प्रकृति – लय के साथ सुसंवादी जीवन का लय
पिछला भाग । इस प्रकार सूर्य हमारे जीवन से गहन रूप से सम्बद्ध है । उसके लय के साथ यदि हमारे जीवन का लय मिला होगा तो इससे हमारा जीवन सुसंवादी बनेगा । अपनी आंखों के सामने हम रोज सूर्य की दो प्रक्रियाओं को देखते हैं । शाम को सूर्यनारायण अस्त होते हैं , तब पूरी दुनिया अव्यक्त में लीन हो जाती है तथा सुबह सूर्योदय होता है , तब फिर व्यक्त का विस्तार होता है । यह प्रक्रिया रोज-ब-रोज चल रही है । रात में हम कहां जाते हैं , मालूम नहीं । अवश्य कहीं जाते हैं तथा बहुत शान्ति पा कर लौटते हैं । हम जहां पहुंचते हैं वहां ‘अहं’ का होश हमे नहीं रहता । एक सिंह सोया हुआ है । निद्रावस्था में उसे इसका ख्याल नहीं है कि वह खुद ‘सिंह’ है । मनुष्य भी जब सोता है तब उसे होश नहीं रहता है कि वह खुद ‘मनुष्य’ है । अर्थात निद्रावस्था में सभी अपने मूल स्वरूप में पहुंच जाते हैं तथा सब का मूल स्वरूप एक ही है । इस बात की थोड़ी अनुभूति गाढ़ निद्रा के दौरान होती है ।इसके पश्चात हम फिर जागृत हो कर अपने – अपने स्वरूप में लौट कर भिन्न – भिन्न कामों में लग जाते हैं ।
अर्थात हमें प्रकृति की घटनाओं के प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए , बल्कि प्रकृति के लय के साथ अपना लय मिलाए रखने की कोशिश करते रहना चाहिए । वेद में कहा गया है , ‘ श्रेष्ठै रूपै स्तन्वं स्पर्शयस्वं ‘ – सूर्य के श्रेष्ठ रूपों से शरीर का स्पर्श होने दो । इस प्रकार , सूर्य हमारा परम मित्र है । मित्र के सभी लक्षण हम सूर्य में देख सकते हैं ।
जीवन – दर्शन की विशेषता का द्योतक
हिन्दुस्तान में ‘मैत्री’ शब्द का उच्चारण पहली बार वेद भगवान ने किया तथा उसका उदाहरण सूर्यनारायण का दिया । वेद में सूर्य को ‘मित्र’ कहा गया । यह हमारी संस्कृति की विशेषता है । हमारी संस्कृति का यह एक विशेष दर्शन है । जहाँ यह दर्शन नहीं है वहाँ इस बात को ढंग से समझना मुश्किल होता है । वहाँ इससे बिलकुल जुदा अभिगम देखा जा सकता है । ऋगवेद में एक मंत्र है , ‘ सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषाम्भ्येति पश्चात ‘ । ऋगवेद के अंग्रेजी अनुवादक ग्रिफिथ ने इसका अर्थ ऐसा किया है – Like a young man followeth a maiden , so doth th sun thee dawn. जैसे कोई युवक एक तरुणी के पीछे जाता है , वैसे ही सूर्य ऊषा के पीछे आता है । ग्रिफिथ ने ऐसा अर्थ किया। मैं इसका अर्थ ‘मेडन’ ( तरुणी ) करने के बजाए ‘ मदर’ ( माता ) कर रहा हूँ । ऊषा माता है और उसके उदर से सूर्य निकलता है । आगे ऊषा है , उसके पीछे सूर्य है । ऊषा माँ है , पत्नी नहीं ।’
जीवन – दर्शन की ऐसी विशेषता के कारण ही हमने सूर्य को मित्र माना है । सूर्य हमारा परम मित्र है ।
( संकलित , संकलन – कांति शाह , मूल गुजराती ‘भूमिपुत्र’ से , अनुवाद – अफ़लातून )