 3 फीसदी की कमी हुई और 2001 में यह 73 फीसदी था। फिर श्रम विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 2008 में यह वापस बढ़कर 76 फीसदी हो गया। दूसरी ओर प्रदेश की कुल सालाना आय/उत्पाद में खेती का हिस्सा लगातार घटता जा रहा है। 1994-95 में यह 43.19 था, 1999-2000 में 37.12 हो गया और 2005-06 में घटकर 32.09 रह गया। इसके क्या मायने हैं ? –

1)    प्रदेश में खेती के अलावा दूसरे रोजगार का विकास नहीं हो पा रहा है। बल्कि गांवों के धंधों का विनाश होने से खेती पर निर्भर आबादी का प्रतिशत वापस बढ़ने लगा है। यह एक गंभीर स्थिति है।

2)    खेती पर निर्भर मध्यप्रदेश की विशाल आबादी का प्रदेश की कुल आय में हिस्सा (भारत की ही तरह) कम होता जा रहा है, जो कृषि क्षेत्र के तुलनात्मक रुप से वंचित और शोषित होने का द्योतक है।

मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री एक किसान परिवार से हैं और वे स्वयं को किसान का बेटा कहते हैं। उनकी सरकार द्वारा खेती और किसानों के हित में उठाए गए कदमों व उपलब्धियों के बखान के लिए अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन दिए जा रहे हैं और बड़े-बड़े होर्डिंग्ज लगाए जा रहे हैं। निश्चित ही उन्होंने कुछ कदम उठाए हैं, जैसे गेहूं के समर्थन मूल्य पर राज्य शासन की ओर से पहले 100रु. प्रति क्विंटल तथा बाद में 50रु. प्रति क्विंटल का बोनस देना। या कृषि कार्य हेतु सहकारी कर्जों की ब्याज दरों में अनुदान देना। किन्तु इन उपायों के बावजूद मध्यप्रदेश के किसान जबरदस्त संकट से गुजर रहे हैं और यह संकट दूर नहीं हो पा रहा है।

खुदकुशी की फसल

इस संकट की एक अभिव्यक्ति मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या में हो रही है। देश में लगातार जिन पांच राज्यों में सबसे ज्यादा संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उनमें मध्यप्रदेश एक है (तालिका-2)। अन्य चार राज्य हैं – महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक और छत्तीसगढ़। महाराष्ट्र और आन्ध्रप्रदेश की किसान आत्महत्याओं की चर्चा तो होती है, प्रधानमंत्री भी वहां गए हैं। किन्तु मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के किसानों की आत्महत्याओं पर देश का ध्यान नहीं गया है। यह एक खामोशी भरा संकट है। गौरतलब है कि पिछले ग्यारह सालों में इन आत्महत्याओं में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं हो पाई है। इन आंकड़ों का मतलब है कि करीब चार किसान रोज प्रदेश के किसी-न-किसी कोने में आत्महत्या करते हैं। ये आत्महत्याएं प्रदेश के किसी एक हिस्से या पिछड़े-सूखाग्रस्त बुंदेलखंड तक सीमित नहीं है। रीवा, सतना, खंडवा, खरगोन, बड़वानी, इंदौर या होषंगाबाद जैसे अपेक्षाकृत उन्नत व संपन्न माने जाने वाली खेती के जिलों से भी किसानों की खुदकुशी की खबरें आ रही है।

तालिका 2: किसानों की आत्यहत्याएं

वर्ष 2001 2002 2003 2004 2005 2006 2007 2008 2009 2010 2011

मध्यप्रदेश 1372 1340 1445 1638 1248 1375 1263 1379 1395 1237 1326

भारत 16415 17971 17164 18241 17131 17060 16632 16196 17368 15964 14027

स्रोत: राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो।

सोयाबीन का संकट

होशंगाबाद जिले का एक दृष्टांत किसानी के इस संकट को समझने में मदद कर सकता है। सोयाबीन की फसल खराब होने के बाद पिछले वर्ष वहां 11 से 14 अक्टूबर 2011 के बीच तीन किसानों ने आत्महत्या की। यह वह जिला है, जहां तवा परियोजना से काफी बड़ी मात्रा में सिंचाई होती है और जहां सोयाबीन की खेती सबसे पहले शुरु हुई। खेती में नए बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं और मशीनों का भरपूर उपयोग होता है। इस जिले को मध्यप्रदेश का पंजाब कहा जाता है। किन्तु यहां का खुशहाल माना जाने वाला किसान जबरदस्त मुसीबत में है। वह सोयाबीन से भी काफी परेशान हो गया है और  इसका विकल्प खोज रहा है। लेकिन इतनी बुरी तरह फंस गया है कि इससे निकलना आसान नहीं है।

सोयाबीन की खेती मूलतः यूरोप में पशु-आहार की कमी को दूर करने के लिए शुरु करवाई गई। इसका सीधा उपभोग गांव के लोग नहीं कर सकते और इसकी पूरी फसल मंडियों और फिर कारखानों में ही जाती है। एक तरह से मध्यप्रदेश में खेती और गांव के स्वावलंबन को खतम करने और सुदूर विदेशों की मांग पर निर्भरता की दिशा में यह बड़ा कदम था।

शुरु में सोयाबीन की पैदावार काफी अच्छी होती थी और पहले दाम भी अच्छे मिल रहे थे इसलिए सोयाबीन की खेती फैलती गई। मध्यप्रदेश को सोयाबीन राज्य कहते हैं। (देश का 60 फीसदी सोयाबीन यहीं होता है।) अब महाराष्ट्र और राजस्थान में भी सोयाबीन की काफी खेती हो रही है। किन्तु कुछ साल बाद इसकी पैदावार गिरने लगती है। 1994 तक मध्यप्रदेश में सोयाबीन की प्रति हेक्टेयर उपज 18 क्विंटल पर पहुंच गई थी, जो उसके बाद से लगातार घटते हुए 2011-12 में 10.77 क्विंटल रह गई। 2011 की सोयाबीन फसल में भारत की पैदावार 11.55, महाराष्ट्र की 12.56, राजस्थान की 13.93, मध्यप्रदेश की 10.77 और होशंगाबाद जिले की मात्र 6.40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी। दरअसल लगातार भारी रसायनों के साथ सोयाबीन की खेती होने पर जमीन खराब हो जाती है और कीट-प्रकोप बढ़ने लगता है। इसी बीच डंकल मसौदे पर दस्तखत होने तथा विश्व व्यापार संगठन बनने से देश में खाद्य तेलों का आयात खुला हो गया। पाम तेल और सोया तेल के आयात की बाढ़ ने देश में सोयाबीन की कीमतों को बढ़ने नहीं दिया और गाहे-बगाहे गिरा भी दिया। जिस सोयाबीन को किसानों की समृद्धि का दूत माना जा रहा था, वह अब किसानों के गले की फांसी बन गया है।

जो कहानी सोयाबीन की है, वही कल बीटी कपास की होने वाली है। शुरु में इसमें फायदा दिखाई देने से मध्यप्रदेश के पश्चिम में निमाड़-मालवा के कपास के खेतों में, बाकी देश की तरह, बीटी बीज छा गया है। प्रदेश और केन्द दोनों सरकारों ने इसे और इसे लाने वाली कंपनियों को भरपूर मदद की है। मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने वैसे तो जीन-मिश्रित बीजों का विरोध किया है, किन्तु यह विरोध अधूरा है क्योंकि बीटी-कपास को तो उसका प्रश्रय मिला है। सात साल पहले कई खेतों में बीटी-कपास की फसल सूखने की घटनाएं हुई थी और कुक्षी (जिला धार) की कृषि उपज मंडी में एक जनसुनवाई में किसानों की व्यथा और कंपनियों की लापरवाही खुलकर सामने आई थी। किन्तु सरकार ने कंपनियों पर कोई कार्रवाई नहीं की व किसानों को मुआवजा नहीं दिलाया। सोयाबीन और बीटी कपास में फर्क यह है कि इस बार मामला निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का है, जिसमें किसान ज्यादा असहाय होंगे।

पानी का कुप्रबंध

एक और उदाहरण बासमती चावल की खेती का है, जिसे सोयाबीन व अन्य फसलों के विकल्प के रुप में पेश किया जा रहा है। इसकी खेती बढ़ रही है तथा ‘दावत’ जैसी कंपनियों ने इसका श्रेय लिया है। किन्तु यह निर्यात फसल है और अमीरों का खाद्य है, जिसे न पैदा करने वाला किसान खा पाता है और न स्थानीय लोग। फिर पिछले साल यूरोप-अमरीका में मंदी व मांग में कमी के कारण अचानक इसके दाम काफी गिर गए और किसानों को काफी नुकसान हुआ। तीसरी समस्या है कि इसमें काफी पानी व पूंजी की जरुरत होती है। जो किसान ढाई-तीन लाख रु की पूंजी लगाकर ट्यूबवेल खुदवा पाता है, वही इसकी खेती कर पाता है, इसलिए इसका विकल्प छोटे किसानों के लिए खुला नहीं है। विडंबना है कि होशंगाबाद जिले के तवा कमांड क्षेत्र में, जहां कई जगह जल-भराव और दलदल की समस्या है, किसान ट्यूबवेल खुदवाकर बासमती की खेती कर रहे हैं। नहरी सिंचाई क्षेत्र में ट्यूबवेल एक तरह से दुहराव है और संसाधनों की बरबादी है। पंजाब में बासमती चावल की खेती ने कई तरह के संकट पैदा किए हैं और वहां इस पर गंभीरता से पुनर्विचार शुरु हुआ है। उससे कोई सबक न लेकर मध्यप्रदेश की  खेती को भी उसी आत्मघाती दिशा में ले जाया जा रहा है।

मध्यप्रदेश की खेती और पेयजल के संकट का एक आयाम तेजी से घटता भूजल स्तर है। मालवा और निमाड़ में तो हालत बहुत चिंताजनक हो गई है। सन् 2004 में मध्यप्रदेश के 46 विकासखंडों में भूजल का अतिदोहन हो रहा था (यानी पुनर्भरण के करीब या उस से अधिक दोहन), 2009 में इन विकासखंडों की संख्या 123 हो गई। यानी हम ऐसी खेती कर रहे हैं और ऐसी तकनीक अपना रहे हैं कि हजारों-लाखों सालों का संचित भूजल भंडार खाली करते जा रहे हैं। कुल मिलाकर कृषि विकास की योजना व रणनीति में गंभीर गड़बड़ी दिखाई देती है।

पेयजल का संकट भी मध्यप्रदेष में बढ़ता जा रहा है। डेढ़ वर्ष पहले उज्जैन में गर्मियों में यह नौबत आ गई थी कि छः दिन में एक बार पानी दिया जा रहा था। किन्तु जल-संचय, जल-संरक्षण और पानी की बरबादी व फिजूलखर्च की रोकथाम के उपाय करने के बजाय, महंगी और बड़ी योजनाओं पर जोर दिया जा रहा है। इन्दौर, भोपाल, देवास, उज्जैन, पिपरिया जैसे कई नगरों में काफी दूर नर्मदा से पानी लाने की योजनाएं बनाई जा रही हैं। कितने नगरों को नर्मदा का पानी दिया जाएगा और कब तक? किस कीमत पर ? एक तरफ पानी का संकट है, दूसरी तरफ 24 घंटे पानी का लालच देकर जल-आपूर्ति का ठेका निजी कंपनियों को देने की तैयारी भी की जा रही है। खंडवा और शिवपुरी में निजी कंपनियों को ठेका दिया जा चुका है, जिसका काफी विरोध हो रहा है।

बिजली का उल्टा बंटवारा

ऐसे भी वाकिये आए हैं, जब समय पर बिजली न मिलने के कारण फसल सूख गई और किसान ने आत्महत्या कर ली। पहले तो प्रगति के नाम पर खेती में डीजल-बिजली के उपयोग को खूब बढ़ावा दिया गया, अब उनकी बढ़ती कीमत और घटती उपलब्धता किसानों की जान निकाल रही है। कांग्रेस सरकार और उसके बाद बिजली-पानी के नाम पर सत्ता में आई भाजपा सरकार दोनों किसानों को सस्ती व समुचित मात्रा में बिजली देने में असफल रही है। एशियाई विकास बैंक से कर्ज लेकर उसकी शर्तों के मुताबिक मध्यप्रदेश में कथित बिजली सुधार लागू किए गए हैं, जिनके तहत विद्युत मंडल का विखंडन, निजीकरण और बिजली की दरें बढ़ाने के काम हुए हैं। रास्ते की बरबादी (वितरण व पारेषण हानियां) या अकुशलता या आपूर्ति की अनिश्चितता में विशेष कमी नहीं आई है। पारेषण एवं वितरण हानियां मध्यप्रदेश में पूरे देश में सबसे ज्यादा हैं।

बिजली की कटौती के नियम भी एक-से नहीं है। सबसे कम या नही के बराबर कटौती प्रदेश की राजधानी में होती है। उसके बाद संभाग मुख्यालय, जिला मुख्यालय, तहसील मुख्यालय में उत्तरोत्तर ज्यादा कटौती होती है और गांव में तो कोई ठिकाना नहीं होता है। यह बिल्कुल उल्टा है। समाज का सबसे जरुरी काम यानी खेती और अन्न उत्पादन गांव में होता है। शहरों में तो एसी, विज्ञापन, सजावट, फव्वारों जैसे विलासितापूर्ण गैरजरुरी कामों में बिजली का उपयोग होता है। सरकारों की उल्टी प्राथमिकताओं की एक झलक इससे मिलती है।

बिजली, डीजल, रासायनिक खाद, सिंचाई आदि की बढ़ती लागत और समय पर आपूर्ति व गुणवत्ता की अनिश्चिता प्रदेश के किसानों की मुष्किलों का प्रमुख स्रोत रही है। रही-सही कसर समर्थन-मूल्य पर खरीदी की अव्यवस्था पूरी कर देती है। बीते साल सरकार ने बड़े ताम-झाम से ई-उपार्जन (यानी कंप्यूटर पंजीयन) का प्रचार किया, किन्तु वह यह भूल गई कि उससे ज्यादा जरुरी है गेहूं भरने के लिए बारदाने। नतीजतन हर जगह किसानों के आंदोलन हुए और रायसेन जिले में तो पुलिस की गोली ने एक किसान की जान भी ले ली। यह भी गौरतलब है कि पुलिस की गोली से देश में सबसे ज्यादा किसानों की मौत वाला मुलताई गोलीकांड भी 1998 में इसी प्रदेश में हुआ था।

