समाचार-पत्र अगर समाचारों के पत्र होते , तो इतनी सारी बहस की जरूरत नहीं होती । अगर दुनिया मे कभी समाचारों का पत्र होगा तो वह एक बिलकुल भिन्न चीज होगी । मौजूदा सभ्यता में समाचार-पत्र एक तरह से देखें तो जनमत का प्रहरी है , दूसरे ढंग से देखें तो वह जनमत का निर्माता है । यह मत-निर्माण सिर्फ तात्कालिक मुद्दों के बारे में नहीं होता है , बल्कि गहरी मान्यताओं और दीर्घकालीन समस्याओं के स्तर पर भी होता है । यह मत-निर्माण या प्रचार इतना मौलिक और प्रभावशाली है कि इसे मानस-निर्माण ही कहा जा सकता है । प्रचार का सबसे प्रभावशाली रूप है समाचार वाला रूप । अगर आप यह कहें कि ’ गन्दगी से घृणा करनी चाहिए’, तो यह गन्दगी के खिलाफ़ एक कमजोर प्रचार है । अगर आप कहें कि ’गन्दगी बढ़ गयी है’, तो गन्दगी के खिलाफ़ यह ज्यादा प्रभावशाली वाक्य है । आप कहे कि ’पाकिस्तान को दुश्मन समझो’, तो इसका असर कम लोगों पर होगा । कुछ लोग पूछेंगे , क्यों ? लेकिन वही लोग जब पढ़ेंगे कि ’ पाकिस्तान को अमरीका से हथियारों का नया भंडार मिला’ तो दुश्मनी अपने आप मजबूत हो जायेगी । आप प्रचार करेंगे कि ’ हमें पाँच-सितारा होटलों की जरूरत है’, तो लोग कहेंगे – नहीं । लेकिन वे जब पढ़ेंगे कि ’ होटल व्यवसाय से सरकार ने १० करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा कमाई’ तो उन्हें खुशी होगी । प्रचार में द्वन्द्व रहता है । शिक्षा – दान में द्वन्द्व रहता है । समाचार में द्वन्द्व नहीं होता है – इसलिए समाचारों से मान्यतायें बनती हैं , मानस पैदा होता है । इसीसे अनुमान लगाना चाहिए कि दैत्याकार बहुराष्ट्रीय पत्र – पत्रिकाओं का कितना प्रभाव तीसरी दुनिया के शिक्षित वर्ग पर होता है ।
गांधीजी ने जब ’हिन्द-स्वराज्य’ लिखा, डॉक्टरों और वकीलों के पेशे को समाज-विरोधी पेशे के रूप में दिखाया । हो सकता है कि वे उदाहरणॊं की संख्या बढ़ाना नहीं चाहते थे या हो सकता है कि पत्रकारों के समाज – विरोधी चरित्र का साक्षात्कार उन दिनों उन्हें नहीं हुआ था । गांधी अति अव्यावहारिक विचारकों की श्रेणी में आते हैं । उनके सपने का समाज नहीं बनने वाला है । हम वकीलों-डॉक्टरों के पेशे को समाज -विरोधी नहीं कह सकते । साधारण नागरिक के लिए पग-पग पर वकील-डॉक्टर की सेवा की जरूरत पड़ जाती है । जैसे हम जानते हैं कि स्कूलों में अच्छी शिक्षा नहीं दी जाती है, लेकिन हम अगर स्कूलों को समाज विरोधी कहेंगे, तो हमारे बच्चे मूर्ख रह जायेंगे । इसी तरह समाचार-पत्र के आधुनिक मनुष्य के लिए एक बहुत बड़ा बोझ होने पर भी उसे पढ़े बिना रहने पर हम अज्ञानी रह जायेंगे । समाज में बात करने लायक नहीं रह जायेंगे । ज्यादा से ज्यादा आप इसे एक विडम्बनापूर्ण स्थिति कह सकते हैं , जहाँ समाचार-पत्रों की स्वाधीनता है , लेकिन पत्रकार पराधीन है । समाचार-पत्र आधुनिक मनुष्य के ऊपर एक बहुत बड़ा अत्याचार है । साथ ही , वह हमारी सांवैधानिक आजादी का माध्यम भी है ।
– स्रोत : सामयिक वार्ता , अक्टूबर , १९८८
[…] ( जारी – भाग दो , तीन ) […]
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बहुत ही विचारोत्तेजक लेख पढ़ाने का दिल से शुक्रिया. बिल्कुल मूलभूत मुद्दों पर बेबाक विचार व्यक्त किए हैं पटनायक जी ने.
इसे यहां प्रस्तुत करने का आभार, अफ़लातून जी!
शुक्र है किशन जी का यह आलेख इंटरनेट की सकारात्मक भूमिका की शुरुआत से पूर्व का है। आज के अखबार अपनी वह पहचान खो चुके हैं जिसका उन्होंन उल्लेख किया है। आज अगर अखबार न भी पढा जाए तो ऐसा नहीं लगता कि किसी महत्वपूर्ण चीज से वंचित रह गए हैं। अखबार अब अपरिहार्य नहीं रहे हैं।
किशन जी के विचारों से अवगत कराने का शुक्रिया
Lekh ke liy aabhaar…
एक बार और धन्यवाद अफलातून जी
इसे प्रस्तुत करने के लिये
Tinon kadiyan aaj hi padhin. Patrkarita aur aadhunik patrkaron ki sthiti ki vaastvikta ka chitran karti hai yeh lekhmala. Akhbaron ko padhkar rai banane ko shayad isiliye Gandhiji ne bhi durgun mana tha. Aabhar.
किशन जी ने समाचार पत्रों की भूमिका के अन्तर्विरोध को सही अंकित किया है। यह अंतर्विरोध डाक्टरी और वकालत के पेशों में भी है। वस्तुतः वर्तमान समाज व्यवस्था ने उन्हें पूँजी वालों का सेवक बना दिया है।
विचारोत्तेजक लेख प्रस्तुत करने के लिए आपको धन्यवाद।
[…] समाचार-पत्र : जनमत का प्रहरी , जनमत का न […]
[…] समाचार-पत्र : जनमत का प्रहरी , जनमत का न […]
janmat ka prahari pasand aaya indore se bhi lunch karen
सर्व शिक्षा मात्री भाषामा नहुनु सुक्ष्म गतिमा दास हुनु हो
माताको दुध शिशुलाई शिक्षा मात्री भाषामा प्रभाव पर्छ श्रीष्टिलाई प्रकाशको गतिमा