देश फिलहाल सांप्रदायिकता और पृथकतावादी दौर से गुजर रहा है । अविश्वास भरे माहौल में लोग जीने को विवश हैं,पंजाब तो पहले से ही आतंक के साये में जी रहा था,देश के अन्य भाग भी सांप्रदायिकता की आग में जलने लगे हैं।पहले जहां हिन्दू और मुसलमानीक दूसरे के पर्वों में खुले दिल और दिमाग से हिस्सा लिया करते थे,वहीं अब धार्मिक जुलूस और जलसे लोगों के बीच की दूरी को बढ़ाने के सबल हथियार बन रहे हैं।कारण क्या है ? क्या धर्म की तीव्र अनुभूति के कारण ऐसा हो रहा है? महज पूजन प्रणाली के अन्तर के आधार पर आदमी-आदमी के बीच दुराव को बढ़ावा देना ही धर्म की भूमिका है ? इन प्रश्नों के उत्तर की तलाश ही सांप्रदायिकता की दिशा में उठाया गया सही कदम होगा।
कुछ लोग, खासकर कुछ वामपंथी समूह मानते हैं कि साम्प्रदायिकता की जड़ धर्म ही है और जब तक धर्म रहेगा साम्प्रदायिकता भी रहेगी । वे मानते हैं कि धर्म का काम लोगों को सम्मोहित कर उन्हें इतना जड़ बना देना है कि वे अपने शोषण का प्रतिकार भी न कर सकें ।इस तरह उनकी दृष्टि में धर्म शोषकों का हथियार है और समस्या का सली समाधान धर्मों का उन्मूलन है । लेकिन धर्म के सम्बन्ध में सही वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इसी तरह धर्मों के उन्मूलन की बात भी व्यावहारिक नहीं मालूम पड़ती। समाजवादी कहे जाने वाले देश रूस और चीन में ऐसे प्रयासों के नतीजे उत्साहवर्धक नहीं रहे हैं । सत्तर वर्ष के कम्युनिस्ट प्रयासों के बावजूद आज पूर्वी यूरोप में जिस तरह ईसाई मत फिर से लोगों को आकृष्ट कर रहा है या सोवियत यूनियन के अजरबेजान मणराज्य में जिस तरह इस्लामी कट्टरता बढ़ी है , उस पर विचार करने से धर्मों को नष्ट करने का समाधान ढूंढ़ना व्यावहारिक नहीं लगता ।
ऐसे प्रयासों की असफलता का कारण यह है कि धर्म के सम्बन्ध में कम्युनिस्ट विचार बुनियादी तौर पर गलत हैं।किसी भी समाज में कुछ मूल्य अनिवार्य रूप से धुरी का काम करते हैं, जिनके इर्द-गिर्द उस समाज के लोगों के सामाजिक और निजी व्यवहार नियन्त्रित होते हैं ; और ये मूल्य किसी-न-किसी रूप में धार्मिक मान्यताओं के अंग होते हैं।
इसके अलावा इतिहास बतलाता है कि अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन अक्सर धर्म द्वारा स्थापित मूल्यों के आधार पर ही होते रहे हैं। यूरोप में किसान आन्दोलन के पीछे ,और बहुत कुछ समाजवादी आन्दोलन के पीछे भी,ईसाई धर्म द्वारा प्रतिपादित समता और बंधुत्व के मूल्य काम कर सके।कुछ धार्मिक मठाधीशों द्वारा शोषण का समर्थन यह सिद्ध नहीं करता कि धर्म हर हालत में शोषकों का माध्यम है । सच तो यह है कि धर्म का हठपूर्ण दुराग्रह उसकी आत्मा के क्षरणकाल में ही शुरु होता है और तभी साम्प्रदायिकता जन्म लेती है।