बड़े बांध घाटे का सौदा

आधुनिक विकास की विसंगति बड़े बांधों में भी दिखाई देती है। नेहरुजी की तरह मध्यप्रदेश की कांग्रेस-भाजपा सरकारों ने इन्हें ‘आधुनिक भारत का मंदिर’ मान लिया और विकास का सूत्रधार समझ लिया। किन्तु इनसे जितने फायदे दिखाए गए थे, उतने हुए नहीं। तवा बांध बने पैंतीस बरस हो गए, किन्तु जितनी जमीन की सिंचाई इसकी प्रोजेक्ट रिपोर्ट में बताई गई थी, उसके 60-65 फीसदी से ज्यादा सिंचाई कभी नहीं हो पाई। बरगी बांध बने बीस साल हो गए, किन्तु उसकी नहरें आज तक पूरी नहीं हो पाई। किसी को उसकी परवाह भी नहीं है। बाणसागर परियोजना की नहरों का काम 1971 में शुरु हुआ और 10.6 करोड़ रु. की लागत से 1987 तक पूरा होना था। किन्तु मार्च 2010 तक 961 करोड़ रु. फूंक देने के बाद भी केवल 62 फीसदी नहरें बन पाई हैं। ‘मध्यप्रदेश जल क्षेत्र पुनर्संरचना प्रोजेक्ट’ नामक एक परियोजना 2004 में विश्व बैंक के कर्ज से शुरु हुई है। इसकी कुल लागत 1919 करोड़ रु. की है। यह 2011 तक पूरी होनी थी। किन्तु मार्च 2010 तक इसके कुल लक्ष्य का केवल 11 फीसदी सिंचाई ही हासिल हो पाई। केग की ताजा रपट ने मध्यप्रदेश जल संसाधन विभाग के कामों में काफी भ्रष्टाचार, अनियमितताएं और असफलताएं उजागर की हैं। बड़े बांधों से बाढ़-नियंत्रण होगा, यह भी एक दावा किया गया था। किन्तु यह दावा कितना गलत निकला, इसे नर्मदा में देखा जा सकता है। चार-पांच बांध (तवा, बारना, बरगी, इंदिरा सागर, सरदार सरोवर आदि) बन जाने के बाद भी नर्मदा में भीषण बाढ़ों का आना जारी है।

मध्यप्रदेश के संदर्भ में बड़े बांधों की एक खास अनुपयुक्तता है। देश के बीच का पहाड़ी-पठारी इलाका होने के कारण कई नदियां यहां से निकलती हैं और यहां का पानी लेकर पड़ोसी राज्यों में जाती है। इनमें नर्मदा, चंबल, सोन, ताप्ती, पेंच, वैनगंगा, बेतवा, केन, माही आदि प्रमुख है। इन पर बने, बन रहे या बनने वाले बांधों की साईट, इस विशेष भौगोलिक परिस्थिति के कारण, दूसरे राज्यों की सीमा के पास है। इसके कारण डूब और विस्थापन मध्यप्रदेश के हिस्से में आता है और पानी-बिजली का ज्यादा फायदा पड़ोसी राज्यों को मिलता है। इसे इंदिरा सागर- सरदार सरोवर बांध (नर्मदा), गांधी सागर बांध (चंबल), तोतलाडोह बांध (पेंच), रिहंद, बाणसागर (सोन), बावनथड़ी बांध, ताप्ती पर प्रस्तावित बांध आदि में देखा जा सकता है। इस तरह बड़े बांध मध्यप्रदेश के लिए घाटे का सौदा है। अपने जल संसाधनों के समुचित उपयोग के लिए मध्यप्रदेश को छोटे-छोटे बांधों और जलग्रहण क्षेत्र विकास पर जोर देना था। किन्तु प्रदेश की सरकारें लकीर की फकीर बनी हुई उल्टी चाल चलती रही है।

इन विषाल बांधों में उजड़ने वाले प्रदेश के किसानों-गांववासियों के समुचित पुनर्वास की तरफ भी प्रदेश की सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। इसका एक ताजा उदाहरण तब सामने आया जब नर्मदा पर बन रहे ओंकारेश्वर और इंदिरासागर बांधों के विस्थापितों को अपनी मांगों के लिए बढ़ते पानी में बैठकर या खड़ें होकर 16 दिन तक जल-सत्याग्रह करना पड़ा ।

इन अनुभवों से सबक लेने के बजाय नदी-जोड़ो योजनाएं बनाई जा रही है। नर्मदा का पानी क्षिप्रा में डालने की एक योजना का शिलान्यास कुछ माह पहले मुख्यमंत्री ने हेलीकॉप्टर से नर्मदा का पानी ले जाकर क्षिप्रा में डालने की नौटंकी के साथ किया। केन-बेतवा, पार्वती-कालीसिंध-चंबल जैसी नदी जोड़ो योजनाओं को भी जबरदस्ती थोपा जा रहा है। ये योजनाएं काफी महंगी, अव्यवहारिक और समस्यामूलक हैं। इनमें नदियों पर नए बांध बनाने पड़ेंगे या काफी बिजली से पानी पंप करना पड़ेगा। विस्थापन होगा। विभिन्न इलाकों में आपस में वैसे ही झगड़े होंगे, जैसे अभी कावेरी के पानी को लेकर कर्नाटक-तमिलनाडू में हो रहे हैं।

जमीन की बंदरबांट

मध्यप्रदेश एक तरह से विस्थापितों का प्रदेश बन गया है। बड़े बांधों के अलावा खदानों, कारखानों, प्लांटेशनों, राष्ट्रीय उद्यानों-अभ्यारण्यों, शहरी विकास परियोजनाओं और राजमार्गों से काफी बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है। बड़े पैमाने पर जमीन खेती व किसानों के हाथ से निकल रही है। या तो सरकार अधिग्रहण कर रही है या कंपनियां खुद संकटग्रस्त किसानों से जमीन खरीद रही है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश सरकार ने बड़े पैमाने पर पड़त भूमि रतनजोत या अन्य प्लांटेशन के लिए कंपनियों को लीज पर देने की एक नीति बनाई और 25 लाख एकड़ भूमि उन्हें देने का लक्ष्य रखा। इसके लिए हदबंदी कानून में छूट दी गई और शुल्क बहुत मामूली रखा गया – पहले दो वर्ष निःशुल्क, फिर पांच वर्ष तक 200 रु प्रति एकड़, अगले पांच वर्ष तक 400 रु. एकड़ और अगले 20 वर्ष के लिए 600 रु. प्रति एकड़ की वार्षिक दर पर। (जमीन की इस बंदरबांट का फायदा उठाने के लिए रातों-रात कई कंपनियां सामने आ गई – कास्मो बायोफुएल, मेगनम ऑर्गेनाईजर, ट्राईफेक, एलटी ओवरसीज आदि। हजारों एकड़ जमीन उन्हें आबंटित हो गई। जांच करने पर यह भी कोयला घोटाला जैसा बड़ा घोटाला निकलेगा)।  फिर जिसे पड़त भूमि कहा जा रहा है, व्यवहार में उस पर भी कोई गरीब आदमी खेती करता है या गांव के मवेशी चरते हैं। इस तरह यह जमीन जैसे सीमित व दुर्लभ संसाधन का पुनर्बंटवारा है। प्रदेश के भूमिपुत्रों के हाथ से भूमि निकलकर पूंजीपतियों व कंपनियों के हाथ में जमीन जा रही है।

गौरतलब है कि गांव के किसान के हाथ से जमीन निकलने का मतलब बेरोजगारी और आर्थिक असुरक्षा है। इसीलिए भूमि-अधिग्रहण का विरोध बढ़ता जा रहा है। 2007 में रीवा जेपी सीमेंट फैक्टरी के बाहर गांववासियों पर गोली चली, क्योंकि 25 वर्ष बाद भी वायदे के मुताबिक रोजगार न मिलने और प्रदूषण के कारण वे धरना दे रहे थे। इसके अगले वर्ष सिंगरौली में एस्सार बिजली कारखाने की जगह पर बड़ा संघर्ष हुआ। इस वर्ष अनूपपुर में मोजर बेयर बिजली कारखाने का विरोध कर रहे किसानों पर लाठीचार्ज हुआ और लंबे समय तक उन्हें जेल में रखा गया। छोटे रुप में आंदोलन व असंतोष तो काफी व्यापक है।

सरकारों का कंपनी प्रेम

किन्तु इससे बेखबर मध्यप्रदेश की सरकारें विकास के नाम पर ज्यादा से ज्यादा कंपनियों व उद्योगों को बुलाने के लिए बैचेन हैं। कई इन्वेस्टर मीट हो चुकी हैं। प्रदेश का हर मुख्यमंत्री कंपनियों को बुलाने के लिए दल-बल के साथ मुंबई-बंगलौर ही नहीं, अमरीका, यूरोप, चीन व जापान की यात्रा करता है। कंपनियों को बिक्री-कर (वेट), प्रवेश शुल्क, स्टाम्प ड्यूटी आदि में छूट, सस्ती या निःशुल्क जमीन आदि का लालच दिया जाता है। प्रदेश का खनिज और पानी भी उन्हें उपहार में दिया जाता है। यह तय है कि कंपनी केन्द्रित इस विकास नीति से प्रदेश में संघर्ष, विस्थापन, बेरोजगारी और प्रदूषण में इजाफा होगा।

औद्योगीकरण की इस विकृत व अनुपयुक्त विकास नीति का अभी तक का अनुभव भी अच्छा नहीं है। उदाहरण के लिए मंडीदीप, पीलूखेड़ी और पीथमपुर का अनुभव लें। भोपाल और इंदौर के पास इन औद्योगिक क्षेत्रों को चालाकी से इस तरह बनाया गया है कि वे हों तो महानगर के पास, किन्तु पिछड़ें जिलों में हों, ताकि पिछड़ें जिलों में मिलने वाली रियायतें व अनुदान उद्योग लगाने वाली कंपनियों को दिया जा सके। इतने साल बाद नतीजा क्या हुआ ? मंडीदीप से रायसेन जिले का पिछड़ापन दूर नहीं हुआ, पीलूखेड़ी से राजगढ़ जिले की गरीबी दूर नहीं हुई और पीथमपुर ने इंदौर नगर का विकास किया, धार जिले के आदिवासियों का नहीं। इसी तरह भिलाई, बोकारो और राउरकेला के पास के आदिवासी इलाकों को भी देखा जा सकता है। आधुनिक उद्योगों की प्रकृति ऐसी होती है कि वे गरीबी के सागर में, प्राकृतिक संसाधनों और श्रम का शोषण करते हुए, बहुत मामूली रोजगार पैदा करते हुए और उससे ज्यादा आजीविका नष्ट करते हुए, संपन्नता के टापू बनाते हैं। इनसे समग्र विकास और सम्यक विकास नहीं हो सकता। इसीलिए गांधी, लोहिया और जयप्रकाश ने इस औद्योगीकरण का विरोध करते हुए गांव-केन्द्रित औद्योगीकरण और स्थानीय संसाधनों पर आधारित विकास पर जोर दिया था।  एक आदिवासी बहुल, पिछड़ा, प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर, कृषि प्रधान, गांव प्रधान राज्य होने के नाते मध्यप्रदेश के लिए यह और भी प्रासंगिक है।

इस अनुभव के बाद भी यदि मध्यप्रदेश और भारत की सरकारें उसी राह पर चल रही हैं तो या तो उनकी समझ में बुनियादी गड़बड़ी है या इस गलत विकास नीति में उनके नीहित स्वार्थ हैं। (बड़ी परियोजनाएं बनाने और कंपनियों से गलबहियां करने में उन्हें भ्रष्टाचार के नए मौके मिलते हैं।) शायद दोनों हैं। नीति और नियत दोनों में खोट हैं।

मध्यप्रदेश के विकास की दिषा और स्वरुप को तय करने का काम पिछले दो दशकों से दो अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं – एशियाई विकास बैंक और विश्व बैंक कर रही हैं। इनके कर्जों के साथ ही पानी, सिंचाई, सड़कों, षिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, जंगल आदि में क्या होगा, उसकी शर्तें और नीतियां भी आती हैं। एषियाई विकास बैंक के सुधारों के तहत ही प्रदेष सरकार के कई उपक्रमों को बंद किया गया है, कर्मचारियों की भारी छंटनी की गई है, निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है और बिजली-पानी-सड़कों के टोल टैक्स आदि की दरें बढ़ाई गई हैं। इस विदेशी हस्तक्षेप ने प्रदेश की जनता की आवाज को एकतरफ किया है और जनता के कष्ट बढ़ाए हैं।

मध्य में भी नहीं मध्यप्रदेश

जीडीपी, उसकी वृद्धि दर या प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ें किसी मुल्क की हालत को सही बयां नहीं करते, यह अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कबूल किया जाना लगा है। गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, रोजगार आदि में क्या हो रहा है, यह देखना भी जरुरी है। एक वैकल्पिक पैमाने के रुप में मानव विकास सूचकांक भी बनाया गया है। मध्यप्रदेश इन कसौटियों पर कहां ठहरता है ? वह देश के मध्य में नहीं, सबसे नीचे है।

मानव विकास सूचकांक – सन् 2001 में मध्यप्रदेश का मानव विकास सूचकांक 0.394 था जो राष्ट्रीय सूचकांक 0.472 से काफी कम था। मानव विकास सूचकांक में देश के 32 राज्यों में मध्यप्रदेश का स्थान 30वां, यानी बहुत नीचे था। केवल उत्तरप्रदेश और बिहार मध्यप्रदेश से बदतर थे। दस सालों में मध्यप्रदेश कुछ ऊपर गया है किन्तु हालत ज्यादा नहीं बदली है, यह मानने के पर्याप्त कारण हैं, जो आगे बताए गए हैं।

