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रामचरितमानस लिखते वक्त तुलसीदास को काशी के एक छोर से दूसरे छोर तक जगह बदलनी पड़ी थी । उस दौर के सनातनी चाहते थे कि मानस लोकभाषा में न हो , संस्कृत में हो। तुलसीदास द्वारा स्थापित अखाड़ों के पहलवानों ने जरूर उनका साथ दिया होगा । अमृतलाल नागर के ‘ मानस का हंस ‘ के अनुसार मानस की रचना के दौरान तुलसी अयोध्या भी रहे । कैसे रहे ? खुद तुलसी के शब्दों में ‘ माँग के खईबो , मसीद में सोईबो ‘ । मसीद यानी मस्जिद । कहा जाता है कि बनारस में तुलसी जहाँ आखिर में पहुँचे वहाँ मानस की मूल पाण्डुलिपि की राम और लक्ष्मण ने रक्षा की । तुलसीदास ने रामलीला भी शुरु की। लीला के दौरान संवादों के बीच अचानक नेपथ्य से आवाज आती है – ‘ राम आसरे ‘ और इस कूट लफ़्ज़ को सुनते ही संवाद थम जाता है और गीत मण्डली ‘ ए हा ..’ की टेर के साथ दृश्य से सम्बन्धित चौपाई (मानस से)गाने लगती है । मुझे यह भी लगता कि जब पात्र अपना संवाद भूलने लगते थे तब भी ‘ राम आसरे ‘ – तकनीक का सहारा लिया जाता था । मानस की लोकभाषा , जनता में उसका पाठ करने वाले , अखाड़ों के पहलवान , या राम-लीला की गीत मण्डली – जनता के मानस पर मानस की अमिट छाप डालने में इन सब का योगदान है।
मानस लेखन के अन्तिम पड़ाव का नाम अब तुलसी घाट है । एक छोटे से मन्दिर में मानस की हस्तलिखित प्रति रखी है तथा हनुमान की प्रतिमा है । मैंने बनारस में एक मित्र के पास रामचरितमानस की एक हस्तलिखित प्रति देखी है जिसमें ‘ वर्णानांअर्थसंघानाम..’ के पहले औरंगजेब की स्तुति है ।
बहरहाल , रचना और अभिव्यक्ति की यह जो बातें तुलसीघाट पर बैठ कर याद आ सकती हैं उन्हें धता बता कर ‘संस्कृति-रक्षा’ के नाम पर मुष्टिमेय लोगों द्वारा दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ के सेट को तोड़ा-फोड़ा गया, उसी घाट पर । तत्कालीन राज्य सरकार की मदद से दीपा मेहता की टीम को काशी से विदा भी कर दिया गया । इस घटना के तुरन्त बाद बनारस के स्त्री सरोकारों के साझा मंच ‘समन्वय’ की पहल पर कवि,लेखक ,रंगकर्मी तुलसीघाट पर जुटे । नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान कुँवरजी अग्रवाल और कवि ज्ञानेन्द्रपति की इस पहल में भागीदारी उल्लेखनीय थी। ज्ञानेन्द्रपति ने काशी के भजनाश्रमों पर अपनी कविता ‘टेर’ का प्रथम पाठ किया। सती-प्रथा पर रोक के बाद विधवाओं को काशी और वृन्दावन में ऐसे भजनाश्रमों में छोड़ दिया जाता था ।
तुलसीघाट पर बने छोटे से मन्दिर को आच्छादित करनी वाला संकटमोचन मन्दिर के महन्त प्रोफेसर वीरभद्र मिश्र का विशाल – भवन , उनका अतिथि-गृह और उनके ‘स्वच्छ-गंगा अभियान’ की उनकी प्रयोगशाला हैं । गरीब मुल्कों को अमेरिकी मदद देने वाली एजेन्सी USAID द्वारा भी अभियान की परियोजना को धन मिला है । यह एजेन्सी विश्व बैंक से ज्यादा पैसा बाँटती है । क्लिन्टन जब आगरा आए थे तब महन्तजी को उनका खास बुलावा मिला था । संकटमोचन मन्दिर में चढ़ाया गया धन बोरों में भर कर एक जोंगा जीप से तुलसीघाट आता था। पहली बार मैंने जब उन सिक्कों के गिनती की आवाज सुनी थी तब अमृतसर के स्वर्णमन्दिर के प्रवेश-द्वार की ऊपरी हिस्से में कारसेवकों द्वारा चढ़ावे की गिनती की ठन-ठन-ठन का स्मरण हुआ था ।