अपने व्यवहार में मनुष्य मूलतः आवेगों का दास होता है । धर्म का मुख्य काम मनुष्य के स्वभावगत आवेगों को नियंत्रित कर उनके विनाशकारी नतीजों से बचाना है । अब यह बात लगभग मानी जाने लगी है कि पशुओं और मनुष्यों में अपनी प्रजाति के अन्य सदस्यों के खिलाफ पाया जाने वाला आक्रामक संवेग उनका आनुवंशिक गुण है । लेकिन पशुओं के चरित्र में कुछ ऐसी प्रक्रियाएं होती हैं , जिससे उनकी आक्रामकता पर पर स्वतः आंतरिक अवरोध लग जाता है,और उनकी आक्रामकता अन्य सदस्यों की हत्या या उन्हें गंभीर रूप से जख्मी करने की हद तक नहीं जाती , वहीं मनुष्य के चरित्र में आक्रामकता पर कोई अन्तरनिहित अवरोध नहीं लगाता, मनुष्य में यह अवरोध उनकी संस्कृति और धर्म के जरिए आता है जो उन्हें अपनी प्रजाति के अन्य सदस्यों पर घातक प्रहार करने से रोकता है । लेकिन चूंकि धर्म और संस्कृति पर अनेक तरह के विपरीत दबाव पड़ते रहते हैं , इसलिए इतिहास व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से मनुष्यों द्वारा अन्य मनुष्यों की संहारलीला से भरा पड़ा है । फिर भी आदमी को धर्मों द्वारा प्रतिपादित उदात्त मूल्यों को लेकर चलने की उर्जा भी परोपकार के आनुवंशिक गुण से ही प्राप्त होती है। यह परोपकार भाव , यानी दूसरे मनुष्यों के लिए हित के लिए अपना उत्सर्ग करना धर्म का प्राण होता है ।
लेकिन आनुवंशिकी से प्राप्त परोपकार भाव बिल्कुल दोषमुक्त नहीं होता । आचारशास्त्री कौनरॉड लैरेंज के अनुसार मनुष्य या पशु में अपने समूह के प्रति यह परोपकार भाव उसी अनुपात में तीव्र होता है , जिस अनुपात में दूसरे समूहों के खिलाफ आक्रामकता का भाव तेज होता है । मानव स्वभाव में इन दो विपरीत गुणों का जोड़ा होना बड़ा ही अनर्थकारी सिद्ध होता है । धर्मभाव , जो संपूर्ण मानव समाज के कल्याण को लेकर चलता है जब अपने को छोटे समुदायों के साथ एकाकार कर चलने लगता है , तभी दूसरे धार्मिक या अन्य मानव समुदायों के खिलाफ आक्रामक हो जाता है । यही भावना साम्प्रदायिकता की जड़ में है । इसलिए सम्प्रदायवाद की स्थिति अत्यधिक विरोधाभास की होती है । इसका जन्म धर्मभाव से होता है , जिसका लक्ष्य सम्पूर्ण मानवतंत्र का कल्याण है , लेकिन यह अपने को एक छोते समूह के साथ जोड़कर दूसरे धार्मिक समूहों के प्रति इतना आक्रामक हो जाता है कि अपने धर्म की मूल मान्यताओं को तिलांजलि दे देता है और अपने समूह के ‘हित’ में अन्य मानव समूहों को समूल नष्ट करने की आकांक्षा से भी पीछे नहीं हटता । इस कमजोरी को समझ कुछ लोग इस भाव का अपने स्वार्थ में उपयोग करते हैं । इसी का नतीजा है कि इतिहास धर्मयुद्धों तथा एक धर्म के अनुयायिओं द्वारा दूसरे धर्म के अनुयायिओं के उत्पीड़न की घटनाओं से भरा पड़ा है ।
इस तरह सांप्रदायिकता धर्मभाव से पैदा होती , लेकिन इसका आचरण धर्मभाव के ठीक विपरीत होता है । यानि जहां धर्म का मूल उद्देश्य होता है , मनुष्यों के बीच वैमनस्य दूर कर प्रेम-भाव पैदा करना ,वहां संप्रदायवाद प्रेमभाव को अपने समुदाय तक सीमित रखता है और इस प्रेमभाव की कीमत वह दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ अनियंत्रित हिंसा को बढ़ावा देकर वसूलता है। इसी का नतीजा है कि अठारहवीं शताब्दी तक ईसाइयों के विभिन्न सम्प्रदाय एक दूसरे के खिलाफ हिंसा मचाते रहे हैं और ‘इंक्विजिशन’ के काम में तो छोटे-छोटे मतभेदों के लिए लोगों को जिंदा जलाया जाता रहा। इसी तरह हिंदू धर्म के अनुयाई ,जिनके धर्म में अबला,बच्चे और निरल दुश्मनों तक पर हमला करना निषिद्ध है,सांप्रदायिक दंगों में निरपराध और निहत्थे औरतों,बच्चों या अन्य लोगों की हत्या करने या उन पर दूसरे तरह के अत्याचार करने से बाज नहीं आते । यही हाल इस्लाम का भी है,जिसमें वैसे दुश्मनों पर भी हमला करना निषिद्ध है,जो पहले हमला न करें ।