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Posts Tagged ‘vinoba’

” गांधी – एक सख़्त पिता । जेपी – एक असहाय मां । विनोबा – एक पुण्यात्मा बड़ी बहन ।
लोहिया – गांव-दर-गांव भटकने वाला यायावर । अम्बेडकर – पक्षपाती हालात से नाराज होकर घर से बाहर रहने वाला बेटा ।
यह है हमारा हमारा कुटुंब । हम हैं इस परिवार की संतान। इसे और किस नजरिए से देखा जा सकता है ?”
– देवनूर महादेव , (प्रख्यात कन्नड़ साहित्यकार और अध्यक्ष , सर्वोदय कर्नाटक पक्ष)

देवनूर महादेव

अध्यक्ष ,सर्वोदय कर्नाटक पक्ष

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इस्लाम ने ब्याजखोरी का भी तीव्र निषध किया है । सिर्फ़ चोरी न करना इतना ही नहीं , आपकी आजीविका भी शुद्ध होनी चाहिए । गलत रास्ते से की गई कमाई को शैतान की कमाई कहा गया है । इसीलिए ब्याज लेने की भी मनाही की गई है । कहा गया है कि सूद पर धन मत दो , दान में दो ।

मोहम्मद साहब को दर्शन हुआ कि ब्याज लेना आत्मा के विरुद्ध काम है । कुरान में यह वाक्य पाँच-सात बार आया है – ” आप अपनी दौलत बढ़ाने के लिए ब्याज क्यों लेते हैं ? संपत्ति ब्याज से नहीं दान से बढ़ती है । ” बारंबार लिखा है कि ब्याज लेना पाप है , हराम है । इस्लाम ने इसके ऊपर ऐसा प्रहार किया है , जैसा हम व्यभिचार या ख़ून की बाबत करते हैं । परंतु हम तो ब्याज को जायज आर्थिक व्यवहार मानते हैं ! वास्तव में देखिए तो ब्याजखोरी, रिश्वतखोरी वगैरह पाप है । ब्याज लेने का अर्थ है , लोगों की कठिनाई का फायदा उठाते हुए पैसे कमाना । इसकी गिनती हम लोग कत्तई पाप में नहीं करते ।

वास्तव में देखा जाए तो अपने पास आए पैसे को हमें तुरंत दूसरे की तरफ़ धकेल देना चाहिए । फ़ुटबॉल के खेल में अपने पास आई गेंद हम अपने ही पास रक्खे रहेंगे , तो खेल चलेगा कैसे ? गेंद को खुद के पास से दूसरे को फिर तीसरे को भेजते रहना पड़ता है , उसीसे खेल चलता है । पैसा और ज्ञान , इन्हें दूसरे को देते रहेंगे तब ही उनमें वृद्धि होगी ।

मेरा मानना है कि ब्याज पर जितना प्रहार इस्लाम ने किया है किसीने नहीं किया है । ब्याज पर इस्लाम ने यह जो आत्यंतिक निषेध किया है , उसको समाज को कभी न कभी स्वीकार करना ही पड़ेगा । वह दिन जल्दी आना चाहिए , हमें उस दिन को जल्दी लाना चाहिए । एक बार ब्याज का निषेध हो गया , तो संग्रह की मात्रा बहुत घट जाएगी । इस्लाम ने ब्याज न लेने का यह जो आदेश दिया है , उसका यदि अमल किया जाए तो पूँजीवाद का ख़ातमा ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाएगा । जिसे हम सच्चा अर्थशास्त्र कहते हैं उसके बहुत निकट का यह विचार है । मुझे लगता है कि साम्यवाद की जड़ का बीज मोहम्मद पैगम्बर के उपदेश में है । वे एक ऐसे महापुरुष हो गये जिन्होंने ब्याज का निषेध किया तथा समता का प्रचार किया । इस उसूल को उन्होंने न सिर्फ़ जोर देकर प्रतिपादित किया बल्कि उसकी बुनियाद पर संपूर्ण इस्लाम की रचना उन्होंने इस प्रकार की , जैसी और किसी ने नहीं की ।