गरीबी – हालांकि गरीबी रेखा की प्रचलित परिभाषा गरीबों की संख्या को बहुत कम करके बताती है, फिर भी तुलना के लिए उन्हें देखा जा सकता है। तालिका 3 से पता चलता है कि बीच में तो मध्यप्रदेश में गरीबी कम होने के बजाय बढ़ी है। 1993-94 में मध्यप्रदेश की हालत राष्ट्रीय औसत से बेहतर थी, किन्तु बाद में काफी नीचे आ गई। 2009-10 में मात्र दो राज्यों (बिहार और ओडिशा) में गरीब आबादी का अनुपात मध्यप्रदेश से ज्यादा था और एक (उत्तरप्रदेश) में मध्यप्रदेश के बराबर था। यानी प्रगति और विकास के दावों के बावजूद मध्यप्रदेश देश के सबसे ज्यादा गरीबी वाले सूबों में शुमार है।

तालिका 3: गरीबी रेखा के नीचे आबादी का प्रतिशत (तेंदुलकर पद्धति से)

वर्ष 1993-94 2004-05 2009-10

मध्यप्रदेश 44.6 48.6 40.5

भारत 45.3 37.2 32.2

स्रोत: मोंटेक सिंह अहलूवालिया का लेख (देखें संदर्भ)

शिक्षा – मध्यप्रदेश में स्कूलों में बच्चों के नामांकन में तो काफी प्रगति दिखाई देती है और यह 95 फीसदी करीब हो गया है, हालांकि इसमें एक हिस्सा कागजी होगा। किन्तु अभी भी पढ़ाई को बीच में छोड़ने वाले बच्चों का प्रतिशत काफी ऊँचा है। 2007-08 में कक्षा 8 तक आते-आते 46.1 फीसदी बच्चे पढ़ाई छोड़ रहे थे। इसका मतलब है कि करीब आधे बच्चे कक्षा आठ तक भी शिक्षा हासिल नहीं कर पा रहे हैं।

किन्तु शिक्षा में सबसे बड़ी गिरावट इसकी गुणवत्ता में आई है। इसके लिए खुद सरकार की नीतियां और व्यवस्थाएं जिम्मेदार रही हैं। सरकारी शालाओं में पूर्णकालिक स्थायी शिक्षकों के कैडर को समाप्त करके कम वेतन पर पैरा शिक्षकों की व्यवस्था बनाने में मध्यप्रदेश देश का अग्रणी प्रांत है। आज यहां पैरा शिक्षकों की कई श्रेणियां हैं – अध्यापक, संविदा शिक्षक, गुरुजी, अतिथि शिक्षक आदि। प्रदेश की ज्यादातर प्राथमिक शालाएं एक, दो या तीन शिक्षकों के भरोसे चल रही हैं, यानी वहां एक कक्षा पर एक शिक्षक भी नहीं है।

इसी के समानांतर और इसी के कारण मध्यप्रदेश में निजी स्कूलों का पूरा बाजार विकसित हो गया है। बच्चों की शिक्षा में भेदभाव का एक नया तंत्र विकसित हुआ है, जिसमें आर्थिक हैसियत के मुताबिक बच्चों को शिक्षा मिल रही है। ज्यादातर निजी स्कूल शिक्षा की घटिया दुकानें है, जिनकी फीस, शिक्षा की गुणवत्ता और षिक्षकों के शोषण पर सरकार या समाज का कोई नियंत्रण नहीं है। यही गिरावट उच्च शिक्षा में भी आई है। मध्यप्रदेष में उच्च शिक्षा पहले भी अच्छी हालत में नहीं थी, किन्तु अब और ज्यादा हालत बिगड़ी है। बहुत सारे बी.एड. कॉलेज खुल गए हैं, जो बिना पूरी फैकल्टी के चलते हैं और बिना हाजिरी के परीक्षा में बैठा लेते हैं। इंजीनियरिंग कॉलेजों की भी बाढ़ आई है, जिनके द्वारा विद्यार्थियों-पालकों के शोषण के किस्से सामने आते रहते हैं। शिक्षा में मुनाफाखोरी और भेदभाव एक विकृति है जो मध्यप्रदेश में खूब फल-फूल रही हैं।

कुपोषण में अव्वल

कुपोषण – इस मामले में मध्यप्रदेश को देश में सबसे अव्वल होने का श्रेय प्राप्त है यानी देश में सबसे ज्यादा कुपोषण लगातार इसी राज्य में है।

कुपोषण की जानकारी का सबसे प्रमुख स्त्रोत ‘राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ है, जो 1992-93, 1998-99 और 2005-06 में हुआ था। पहले सर्वेक्षण में बाल कुपोषण की दृष्टि से सबसे खराब प्रांतों में मध्यप्रदेश सातवें नंबर पर था। दूसरे सर्वेक्षण में पहले नंबर पर पहुंच गया। छत्तीसगढ़ अलग होने के बाद उसकी स्थिति और खराब हुई तथा वह सबसे ज्यादा बाल कुपोषण वाले पद पर विराजमान है। वर्ष 1992-93 में मध्यप्रदेश में 3 वर्ष से छोटे 48.5 फीसदी बच्चे कुपोषित थे। इनकी संख्या कम होने के बजाय 1998-99 में बढ़कर 55.1 फीसदी हो गई। सात वर्ष बाद और बढ़कर 60.3 फीसदी हो गई। इस तरह जहां और राज्य कुपोषण कम कर रहे थे, मध्यप्रदेश में बढ़ रहा था।

शिशु मृत्यु दर (जन्म से एक वर्ष के अंदर मरने की दर) में भी यह प्रदेश अव्वल है। 2005 के आंकड़ों के मुताबिक इस प्रांत में जन्म लेने वाले 1000 बच्चों में से 76 बच्चे अपना पहला जन्मदिन नहीं देख पाते थे। बाद में यह दर 2008 में 70 पर आई, फिर भी देश में सबसे ऊँची है। मध्यप्रदेश की हालत अफ्रीका के बदनाम अकालग्रस्त देशों से भी बदतर है।

इसी तरह महिलाओं का कुपोषण और जननी मृत्यु दर (प्रसव के दौरान मरने की दर) भी मध्यप्रदेश में काफी ऊँची है। इसे कम करने के लिए जननी सुरक्षा योजना चलाई जा रही है, जिसमें जोर दिया जाता है कि सारे प्रसव अस्पताल में ही हों। किन्तु इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि स्वास्थ्य एवं चिकित्सा का सरकारी तंत्र कितना चुस्त-दुरुस्त है। शिक्षा की तरह स्वास्थ्य में भी सरकारी अस्पतालों की बदहाली-बरबादी-उपेक्षा हुई है। और निजी डॉक्टरों और अस्पतालों के बाजार का तेजी से विकास हुआ है। ये दोनों प्रवृत्तियां परस्पर पूरक और एक दूसरे को पुष्ट करने वाली हैं। ऐसे वाकये भी सामने आये हैं, जब गरीब महिलाओं को अस्पतालों के बाहर सड़क पर, नाली के किनारे, बच्चों को जन्म देना पड़ा है।

सारी आबादी के लिए सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को सुदृढ़ बनाने के बजाय गरीबों को 40 हजार रुपए तक के मुफ्त इलाज की ‘दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना’ जैसी योजनाएं चलाई गई है जो गरीबों का भी इलाज सुनिष्चित करने में असफल रही है। मध्यप्रदेष के स्वास्थ्य महकमे की बदहाली के ये हाल है कि बार-बार प्रदेष के स्वास्थ्य संचालकों (जैसे डॉ० योगीराज शर्मा) के यहां छापे पड़ते हैं और अकूत संपत्ति पाई जाती है।

भूख है तो सब्र कर

सार्वजनिक वितरण प्रणाली – राषन व्यवस्था में जो भ्रष्टाचार और कालाबाजारी है वह अपनी जगह है। किन्तु प्रदेश में भारी कुपोषण के बावजूद सरकार ने इतना भी सुनिश्चित करने की जरुरत नहीं समझी कि कम से कम गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को निर्धारित 35 किलो अनाज प्रतिमाह का आबंटन किया जाए। ज्यादातर जिलों में उन्हें 20 से 25 किलो अनाज ही दिया जाता है। इसका कारण यह बताया जाता है कि प्रदेश में बीपीएल कार्डों की संख्या गरीब परिवारों की उस संख्या से ज्यादा है जिसे केन्द्रीय योजना आयोग मान्यता देता है। इसलिए केन्द्र सरकार से प्राप्त सस्ते अनाज को ज्यादा परिवारों के बीच बांटा जाता है। किन्तु मध्यप्रदेश सरकार चाहे तो इस बढी हुई संख्या को अपने खर्च पर सस्ता अनाज दे सकती है। कई राज्य सरकारों ने ऐसा किया है। प्रदेश के मुख्यमंत्री ने केन्द्र सरकार के दोषपूर्ण गरीबी रेखा निर्धारण पर शोर तो मचाया है। किन्तु उस अन्याय को अपने बजट से पूरा करने की जरुरत नहीं समझी।

इस तरह मध्यप्रदेश में गेहूं-चावल की पैदावार तो भरपूर हो रही है, किन्तु प्रदेश के गरीबों को उसका लाभ नहीं मिल पा रहा। वह अनाज या तो प्रदेश से बाहर चला जाता है या गोदामों में सड़ जाता है। गरीब जनता के लिए तो वही संदेश है जो दुष्यंत कुमार ने अपनी गजल में उतारा था –

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ।

आजकल संसद में है, जेरे बहस ये मुद्दआ।।

सामाजिक सुरक्षा
प्रदेश के बेसहारा, बूढ़ों, विधवाओं और विकलांगों को दी जाने वाली मासिक सामाजिक सुरक्षा पेन्शन की राशि 150 और 275 रुपए की हास्यापद व दयनीय दरों पर काफी समय से चली आ रही है। देश के अन्य राज्यों में यह राषि 400 से लेकर 1000 रु. तक है। विडंबना यह है कि प्रदेश के मंत्री और विधायक साल-दो साल में विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करके अपने वेतन, भत्तों और पेन्शन में काफी बढ़ोत्तरी कर लेते हैं। इससे ज्यादा राजनीति की निर्लज्जता  और विद्रूपता का उदाहरण और कहां मिलेगा ?

विडंबना यह भी है कि सामाजिक सुरक्षा पेन्शन की इस मामूली राशि को भी प्रदेश के घोटालेबाजों ने नहीं छोड़ा है। इंदौर नगर निगम के जिस महापौर के कार्यकाल में सामाजिक सुरक्षा पेन्शन में छत्तीस करोड़ रुपए का घोटाला हुआ, वे आज प्रदेश सरकार में दूसरे नंबर के सबसे ताकतवर मंत्री बनकर बैठे हैं। यह प्रदेश की राजनीति की घोर गिरावट को भी बताता है।

कुल मिलाकर, मध्यप्रदेश आंतरिक उपनिवेश पर आधारित गलत विकास नीति, गलत प्राथमिकताओं और पतनशील राजनीति का मारा एक बेचारा प्रदेश है। इसकी मुक्ति तभी हो सकती है, जब यह वैकल्पिक विकास की राह पर चलेगा। किन्तु इसके लिए प्रदेश के आम लोगों को आगे आकर संघर्ष करना होगा तथा प्रदेश की राजनीति को भी बदलना होगा जो कि भ्रष्ट नेताओं, भ्रष्ट अफसरों और पूंजीपतियों – दलालों की तिकड़ी तथा कांग्रेस -भाजपा की नूराकुश्ती में फंसी हुई है।

sjpsunilATgmailDOTcom

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(लेखक समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं ‘सामयिक वार्ता’ के संपादक है।)

– सुनील, ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.)

पिन कोड: 461 111 मोबाईल 09425040452 

संदर्भ

1.    डाॅ० गणेष कावड़िया एवं सुश्री शीना सारा फिलिप्स, ‘डेवलपमेन्ट प्रोस्पेक्ट्स आॅफ मध्यप्रदेष’    अप्रकाषित पेपर,  2012

2.    ‘खुषहाली से खुदकुषी की ओर: होषंगाबाद जिले में तीन किसानों की आत्महत्याओं पर एक जमीनी रपट’, समाजवादी जन परिषद, अक्टूबर 2011

3.    डाॅ० रामप्रताप गुप्ता एवं आर.सी. गुप्ता, ‘मध्यप्रदेष में भूजल का अतिदोहन’, अप्रकाषित पेपर 2012

4.    डाॅ० रामप्रताप गुप्ता, ‘अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद विकास पथ पर लड़खड़ाता मध्यप्रदेष’, वार्ता (डेवलपमेन्ट फाउंडेषन, अभ्यास मंडल, इंदौर की त्रैमासिक बुलेटिन), नवंबर, 2011

5.    मोंटेकसिंह अहलूवालिया, ‘प्रोस्पेक्ट्स एंड पाॅलिसी चेलेन्जेज इन द ट्वेल्थ प्लान’, इकाॅनाॅमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 21 मई, 2011

6.    सुनील, ‘म.प्र. को घाटे का सौदा है बड़े बांध’, राज एक्सप्रेस,  21 अगस्त 2006

7.    सुनील, ‘बड़े उद्योगों की बड़ी-बड़ी विडंबनाएं’, राज एक्सप्रेस, 19 अक्टूबर 2007

8.    सुनील, ‘जमीन का असली मालिक कौन ?’ राज एक्सप्रेस, 21 दिसंबर 2007

9.    सुनील, ‘मध्यप्रदेष बिकाऊ है!’ लोकमत समाचार, 23 अगस्त 2007

10.    सुनील, ‘ कुपोषण मंे अव्वल है मध्यप्रदेष’, राज एक्सप्रेस, 7 अक्टूबर 2008

11.    ‘सूखती फसलें, मुरझाते चेहरे’, निमाड़ मंे बीटी-कपास की फसल में हुए व्यापक नुकसान पर जन-सुनवाई की रपट, कृषि उपज मंडी समिति, कुक्षी, जिला धार (म.प्र.), नवंबर 2005