फिर भी दंगों में प्रायः निरपराध लोगों पर ही हमला किया जाता है।इस तरह संप्रदायवाद से सबसे पहले उन धार्मिक सिद्धान्तों की ही बलि होती है,जिनकी रक्षा का दावा साम्प्रदायिक समूह करते हैं ।
लेकिन अगर मानव प्रजाति में अपने समूह के लिए आत्मोत्सर्ग का भाव मनुष्यों के ही दूसरे के प्रति आक्रामकता से जुड़ा है, जैसा कि आचारशास्त्री बतलाते हैं तथा जैसा कि मानव समूहों के व्यवहार से भी ज्ञात होता है , तो धर्म को मिटाकर भी सांप्रदायिकता की समस्या खत्म न होगी ! तब ऐसी आक्रामकता धार्मिक जमातों की जगह ऐसी दूसरी जमातों की ओर मुड़ेगी , जिन्हें बाहरी समझा जाता है । इतिहास का अनुभव यही बतलाता है कि कहीं यह आक्रामकता वैसे दूसरे मूल या नस्ल के खिलाफ, कहीं दूसरी जाति के खिलाफ, कहीं वैसी दूसरी भाषा या राष्ट्रीय जमातों के खिलाफ मोड़ दी जाती है , जिन्हें बाहरी समझा जाता है । अमरीका में नीग्रो लोगों के खिलाफ सफेद लोगों की आक्रामकता ऐसी ही है,क्योंकि सफेद और रंगीन दोनों प्रायः ईसाई हैं,सोवियत यूनियन के विभिन्न राष्ट्रीय समूहों के बीच जो संघर्ष अभी उभरे हैं, वे भी ऐसे ही हैं । अफ्रीका के देशों- जैसे नाइजीरिया, सूडान आदि – में ऐसे ही संघर्ष विभिन्न कबीलों के बीच चल रहे हैं। भारत में जातीय संघर्षों के पीछे भी ऐसी ही आक्रामकता काम करती है।
ऊपर की बातों से साफ है कि धर्म का उन्मूलन सांप्रदायिक भावना को रोकने का उपाय नहीं हो सकता । असल में धर्म से जुड़ी सांप्रदायिकता को मिटाने का एक उपाय धर्म की सच्ची समझदारी फैलाना हो सकता है। चाहे वह ईसाई,इस्लाम,बौद्ध या हिन्दू धर्म हो,उनके केन्द्र में समस्त मानव वंश के कल्याण की कामना है । अगर इन धर्मों के अन्यायी अपने धर्मों की मूल भावना को समझने लगें तो धर्म और सांप्रदायिकता का भेद उन्हें दिखाई देने लगेगा। इसलिए सांप्रदायिक तनाव खत्म करने का एक उपाय तो लोगों को धर्म और सांप्रदायिकता का भेद साफ तौर पर बतलाना हो सकता है ।
लेकिन सिर्फ उपदेश ही काफी नहीं है। धर्मानुयायियों को संप्रदायों में बांधने वाले कुछ बाहरी प्रतीक और अनुष्ठान होते हैं ,जिनसे धार्मिक समूहों का अलग अस्तित्व बना है । अपने आप में यह कोई बुरी चीज नहीं है। लेकिन अगर समाज में ऐसे दूसरे प्रतीक या अनुष्ठान न हों,जो लोगों में समूचे विश्व के प्रति नैसर्गिक तादात्म्य भाव स्फूरित कर सकें तो लोग अपने अपने संप्रदायों और समूहों में सिमटने लगते हैं और संप्रेषण छीजने लगता है , इससे दूसरों पर संदेह और निर्मूल आशंका पैदा होती है। अलगाव से संप्रेषण घटता है,इसलिए सुनियोजित ढंग से ऐसे प्रयास होने चाहिए,जिसमें मिले-जुले कामों का दायरा बढ़ता रहे और लोग दूसरे समूह को दूसरे समूह के सदस्यों के बजाय एक इंसान के रूप में पहचान सकें। स्थायी रूप से सांप्रदायिक या अन्य सामूहिक झगड़ों को मिटाने के ऐसे ही उपाय कारगर हो सकते हैं ।