वैसे तो ब्याज लेने की बात पर सभी धर्मों ने प्रहार किया है । हिंदु धर्म ने ब्याज को ’ कुसीद ’ नाम दिया है , यानि खराब हालत बनाने वाला, मनुष्य की अवनति करने वाला । उसके नाम मात्र में पाप भरा है । ब्याज न लेना यह चित्तशुद्धि का काम है , पापमोचन है । ब्याज लेना छोड़ना ही चाहिए । वैसे, ब्याज के विरुद्ध तो सभी धर्मों ने कहा है परन्तु इस्लाम जितनी स्पष्टता और प्रखरता से अन्य किसी ने भी नहीं कहा है ।

जारी

[ अगला : धर्म के मामले में कदापि जबरदस्ती नहीं की जा सकती ।

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प्रकृति – लय के साथ सुसंवादी जीवन का लय

पिछला भाग ।  इस प्रकार सूर्य हमारे जीवन से गहन रूप से सम्बद्ध है । उसके लय के साथ यदि हमारे जीवन का लय मिला होगा तो इससे हमारा जीवन सुसंवादी बनेगा । अपनी आंखों के सामने हम रोज सूर्य की दो प्रक्रियाओं को देखते हैं । शाम को सूर्यनारायण अस्त होते हैं , तब पूरी दुनिया अव्यक्त में लीन हो जाती है तथा सुबह सूर्योदय होता है , तब फिर व्यक्त का विस्तार होता है । यह प्रक्रिया रोज-ब-रोज चल रही है । रात में हम कहां जाते हैं , मालूम नहीं । अवश्य कहीं जाते हैं तथा बहुत शान्ति पा कर लौटते हैं । हम जहां पहुंचते हैं वहां ‘अहं’ का होश हमे नहीं रहता । एक सिंह सोया हुआ है । निद्रावस्था में उसे इसका ख्याल नहीं है कि वह खुद ‘सिंह’ है । मनुष्य भी जब सोता है तब उसे होश नहीं रहता है कि वह खुद ‘मनुष्य’ है । अर्थात निद्रावस्था में सभी अपने मूल स्वरूप में पहुंच जाते हैं तथा सब का मूल स्वरूप एक ही है । इस बात की थोड़ी अनुभूति गाढ़ निद्रा के दौरान होती है ।इसके पश्चात हम फिर जागृत हो कर अपने – अपने स्वरूप में लौट कर भिन्न – भिन्न कामों में लग जाते हैं ।

    अर्थात हमें प्रकृति की घटनाओं के प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए , बल्कि प्रकृति के लय के साथ अपना लय मिलाए रखने की कोशिश करते रहना चाहिए । वेद में कहा गया है , ‘ श्रेष्ठै रूपै स्तन्वं स्पर्शयस्वं ‘  – सूर्य के श्रेष्ठ रूपों से शरीर का स्पर्श होने दो । इस प्रकार , सूर्य हमारा परम मित्र है । मित्र के सभी लक्षण हम सूर्य में देख सकते हैं ।

जनहित काज

जनहित काज

जीवन – दर्शन की विशेषता का द्योतक

    हिन्दुस्तान में ‘मैत्री’ शब्द का उच्चारण पहली बार वेद भगवान ने किया तथा उसका उदाहरण सूर्यनारायण का दिया । वेद में सूर्य को ‘मित्र’ कहा गया । यह हमारी संस्कृति की विशेषता है । हमारी संस्कृति का यह एक विशेष दर्शन है । जहाँ यह दर्शन नहीं है वहाँ इस बात को ढंग से समझना मुश्किल होता है । वहाँ इससे बिलकुल जुदा अभिगम देखा जा सकता है । ऋगवेद में एक मंत्र है , ‘ सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषाम्भ्येति पश्चात ‘  । ऋगवेद के अंग्रेजी अनुवादक ग्रिफिथ ने इसका अर्थ ऐसा किया है – Like a young man followeth a maiden , so doth th sun thee dawn. जैसे कोई युवक एक तरुणी के पीछे जाता है , वैसे ही सूर्य ऊषा के पीछे आता है । ग्रिफिथ ने ऐसा अर्थ किया। मैं इसका अर्थ ‘मेडन’ ( तरुणी ) करने के बजाए ‘ मदर’ ( माता ) कर रहा हूँ । ऊषा माता है और उसके उदर से सूर्य निकलता है । आगे ऊषा है , उसके पीछे सूर्य है । ऊषा माँ है , पत्नी नहीं ।’