12.    समाजवादी जन परिषद, मध्यप्रदेष की प्रेस विज्ञप्ति, 22 अक्टूबर 2012

13.    ‘बर्बादी की ओर चलें, एडीबी के साथ चलें’, जन संघर्ष मोर्चा, मध्यप्रदेष

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इस स्वतंत्रता दिवस पर जब प्रधानमंत्री लाल किले पर तिरंगा झंडा फहरा रहे थे और पूरे देश में खुशियां मनाई जा रही थी, तब राजधानी से मुश्किल सौ कि.मी. दूरी पर किसान परिवार मातम मना रहे थे। पिछली शाम को वहां पुलिस की गोली से तीन किसान मारे गए और दर्जनों घायल हुए। पुलिस का एक जवान भी इस हिंसा में मारा गया। किसानों की जमीन नोएडा (दिल्ली) से आगरा के बीच बन रहे यमुना एक्सप्रेस वे में जा रही है। वे अपनी जमीन का मुआवजा बढ़ाने की मांग कर रहे थे। इस गोलीचालन के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके मुआवजे में कुछ बढ़ोत्तरी की घोषणा भी कर दी। क्या यह हमारी सरकारों का नियम ही बन गया है कि जब तक खून-खराबा न हो और दो-चार लोगों की जान न जाए, वह जनता की समस्याओं पर ध्यान नहीं देती ?
यमुना एक्सप्रेसवे उत्तरप्रदेश की मायावती सरकार की दो महत्वाकांक्षी सड़क योजनाओं में से एक है। दूसरी है गंगा एक्सप्रेसवे। नोएडा से आगरा तक 165 कि.मी. की आठ-लेन की सड़क बनाने का ठेका देश की सबसे बड़ी ठेकेदार कंपनी जेपी समूह को दिया गया है। इस में 42 छोटे पुल, 1 बड़ा पुल और एक रेलपुल के साथ 10 टोल नाके होंगे। इतना ही नहीं, इसके साथ आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त 49 वर्ग कि.मी. में फैली पांच बड़ी नगरीय बस्तियां भी विकसित की जाएगी। इसके किनारे सेज व औद्योगिक कॉम्प्लेक्स भी बनाए जाएंगे। जेपी कंपनी की असली कमाई दिल्ली के नजदीक बनने वाली इस विशाल जमीन-जायदाद में ही है। इस योजना के लिए ली जाने वाली किसानों की जमीन की मात्रा भी इसके कारण काफी बढ़ गई है। इस योजना से नोएडा, ग्रेटर नोएडा, आगरा, मथुरा, अलीगढ़ और हाथरस जिलों के 334 गांवो के करीब 50 हजार किसान प्रभावित हो रहे हैं।
गंगा एक्सप्रेसवे की योजना इससे काफी बड़ी है। नोएडा (दिल्ली) से बलिया तक गंगा किनारे बनाए जाने वाले एक्सप्रेसवे में एक कि.मी. चौड़ी भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा और इसके साथ ही नगरीय बस्तियां, सेज ( विशेष आर्थिक क्षेत्र ), होटल, रेस्तरां, पेट्रोल पंप आदि बनाए जाएंगे। इस का ठेका भी जेपी कंपनी को दिया गया है। ये दोनों एक्सप्रेसवे बनने के बाद संभवतः रिलायन्स और जेपी ये दो कंपनियां इस देश में शहरी जायदाद की सबसे बड़ी मालिक और जमींदार बन जाएंगी। किन्तु बड़ा सवाल यह है कि यदि मात्र 165 कि.मी. के यमुना एक्सप्रेसवे के लिए इतना बड़ा विस्थापन और खून खराबा हो रहा है तो 1047 कि.मी. के गंगा एक्सप्रेसवे में पता नहीं क्या होगा ?

अमीरों की सुविधा के लिए कितना विनाश

यमुना एक्सप्रेसवे के बारे में कहा जा रहा है कि इसके बन जाने से आगरा से दिल्ली पहुंचने में 90 मिनिट की बचत होगी। इसी तरह का तर्क गंगा एक्सप्रेसवे के लिए भी दिया जा रहा है। किन्तु भारी टोल-शुल्क के कारण इन राजमार्गों पर तो मुख्यतः अमीर कार-मालिक ही चल पाएंगे या फिर डीलक्स एसी बसें चलेंगी। क्या देश के मुट्ठी भर अमीरों के ऐश-आराम के लिए, उन्हें जल्दी पहुंचाने के लिए इतने बड़े पैमाने पर कृषि भूमि को नष्ट करना और किसानों को बेदखल करना जरुरी है ? पिछले कुछ सालों से देश में राजमार्गों और एक्सप्रेसमार्गों के ताबड़तोड़ निर्माण और विस्तार का एक पागलपन चल रहा है, जिस पर पुनर्विचार करने का वक्त आ गया है।
देश का पहला एक्सप्रेस-मार्ग संभवतः मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे था जो 2001 में बनकर पूरा हुआ। यह 94 कि.मी. लंबा है और इस पर 2136 करोड़ रु. खर्च हुए। इसमें भी कई गांवो और आदिवासियों की जमीन गई और यह शुरु से विवादास्पद रहा। चूंकि मुंबई व पुणे के बीच राष्ट्रीय राजमार्ग नं० 4 का पुराना रास्ता भी चालू रहा, कई वर्षों तक एक्सप्रेसवे पर चलने वाली गाड़ियों की संख्या उम्मीद से कम रही। इसे बनाने वाला महाराष्ट्र सड़क विकास निगम काफी घाटे व करजे में आ गया। तब 2004 में इसे तथा राष्ट्रीय राजमार्ग नं० 4 दोनों को एक निजी कंपनी को दे दिया गया। देश में राजमार्गों का यह पहला निजीकरण था। किन्तु इसने मुंबई और पुणे के बीच यात्रा करने वालों को स्थायी रुप से दो हिस्सों में बांट दिया। अमीरों के लिए जनसाधारण से अलग सड़क बन गई।

अमीर अलग, गरीब अलग

अमीरों और साधारण लोगों में तेजी से बढ़ता अलगाव और बढ़ती खाई उदारीकरण के इस जमाने की खासियत है। एक्सपे्रस मार्गों और राजमार्गों पर तो बैलगाड़ियां व साईकिलें चल भी नहीं सकती है। ऐसे कई मार्ग जमीन से काफी ऊपर उठे रहते हैं, तथा उनके दोनों तरफ दीवालें बना दी जाती हैं, ताकि कोई स्थानीय गांववासी, पशु या वाहन उनमें घुसकर अमीरों की यात्रा में खलल न डाले। इन राजमार्गों से अक्सर गांवो को आपसी आवागमन मुश्किल हो जाता है। किसानों को अपने घर से खेत तक बैलों या ट्रैक्टर से जाने के लिए काफी घूम कर जाना पड़ता है।
देश में जहां भी एक्सप्रेसवे बन रहे हैं या राजमार्गों का चैड़ीकरण हो रहा है या उनके लिए नए बायपास बन रहे हैं, स्थानीय लोगों के लिए संकट आ रहा है तथा विरोध हो रहा है। सड़कों के कारण इतने बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा, पहले कभी सोचा भी नहीं जा सकता था। बंगलौर-मैसूर एक्सप्रेसवे के खिलाफ किसानों का आंदोलन पिछले तीन सालों से चल रहा है। पूरे केरल को दो भागों में बांटने वाले दो मीटर ऊंचे केरल एक्सप्रेसवे के खिलाफ भी जोरदार जन आंदोलन खड़ा हो गया है। कई जगह गांववासियों, विधायकों और विशेषज्ञों ने सवाल उठाया है कि 60 मीटर यानी 200 फीट चैड़ी सड़क बनाने की क्या जरुरत है ? हमारे मंत्री और अफसर शायद संयुक्त राज्य अमरीका की सड़कें देखकर आए हैं, तथा उसकी नकल करना चाहते हैं। किन्तु वे यह भूल गए हैं कि अमरीका में आबादी का घनत्व काफी कम है तथा जमीन बहुतायत में उपलब्ध है। नकल में अकल लगाने की जरुरत उन्होंने नहीं समझी।

राजमार्ग निर्माण सर्वोच्च प्राथमिकता

पिछले पांच-छः वर्षों से भारत सरकार देश के कई अन्य जरुरी कामों को छोड़कर सिर्फ सड़कें राजमार्ग और एक्सप्रेसवे बनाने में लगी है। और देश के संसाधनों का बड़ा हिस्सा उसमें लगा दिया है। छः वर्ष पहले ‘राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम‘ शुरु किया गया तथा उसे क्रियान्वित करने के लिए ‘भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण’ बनाया गया। ‘सुनहरा चतुर्भुज’ यानी देश के चारों महानगरों – दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चैन्नई को जोड़ने वाले राजमार्गों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। फिर उत्तर-दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम कोरिडोर और बंदरगाहों को जोड़ने वाले मार्गों को 4 लेन या 6 लेन मार्ग बनाने का काम किया गया। इसके अतिरिक्त, देश के सारे राष्ट्रीय राजमार्गों को चार लेन या मानक दो लेन बनाने का काम भी चल रहा है। देश के कई हिस्सों में ‘फोर लेन’ तथा ‘बायपास’ के अंग्रेजी शब्द आम बोलचाल में आ गये हैं। नबंवर 2009 तक सब मिलाकर 33,642 कि.मी. राजमार्ग निर्माण या उन्नयन के लक्ष्य में से 12,531 कि.मी. चार लेन बनाया जा चुका था और 5,995 कि.मी. पर काम चल रहा था। अब अगले पांच वर्षों में 7000 कि.मी. प्रतिवर्ष की दर से 35,000 कि.मी. राजमार्ग बनाने का लक्ष्य तय किया गया है। जमीन अधिग्रहण के काम में तेजी लाने के लिए देश में 192 विशेष भूमि-अधिग्रहण इकाईयां बनाई जा रही है।
एक्सप्रेस-मार्ग निर्माण का भी महत्वाकांक्षी कार्यक्रम हाथ में लेते हुए 2022 तक तीन चरणों में देश में 18,637 कि.मी. एक्सप्रेस-मार्ग बनाने का लक्ष्य रखा गया है। एक ‘राष्ट्रीय एक्सप्रेस-मार्ग नेटवर्क’ बनाने की योजना है। ‘भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण’ में एक एक्सप्रेस-मार्ग विभाग बनाया गया है तथा अलग से ‘भारतीय एक्सप्रेस-मार्ग प्राधिकरण’ बनाने पर भी विचार किया जा रहा है।

विकास माने सिर्फ सड़कें

इनके अलावा उत्तर-पूर्व के राज्यों में सड़क विकास का एक विशेष कार्यक्रम लिया गया है, जिसमें 5,184 कि.मी. राष्ट्रीय राजमार्गों तथा 4,756 कि.मी. प्रांतीय राजमार्गों को चार-लेन या दो-लेन या उन्नत करने का लक्ष्य रखा गया है। वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सड़के बनाने के लिए 1900 करोड़ रु. का एक कार्यक्रम अलग से लिया गया है। आन्ध्रप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और उत्तरप्रदेश के आठ राज्यों के 33 जिलों में 1202 कि.मी. राष्ट्रीय राजमार्ग तथा 4362 कि.मी. प्रांतीय राजमार्ग को इसमें शामिल किया गया है। ऐसा लगता है कि सरकार ने हर समस्या का समाधान सड़क निर्माण ही समझ लिया है।
यही बात भारत के गांवों के मामले में लागू होती है। ‘प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना’ के तहत पिछले पांच वर्षों में (दिसंबर 2009 तक) 50,000 करोड़ रु. से ज्यादा लागत की 1,83,510 कि.मी. सड़के बनायी जा चुकी है। किन्तु दूसरी ओर गांव-विरोधी व खेती-विरोधी विकास एवं आर्थिक नीतियों के कारण गांवों में गरीबी, बेकारी, कुपोषण, शिक्षा-स्वास्थ्य की बिगड़ती हालत आदि से मुर्दानगी छाई हैं। ऐसी हालत में ये सड़कें सिर्फ देशी-विदेशी कंपनियों के सामानों की गांवों में घुसपैठ व बिक्री बढ़ाने तथा गांवों से सस्ता मजदूर शहरों में लाने का जरिया ही बन रही है। शायद यही सरकार की विकास नीति का अभीष्ट भी है।

जनता पर तिहरा बोझ

बेतहाशा सड़कें, राजमार्ग और एक्सप्रेसमार्ग बनाने के लिए पैसा कहां से आ रहा है ? खुद जनता की जेब से। रोड टैक्स तथा अन्य करों के अलावा पिछले कई सालों से भारत सरकार ने पेट्रोल एवं डीजल पर 2 रु. प्रति लीटर का अधिभार लगा रखा है। इस अधिभार से संग्रहित विशाल राशि का बड़ा हिस्सा ‘राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम’ के लिए दे दिया जाता है। इसके अतिरिक्त विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक तथा जापान भी भारत में राजमार्गों के विकास के लिए कर्ज दे रहे हैं। कर्ज की राशि कुल खर्च का बहुत बड़ा हिस्सा नहीं होती है, किन्तु उससे भारत की नीतियों और प्राथमिकताओं को तय करने और बदलने का अधिकार इन विदेशी ताकतों को मिल जाता है। ‘पीपीपी’ यानी निजी-सरकारी भागीदारी और ‘बीओटी’ यानी ‘बनाओ-चलाआ-कमाआ-वापस कर दो’ जैसी योजनाएं व तरकीबें उनके जरिये ही भारत में आई हैं, जिनसे भारत के सड़क क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निजी कंपनियों का पदार्पण हुआ है। यमुना एक्सप्रेसवे जैसे हादसे इसी नीति की देन है। दूसरी ओर अब लगभग हर सड़क पर चलने का टोल शुल्क कदम-कदम पर देना पड़ता है। एक तरह से भारत के लोग अब सड़कों पर चलने के लिए तिहरा शुल्क दे रहे हैं – रोड टैक्स, पेट्रोल डीजल पर अधिभार तथा टोल टैक्स।
निजीकरण से अब सरकार विदेशीकरण की ओर जाना चाहती है। भारत सरकार के भूतल-परिवहन मंत्री श्री कमलनाथ ने पिछले एक साल में यूरोप, अमरीका और सिंगापुर की यात्राएं करके विदेशी कंपनियों को भारत के राजमार्गों में पूंजी लगाने  और कमाने का न्यौता दिया। आम तौर पर राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने के लिए सौ-सौ कि.मी. के टुकड़ों का ठेका दिया जाता है। किन्तु विदेशी कंपनियों को एकाधिकारी सुविधा देने के लिए अब 400 से 500 कि.मी. के महा-प्रोजेक्ट बनाए जा रहे हैं, जिनकी लागत करीब 100 करोड़ डॉलर या 5000 करोड़ रु.से कम नहीं होगी। ऐसी हालत में, भारत के सड़क-निर्माण में बड़े-बड़े ठेकेदार और कंपनियां भी प्रतिस्पर्धा से बाहर हो जाएंगें। भारत की सड़कों पर विदेशी महा-कंपनियों का कब्जा हो जाएगा।

