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Posts Tagged ‘hindi’

एक हकीकत

मेरी लाश अभी आयी है
एक लाश और आ रही है
दूजी अधजली है
तीसरी की राख ठंडी पड़ चुकी है |
तैयारियां चल रही हैं
उस इंसानी जिस्म को फूँकने की
जिसे हम अब तक रिश्तों से बुलाते थे |

सभी इंतजार में हैं
अर्थी को चिता पर रखते
लकडियों से उस ढांचे को ढांकते
जिसमें कोई प्राण नहीं है अब |

बदबू से बचाने को
सामग्रीघीचंदन डालते

आग लगा देंगे हड्डियों के शरीर को
सर्वधर्म समभाव के शमशान घाट पर
जहॉं एक ओंकार , हे राम और ओमशांति लिखा है
क्या सत्य है ?

शायद कुछ भी नहीं

बसं यूँ ही लोग खुद को भुलाने के लिए
मंत्र दोहराते हैं जनाजे की भीड में

नारेस्ोगन की तरह
राम नाम सत्य है
सत् ?

वो था जो नाम से जाना जाता था
या यह है जिसे हम लाश कहते हैं उसकी
राम कहां से आ गया बीच में

न कभी देखा, न सुनाउसे
और सब शवयात्राओं में उसी को सत्य कहते हैं
मौत एक उत्सव है
अवसरजहॉं सब रिश्तेदारों से मुलाकात हो जाती है
जिन्हें वैसे तो फुरसत नहीं मिलती।

कोई पूछता है क्या हुआ, कब हुआ
बतातेबताते थक चुका हूँ
मन होता है कैसेट में रिकार्ड कर
उसको चला दिया करूँ
या उनसे सवाल करूँ
तुम कर क्या सकते थे
या तुम कर क्या सकते हो।

*

औपचारिकताओं के इस काल में
मौत भी एक सूचना रह गई है
और वो अगर दूर कहीं हो

तो अखबार और टी.वी. में

गिनती-संख्या ही बस।
कितने मरे , कितने दबे…….
लो एक लाश और आ गई ।

*

खून, दूध, आंसू और

लाश की राख :
सब एकसे होते हैं
हिन्दू के और मुसलमान के
आदमी के और औरत के
शहरी और गंवार वाले के
बस उनकी मात्रा ज्यादा या कम होती है
उम्र, शरीर के अनुसार |

*

किसकी शवयात्रा में
कितनी जमात/बारात
इसका भी अभिमान
कौन किस अस्पताल में मरा
और कितना खर्च करने के बाद
(या आमदनी उन डाक्टरों को कराने के बाद )

कितनी बड़ी बीमारी से हुई मौत

*

लाश गुजरते हुए
लोग किसको मत्था टेकते हैं
परमात्मा को,
उस आत्मा को,
खुद की मौत के भविष्य को
या डर लगता है उन्हें

अपनी लाश का

*

डोम

उनका पेशा है
लाशें जलाना
जैसे कसाई का जानवर काटना
जैसे वेश्या का शरीर बेचना

संवेदना सभी की होती है

पेट की भूख ही सच होती है |

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यूनिफार्म

एक-सी वर्दी पहने हुए
सड़क पर मार्च करती भीड़ के लोगों से
मुझे डर लगता है।
चाहे वह केसरिया वाले साधु हों
चाहे आर्मी के जवान
चाहे श्‍वेत साड़ी वाली बहनें
चाहे ईद पर जा रहे नमाजी
या फिर खादी वाले गांधीवादी।
न जाने कब जुनून सवार हो जाए
औरों की शामत आ जाए।

यूनिफार्म व्‍यक्तित्‍व का हनन है
और इंसान की नुमाईश
बस यह स्‍कूली बच्‍चों के लोक नृत्‍य में ही अच्‍छी लगती है।
अभी रंग-बिरंगे गंदे और मटमैले कपड़े वाले
लोग दिखे हैं
जो रिक्‍शे चला रहे हैं
जो चाय बना रहे हैं
और गुब्‍बारे बेच रहे हैं
तभी तो हौंसला बना है मुझमें
भीड़ की विपरीत दिशा में चलने का।

अबे मुन्‍ना !