महन्तजी का बैठका गंगाभिमुख है । आप इस दरबार में बैठे हैं और गंगा की ओर से तेज पुकार सुनाई पड़ती है ” वीरभद्र मिश्रम- गंगा प्रदूषणम , बन्दर का दिया खाते हो – काशी के बन्दर भूखों मर रहे हैं ” । यहाँ बन्दर का प्रथम प्रयोग संकटमोचन हनुमान के लिए हुआ है। ‘मिश्रम’ और ‘प्रदूषणम’ में पण्डितों के गढ़ अस्सी-भदैनी में व्याप्त संस्कृत के प्रभाव का पुट है। ललकार सुन कर दरबार में कुछ देर चुप्पी छा जाती है । यह ललकार हुआ करती थी महन्तजी के पड़ोसी शम्भू मल्लाह की । शम्भू को बुलवा कर उसका ‘मुँह बन्द’ करवाया जाता । लंका और भेलूपुर थाने की पुलिस डूबे हुए लोगों की लाश निकालने के लिए शम्भू पर पूरी तरह आश्रित रहती थी। अस्सीवासी मानते हैं कि गंगा जल की शीतलता का मुकाबला करने के लिए दारू की गर्मी जरूरी होती होगी । नाटे के कद के शम्भू , घुटने तक की धोती और ऊपर लाल बनारसी अँगोछा ओढ़ते।शम्भू अपनी मूँछों में मुस्काते और एक विशिष्ट ताल में झूमते हुए ललकारते ‘ पीपल के नीचे खड़ी हो , कदम्ब से आँख लड़ाती हो !’ – तब लोगों को इस सूत्र में भी कोई दर्शन या अक्खड़ी आध्यात्म छुपा लगता ।
गंगा में लम्बे समय तक डुबकी लगाने के आदि शम्भू को एक बार कुँए में डूबे व्यक्ति की लाश निकालने के लिए कुदाया गया और पत्थर से टकरा कर उनकी मौत हो गयी ।
भइया आपके इसी बनारसी रंग पर तो हम फिदा हैं. बहुत सुंदर लिखा है, और लिखिए, बनारस पर जो मिले जितना बन पड़े लिखिए. बनारसी होने का कर्ज़ जितना चुका सकते हैं, चुकाइए. धन्यवाद
ग़ज़ब की शैली है। गहरे अर्थों से बुनी गई कुछ लाइनें प्रभावी लगीं..
–मैंने बनारस में एक मित्र के पास रामचरितमानस की एक हस्तलिखित प्रति देखी है जिसमें ‘ वर्णानांअर्थसंघानाम..’ के पहले औरंगजेब की स्तुति है।
–गंगा में लम्बे समय तक डुबकी लगाने के आदि शम्भू को एक बार कुँए में डूबे
ए हा ..’ की टेर के साथ चौपाई बचपन में अपन ने भी गाई है। उन दिनों घर घर रामायण का सामूहिक पाठ हुआ करता था और जिसके लिए घर के दरवाज़े पर आकर बुलौआ दिया जाता था कि- ”माताराम, बहन जी.. बजरिया मोहल्ला वाले तिवारी जी के यहां शनिचर को रामायण है। ज़रूर आना”’
ख़ैर साब, हमारे लिए रामायण के पठन-पाठन से ज़्यादा वहां जाकर खेलना कूदना अहम होता था। बाद इसके प्रसाद वितरण में सबसे आगे।
म्व्र्व ख्याल से यह मसीद में सोईबो ‘ असीद नही मसीत यानी मस्ती मे सोईबो है
म्व्र्व ख्याल से यह मसीद में सोईबो ‘ मसीद नही मसीत यानी मस्ती मे सोईबो है
सेक्युलरिज्म के हित में यही है कि मसीद का अर्थ मसजिद मान लिया जाय।
जाकी रही भावना जैसी…
secularism ke naam par arth ka anarth karna secularism ke liye ghatak siddh hua hai…….secularists ki credibility par sawal uthte hain
बनारस में वीरभद्र मिश्र भी हैं और शम्भु मल्लाह भी . शम्भु मल्लाह के लिए ‘थे’ कहना अज़ीब सा लग रहा है . गंगा के विस्तार और गहराई से जूझने वाला यह मल्लाह कुएं से सिर फोड़ कर मरा . क्या विडम्बना है .