असली हित वाहन कंपनियों का

भारत के राजमार्गों के निर्माण में जापान की रुचि व भागीदारी का कारण भी समझा जा सकता है। भारत के वाहन उद्योग में जापान की अनेक कंपनियां मौजूद हैं, जैसे सुजुकी, यामाहा, होण्डा आदि। भारत का ऑटो-वाहन उद्योग काफी हद तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कब्जे में है। जितने राजमार्ग बनेंगे और सड़कें चिकनी बनेगी, उतनी ही ज्यादा उनकी बिक्री बढ़ेगी। भारत में पिछले कई सालों से वाहनों का उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है और मंदी का भी कुछ खास असर उन पर नहीं पड़ा है। सबसे ज्यादा प्रगति कारों और मोटरसाईकिलों में हुई है, जिनकी बिक्री 20 से 25 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। दूसरी ओर जिस शानदार साईकिल उद्योग में भारत दुनिया में अग्रणी हुआ करता था, उसका उत्पादन नीचे जा रहा है। भारत की वाहन क्रांति दरअसल ‘कार क्रांति’ बन कर रह गई है। एक तरह से देखा जाए तो भारत के राजमार्गों व एक्सप्रेस मार्गों का विकास भी भारत की आम जनता के लिए न होकर इन वाहन कंपनियों की सेवा में ही समर्पित है। इससे भारत की राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर के आंकड़े जरुर अच्छे दिखाई दे रहे हैं जिनसे मनमोहन सिंह या मोंटेक सिंह खुश हो सकते हैं। किन्तु भारत की आम जनता के लिए यह विकास विस्थापन, विकृतियों, विनाश और विषमता की नई त्रासदियां पैदा कर रहा है।
( ईमेल – sjpsunil@gmail.com )

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लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।

सम्पर्क :
ग्राम – केसला, तहसील इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.)
पिन कोड: 461 111 मोबाईल 09425040452

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पिछले भाग से आगे :

यह कहा जा रहा है कि राष्ट्रमंडल खेलों के लिए जो इन्फ्रास्ट्रक्चर बन रहा है, वह बाद में भी काम आएगा। लेकिन किनके लिए ? निजी कारों को दौड़ाने और हवाई जहाज में उडने वाले अमीरों के लिए तो दिल्ली विश्व स्तरीय शहर बन जाएगा। (वह भी कुछ समय के लिए, क्योंकि निजी कारों की बढती संख्या के लिए तो सड़कें और पार्किंग की जगहें फिर छोटी पड़ जाएंगी।) लेकिन तब तक दिल्ली के ही मेहनतकश झुग्गी झोपड़ी वासियों और पटरी-फेरी वालों को दिल्ली के बाहर खदेड़ा जा चुका होगा। उनको हटाने और प्रतिबंधित करने की जो मुहिम पिछले कुछ समय से चल रही है, उसके पीछे भी राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन है। किन्तु सवाल यह भी है कि पूरे देश का पैसा खींचकर दिल्ली के अमीरों के ऐशो-आराम के लिए लगाने का क्या अधिकार सरकार को है ? देश के गांवो और पिछड़े इलाकों को वंचित करके अमीरों-महानगरों के पक्ष में यह एक प्रकार का पुनर्वितरण हो रहा है।

एक दलील यह है कि राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन के बाद भारत ओलंपिक खेलों की मेजबानी का दावा कर सकेगा और यह इन्फ्रास्ट्रक्चर उसके काम आएगा। लेकिन यह तो और बड़ा घपला व अपराध होगा। कई गुना और ज्यादा खर्च होगा, और ज्यादा गरीबों को खदेड़ा जाएगा एवं वंचित किया जाएगा। चीन में बीजिंग ओलंपिक के मौके पर यही हुआ। चीन में तो तानाशाही है, क्या भारत में भी हम वहीं करना चाहेंगे ?
चीन ने बीजिंग ओलंपिक के मौके पर विशाल राशि खर्च करके बड़े-बड़े स्टेडियम बनाए, वे बेकार पड़े हैं। उनके रखरखाव का खर्च निकालना मुद्गिकल हो रहा है और उनको निजी कंपनियों को देकर किसी तरह काम चलाने की कोशिश हो रही है।  उसी तरह सफेद हाथी पालने की तैयारी हम क्यों कर रहे हैं ?
राष्ट्रमंडल खेलों के पक्ष में एक दलील यह दी जा रही है कि बड़ी संखया में विदेशों से दर्शक आएंगे और पर्यटन से भी आय होगी। पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन जितना विशाल खर्च हो रहा है, उसका १० प्रतिशत भी टिकिटों की बिक्री और पर्यटन की आय से नहीं निकलेगा। सवाल यह भी है कि विदेशी दर्शकों और पर्यटकों के मनोरंजन के खातिर हम अपने देश की पूरी प्राथमिकताएं बदल रहे हैं और देश के लोगों की ज्यादा जरुरी जरुरतों को नजरअंदाज कर रहे हैं। क्या यह जायज है ?

गलत खेल संस्कृति

यह भी दलील दी जा रही है कि इस आयोजन से देश में खेलों को बढ़ावा मिलेगा। यह भी एक भ्रांति है। उल्टे, ऐसे आयोजनों से बहुत महंगे, खर्चीले एवं हाई-टेक खेलों की एक नई संस्कृति जन्म ले रही है, जो खेलों को आम जनता से दूर ले जा रही है और सिर्फ अमीरों के लिए आरक्षित कर रही है। आज खर्चीले कोच, विदेशी प्रशिक्षण, अत्याधुनिक स्टेडियम और महंगी खेल-सामग्री के बगैर कोई खिलाड़ी आगे नहीं बढ  सकता। पिछले ओलिंपिक में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाला भारतीय निशानेबाज अभिनव बिन्द्रा एक उदाहरण है, जिसके परिवार ने खुद अपना शूटिंग रेन्ज बनाया था और उसे यूरोप में प्रशिक्षण दिलवाया था। उसके परिवार ने एक करोड  रु. से ज्यादा खर्च किया होगा। इस देश के कितने लोग इतना खर्च कर सकते हैं ?
इन खेलों और उससे जुड़े़ पैसे व प्रसिद्धि ने एक अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है, जिसमें प्रतिबंधित दवाओं, सट्‌टे और मैच-फिक्सिंग का बोलबाला हो चला है जबरदस्त व्यवसायीकरण  के साथ खेलों में खेल भावना भी नहीं रह गई है और खेल साधारण भारतवासी से दूर होते जा रहे हैं। टीवी चैनलों ने भारतीयों को खेलने के बजाय टीवी के परदे पर देखना, खिलाडियों के फैन बनना, ऑटोग्राफ लेना आदि जरुर सिखा दिया है। व्यापक दीवानगी पैदा करके टीवी चैनल और विज्ञापनदाता कंपनियों की खूब कमाई होती है। मशहूर खिलाड़ी विज्ञापनों में उनके प्रचारक बन जाते हैं। अब तो खेल आयोजनों में चियर गर्ल्स और ड्रिंक्स गर्ल्स के रुप में इनमें भौंडेपन, अश्लीलता और नारी की गरिमा गिराने का नया अध्याय शुरु हुआ है। जनजीवन के हर क्षेत्र की तरह खेलों का भी बाजारीकरण हो रहा हैं, जिससे अनेक विकृतियां पैदा हो रही हैं। क्रिकेट और टेनिस जैसे कुछ खेलों में तो बहुत पैसा है। इनमें जो खिलाड़ी प्रसिद्धि पा लेते हैं, वे मालामाल हो जाते हैं।  लेकिन हॉकी, फुटबाल, वॉलीबाल, कबड्‌डी, खो-खो, कुश्ती, दौड -कूद जैसे पारंपरिक खेल उपेक्षित होते गए हैं। इनमें चोटी के खिलाड़ि यों की भी उपेक्षा व दुर्दशा के किस्से बीच-बीच में आते रहते हैं। हमारे खेलों का एक पूंजीवादी और औपनिवेशिक चरित्र बनता जा रहा है। सारे अन्य खेलों की कीमत पर क्रिकेट छा गया है। यह मूलतः अंग्रेजों का खेल है और दुनिया के उन्हीं मुट्‌ठी भर देशों में खेला जाता है जहां अंग्रेज बसे हैं या जो अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
भारत ने १९८२ में एशियाई खेलों का आयोजन किया था और उसमें विशाल धनराशि खर्च की थी। लेकिन उसके बाद न तो देश के अंदर खेलों को विशेष बढ़ावा मिला और न अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भारत की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। पदक तालिका में १०० करोड  से ज्यादा आबादी के इस देश का स्थान कई ४-५ करोड  के देशों से भी नीचे रहता है। इस अनुभव से भी हम ऐसे आयोजनों की व्यर्थता को समझ सकते हैं (२)

राष्ट्रमंडल खेलों के बजाय इसका आधा पैसा भी देश के गांवों और कस्बों में खेल-सुविधाओं के प्रदाय और निर्माण में, देहाती खेल आयोजनों में और देश के  बच्चों का कुपोषण दूर करने  में लगाया जाए तो देश में खेलों को कई गुना ज्यादा बढ़ावा मिलेगा। खेलों में छाये भ्रष्टाचार, पक्षपात और असंतुलन को भी दूर करने की जरुरत है। तभी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भारत की दयनीय हालत दूर होगी और वह पदक तालिका में ऊपर उठ सकेगा।

प्रतिस्पर्धा में खजाना लुटाया

कुछ साल पहले २००७ में जब भारतीय ओलंपिक संघ ने २०१४ के एशियाई खेलों की मेजबानी पाने के की असफल कोशिश की थी, तब स्वयं भारत के तत्कालीन खेल मंत्री श्री मणिशंकर अय्यर ने इसकी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि भारत के करोड़ों वंचित बच्चों, किशोरों और युवाओं को खेल-सुविधाएं न देकर इस तरह के अंतरराष्ट्रीय आयोजनों से कुछ नहीं होगा और सिर्फ भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि सुधारने के लिए इतनी फिजूलखर्ची उचित नहीं है। किन्तु श्री अय्यर की बात सरकार में बैठे अन्य लोगों को पसंद नहीं आई और जल्दी ही खेल मंत्रालय उनसे ले लिया गया।
राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी भी भारत ने जिस तरह से पाई, वह गौरतलब और शर्मनाक है। वर्ष २०१० की मेजबानी के लिए कनाडा के हेमिल्टन शहर का भी दावा था। कनाडा को प्रतिस्पर्धा से बाहर करने के लिए भारतीय ओलंपिक संघ ने सारे खिलाडि यों के मुफ्त प्रशिक्षण पर ७० लाख डॉलर (३३ करोड  रु. लगभग) का खर्च अपनी तरफ से करने का प्रस्ताव दिया। इतना ही नहीं सारे खिलाड़ियों की मुफ्त हवाई यात्रा और उनके ठहरने-खाने की मुफ्त व्यवस्था का प्रस्ताव भी उसने दिया, जो इसके पहले नहीं होता था। जो खर्च कनाडा जैसा अमीर देश नहीं कर सकता, वे खर्च भारत जैसा गरीब देश उदारता से कर रहा है।

असली एजेण्डा

वर्ष २०१० के राष्ट्रमंडल खेलों की वेबसाईट में इसका उद्देश्य बताया गया है। हरेक भारतीय में खेलों के प्रति जागरुकता और खेल संस्कृति को पैदा करना। आयोजकों ने इसके साथ की तीन लक्ष्य सामने रखे हैं – अभी तक का सबसे बढिया राष्ट्रमंडल खेल आयोजन, दिल्ली को दुनिया की मंजिल (ग्लोबल डेस्टिनेशन) के रुप में प्रोजेक्ट करना और भारत को एक आर्थिक महाशक्ति के रुप में पेश करना। बाकी तो महज लफ्फाजी है, किन्तु इन अंतिम बातों में ही इस विशाल खर्चीले आयोजन का भेद खुलता है। भारत की सरकारें विदेशी पूंजी को देद्गा में किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर बुलाने के लिए बेचैन है। विदेशी कंपनियों और उनके मालिकों-मैनेजरों-प्रतिनिधियों को आने-ठहरने-घूमने के लिए अमीर देशों जैसी ही सुविधाएं चाहिए, जिसे गलत ढंग से ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर’ कहा जाता है। राष्ट्रमंडल खेलों ने भारत सरकार को दिल्ली जैसे महानगरों में अमीरों की सुविधाओं पर देश का विशाल पैसा खर्च करने का बहाना व मौका दे दिया, जो अन्यथा इस लोकतांत्रिक देश में आसान नहीं होता। भारत को ‘आर्थिक महा्शक्ति’ के रुप में पेश करना भी इसी एजेण्डा का हिस्सा है, जिससे देश के लोग अपनी असलियतों और हकीकत को भूलकर झूठे राष्ट्रीय गौरव और जयजयकार में लग जाएं। राष्ट्रमंडल खेलों से भारतीय शासकों के इस अभियान में मदद मिलती है। चीन सरकार ने भी बीजिंग ओलम्पिक का उपयोग देश में उमड़ रहे जबरदस्त असंतोष को ढकने व दबाने तथा आम नागरिको को एक झूठी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में भरमाने को किया। (स्वयं चीन सरकार की जानकारी के मुताबिक वहां एक वर्ष में एक लाख से ज्यादा स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन हुए हैं।) भारत सरकार उसी राह पर चलने की कोशिश कर रही है।

