पिछला भाग
सोनाबाबू श्रीनाट्यम के संस्थापकों में से एक थे और उसके साथ उन्होंने नाटकों में अभिनय के अलावा अनुवाद , रूपांतर तथा मौलिक नाटक लेखन के भी प्रयास किए । संगठन और आर्थिक साधन जुटाने में भी उनका काफी हाथ था । लेकिन यह सिलसिला अधिकतम एक दशक से ज्यादा न चल सका और फिर श्रीनाट्यम से अलग होकर उन्होंने अपनी एक दूसरी संस्था बना ली । यों यह एक सामान्य प्रक्रिया थी लेकिन आज जब मैं हिन्दी रंगमंच के विकास , खास तौर से काशी के रंग इतिहास के संदर्भ में सोचता हूँ तो यह एक ऐसा दुर्भाग्यग्यपूर्ण सिलसिला नजर आता है जिससे काशी का रंगमंच अभिशप्त है । सौ साल पहले श्री नागरी नाट्यकला संगीत प्रवर्तक मंडली दो हिस्सों में बंटकर नागरी नाटक मंडली और भारतेन्दु नाटक मंडली बन गयी । उसके बाद से तो काशी की रंग संस्थाओं का इतिहास बनने , टूटने और मिटने का ही इतिहास है जो आज भी अनवरत चलता जा रहा है ।
किसी समर्थ , संभावनापूर्ण और स्थायी रंगमंचीय परम्परा के निर्माण के लिए काफी संख्या में निष्ठावान , प्रतिभावान , कुशल अभिनेता ,अभिनेत्री ,एक नहीं , कई निर्देशक , कई-कई क्षेत्रों के कलाकार,साहित्यकार , पत्रकार और तरह तरह की व्यवस्थाएँ कर सकने वाले कर्मठ लोग तो चाहिए ही , एक बड़े स्थायी दर्शक वर्ग का भी संरक्षण चाहिए । लंबी नाट्य परंपरा वाले नगर वाराणसी में आज भी ऐसे लोग काफी हैं , लेकिन शायद उतने ही जितने से सिर्फ एक या दो संस्थाएं ही नियमित और बेहतर प्रदर्शन कर सकें ।
सोनाबाबू ने एक जगह अपने अलगाव का कारण रंगमंच को निजहित एवं प्रचार का माध्यम बनाकर केवल अपना ठीहा जमाने के लिए कुत्सिय प्रयासों में लीन रहने और शुद्ध कलात्मक मूल्यों के लिए रंगमंच के प्रति आस्था के बीच का संघर्ष बताया है लेकिन यह बात दोनोंही पक्षों के लोग कहते हैं ।
बहरहाल रंगधर्मिता को जीवन का आचरण मानकर चलने वालों के श्रम का मूल्यांकन एवं प्रोत्साहन और हिन्दी रंगमंच को और अधिक विकसित तथा लोकप्रिय बनाने जैसे उद्देश्यों को लेकर सोना बाबू ने ओमप्रकाश जौहरी और रमेशचन्द्र पांडेय के आर्थिक सहयोग से १९७० ई. में अनुपमा नाम से एक नई नाट्य संस्था का गठन किया जिसकी प्रथम प्रस्तुति नींव के पत्थर – १५ अगस्त १९७० – थी जिसके लेखक और निर्देशक तो स्वयं सोना बाबू थे ही , अन्य लोगों के साथ उसमें अभिनय भी किया था । इसके बाद उन्होंने हिन्दी के व्यापक रंगजगत में बहुचर्चित आषाढ़ का एक दिन , आधे अधूरे, पगला घोड़ा , अंधायुग , सच और झूठ , थैंक यू मिस्टर ग्लाड , आदि नाटकों में अभिनय और निर्देशन किया। पिछली सदी के सत्तर का दशक काशी ही नहीं सम्पूर्ण हिन्दी रंगजगत के लिए बेहद सक्रियता का दशक था । महत्वाकांक्षाओं से भरे बहुत सारे युवा रंगकर्मियों की गतिविधियों और स्पर्धात्मक उत्साह से काशी का रंगपरिवेश भरा भरा सा था । जगह- जगह रिहर्सल हो रहे थे । रेस्तराओं और चाय और पान की दुकानों पर रंगकर्मी घंटों जमे रहकर तरह-तरह की रंगचर्चाओं कुचर्चाओं में मशगूल रहते। रंगकर्मियों की यह भीड़ कई समूहों में बंती होती जिनका नेतृत्व उनके निर्देशक करते। ये सब अपने किए की प्रशंसा तलाशते रहते ताकि आगे करते रहने का संबल बरकरार रहे ।
सोनाबाबू उनमें थोड़ा अलग थे । [ जारी ]
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