    जीवन – दर्शन की ऐसी विशेषता के कारण ही हमने सूर्य को मित्र माना है । सूर्य हमारा परम मित्र है ।

( संकलित , संकलन – कांति शाह , मूल गुजराती ‘भूमिपुत्र’ से , अनुवाद – अफ़लातून )

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सूर्य के उदय – अस्त भी हमारे लिए बोधदायक हैं । सूर्य के उदय – अस्त की भांति मनुष्य की वृत्ति का भी उदय – अस्त होता रहता है । इन प्रक्रियाओं के कारण सृष्टि में ताजगी रहती है , बासीपन नहीं आता । सूर्योदय , सूर्यास्त हमेशा ताजे लगते हैं । यदि हम प्रकृति के साथ एकरूप हो जाते हैं तथा सूर्य के उदय – अस्त पर गौर करने की आदत डालते हैं , तब हमारे जागने पर हमारे लिए जीवन नया होगा , हमारा मन ताजा होगा । हर शाम मन को तथा उसकी आदतों को व्यवहार से , जीवन से तथा खुद से अलग कर परमात्मा की गोद में सो जांए , गहरी नि:स्वप्न निद्रा का अनुभव करें , तब सुबह मन के ताजे होने की अनुभूति होगी तथा जीवन में दु:ख न होगा । नाहक ही हम भांति भांति के बोझ लादे घूमते हैं । ईश्वर हम पर बोझ नहीं डालना चाहता , हम खुद अपने माथे पर बोझ उठा लेते हैं । उसीसे हमारे आनन्द का ह्रास होता है । सही देखा जाए तो ऐसा नहीं होना चाहिए ।

    समझने लायक बात यह है कि मानव – जीवन में सुख – दु:ख के प्रसंग टाले नहीं जा सकते , यह निश्चित है । वे आते – जाते रहेंगे , यह पक्का है । परन्तु हमें इन अवसरों पर चित्त को शांत रखने की युक्ति  साधनी चाहिए । कभी भी हमारे उत्साह में कमी नहीं आनी चाहिए । तभी मनुष्य टिका रह सकता है तथा उसका आनंद – उत्साह कायम रह सकता है । सूर्यनारायण सदैव ताजे रहते हैं । हमारे मन को भी बराबर , निरंतर वैसा ही ताजा रहना चाहिए ।

    सूर्य अपनी आभा और प्रभा निरंतर फैलाता है । भोर में जब सूर्य उगता है – वह उसकी आभा है तथा उगने के बाद चारों दिशाओं मेंउसकी किरणें फैल जाती हैं , वह उसकी प्रभा है । सूर्य में यदि सिर्फ आभा होती और प्रभा न होती , तो उसका प्रचार न होता । विचार की मात्र आभा ही नहीं , प्रभा भी फैलती रहती रहनी चाहिए । तब क्रांति का प्रसार होता है । क्रांति का अर्थ है प्रचार शक्ति । अंदर तेजविता हो और बाहर वह फैली हुई हो , उसी का नाम क्रांति है । सूर्य जैसी तेजस्विता हमारे भीतर होगी , हमारे विचारों में होगी तो उसकी क्रांति फैलेगी । जारी

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पिछला भाग

दुनिया की अन्य किसी भाषा में सूर्य के लिए ऐसा शब्द नहीं है । पारसियों में सूर्य के लिए ‘ मित्र ‘ शब्द मिलता है । अन्य किसी भाषा में सूर्य के लिए ऐसा शब्द नहीं है । हाँलाकि अपने देश में सूर्य जितना मित्र जैसा लगता है उससे बहुत अधिक युरोप में मित्र जैसा लगता है और आनन्ददायक होता है । हमें तो उसका ताप भी तनिक सहन करना पड़ता , परन्तु उनके लिए सूर्य की धूप आनन्ददायक बन पड़ती है । उनकी स्थिति कैसी है ? संस्कृत में एक शब्द है ‘दुर्दिन’ । उसका शब्दश: अर्थ तो ‘अशुभ दिन’ होगा । परन्तु उसका विशेष अर्थ है : जिस दिन आकाश में बादल छाये हुए हों उस वजह से अथवा बारिश के कारण सूर्यनारायण का दर्शन न हो , वह दिन ।