छीलते रहो तुम घास खुरपी से
ताकि हमारे लॉन सुंदर बने रहें
देते रहो सब्जियों में पानी

ताकि हम उनका स्‍वाद उठा सकें
फूल उगाते रहो तुम
ताकि हम ” फ्लावर शो ” में इनाम पा सकें,
छत पर चढ़ जाया करो तुम
जब बच्‍चे हमारे क्रिकेट खेलें
ताकि गेंद वापिस लाने में देर न लगे,
हम गोल्‍फ की डंडी घुमायेंगे चहलकदमी में
गेंद उठाने तुम दौड़ते हुए जाना
तभी तो हमारी बिटिया रानी ‘ सानिया ‘ बनेगी
तुम बाल-ब्‍वाय की प्रेक्टिस करो।
ढोते रहो तुम फाइलों का बोझा सिर पर
हुसैनपुर से तिलक‍ब्रिज तक
और तिलकब्रिज से हुसैनपुर तक

ताकि हम उन पर चिडिया-बैठाते रहे
और काटते छॉंटते रहें अपनी ही लिखावट
और रेल उड़ाते रहे आकाश में।
तुम्‍हें नौकरी हमने दी है
हम तुम्‍हारे मालिक हैं
हम अपने भी मालिक हैं

तुम तो भोग रहे हो अपने कर्म
हमें तो राज करने का वर्सा मिला है
गुलामी तुम्‍हारा जन्‍म-सिद्ध फर्ज है
और अफसरी हमारा स्‍थायी हक ।

मुन्‍ना भाई-

लगे रहो
तुम हो गांधी की जमात के गंवार स्‍वदेशी
हम बढ़ते जायेंगे आगे-

नेहरू की जमात के शहरी अंग्रेज
तुम चुपचाप खाना बनाते रहो
परोसते रहो
डॉंट खाते रहो।

प्रार्थना

मन हो जिसका सच्चा

विश्‍वास हो जिसका पक्का

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता।

1. खुद भूखा रहकर भी जो

औरों की भूख मिटाता

हृदय – सागर उसका

कभी न खाली होता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

2. अर्न्तवाणी सुनकर जो

काज प्रभु का करता

मुक्त रहे चिंता से

शांत सदा वो रहता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

3.              जीवन रहते ही जो

मौत का अनुभव करता

संसार में रहकर भी

संसार से दूरी रखता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

4.              अन्याय कहीं भी हो

कैसा भी हो किसी का

खुद का दाँव लगाकर

हिम्मत से जो लड़ता

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

5.              दु:ख और सुख में जो दिल

ध्यान प्रभु का रखता

दूर रहे दुविधा से

नहीं व्यापत उसमें जड़ता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।
समर्पण

