देश भर में आज़ादी के लिए लड़े गये १८५७ के पहले संग्राम की १५० वीं जयन्ती मनायी जा रही है। बनारस के शिवाला मोहल्ले में गंगा के घाट पर चेतसिंह का किला है , उसकी तहसील है और हमारे दल समाजवादी जनपरिषद का प्रान्तीय दफ़्तर की कोठरी भी । हमारे दफ़्तर जाने की गली में तीन उपेक्षित – सी कब्र हैं । ये कब्र पुरानी ईंटों की एक जर्जर हो रही दिवाल से घिरी हैं और उन पर अँग्रेजों द्वारा लगवाया गया शिलालेख है (चित्र देखें)। संयुक्त प्रान्त की सरकार ने १७ अगस्त , १७८१ को तीन अँग्रेजों समेत मारे गए उनके २०० सिपाहियों के दौरान-ड्यूटी मारे जाने का उल्लेख उक्त शिलालेख पर किया है। यह तीन कब्र हमें १८५७ से ७६ साल पहले हुए ‘बनारस-विद्रोह’ की याद दिलाते हैं। साहित्य-रसिक पाठक जयशंकर प्रसाद के कहानी गुण्डा याद कर सकते हैं।कहानी का नायक गुण्डा इसी विद्रोह में हिस्सा लेता है।[कोई साहित्यिक चिट्ठेकार इस कहानी को प्रस्तुत कर दे तो मजा आ जाए।] मोतीचन्द लिखित काशी का इतिहास ( विश्वविद्यालय प्रकाशन , चौक , वाराणसी ) में भी घटनाक्रम का विवरण है ।यहाँ पी. ई. रॉबर्ट्स के ‘हिस्टरी ऑफ़ ब्रिटिश इन्डिया’ , पृष्ट २०१ – २०८ से गुरुदर्शन सिंह द्वारा किए गए अनुवाद से तथ्य लिए गए हैं ।
१८वीं सदी के सातवें दशक में दक्षिण भारत में हैदर अली , मोहम्मद अली , मराठों और फ़्रान्सीसियों से लड़े गये युद्धों ने ब्रिटिश कम्पनी का खजाना निचोड़ डाला था। गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स कम्पनी के दिवालिएपन की स्थिति से ‘मुकाबला’ करने के लिए तरकीबें सोच रहा था ।
बनारस राज अवध के नवाब के अधीन था । १७७५ में बनारस – सन्धि हुई जिसके तहत बनारस-राज्य की जमीनें कम्पनी से पायी हुई मानी जाने लगीं । १७७८ में फ़्रांस से युद्ध छिड़ने पर हेस्टिंग्स ने राजा बनारस चेतसिंह के पहले से तयशुदा २२५ हजार पाउन्ड सालाना ख़िराज के अतिरिक्त २५ हजार पाउण्ड ऐंठने का मन बनाया। राजा ने कहा कि इतनी ज्यादा अतिरिक्त राशि की वसूली एक साल तक सीमित की जाए और इसे भी किश्तों में चुकाने दिया जाए। राजा ने ६ – ७ माह की मोहलत माँगी ।कम्पनी ने उसे पाँच दिन में रकम चुकाने का हुक्म दिया।
१७८० में ५ लाख अतिरिक्त रुपयों की माँग फिर की गयी । चेतसिंह ने एक विश्वासपात्र के हाथों २ लाख रुपए हेस्टिंग्स को कोलकाता बतौर रिश्वत भिजवाए ताकि अतिरिक्त वसूली न हो ।
इन वसूलियों के बावजूद हेस्टिंग्स ने राजा को खिराज वसूली से विमुक्त नहीं किया।अगली बार राजा को दो हजार घुड़सवार भेजने को कहा गया।इसका विरोध करने पर यह संख्या १ हजार कर दी गयी लेकिन राजा ने ५०० घुड़सवार और ५०० बन्दूकधारी भेजे ।हेस्टिंग्स ने इस गुस्ताखी की प्रतिक्रिया में ५० लाख रुपए का जुर्माना थोपने का मन बना लिया था। हेस्टिंग्स ने इस विषय में आगे कहा भी , ‘ मैं फैसला कर चुका था कि राजा के दुष्कर्मों के बदले में उससे धन निचोड़ कर इस धन का इस्तेमाल कम्पनी को उसके संकटों से राहत दिलाने में किया जाये। मैं इस पर भी संकल्पबद्ध था कि या तो राजा माफ़ किए जाने के बदले उससे विशाल धनराशि वसूली जाए या उसकी भीषण बचकानी हरकतों का उससे भीषण बदला लिया जाए । ‘
हेस्टिंग्स जुलाई १९७९ में कोलकाता से चला ।चेतसिंह उससे बतियाने भाग कर बक्सर आया और दीनहीन भाव से याचना करने लगा।हेस्टिंग्स ने बनारस पहुँचने के पहले जवाब देने से इनकार कर दिया। बनारस पहुँचने पर उससे मुलाकात नकार कर उसे याचना लिख कर देने को कहा गया।राजा के साथ हेस्टिंग्स के व्यवहार के मद्दे नजर राजा के उक्त पत्र को आदरयुक्त माना जाएगा लेकिन हेस्टिंग्स ने उस जवाब को न केवल अपर्याप्त बताया अपितु आक्रामक भी बताया।
हेस्टिंग्स की अपनी फौज काफ़ी कमजोर थी , फिर भी उसने राजा की गिरफ़्तारी का आदेश दे दिया।राजा ने बिना प्रतिकार गिरफ़्तारी दी लेकिन राजा की फौज उसे अपने ही राज में जलील होता देख बरदाश्त न कर सकी। जनता और चेतसिंह के सैनिकों ने ३ ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों और ब्रिटिश सेना के २०० सैनिकों को मार डाला। इस हंगामे के दौरान चेतसिंह भाग निकला। हेस्टिंग्स भी जनता और बनारस के सैनिकों का तेवर भाँप कर चुनार की ओर भागा।