लब्बो-लुआब यह है कि राष्ट्रमंडल खेल इस देश की गुलामी, संसाधनों की लूट, बरबादी, विलासिता और गलत खेल संस्कृति के प्रतीक हैं। सभी देशभक्त लोगों को पूरी ताकत से इसके विरोध में आगे आना चाहिए। विद्यार्थी युवजन सभा और समाजवादी जन परिषद्‌ ने तय किया है कि पूरी ताकत से इस राष्ट्र-विरोधी एवं जन विरोधी आयोजन का विरोध करेंगे। आप भी इसमें शामिल हों।
यह देश अब अंग्रेज साम्राज्य का हिस्सा नहीं है। न ही यह देश मनमोहन सिंह, शीला दीक्षित और सुरेद्गा कलमाड़ी का है। उन्हें दे्श को लूटने, लुटाने और बरबाद करने का कोई हक नहीं है। यह दे्श हमारा है। यहां रहने वाले करो्ड़ों मेहनतकश लोगों का है। हम किसी को इस देश के संसाधनों को लूटने-लुटाने, अय्य्याशी करने और गुलामी को प्रतिष्ठित करने की इजाजत नहीं देंगे।

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फुटनोट :-    १.    अक्टूबर २००९ में मशहूर टेनिस खिलाड़ी और आठ बार के ग्रांड स्लैम चैंपियन आन्द्रे अगासी की आत्मकथा में की गई इस स्वीकारोक्ति ने खेल- जगत में खलबली मचा दी कि वह एक प्रतिबंधित दवा- क्रिस्टल मैथ- का सेवन करता था। एक बार जांच में पकड़ाने पर उसने झूठ बोल दिया था। (द हिन्दू, २९ अक्टूबर २००९) १५ दिसंबर २००९ को लोकसभा में खेलमंत्री ने बताया कि पिछले वर्ष से २४ खिलाडियों पर प्रतिबंधित दवाओं के सेवन का दोषी पाए जाने पर दो वर्ष की पाबंदी लगायी गयी है, ११ का मामला अभी लंबित है तथा १३ नए मामले सामने आए हैं। ( पत्रिका, भोपाल, १६ दिसंबर २००९)

२.    इसके बाद १५ दिसंबर २००९ को खेल राज्य मंत्री प्रकाश बाबू पाटील ने भी लोकसभा में स्वीकार किया कि बीजिंग ओलंपिक में भारतीय खिलाडियों के प्रदर्शन में कुछ सुधार हुआ है, किन्तु यह अभी भी संतोषजनक नहीं है। इसका कारण संगठित खेल अधोसंरचना तक पहुंच की कमी और खासतौर से ग्रामीण इलाकों में प्रतियोगिताओं की कमी है। इन कमियों के कारण हमारे पास प्रतिभावान खिलाडियों का सीमित भंडार है। (पत्रिका, भोपाल,१६ दिसंबर २००९)

[ सुनील समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं । उनका पता ग्राम/पोस्ट- केसला,वाया इटारसी , जि. होशंगाबाद,म.प्र. है । ]

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आजाद भारत के लिए यह एक शर्म का दिन था। २९ अक्टूबर २००९ को आजाद और लोकतांत्रिक भारत की निर्वाचित राष्ट्रपति सुश्री प्रतिभा पाटील अगले राष्ट्रमंडल खेलों के प्रतीक डंडे ब्रिटेन की महारानी से लेने के लिए स्वयं चलकर लंदन में उनके महल बकिंघम पैलेस में पहुंची थी। मीडिया को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगा। वह तो इसी से अभिभूत था कि भारतीय राष्ट्रपति को सलामी दी गई तथा शाही किले में ठहराया गया। किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि ब्रिटिश साम्राज्य के समाप्त होने और भारत के आजाद होने के ६२ वर्ष बाद भी हम स्वयं को ब्रिटिश सिंहासन के नीचे क्यों मान रहे हैं। साम्राज्य की गुलामी की निशानी को हम क्यों ढो रहे हैं ?

राष्ट्रीय शर्म का ऐसा ही एक अवसर कुछ साल पहले आया था, जब भारत के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में मानद उपाधि मिलने के बाद दिए अपने भाषण में अंग्रेजों की गुलामी की तारीफों के पुल बांधे थे। उन्होंने कहा था कि भारत की भाषा, शास्त्र, विश्वविद्यालय, कानून, न्याय व्यवस्था, प्रशासन, किक्रेट, तहजीब सब कुछ अंग्रेजों की ही देन है। किसी और देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ऐसा कह देता तो वहां तूफान आ जाता। लेकिन यहां पत्ता भी नहीं खड़का। ऐसा लगता है कि गुलामी हमारे खून में ही मिल गई है। राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान की बातें हम महज किताबों और भाषणों में रस्म अदायगी के लिए ही करते हैं।

साम्राज्य के खेल

३ से १४ अक्टूबर २०१० तक दिल्ली में होने वाले जिन ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों के लिए भारत सरकार और दिल्ली सरकार दिन-रात एक कर रही है, पूरी ताकत व अथाह धन झोंक रही है, वे भी इसी गुलामी की विरासत है। इन खेलों में वे ही देश भाग लेते हैं जो पहले ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहे हैं। दुनिया के करीब १९० देशों में से महज ७१ देश इसमें शामिल होंगे। इन खेलों की शुरुआत १९१८ में ‘साम्राज्य के उत्सव’ के रुप में हुई थी। राष्ट्रमंडल खेलों की संरक्षक ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय है और उपसंरक्षक वहां के राजकुमार एडवर्ड हैं। हर आयोजन के करीब १ वर्ष पहले महारानी ही इसका प्रतीक डंडा आयोजक देश को सौंपती हैं और इसे ‘महारानी डंडा रिले’ कहा जाता है। इस डंडे को उन्हीं देशों में घुमाया जाता है, जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य में रहे हैं। यह रैली हर साल बकिंघम पैलेस से ही शुरु होती है।

पूरे देश का पैसा दिल्ली में

साम्राज्य और गुलामी की याद दिलाने वाले इन खेलों के दिल्ली में आयोजन की तैयारी कई सालों से चल रही है। ऐसा लगता है कि पूरी दिल्ली का नक्शा बदल जाएगा। कई स्टेडियम, खेलगांव, चौड़ी सडकें , फ्लाईओवर, रेल्वे पुल, भूमिगत पथ, पार्किंग स्थल और कई तरह के निर्माण कार्य चल रहे हैं। पर्यावरण नियमों को ताक में रखकर यमुना की तलछटी में १५८ एकड  में विशाल खेलगांव बनाया जा रहा है, जिससे इस नदी और जनजीवन पर नए संकट पैदा होंगे।

इस खेलगांव से स्टेडियमों तक पहुंचने के लिए विशेष ४ व ६ लेन के भूमिगत मार्ग और विशाल खंभों पर ऊपर ही चलने वाले मार्ग बनाए जा रहे हैं। दिल्ली की अंदरी और बाहरी, दोनों रिंगरोड को सिग्नल मुक्त बनाया जा रहा है, यानी हर क्रॉसिंग पर फ्लाईओवर होगा। दिल्ली में फ्लाईओवरों व पुलों की संखया शायद सैकड़ा पार हो जाएगी। एक-एक फ्लाईओवर की निर्माण की लागत ६० से ११० करोड  रु. के बीच होती है। उच्च क्षमता बस व्यवस्था के नौ कॉरिडोर बनाए जा रहे हैं। हजारों की संख्या में आधुनिक वातानुकूलित बसों के ऑर्डर दे दिए गए हैं, जिनकी एक-एक की लागत सवा करोड  रु. से ज्यादा है।

राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण कार्यों के लिए पर्यावरण के नियम ही नहीं, श्रम नियमों को भी ताक में रख दिया गया है। ठेकेदारों के माध्यम से बाहर से सस्ते मजदूरों को बुलाया गया है, जिन्हें संगठित होने, बेहतर मजदूरी मांगने, कार्यस्थल पर सुरक्षा, आवास एवं अन्य सुविधाओं के कोई अधिकार नहीं है। एशियाड १९८२ के वक्त भी मजदूरों का शोषण हुआ था, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था। किन्तु आज श्रम एवं पर्यावरण कानूनों के खुले उल्लंघन पर सरकार एवं सर्वोच्च न्यायालय दोनों चुप हैं, क्योंकि यह आयोजन एक झूठी ‘राष्ट्रीय प्रतिष्ठा’ का सवाल बना दिया गया है।

दिल्ली मेट्रो का तेजी से विस्तार हो रहा है और २०१० यानी राष्ट्रमंडल खेलों तक यह दुनिया का दूसरा सबसे लंबा मेट्रो रेल नेटवर्क बन जाएगा। तेजी से इसे बनाने के लिए एशिया में पहली बार एक साथ १४ सुरंग खोदनें वाली विशाल विदेशी मशीनें इस्तेमाल हो रही हैं। इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्‌डे पर ९००० करोड़ रुपए की लागत से नया टर्मिनल और रनवे बनाया जा रहा है ताकि एक घंटे में ७५ से ज्यादा उड़ानें भर सकें। इस हवाई अड्‌डे को शहर से जोड ने के लिए ६ लेन का हाईवे बनाया जा रहा है और मेट्रो से भी जोड़ा जा रहा है।
मात्र बारह दिन के राष्ट्रमंडल खेलों के इस आयोजन पर कुल खर्च का अनुमान लगाना आसान नहीं है, क्योंकि कई विभागों और कई मदों से यह खर्च हो रहा है। सरकार के खेल बजट में तो बहुत छोटी राशि दिखाई देगी। उदाहरण के लिए, हाई-टेक सुरक्षा का ही ठेका एक कंपनी को ३७० करोड  रु. में दिया गया। किन्तु यह उस खर्च के अतिरिक्त होगा, जो सरकारी पुलिस, यातायात पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाती के रुप में होगा और सरकारी सुरक्षा एजेन्सियां स्वयं विभिन्न उपकरणों की विशाल मात्रा में खरीदी करेंगी।
जब सबसे पहले दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की बात चलाई गई थी तो कहा गया था कि इसमें २०० करोड  रु. खर्च होंगे। जब २०१० की मेजबानी दिल्ली को दे दी गई, तो बताया गया कि ८०० करोड  रु. खर्च होंगे। फिर इसे और कई गुना बढ़ाया गया। इसमें निर्माण कार्यों का विशाल खर्च नहीं जोड़ा गया और जानबूझकर बहुत कम राशि बताई गई। ‘तहलका’ पत्रिका के १५ नवंबर २००९ के अंक में अनुमान लगाया गया है कि राप्ट्रमंडल खेलों के आयोजन पर कुल मिलाकर ७५,००० करोड  रु. खर्च होने वाला है। इसमें से लगभग ६०,००० करोड  रु. दिल्ली में इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी बुनियादी ढांचा बनाने पर खर्च होगा। एक वर्ष पहले इंडिया टुडे ने अनुमान लगाया था कि राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन पर कुल मिलाकर ८०,००० करोड  रु. खर्च होंगे। अब यह अनुमान और बढ  जाएगा।   कहा जा रहा है कि ये अभी तक के सबसे महंगे राष्ट्रमंडल खेल होंगे। ये सबसे महंगे खेल एक ऐसे देश में होगें, जो प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से दुनिया के निम्नतम दे्शों में से एक है। हर ४ वर्ष पर होने वाले राप्ट्रमंडल खेल अक्सर अमीर देशों में ही होते रहे हैं। सिर्फ जमैका ने १९६६ और मलेशिया ने १९९८ में इनके आयोजन की हिम्मत की थी। लेकिन तब आयोजन इतना खर्चीला नहीं था। भारत से बेहतर आर्थिक हालात होने के बावजूद मलेशिया ने उस राशि से बहुत कम खर्च किया था, जितना भारत खर्च करने जा रहा है।

देश के लिए क्या ज्यादा जरुरी है ?