सौंप दो प्यारे प्रभु को

सब सरल हो जाएगा

जीना सहज हो जाएगा

मरना सफल हो जायेगा।

1. जिन्दगी की राह में

ऑंधियां तो आयेंगी

उसकी ही रहमत से

हमको हौसला मिल पायेगा।

2.              सोचता है हर कोई

अपने मन की बात हो

होगा जो मंजूर उसको

वक्त पर हो जाएगा।

3. मोड़ ले संसार वाले

नजरें तुमसे जिस घडी

हो यकीं तो आसरा

उसका तुम्हें मिल जाएगा।

4. माँगने से मिलता है

केवल वही जो माँगा था

कुछ न माँगो तो

खुदा खुद ही तुम्हें मिल जाएगा।

5. काटोगे फसलें वही

जैसी तुमने बोयी थी

कर्मो का चक्कर है

इससे कोई न बच पायेगा।

हमारे जमाने में यह होता था

केवल बूढ़ों की बातें ही नहीं

न ही अफसाने – किस्से

ये हो सकते हैं-

कभी चिडियों की चूँ-चूँ से हम जगते थे।

कभी बिना रूमाल मुँह पर रखे हम सांस ले सकते थे।

कभी सूरज बादलों की धुंध के पीछे नहीं छुपता था।

कभी पेड़ पर हरे पत्तो की छाया होती थी।

हाँ कभी –

हमारे जमाने की वो बात है

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अन्त कायर का

कायरों को वार नहीं झेलने पड़ते

और इसलिए घाव

न उनकी छाती पर होते हैं

न पीठ पर

उनका खून बाहर नहीं गिरता

नसों में दौड़ता रहता है

 

अलबत्ता मरते वक्त

उन्हें खून की कै होती है ।

– भवानीप्रसाद मिश्र .

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वेब ठिकानों का पर्यवेक्षण करने वाली संस्था ने कल (शुक्रवार,३० अक्टूबर २००९) को हिब्रू , हिन्दी , अरबी और कोरियन जैसी उन भाषाओं में इन्टरनेट पते बनाने की अनुमति दे दी है जिनकी वर्णमाला लैटिन वर्णमाला पर आधारित नहीं है । हफ़्ते भर की चर्चा करने के बाद इन्टरनेट कॉर्पोरेशन फॉर असाईन्ड नेम्स एन्ड नम्बर्स  (ICANN) की दक्षिण कोरिया की राजधानी में हुई बोर्ड-बैठक में मतदान द्वारा यह फैसला लिया गया । यह उम्मीद की जा रही है कि इस फैसले से इन्टरनेट का आधार व्यापक होगा । उल्लेखनीय है कि इस मसले पर विगत एक साल से बहस और परीक्षण चल रहे थे ।

दुनिया के देशों की सरकारें तथा वेब ठिकाने बनाने वाले आगामी १६ नवम्बर से निश्चित पते निर्धारित करने के लिए आवेदन करना शुरु कर सकेंगे । ICANN के एक अधिकारी ने बताया कि अरबी , चीनी जैसी भाषाओं में URL रखने की सर्वाधिक मांग है । उम्मीद है कि आगामी साल की शुरुआत से इन भाषाओं में URL देखे जा सकेंगे ।

विशेषज्ञों का मानना है कि इससे कमजोर तबकों के ,कम शिक्षित , अंग्रेजी न जानने वाले तबकों में तेजी के साथ इन्तरनेट का प्रसार बढ़ सकता है ।

आठवें दशक में जब जाल पतों की शुरुआत हुई तब से अंग्रेजी के २६ अक्षर (A से Z) तथा १० अंकों से ही पते बनते रहे हैं । कुछ तकनीकी उपायों से जाल पतों के शुरुआती अक्षरों में अन्य भाषाओं की लिपियों को शामिल किया जा सकता था किन्तु पतों के .com ,.in,.org जैसे प्रत्यय अथवा पुछल्लों में उक्त (अंग्रेजी के) ३७ अंक या अक्षर का प्रयोग संभव था । (स्रोत : AP)

[ क्या आपने यह खबर इससे पहले  मुख्यधारा की मीडिया में  पढ़ी थी ? ]

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रुको

कविता रुको
समाज, सामाजिकता रुको
रुको जन, रुको मन।

रुको सोच
सौंदर्य रुको
ठीक इस क्षण इस पल
इस वक्त उठना है
हाथ में लेना है झाड़ू
करनी है सफाई
दराजों की दीवारों की
रसोई गुसल आँगन की
दरवाजों की

कथन रुको
विवेचन रुको
कविता से जीवन बेहतर
जीना ही कविता
फतवों रुको हुंकारों रुको।

इस क्षण
धोने हैं बर्त्तन
उफ्, शीतल जल,
नहीं ठंडा पानी कहो
कहो हताशा तकलीफ
वक्त गुजरना
थकान बोरियत कहो
रुको प्रयोग
प्रयोगवादिता रुको