दिनकर , अगम मार्ग को सुगम करो

दिनकर , अगम मार्ग को सुगम करो

    इससे यह समझ में आता है कि यहाँ आए उसके पहले हमारे पूर्वज अरबस्तान जैसे किसी गरम प्रदेश में नहीं रहते होंगे , किसी ठण्डे प्रदेश में ही रहते होंगे जहाँ सूर्य-दर्शन उन्हें मित्र जैसा प्रिय लगता होगा । सूर्य हमेशा रहे इसे वे अपना भाग्य मानते । परंतु सूर्य की धूप जिनके लिए इतनी अधिक आनन्ददायक होती है उन युरोप के लोगों को सूर्य के लिए ‘मित्र’ की संज्ञा नहीं सूझी ! इसलिए उनकी भाषाओं में सूर्य के लिए ‘मित्र’ शब्द नहीं है । वेद में सूर्य को मित्र कहा गया , यह हमारी अग्रणी संस्कृति का द्योतक है । इसमें एक प्रतिभा है , एक दर्शन है । बाद में गौतम बुद्ध ने अपने यहाँ पैदा इस बहुत पुरातन शब्द को ले कर मैत्री का एक आन्दोलन भी चलाया ।

[ जारी ]

अगला – सूर्य के उपकार की कोई सीमा नहीं

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[ कल अजित वडनेरकर के ‘ शब्दों का सफ़र ‘ की सालगिरह थी । यह चिट्ठा पढ़ते वक्त मुझे अक्सर विनोबा की याद आती है । विनोबा कई देशी – विदेशी भाषाओं के जानकार थे। उन्हें शब्दों से खेलना भी भाता था । अ सरकारी = असरकारी जैसे उनके समीकरण लोकप्रिय हो जाते थे । या फिर यह , ‘ Homeopathy , Allopathy , Naturopathy – सब में Sympathy रहना जरूरी है ।’

    गुजराती पाक्षिक भूमिपुत्र में सर्वोदयी चिन्तक कांति शाह द्वारा संकलित , विनोबा द्वारा व्यक्त ‘ सूर्य उपासना ‘ तथा ‘ गांधी :जैसा देखा-समझा’ धारावाहिक रूप से प्रकाशित हो रहा है । दोनों ही श्रृंखलाएं पुस्तक-रूप में भी प्रकाशित होंगी , उम्मीद है । नीचे लिखे उद्धरण इन से लिए गए हैं । चयन और अनुवाद मेरा है । – अफ़लातून ]

    संस्कृत में सूर्य का एक नाम ‘ आदित्य ‘ है । संस्कृत में ‘दा’ यानी देना । इससे उलटे ‘आ- दा’ यानी लेना । इससे ‘आदित्य’ शब्द बना है । श्रृति में कहा गया है उसके मुताबिक आदित्य मतलब आप से ‘ले जाने वाला’ । क्या ले जाता है , आदित्य ? कवि कहता है कि आपके आयुष्य का एक टुकड़ा । रोज अस्त होने वाला सूर्य हमारे आयुष्य का एक टुकड़ा ले जाता है ।

    आदित्य शब्द ‘अद’ धातु से बना है । अद माने खाना । जिसे खाया जाता है , वह है ‘अन्न’ । सूर्य आदित्य है , चूँकि प्रतिक्षण वह हमारे आयुष्य का एक टुकड़ा खा लेता है । हमें इसका ध्यान रखना चाहिए कि आज मैंने क्या भला किया ?

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    सूर्य से हम कितना कुछ सीख सकते हैं ! सूर्य हमारा गुरु है । गौर कीजिए ,सूरज कैसे काम करता है । सूर्य उगता है तब उसका प्रकाश सबसे पहले उस झोंपड़ी में जाता है जिसमें दरवाजे नहीं होते । इसके बाद दरवाजे वाले झोंपड़ों में , तब शहरों में तथा महलों में । सूरज जितना नग्न व्यक्ति की सेवा करता है उतनी कपड़े – लत्ते वाले की नहीं । परन्तु आज स्वराज में इससे उलटा हो रहा है । सब-कुछ पहले साधन सम्पन्नों के पास पहुँचता है , फिर धीरे – धीरे नीचे के स्तर तक पहुंचता है । जैसे बिजली आती है तो पहले बड़े-बड़े शहरों में जाती है ,तब देहात में जाती है । गांव में भी पहले उसे मिलती है जिसके पास पैसा होता है और जो उसे खरीद सकता है । इसके फलस्वरूप यह कुछ लोगों का धन्धा बन जाता है । जो दूर – दराज के गांव हैं , वहां तो बिजली पहुंचती ही नहीं । गरीबोम के पास पहुंचती भी है तो प्रकाश के रूप में , काम – धन्धे और उत्पादन के लिए नहीं । सूर्यनारायण इससे ठीक उलटा करते हैं और स्वराज में वैसा ही होना चाहिए ।