‘ पीपल के नीचे खड़ी हो , कदम्ब से आंख लड़ाती हो ‘ में तो हमें कोई कबीरी नुस्खा छुपा दीखै .
बनारस का असल रंग दिखा। एक दम बहती गंगा का सा असर है।कुछ और छापिए। आनन्द आया पढ़कर।हर बनारसी शंभू के लहजो में बात करता है। सीधा तो किसी को बोलते आज तक हमने पाया नही।
शम्भू गुरु प्रभावी है.. लेकिन सारे रोब दाब के बाद उनको भी मुँह बंद करना ही पड़ता है.. यहीं मार खा गया न हिन्दुस्तान..
सही है.. अनामदास की आग्रह के नीचे मेरा नाम भी लिखा देखें..
वाह बनारस!! आह बनारस!
बनारस पर हम भी फ़िदा हैं, एक हफ़्ते बस ही गुजारे हैं पर फ़िर भी, देखिए फ़िर कब मौका मिलता है!
शुक्रिया!
बहुत बढिया लिखा है। एक नयी जान कारी भी दी है।बधाई।-
” मानस लेखन के अन्तिम पड़ाव का नाम अब तुलसी घाट है । एक छोटे से मन्दिर में मानस की हस्तलिखित प्रति रखी है तथा हनुमान की प्रतिमा है । मैंने बनारस में एक मित्र के पास रामचरितमानस की एक हस्तलिखित प्रति देखी है जिसमें ‘ वर्णानांअर्थसंघानाम..’ के पहले औरंगजेब की स्तुति है ।”
बनारस तो दो बार मैं भी गयी हूँ, सात वर्ष व पाँच वर्ष पहले । लगता है कि सारे संसार में ऐसा शहर और कोई भी न होगा । अपने ही ढंग व गति से चलता यह शहर मन मस्तिष्क में एक अनूठी छाप छोड़ देता है । आपका लेख बहुत पसन्द आया ।
घुघूती बासूती
काफी अच्छा लिखा है 🙂
अच्छा लगा यह संस्मरण पढ़कर!
संस्मरण लिखने में आपकी शैली मजेदार है, अच्छा लगा।
After reading the column, i suddenly find me very closed to river ganges near reewa kothi & tulsi ghat, which was once upon a time seltre for many piligrims from many part of the country. Now ghats of ganga are being coverted to the new look for attracting the foreign people & tourists. Gradualy banaras the capitle of the culture & phylosophy is also going on the path of globalizations . Religion & phylosophy are also ready for getting corporatization shape by new age technocrates like different so called “Mahant ji”.
आज यह रचना पुनः पढ़ी और सारी जानकारी अपनी एक वरिष्ठ पत्रकार साथी को दी. भाई प्रियंकर ने जानकारी दुरुस्त की है.
आहा … बनारस की मस्ती के क्या कहने … किसी अपरिचित से भी मिलो तो लगता है जाने कब की पहचान है … ये मस्ती तो शायद ही कहीं और मिलती हो … बनारस देखने की चीज़ नहीं महसूस करने का भाव है …… बहुत सुन्दर प्रस्तुति .. आगे भी ज़रूर लिखें ..
[…] ” बन्दर का दिया खाते हो ? “ […]
[…] ” बन्दर का दिया खाते हो ? “ […]
tumhu khub chochak likhe rahe. Shambhu nahi rahe jaankar dukh hua!! vastav me Banrashi fakadpan aur darshan ka pratik theShambhu Mallah. Kashi8vas ke dauran wo bhi Assighat per rahne ke dauran kai mahnubhavo ke darshan aur janane ka labh mila. ab kabhi Pappu aur Poi per bhi kuch likh dalo bhai.
sesneh
atal
सब देखा भाला महसूस किया है लेकिन आज आपकी शैली में ज्यों का त्यों पढ़ना हृदय को छू गया। हाय रे शंभू मल्लाह! काशी ऐसे ही अनगिनत जीवट के धनी और खरी जुबान में बोलने वालों की वज़ह से निराली रही..है।
[…] ‘ । मसीद यानी मस्जिद । कहा जाता है https://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2007/08/03/banarastulsi-ghatshambhoo-mallah/ ***************************************************************** […]