अन्त कायर का
कायरों को वार नहीं झेलने पड़ते
और इसलिए घाव
न उनकी छाती पर होते हैं
न पीठ पर
उनका खून बाहर नहीं गिरता
नसों में दौड़ता रहता है
अलबत्ता मरते वक्त
उन्हें खून की कै होती है ।
– भवानीप्रसाद मिश्र .
Posted in भवानीप्रसाद मिश्र bhavaniprasad mishra, hindi poem, kavita, tagged ant, अन्त, अन्त कायर का, कविता, कायर, भवानीप्रसाद, मिश्र, हिन्दी, bhavani prasad mishra, hindi, hindi poem, kayar on नवम्बर 26, 2009| 8 Comments »
कायरों को वार नहीं झेलने पड़ते
और इसलिए घाव
न उनकी छाती पर होते हैं
न पीठ पर
उनका खून बाहर नहीं गिरता
नसों में दौड़ता रहता है
अलबत्ता मरते वक्त
उन्हें खून की कै होती है ।
– भवानीप्रसाद मिश्र .
Posted in kavita, tagged भवानी प्रसाद मिश्र, हिन्दी कविता, bhavani prasad mishra, hindi poem on सितम्बर 14, 2008| 5 Comments »
[ स्वराज के बाद का भारत जिस प्रकार गांधी वाले रास्ते से विचलित हुआ उससे भवानी बाबू का हृदय हिल उठता था । १९५९ में लिखी यह कविता , विश्व बैंक से पहली बार कर्जा लेने की बात उसी समय शुरु हुई थी । ]
पहले इतने बुरे नहीं थे तुम
याने इससे अधिक सही थे तुम
किन्तु सभी कुछ तुम्ही करोगे इस इच्छाने
अथवा और किसी इच्छाने , आसपास के लोगोंने
या रूस-चीन के चक्कर-टक्कर संयोगोंने
तुम्हें देश की प्रतिभाओंसे दूर कर दिया
तुम्हें बड़ी बातोंका ज्यादा मोह हो गया
छोटी बातों से सम्पर्क खो गया
धुनक-पींज कर , कात-बीन कर
अपनी चादर खुद न बनाई
बल्कि दूरसे कर्जे लेकर मंगाई
और नतीजा चचा-भतीजा दोनों के कल्पनातीत है
यह कर्जे की चादर जितनी ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है ।
– भवानीप्रसाद मिश्र .
[ चित्र स्रोत : अनहदनाद ]
Posted in kids' poem, nursery rhyme, tagged बाल कविता, भवानी प्रसाद मिश्र, श्रम की महिमा, bhavani prasad mishra, hindi poem, nursery rhyme, poems' for kids on फ़रवरी 11, 2008| 5 Comments »
[ ‘भवानी प्रसाद मिश्र के आयाम’ , संपादक लक्ष्मण केड़िया,विशेषांक ‘समकालीन सृजन’ , २० बलमुकुंद मक्कर रोड, कोलकाता – ७००००७ से साभार ]
तुम काग़ज़ पर लिखते हो
वह सड़क झाड़ता है
तुम व्यापारी
वह धरती में बीज गाड़ता है ।
एक आदमी घड़ी बनाता
एक बनाता चप्पल
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
इसमें क्या बल ।
सूत कातते थे गाँधी जी
कपड़ा बुनते थे ,
और कपास जुलाहों के जैसा ही
धुनते थे
चुनते थे अनाज के कंकर
चक्की पिसते थे
आश्रम के अनाज याने
आश्रम में पिसते थे
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
उनको आता था
भंगी-काम सफाई से
नित करना भाता था ।
ऐसे थे गाँधी जी
ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे
पूजा के समान था श्रम ।
एक बार उत्साह-ग्रस्त
कोई वकील साहब
जब पहुँचे मिलने
बापूजी पीस रहे थे तब ।
बापूजी ने कहा – बैठिये
पीसेंगे मिलकर
जब वे झिझके
गाँधीजी ने कहा
और खिलकर
सेवा का हर काम
हमारा ईश्वर है भाई
बैठ गये वे दबसट में
पर अक्ल नहीं आई ।
– भवानी प्रसाद मिश्र
[ १९६९ ]