सवाल यह है भारत जैसे गरीब देश में साम्राज्यवादी अवशेष के इस बारह-दिनी तमाशे पर इतनी विशाल राशि खर्च करने का क्या औचित्य है ? देश के लोगों की बुनियादी जरुरतें पूरी नहीं हो रही हैं। आज दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे, कुपोषित, आवासहीन और अशिक्षित लोग भारत में रहते हैं। इलाज के अभाव में मौतें होती रहती है। गरीबों को सस्ता राशन, पेयजल, इलाज की पूरी व्यवस्था, बुढ़ापे की पेन्शन और स्कूलों में पूरे स्थायी शिक्षक एवं भवन व अन्य सुविधाएं देने के लिए सरकार पैसे की कमी का रोना रोती है और उनमें कटौती करती रहती है। निजी-सरकारी भागीदारी और निजीकरण के लिए भी वह यही दलील देती है कि उसके पास पैसे की कमी है। फिर राष्ट्रमंडल खेलों के इस तमाशे के लिए इतना पैसा कहां से आ गया ? इस एक आयोजन के लिए उसका खजाना कैसे खुला हो जाता है और वह इतनी दरियादिल कैसे बन जाती है ? सरकार का झूठ और कपट यहीं पकड़ा जाता है।

देश के ज्यादातर स्कूलों में पूरे शिक्षक और पर्याप्त भवन नहीं है। प्रयोगशालाओं , पुस्तकालयों और खेल सुविधाओं का तो सवाल ही नहीं उठता। पैसा बचाने के लिए विश्व बैंक के निर्दे्श पर सरकारों ने स्थायी शिक्षकों की जगह पर कम वेतन पर, ठेके पर, अस्थाई पैरा – शिक्षक लगा लिए हैं। संसद में पारित शिक्षा अधिकार कानून ने भी इस हालत को बदलने के बजाय चतुराई से ढकने का काम किया है। उच्च शिक्षा के बजट में भी कटौती हो रही है तथा कॉलेजों और विद्गवविद्यालयों में ‘स्ववित्तपोषित’ पाठ्‌यक्रमों पर जोर दिया जा रहा है। इसका मतलब है गरीब एवं साधारण परिवारों के बच्चों को शिक्षा के अवसरों से वंचित करना।
भारत सरकार देश के सारे गरीबों को सस्ता रा्शन, मुफ्त इलाज, मुफ्त पानी, पेन्शन और दूसरी मदद नहीं देना चाहती है। एक झूठी गरीबी रेखा बनाकर विशाल आबादी को किसी भी तरह की मदद व सुविधाओं से वंचित कर दिया गया है। सवाल यह है कि देश की प्राथमिकताएं क्या हो ? देश के लिए क्या ज्यादा जरुरी है – देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा देना, सबको इलाज, सबको भोजन, सबको पीने का पानी, सिंचाई आदि मुहैया कराना या फिर भयानक फिजूलखर्ची वाले राष्ट्रमंडल खेलों जैसे आयोजन ? क्या यह झूठी शान और विलासिता नहीं है।
भारत की सरकारें इसी तरह हथियारों, फौज, अंतरिक्ष अभियानों, अणुबिजलीघरों जैसी कई झूठी शान वाली गैरजरुरी चीजों पर इस गरीब देश के संसाधनों को बरबाद करती रहती हैं। इसी तरह १९८२ में दिल्ली में एशियाई खेलों के आयोजन में वि्शाल फिजूलखर्च किया गया था। दिल्ली में फ्लाईओवर बनाने का सिलसिला उसी समय शुरु हुआ। दिल्ली में कई नए पांच सितारा होटलों को इजाजत भी उस समय दी गई थी, उन्हें सरकारी जमीन और मदद दी गई थी और विलासिता व अय्याशी की संस्कृति को बढ़ावा दिया गया था। राप्ट्रमंडल खेलों से एक बार फिर नए होटलों को इजाजत व मदद देने का बहाना सरकार में बैठे अमीरों को मिल गया है।

सारे नेता, सारे प्रमुख दल, बुद्धिजीवी और मीडिया झूठी शान वाले इस आयोजन की जय-जयकार में लगे हैं। विपक्षी नेता और मीडिया आलोचना करते दिख रहे हैं तो इतनी ही कि निर्माण कार्य समय पर पूरे नहीं होंगे। लेकिन इसके औचित्य पर वे सवाल नहीं उठाते। इस तमाशे में ठेकेदारों, कंपनियों तथा कमीशनखोर नेताओं की भारी कमाई होगी। उनकी पीढ़ियां तर जाएगी। विज्ञापनदाता देशी-विदेशी कंपनियों की ब्रिकी बढ़ेगी। मीडिया को भी भारी विज्ञापन मिलेंगे। घाटे में सिर्फ देश के साधारण लोग रहेंगे। यह लूट और बरबादी है।

( जारी )

अगली किश्त में – कैसा इन्फ़्रास्ट्रक्चर ? किसके लिए ?

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भारत सरकार के प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक ने देश में एक बहस छेड़ दी है। सरकार ने इस खाद्य सुरक्षा का मतलब सस्ती दरों पर खाद्यान्नों की सार्वजनिक वितरण प्रणाली से माना है और इसे वह गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों तक सीमित करना चाहती है। राज्य सरकारों को लिखे एक पत्र में भारत सरकार के खाद्य मंत्रालय ने यह भी कहा है कि ये सरकारें अपनी मर्जी से गरीबो की संख्या बढ़ाना तथा बीपीएल राशन कार्ड बांटना बंद करें और योजना आयोग द्वारा हर प्रांत के लिए तय की गई गरीबों की संख्या पर ही कायम रहें।

पत्र में इस बात पर चिंता जाहिर की गई है कि योजना आयोग के अनुसार देश में 6.52 करोड़ गरीब परिवार होना चाहिए, लेकिन देश में 10.68 करोड़ बीपीएल कार्ड हो गए हैं, यानी 4.16 करोड़ कार्ड ज्यादा बन गए हैं। गरीबी के नए अनुमानों के मुताबिक तो देश में अब बीपीएल कार्डों की संख्या 5.91 करोड़ ही होना चाहिए।

यदि शरद पवार वाले इस मंत्रालय की चली, तो देश के गरीबों की जिन्दगियों पर यह एक और हमला होगा। भारत सरकार का योजन आयोग जिस तरह गरीबी रेखा का निर्धारण कर रहा है, उस पर कई सवाल खड़े हो रहे हैं। योजना आयोग के आंकड़ोंमें तो देश की गरीबी कम होती जा रही है और विकास व प्रगति की एक उजली तस्वीर उभरती है। इन के मुताबिक देश में 1973-74 में 55 प्रतिशत लोग गरीब थे, जो 1983 में घटकर 44 प्रतिशत, 1993-94 में36 प्रतिशत, 1999-2000 में 26 प्रतिशत रह गए। वर्ष 2004-05 में मामूली बढ़कर यह प्रतिशत 27.5 हो गया। इन्ही आंकड़ों के दम पर सरकार दावा करती है कि विकास के फायदे नीचे तक ‘रिस’ रहे हैं और वह लोगों को धीरज रखने को कहती है।

योजना आयोग का गरीबी का आकलन सत्तर के दशक में न्यूनतम कैलोरी उपभोग पर आधारित है। वर्ष 1973 में ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी (प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति) वाला भोजन करने वाले परिवारों की आय देखी गई और उसे ही गरीबी रेखा मान लिया गया। बाद के वर्षों में उसी आय को कीमतों के सूचकांक में वृद्धि के अनुपात में बढ़ाया जाता रहा। लेकिन इस बीच साधारण भारतवासी के बजट में अन्य वस्तुओं व सेवाओं के खर्च व उनकी कीमतों में काफी वृ्द्धि हुई, जिसे योजना आयोग ने नजरअंदाज कर दिया। नतीजा यह हुआ कि बाद के वर्षों मेंसरकारी गरीबी रेखा वाली आय के परिवार अब पहले से काफी कम कैलोरी वाला भोजन कर पा रहे हैं। उनके भोजन में कटौती हो गई है।

उदाहरण के लिए वर्ष 2004-05 में सरकार ने जिस आय को गरीबी रेखा माना है, राष्ट्रीय सेम्पल सर्वेक्षण के मुताबिक उस आय वाले परिवार मात्र 1800 कैलोरी का ही उपभोग कर रहे थे। यदि निर्धारित न्यूनतम 2400 (ग्रामीण) और 2100 (शहरी) कैलोरी भोजन वाले परिवारों की आय निकाली जाए तो वह सरकारी गरीबी रेखा आय से लगभग दुगुनी होगी। देश में गरीबों का प्रतिशत 27.5 के स्थान पर 75.8 हो जाएगा। स्पष्ट है कि 48 प्रतिशत से ज्यादा आबादी या 54 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा के बाहर रखकर सरकारी योजनाओं व मदद से वंचित किया जा रहा है।

डॉ. उत्सा पटनायक जैसे कई मूर्धन्य अर्थशास्त्रियों ने इस विसंगति को बार-बार उजागर किया है। लेकिन लगता है कि योजना आयोग जानबूझकर आंकड़ों का यह घपला जारी रखना चाहता है, ताकि सरकार की जिम्मेदारी कम रहे, विकास का भ्रम बना रहे और नवउदारवादी सुधारों की गाड़ी चलती रहे। विश्व बैंक एवं अन्य अंतरराष्ट्रीय ताकतें भी यही चाहती है।

पिछले दिनों एक सरकारी समिति ने भी गरीबी रेखा के आकलन में इस अंतर्विरोध को स्वीकार किया है। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने डॉ. एन.सी.सक्सेना की अध्यक्षता में गरीबों को चिन्हित करने के लिए विशेषज्ञ समूह का गठन किया है। इस की अंतरिम रपट में स्वीकार किया गया है कि गरीबी रेखा का यह निर्धारण दोषपूर्ण है। इसके पहले अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में बने असंगठित  क्षेत्र आयोग ने भी बताया था कि देश की 77 प्रतिशत आबादी या 83 करोड़ लोग 20 रु. रोज से नीचे गुजारा कर रहे है। इसे ही गरीबी का सबसे अच्छा आकलन मानना चाहिए।

गरीबी रेखा के गलत व त्रुटिपू्र्ण नि्र्धारण के पीछे एक राजनीति भी है। इससे देश के गरीबों की बड़ी संख्या को किसी भी प्रकार की सरकारी मदद से वंचित किया जा सकता है। साथ ही गरीबों को आपस मे बांटा व उलझाया जा सकता है। देश के गांवों और शहरी झोपड़पटि्टयों के गरीब लोग इसी मुद्दे पर उलझे रहते हैं कि फलां का नाम कैसे गरीबी रेखा की सूची में है और उनका नाम क्यों नहीं है। आपसी द्वेष और द्वन्द्व भी पैदा होता है। कई समझदार लोग भी मान लेते हैं कि  भ्रष्टाचार एवं गलत लोगों के नाम इस सूची में शामिल होने से समस्या पैदा हुई है। लेकिन कुछ संपन्न लोगों के नाम हटा देने से यह समस्या हल नहीं होने वाली है, क्योंकि गरीबी रेखा की सूची को जरुरत से काफी छोटा रखा जाता है। यह मामला क्रियान्वयन में कमी या भ्रष्टाचार का नहीं, सरकार की नीति व नियत में ही खोट का है।

कुल मिलाकर, गरीबी रेखा के इस भ्रमजाल को समझना और इससे बाहर आना जरुरी है। अर्थशास्त्रियों और विद्वानों की बौद्धकि कसरतों के लिए यह ठीक है, किन्तु सरकारी योजनाओं व कार्यक्रमों के लिए इसे आधार बनाना ठीक नहीं हैं। जनकल्याण की समस्त योजनाएं व सुविधाएं देश की साधारण जनता के लिए होने चाहिए, सिर्फ गरीबी रेखा की सूची के परिवारों तक उन्हें सीमित नहीं किया जाए। जिस देश में 75-80 प्रतिशत आबादी गरीबी एवं अभावों में जी रही हो, वहां इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। यदि कोई भेद करना है, तो वह अमीरों को बाहर करके किया जा सकता है। आयकर का भुगतान करने वाले, निजी मोटरगाड़ी रखने वाले, जैसे कुछ मानक बनाकर अमीर परिवारों की एक नकारात्मक सूची बनाई जा सकती है। यह ज्यादा सरल एवं व्यवहारिक भी होगा। दूसरे शब्दों में, देश को गरीबी रेखा के बजाय एक अमीरी रेखा की जरुरत है। इस अमीरी रेखा की सूची के लोगों को सरकारी मदद व अनुदान से वंचित किया जा सकता है और उन पर भारी टैक्स लगाए जा सकते हैं। देश में जमीन की हदबंदी की ही तरह संपत्ति व आमदनी की एक ऊपरी सीमा बनाने पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। आखिर हम यह नहीं भूल सकते कि अमीरी और गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
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(लेखक समाजवादी जन परिषद् का राष्ट्रीय अध्यक्ष है।)

सुनील, ग्राम पोस्ट -केसला, वाया इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) 461 111

फोन नं० – 09425040452, फोन 09425040452]  ईमेल & sjpsunilATgmailDOTcom

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यह लूट, लालच, भोग की सभ्यता का संकट है।