चेतसिंह अंग्रेज सैनिकों की हत्या से खुद को अन्जान बताता रहा और उसने ग्वालियर में शरण ली। [ चेतसिंह के ग्वालियर में शरण पाने के बारे में मुझे अपने अज्ञान के कारण विस्मय हुआ।विस्मय का कारण सुभद्राकुमारी चौहान की बचपन में कण्ठस्थ , यह पंक्तियाँ थीं ; ‘अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी ।’ मार्क्सवादी विचारक और इतिहासकार गुरुदर्शन सिंह ने स्पष्ट किया कि ग्वालियर रजवाड़ा पहले अंग्रेजों के खिलाफ़ था ,फिर चिंगुर कर मित्र बन गया। ]
चेतसिंह का राज-काज जब्त उसके भतीजे को सुपुर्द कर दिया गया। नये राजा को पहले से तयशुदा २२.५ लाख सालाना खिराज देने के बजाए ४० लाख रुपए सालाना खिराज कोलकाता भेजने का हुक्म हुआ।
बनारस के विद्रोह का १८५७ की क्रान्त की पृष्टभूमि में एक महत्वपूर्ण योगदान माना जाना चाहिए।
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१८५७ के आज़ादी के प्रथम समर तथा बहादुरशाह ज़फ़र पर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का भाषण निरंतर-पत्रिका में पढ़ें ।
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मुझे नहीं पता था बनारस विद्रोह के बारे में.. वो भी ७६ साल पहले।
प्रसाद की गुण्डा को कौन छापे यह अथक परिश्रम फुरसतिया जी के बस मे है। यदि मिलकर छापनी हो तो हमहुं तीन दिन में पंद्रह नपन्ना टाइप करने का वादा करते हैं।
चैतसिंह ग्वालियर जाकर छिप गए थे। सुभद्रा चौहान की रचना में उल्लेख और फिर चैतसिंह वाली बात से मुझे भी जानकारी हुई कि संघर्ष तो सिंधिया ने भी किया था किंतु बाद में हाथ मिला लिए।
प्रसाद जी की कहानी “यहाँ क्लिक कर के
देखी जा सकती है।
बहुत बढ़िया जानकारी. धर्मपाल जी अक्सर कहा करते थे बनारस की क्रांति. आज उसको विस्तार से पढ़कर कई जानकारी मिली. धर्मपाल जी नो एक बात और कहा है कि असहयोग का सबसे पहला प्रयोग बनारस में हुआ था और गांधी के भारत आने से बहुत पहले. संभववतः गांधी जी ने उसी बनारस के असहयोग से प्रेरणा ली थी. इस बारे में आपको कुछ पता है क्या?
अभी साहित्य अमृत में एक लेख छपा है देवेन्द्र स्वरूप का. जिसमें उन्होंने विस्तार से बताया है कि 1857 की क्रांति के पीछे पूरबियों (पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार) का कितना बड़ा योगदान था. वे तो यहां तक निष्कर्ष निकालते हैं कि पूरब के लोग नहीं होते तो 1857 की क्रांति होती ही नहीं.
मुझे ऐसा लग रहा है कि बाबू भारतेंदु जी ने इस शिलालेख पर कुछ लिखा है। घंटे भर से खोज रहा हूँ पर भारतेंदु समग्र मिल ही नहीं रहा।
शायद बहती गंगा में भी उक्त विद्रोह का हवाला है।
मैं कोशिश करता हूँ कि गुंडा छाप दूँ । आज कल मेरी गति मुझे लगता है कि अच्छी हो गई है। भदोही के आसपास आज भी मैदान छोड़ कर भागने वाले को राजा चेतसिंह उपाधि देते हैं।
वाह, ये सब हमें नहीं पता था । अगर फिल्मी दुनिया का कोई व्यrक्ति पढ़ रहा होगा तो उसे इसमें किसी फिल्मथ के बीज दिख जायेंगे । ग़ज़ब का इतिहास रहा है ये ।
[…] सैनिकों के छक्के छुड़ाने वाले इस मोहल्ले की चर्चा इस चिट्ठे पर पहले हुई है । साहित्यकार […]
[…] १८५७ से ७६ साल पहले […]
[…] १८५७ से ७६ साल पहले […]
Afloo’Da,
This is some remarkable research you have done. Although, it makes me sad to review it. Our propensity to follow and be subservient to the “Shaasak varg” whether moghul or British is disgusting. This revulsion is in response to why and how we became so complacent that we sniveled and grovelled to whomever walked in on our country’s soil. In a way it is good that we dont learn history as it is well.