इस वक्त
ठीक इस वक्त
बनना है
आदमी जैसा आदमी।
(इतवारी पत्रिकाः ३ मार्च १९९७)
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स्केच

एक इंसान रो रहा है

औरत है

लेटर बाक्स पर

दोनों हाथों पर सिर टिकाए

बिलख रही है

टेढ़ी काया की निचली ओर

दिखता है स्तनों का उभार

औरत है

औरत है

दिखता है स्तनों का उभार

टेढ़ी काया की निचली ओर

बिलख रही है

दोनों हाथों पर सिर टिकाए

लेटर बाक्स पर

औरत है

एक इंसान रो रहा है

(पश्यंती १९९५)
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खबर

जाड़े की शाम

कमरा ठंडा   ठ  न्  डा

इस वक्त यही खबर है

– हालाँकि समाचार का टाइम हो गया है

कुछेक खबरें पढ़ी जा चुकी हैं

और नीली आँखों वाली ऐश्वर्य का ब्रेक हुआ है
है खबर अँधेरे की भी

काँच के पार जो और भी ठंडा

थोड़ी देर पहले अँधेरे से लौटा हूँ

डर के साथ छोड़ आया उसे दरवाजे पर
यहाँ खबर प्रकाश की जिसमें शून्य है

जिसमें हैं चिंताएं, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ

अकेलेपन का कायर सुख
और बेचैनी……..

……..इसी वक्त प्यार की खबर सुनने की

सुनने की खबर साँस, प्यास और आस की
कितनी देर से हम अपनी

खबर सुनने को बेचैन हैं।
(इतवारी पत्रिका – ३ मार्च १९९७)
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बकवास

कुछ पन्ने बकवास के लिए होते हैं

जो कुछ भी उन पर लिखा बकवास है
वैसे कुछ भी लिखा बकवास हो सकता है

बकवास करते हुए आदमी

बकवास पर सोच रहा हो सकता है

क्या पाकिस्तान में जो हो रहा है

वह बकवास है

हिंदुस्तान में क्या उससे कम बकवास है
क्या यह बकवास है

कि मैं बीच मैदान हिंदुस्तान और पाकिस्तान की

धोतियाँ खोलना चाहता हूँ
निहायत ही अगंभीर मुद्रा में

मेरा गंभीर मित्र हँस कर कहता है

सब बकवास है
बकवास ही सही

मुझे लिखना है कि

लोगों ने बहुत बकवास सुना है
युद्ध सरदारों ध्यान से सुनो

हम लोगों ने बहुत बकवास सुना है
और यह बकवास नहीं कि

हम और बकवास नहीं सुनेंगे।
(पश्यंतीः अक्तूबर-दिसंबर २०००)
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दिखना

आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं?

अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो?

बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में

कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?
कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है

जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है

बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है

इंसान खाते हुए दिखता है

आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ

वैसे आदम किस को दिखता है !
देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है

मुझे कहना है दिखने के बारे में

यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं

जब आप सबसे कम दिख रहे हों।

–पहल-७६ (२००४)
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एक और रात

दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है

उसे रातें गुजारने की आदत हो गई है
रात की मक्खियाँ रात की धूल

नाक कान में से घुस जिस्म की सैर करती हैं
पास से गुजरते अनजान पथिक

सदियों से उनके पैरों की आवाज गूँजती है

मस्तिष्क की शिराओं में।
उससे भी पहले जब रातें बनीं थीं

गूँजती होंगीं ये आवाजें।

उससे भी पहले से आदत पड़ी होगी

भूखी रातों की।
(पश्यंतीः – अक्तूबर-दिसंबर २०००; पाठ २००९)
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सखीकथा