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  सूर्यनारायण सब से बड़े भंगी हैं , भंगियों के राजा हैं । वे अनथक अविरत रूप से दुनिया की सफाई करते रहते हैं । इसमें एक दिन की छुट्टी नहीं लेते । सूर्यनारायण की ऐसी कृपा जो हिंदुस्तान पर न होती , तो हिंदुस्तान के देहात नरक बन जाते और यहां जीना मुश्किल हो जाता । हिंदुस्तान में हम इतनी गन्दगी करते हैं , खुले में मल – विसर्जन करते हैं । यदि सूर्य न होता तो लोग रोग से बरबाद हो जाते । सूर्य एक दिन भी गैर हाजिर नहीं रहता यह उसकी बड़ी कृपा है ।

    इसलिए मैंने उसे भंगियों का राजा कहा है । वह सभी मेहतरों से ‘महत्तर’ है । महान से महान भंगी है , महत्तर मेहतर है । मेहतर शब्द संस्कृत के महत्तर शब्द से बना है। उसका अर्थ है जो महान से महान होता है अर्थात जो महान से महान काम करता हो । कितने दुख की बात है यह जो सब से बड़ा काम है , उसे आज नीचे से नीचा काम माना जाता है । ऐसा समाज कभी सच्ची प्रगति नहीं कर सकता ।

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    उस भजन में वैष्णवजन की जो व्याख्या की गई है वह एक शैव की भी है , एक इसाई की भी है, मुस्लिम की भी है और बौद्ध की भी है । दूसरे का दु:ख उससे से सहा नहीं जाता । वह निरंतर उपकार करता रहता है । यह ‘उपकार’ शब्द बहुत सुन्दर है । आज उसमें अहंकार का अंश आ गया है , परंतु मूल में तो वह अत्यन्त नम्र शब्द है । मन , वचन , कर्म से दूसरे की मदद करेंगे , मर मिटेंगे , फिर भी वह उपकार ( गौण कार्य ) ही होगा । मुख्य काम तो भगवान करेगा।

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    ऋग्वेद में एक वाक्य है : ‘ गृहे गृहे , दमे दमे ‘– घर घर साधना चल रही है । ‘दम’ शब्द ‘गृह’ का एक पर्याय था। गृह जरा व्यापक होता है । उसके अन्दर एक छोटा-सा सुरक्षित स्थान होता है , जिसे दम कहते थे , यानी अंतरगृह । गृह में बाहर के लोगों  का स्वागत होता। अम्दर एक आंतरिक विभाग होता, उसे दम कहते ; अर्थात जहां इन्द्रियों के दमन का अभ्यास होता। लोगों को अनुशासन के पाठ मिलते। मां- बाप , बेते- बेटियां सब एक साथ रहते , तन उनके बीच थोड़ा अनुशासन होना चाहिए,वह प्रेम के आधार पर ही हो सकता है । ऐसी जीवन नियमयुक्त बनाने वाली साधना जहां होती , उसे ‘दम’ कहते थे। अंग्रेजी में ‘मैडम’  शब्द है तथा फ्रेन्च में उसे ‘मदाम’ कहते हैं, वह है घर की गृहणी । यह शब्द लैटिन से उतर आया ।

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यह ‘आश्रम’ शब्द अनूठा है । सभी प्रकार के परिश्रमों का सामंजस्य जहां होता है, वह आश्रम है । श्रम शब्द से ही आश्रम शब्द बना है। ‘आ’ व्यापकतासूचक है । सर्व प्रकार के व्यापक श्रम जहां समत्वपूर्वक किए जांए , वह आश्रम है ।  

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