सुनील (1)
दुनिया का आर्थिक संकट थमने का नाम नहीं ले रहा है। अमरीका के जिस दोयम कर्ज (सब प्राइम लोन) संकट से यह शुरु हुआ, उसको 19 महीने बीत चुके है। निवेश बैंक नाम की जो नयी बैंकिंग प्रजाति अस्तित्व में आई है, उसमें शीर्ष के बीयर स्टर्न्स बैंक को बचाने की घटना को 13 महीने  तथा लेहमन ब्रदर्स के बैठ जाने की घटना को भी सात महीने हो चुके हैं। अभी भी कोई यह विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि इस संकट का सबसे बुरा दौर गुजर चुका है। इसका मतलब है कि इस संकट की जड़े बहुत गहरी है। यह वित्तीय कारोबार से शुरु हुआ, लेकिन यह सिर्फ वित्तीय संकट नहीं है। जिसे ‘असली’  अर्थव्यवस्था कहते हैं, उसके बुनियादी असंतुलनों, विसंगतियों व सीमाओं में इस संकट की जड़ें छिपी हैं। एक तरह से देखें तो यह आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता का संकट है।
अभी भी पूंजीवाद की अजेयता और शाश्वतता में विश्वास रखने वाले इसे महज व्यापार चक्र की एक और कड़ी के रुप में देख रहे हैं। तेजी और मंदी तो आती-जाती रहती है। इस मंदी के बाद फिर ग्राफ ऊपर उठेगा, ऐसा अंधा विश्वास उनका है। लेकिन कब तक ? और तब तक दुनिया के करोड़ों लोगों पर जो बीतेगी ,उसका क्या ? दुनिया के करोड़ों लोगों का रोजगार छिन चुका है, करोड़ों लोग भूख और कुपोषण के शिकंजे में आ चुके हैं। खुद संयुक्त राज्य अमरीका में लाखों लोग बेघर हो चुके हैं। यूरोप में लाखों लोगों के प्रदर्शन, हड़तालें व दंगे हो रहे हैं। आत्महत्याओं की संख्या बढ़ रही है। फिर अभी यह भी तय नहीं है कि पूंजीवाद पूरी तरह इस संकट से उबर पायेगा या नहीं। अभी भी चान्स फिफ्टी-फिफ्टी ही है।
इस संकट ने बाजारवाद की हवा निकाल दी है। जो कल तक कह रहे थे कि बाजार ही सबसे कुशल आबंटनकर्ता है, स्व-नियामक है, उस पर सरकार का नियंत्रण, नियमन और हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, वे ही अब बड़े-बड़े  बैंकों व कंपनियों को बचाने के लिये तथा अर्थव्यवस्था  को मंदी से उबारने के लिये सरकारों के बड़े-बड़े पैकेजों का मुंह जोह रहे है। अब अधिकांश लोग कबूल कर रहे हैं कि बाजारों को पूरी तरह खुला नहीं छोड़ा जा सकता। वित्तीय कारोबारों पर नियमन व नियंत्रण रखना ही होगा। ये नियंत्रण और नियमन हटा लेने के कारण ही ये हालातें पैदा हुई है। सट्टा अभूतपूर्व ऊँचाइयों पर पहुच गया। शेयर बाजार और अन्य सट्टा बाजारों के सूचकांको के इशारे पर सरकारें नाचने लगी थी। बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थाओं का मूल काम था बचतों और निवेश के बीच पुल बनाना। बचतकर्ता व निवेशकर्ता के बीच मध्यस्थता करना। यह मूल काम छोड़कर वे भी सट्टे, जुए और कृत्रिम कमायी में लग गए। इसके लिये नए-नए तरीके निकाले गए, जिन्हें ‘वित्तीय नवाचारों’ का सम्मानजनक शब्द दिया गया। वित्तीय बाजार, जुआघर बन गए। जैसे कोई जादूगर हवा में से या टोप में से चीजें निकाल देता है, वैसी ही बिना कोई आधार के, हवा में समृद्धि बन रही थी। वास्तविक अर्थव्यवस्था के वास्तविक उत्पादन से इसका कोई मेल नहीं था। इसलिए यह एक बुलबुला था, जो फूटना ही था। विडंबना यह थी कि कुछ लोग इस बुलबुले को ही ठोस प्रगति मानने लगे थे। अमरीका-यूरोप के लोग मानने लगे थे कि उनकी समृद्धि, कमाई, उपभोग, कर्ज का विस्तार और  अर्थव्यवस्था की तेजी अंतहीन है। उसकी कोई सीमा नहीं है।
रीगन व थैचर के समय से पूरी वैधता पाए इस विनियंत्रण से एनरॉन और सत्यम जैसे घोटाले होना स्वाभाविक था। इसमें बर्नार्ड मेनाफ जैसे ठग पनपना ही थे। पूंजी निवेश में आकर्षक कमाई का लालच देकर इस अमरीकी नटवरलाल ने 5000 करोड़ डॉलर की ठगी की। उसकी बड़ी धूम व इज्जत थी। पिछले दिसंबर में उसका भंडा फूटा और वह जेल में है। लेकिन बात सिर्फ एक दो आदमी या कंपनी के घोटालों की नहीं है। यह ठगी और लूट अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही है। इस मामले में पिछले वर्ष ही नोबल पुरस्कार पाने वाले अमरीकी  अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमेन की यह स्वीकरोक्ति महत्वपूर्ण है –
‘‘ वास्तव में इन दिनों दुनिया की  अर्थव्यवस्थाओं के बीच अमरीका बर्नार्ड मेडोफ जैसा दिख  रहा है। कई सालों तक उसका बहुत सम्मान था, उसका बड़ा रोब भी था। अंत में पता चला कि वह शुरु से ही एक धोखेबाज ठग था।’’
(2)
अमरीका-यूरोप द्वारा दुनिया की ठगी व लूट का ताजे आर्थिक संकट से गहरा संबंध है। यह लूट किस तरह की है, यह समझने के लिये कुछ तथ्यों पर गौर करें।
एक, पिछले ढाई दशकों से संयुक्त राज्य अमरीका का व्यापार संतुलन लगातार ऋणात्मक रहा है, यानि अमरीका का आयात ज्यादा है, निर्यात कम है। वह शेष दुनिया से जितने मूल्य की वस्तुएं व सेवाएं ले रहा है, उतने मूल्य की बदले में नहीं दे रहा है। यह घाटा समय के साथ बढ़ता गया है। वर्ष 2004 आते-आते यह घाटा संयुक्त राज्य अमरीका की कुल राष्ट्रीय आय के 6 प्रतिशत के बराबर हो गया था। इसका मतलब यह है कि अमरीका अपनी राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत हिस्सा, बदले में कोई वस्तुएं या सेवाएं दिए बगैर हासिल कर रहा है। बदले में वह डॉलर देता है, जो वापस उसे कर्ज के रुप में मिल जाता है।
दो, अमरीका-यूरोप का शेष दुनिया के साथ व्यापार और भी कई मायनो में एकतरफा, गैरबराबर व शोषणकारी है। जैसे कीमतों का गैरबराबर ढांचा। वर्ष 1980 और 2004 के बीच विकासशील देशों की व्यापार शर्तों में 15 प्रतिशत की गिरावट आई है। यानि अमीर देशों के निर्यात महंगे हुए हैं, गरीब देशों के निर्यात सस्ते हुए हैं। पिछले कुछ दशकों में विकासशील देशों का कुछ औद्योगीकरण हुआ है। उनके निर्यातों में औद्योगिक वस्तुओं का हिस्सा बढ़ा है, जबकि पहले प्राथमिक वस्तुओं(कृषि उपज, पशु उपज, वनोपज, खनिज आदि) का ही प्राधान्य रहता था। दूसरी ओर अमीर देशों के निर्यातों में ‘सेवाओं’ का हिस्सा बढ़ा है जिनमें वित्तीय सेवाएं, परिवहन, मनोरंजन, दूरसंचार, पर्यटन, होटल, चिकित्सा, शिक्षा आदि शामिल हैं। अमीर देशों के अनेक उद्योग गरीब देशों को स्थानांतरित हो गए हैं, ताकि वहां के सस्ते श्रम, सस्ते कच्चे माल , पर्यावरण के शिथिल नियमों और स्थानीय बाजार का फायदा उठा सकें । दुनिया के स्तर पर यह एक प्रकार का नया श्रम-विभाजन है। अब अमीर देश स्वयं उत्पादन का काम ज्यादा नहीं करते। दुनिया के गरीब देशों में उत्पादन होता है और वे चीजें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के जरिये सस्ती उनको मिल जाती है। बदले में वे अपनी महंगी कथित ‘सेवाएं’ देते हैं।
तीन, डालर की विनिमय दर भी लगातार कृत्रिम रुप से ऊँची चली आ रही है। उदाहरण के लिए क्रयशक्ति-समता के हिसाब से एक डालर 14-15 रुपए के बराबर होना चाहिए, लेकिन वह 40-50 रुपए बना हुआ है। इससे दुनिया के बाजार में अमरीकियों की क्रयशक्ति कई गुना बढ़ जाती है।
मुद्राओं व कीमतों के ढांचे से अलग करके देखें, तो यह गैरबराबरी और ज्यादा स्पष्ट होती है। जैसे आयात व निर्यात के वजन की तुलना करें, तो दक्षणि अमरीका महाद्वीप जितने टन का आयात करता है, उससे 6 गुना ज्यादा टन निर्यात करता है। इससे उल्टा यूरोपीय संघ जितने टन निर्यात करता है, उससे 4 गुना ज्यादा आयात करता है।
स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और विनिमय पूरी दुनिया के संसाधनों और श्रम को बहुत सस्ते में अमरीका-यूरोप की सेवा में लगाने का तंत्र बन गया है। ‘मुक्त व्यापार’ पर जोर तथा विश्व व्यापार संगठन की स्थापना को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
(3)
इस गैर-बराबर व एकतरफा व्यापार का ही दूसरा पहलू वित्तीय था। डॉलर के अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा होने और उसका अंतर्राष्ट्रीय वर्चस्व होने से ही संयुक्त राज्य अमरीका लगातार इतना बड़ा व्यापार घाटा रख सका । जबसे दुनिया में वित्तीय उदारीकरण हुआ और विदेशी मुद्रा व पूंजी के लेनदेन पर नियंत्रण खत्म होते गए, इससे बाजार में उतार-चढ़ाव बढ़ गए। इससे निपटने के लिये हर देश अब अपने पास विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भंडार रखना चाहता है और यह भंडार डॉलर में रखना चाहता है। इसलिए जापान, चीन, भारत, कोरिया आदि सभी देश अमरीका से अपने निर्यातों के बदले डॉलर खुशी-खुशी लेते रहे। अमरीका के लिए यह बहुत सुविधाजनक था – कागज पर डॉलर छापना और दुनिया से चीजें खरीदते जाना। क्रुगमेन संभवत: इस ठगी की बात कर रहे है।
दिलचस्प बात यह भी है कि ये डॉलर भी घूम-फिर कर वापस अमरीका पहुंच जाते हैं। दुनिया की सरकारें अपना डॉलर भंडार बेकार पड़ा रखने के बजाय निवेश करना बेहतर समझती हैं। इसका सबसे सुरक्षति तरीका अमरीका सरकार की प्रतिभूतियां खरीदना है, भले ही उनका ब्याज डेढ़ – दो प्रतिशत ही मिले। वित्तीय कारोबार में भी अमरीका का ही वर्चस्व है, अतएव डॉलरों का एक हिस्सा अमरीका के निजी बैंकों में भी पहुंच जाता है। यह सब एक तरह से संयुक्त राज्य अमरीका पर कर्ज बनता गया, लेकिन उसकी परवाह उसे नहीं रही। काफी समय से वह दुनिया का सबसे बड़ा विदेशी कर्ज वाला देश है। पिछले 5 वर्षों में उस पर विदेशी कर्ज 72 प्रतिशत बढ़ा।
इस तरह, दुनिया के विकासशील देश ‘निर्यातोन्मुखी विकास’ के भुलावे में अमरीका को निर्यात करते रहे और बदले में अमरीका उनको डॉलर की कागजी मुद्रा या फिर अपने सरकारी बॉन्ड पकड़ाता रहा। चीन के बारे में इन दिनों अमरीका में एक मजाक प्रचलित है, ‘चीन ने हमें विषैले खिलौने और सड़ी मछलियां बेची, हमने उनको जाली प्रतिभूतियां बेची।’
इस तरह पूरी दुनिया से आते पेट्रो डॉलर, यूरो डॉलर, जापानी डॉलर और फिर चीनी डॉलरों ने अमरीका म पूंजी की बहुतायत कर दी। उन्होनें अपने नागरिकों को सस्ते उपभोग कर्ज बांटना शुरु कर दिया। इससे अमरीका में एक तरह की तेजी एवं समृ्द्धि का आभास बनाए रखने में मदद मिली। क्रेडिट कार्ड वाली संस्कृति का विस्फोट इसी समय हुआ। अमरीकियों ने बचत करना बंद कर दिया। पूरा देश उधार पर चलने लगा और ‘ऋणम् कृत्वा घृतम् पिबेत्’ की उक्ति को चरितार्थ करने लगा।
पूंजी और कर्ज की इस बहुतायत और मुनाफों के लालच ने ही सब प्राईम लोन जैसे संकट को जन्म दिया। अमरीका के बैंकों ने ऐसे नागरिकों को घर बनाने के लिए ऐसे कर्ज दिए, जिनको चुकाने लायक कमाई उनकी नहीं थी। फिर इन कर्जों को बैंकों ने दूसरी वित्तीय संस्थाओं को बेच दिया या बंधक बना कर और पूंजी उठा ली। उनकी वित्तीय संस्थाओं ने पुन: उनके पैकेज बनाकर बेच दिया। इस तरह कर्जों का एक ऐसा जटिल, अपारदर्शी, बहुपरती कारोबार खड़ा हो गया, जिसमें वास्तविक जोखिम का पता ही नहीं चलता था।
गृह ऋण देने वाले बैंक, जोखिम के बारे में इसलिए भी आश्वस्त थे कि किश्त न मिलने पर मकान कुर्क करके नीलाम कर देगें। मकानों और जमीनों की कीमतें लगातार बढ़ रही थी, जिसका एक कारण खुद गृह ऋणों की भारी संख्या से आई तेजी थी। लेकिन ये बैंक इस पूरी व्यवस्था मे बडे स्तर पर बन रही कृत्रमिता, अस्थिरता व जोखिम को समझ नहीं पाए और यही उनकी गलती थी। जब बड़ी संख्या में मकानों को नीलाम करना शुरु किया, तो उनकी कीमतें तेजी से गिरने लगी। नतीजा यह हुआ कि मकानों की कुर्की-नीलामी से भी ऋण वसूली संभव नहीं हुई। यही संकट की शुरुआत थी। बैंक फेल होने लगे। चूंकि इन कर्जों मे कई तरह की वित्तीय संस्थाओं की पूंजी फंसी थी, और आपस में काफी लेन-देन था, कई अन्य बैंक व बीमा कंपनियां संकट में आ गए। फिर तो यह संकट फैलता गया और पूरी दुनिया में छा गया।
पॉल क्रुगमेन ने इसी हालत का जिक्र करते हुए लिखा है- ‘‘पिछले दशक के ज्यादातर हिस्से में अमरीका उधार लेने और खर्च करने वालों का राष्ट्र था, बचतकर्ताओं का नहीं। निजी बचत दर अस्सी के दशक में 9 प्रतिशत से गिरकर नब्बे के दशक में 5 प्रतिशत हुई और 2005 से 2007 के बीच मात्र 0.6 प्रतिशत रह गई। घरेलू कर्ज निजी आय के मुकाबले तेजी से बढ़ा। किन्तु हाल तक अमरीकी लोग विश्वास करते रहे कि वे ज्यादा अमीर बन रहे हैं, क्योंकि उनके मकानों और शेयरों के मूल्य उनके कर्जों से ज्यादा तेजी से बढ़ रहे थे। उनका विश्वास था कि वे इस पूंजी-लाभ पर हमेशा के लिए भरोसा कर सकते हैं। अंत में असलियत सामने आई। संपत्ति के मूल्यों में बढ़ोत्तरी एक भ्रम था, किन्तु कर्जों की बढ़ोत्तरी वास्तविक थी।’’
एक अन्य जगह पर क्रुगमेन ने इस संकट को ‘अति-भोग का प्रतिशोध’ कहा है।

( जारी )

( लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय अध्यक्ष है।)

सुनील
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