हर रोज बतियाती सलोनी सखी

हर रोज समझाती दीवानी सखी

गीतों में मनके पिरोती सखी

सपनों में पलकें भिगोती सखी

नाचती है गाती इठलाती सखी

सुबह सुबह आग में जल जाती सखी
पानी की आग है

या तेल की है आग

झुलसी है चमड़ी

या फंदा या झाग
देखती हूँ आइने में खड़ी है सखी

सखी बन जाऊँ तो पूरी है सखी
न बतियाना समझाना, न मनके पिरोना

न गाना, इठलाना, न पलकें भिगोना
सखी मेरी सखी हाड़ मास मूर्त्त

निगल गई दुनिया

निष्ठुर और धूर्त्त।

(पश्यंती; अप्रैल-जून २००१)
———————– लाल्टू .

लाल्टू की अभिव्यक्ति

लाल्टू की अभिव्यक्ति


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      बात मध्यप्रदेश की है, किन्तु कमोबेश पूरे देश पर लागू होती है। मध्यप्रदेश हाईस्कूल का परीक्षा परिणाम इस साल बहुत खराब रहा। मात्र 35 फीसदी विद्यार्थी ही पास हो सके। परिणाम निकलने के बाद प्रदेश के कई हिस्सों से छात्र-छात्राओं की आत्महत्याओं की खबरें आईं।
        इतने खराब परीक्षा परिणाम की विवेचना चल रही है। मंत्री एवं अफसरों ने कहा कि शिक्षकों के चुनाव में व्यस्त होने के कारण परीक्षा परिणाम बिगड़ा है। किसी ने कहा कि आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा खत्म कर देने से यह हुआ है। लेकिन सच तो यह है कि लगातार बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था का यह परिणाम है। सरकार खुद इसे लगातार बिगाड़ रही है।
        इस परीक्षा परिणाम में एक मार्के की बात यह है कि सबसे ज्यादा अंग्रेजी और गणित  इन दो विषयों में ही विद्यार्थी फेल हुए हैं। अंग्रेजी में 3 लाख 21 हजार और गणित में 2 लाख विद्यार्थी फेल हुए हैं। कुछ दिन पहले घोषित मध्यप्रदेश हायर सेकेण्डरी की परीक्षा में भी फेल विद्यार्थियों में ज्यादातर अंग्रेजी व गणित में ही अटके हैं। अमूमन यही किस्सा हर साल का और देश के हर प्रांत का है। अंग्रेजी और गणित विषय आम विद्यार्थियों के लिये आतंक का स्त्रोत बने हुए हैं।
        गणित का मामला थोड़ा अलग है। गणित के साथ समस्या यह है कि इसे रटा नहीं जा सकता। इसकी परीक्षा में नकल भी आसान नहीं है। शुरुआती कक्षाओं में गणित को ठीक से न पढ़ाने की वजह से बाद की कक्षाओं में गणित कुछ भी समझ पाना एवं याद करना बहुत मुश्किल होता है। गणित विषय की बेहतर पढ़ाई की व्यवस्था जरुरी है।
        लेकिन अंग्रेजी क्यों इस देश के बच्चों पर लादी गई है ? पूरी तरह विदेशी भाषा होने के कारण बच्चों के लिए यह बहुत बड़ा बोझ बनी हुई है। देश के कुछ मुट्ठी भर अभिजात्य परिवारों को छोड़ दें , जिनकी संख्या देश की आबादी के एक प्रतिशत से भी कम होगी, तो देश के लोगों के लिए अंग्रेजी एक अजनबी, विदेशी और बोझिल भाषा है। अपनी जिन्दगी में दिन-रात उनका काम भारतीय भाषाओं या उसकी स्थानीय बोलियों में चलता है। उनमें अंग्रेजी के कुछ शब्द जरुर प्रचलित हो गए हैं, लेकिन अंग्रेजी भाषा बोलना, लिखना या पढ़ना उनके  लिए काफी मुश्किल काम है। फिर भी अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रुप में सारे बच्चों पर थोपी जा रहा है। पहले माध्यमिक शालाओं में कक्षा 6 से इसकी पढ़ाई शुरु होती थी, अब लगभग सारी सरकारों ने इसे पहली कक्षा से अनिवार्य कर दिया है।
        अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रुप में भारत के सारे बच्चों को पढ़ाने के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं, जो सब खोखले और गलत हैं। यह कहा जाता है कि अंग्रेजी दुनिया भर में बोली जाती है। अंग्रेजी से हमारे लिए दुनिया के दरवाजे खुलते हैं। हमारे देश को आगे बढ़ना हैं, शोध कार्य करना है, वैज्ञानिक प्रगति करना है, व्यापार करना है, विदेशों में नौकरी पाना है, तो अंग्र्रेजी सीखना ही होगा। लेकिन यह सत्य नहीं है। अंग्रेजी का प्रचलन सिर्फ उन्हीं देशों में     है जो कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं और वहां भी आम लोग अंग्रेजी नहीं जानते हैं। दुनिया के बाकी देश अपनी-अपनी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और वहां जाने, उनके साथ संवाद करने और उनको समझने के लिए उनकी भाषा सीखने की जरुरत होगी। स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, रुसी, पु्र्तगाली, इटेलियन, डच, चीनी, जापानी, अरबी, फारसी, कोरियन आदि भी अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं हैं। यदि दुनिया के दरवाजे वास्तव में भारतीयों के लिए खोलने हैं तो इन भाषाओं को भी सीखना पड़ेगा।
        फिर अंतर्राष्ट्रीय जगत से तो बहुत थोड़े भारतीयों को काम पड़ता है। उच्च स्तरीय शोधकार्य करने वाले मुट्ठी भर लोग ही होते हैं। उसके लिए देश के सारे बच्चों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जाए ? उन्हें क्यों कुंठित किया जाए ? बार-बार फेल करके उनके आगे बढ़ने के रास्ते क्यों रोके जाए ? प्रतिवर्ष पूरे देश में विभिन्न कक्षाओं में अंग्रेजी में फेल होते बच्चों की संख्या जोड़ी जाए, तो यह करोड़ों में होगी। क्या यह स्वतंत्र भारत का बहुत बड़ा अन्याय नहीं है ? जिन्हें उच्च स्तरीय शोधका्र्य करना है या विदेश जाना है, वे जरुरत होने पर अंग्रेजी या कोई भी विदेशी भाषा का छ: महीने का कोर्स करके कामचलाऊ ज्ञान हासिल कर सकते हैं। दूसरों देशों के नागरिक ऐसा ही करते हैं। सिर्फ भारत जैसे चंद पूर्व गुलाम देशों में ही एक विदेशी भाषा पूरे देश में थोपी जाती है। सच कहें तो, दुनिया का कोई भी देश एक विदेशी भाषा में प्रशासन, शिक्षा, अनुसंधान आदि करके आगे नहीं बढ़ पाया है।
        कई अभिभावक सोचते हैं कि अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाकर वे उसे ऊपर तक पहुंचा सकेगें। ‘‘इंग्लिश मीडियम’’ का एक पागलपन इन दिनों चला है और हर जगह घटिया निजी स्कूलों के रुप में इंग्लिश मीडियम की कई दुकानें खुल गई हैं। इंग्लिश मीडियम का मतलब है कि बच्चों को अंग्रेजी सिर्फ एक विषय के रुप में नहीं पढ़ाना, बल्कि सारे विषय अंग्रेजी भाषा में पढ़ाना। यह बच्चों के साथ और बड़ा अन्याय होता है। अपनी मातृभाषा में अच्छे तरीके से और आसानी से जिस विषय को वे समझ सकते थे, उसे उन्हें एक विदेशी भाषा में पढ़ना पड़ता है। उनके ऊपर दोहरा बोझ आ जाता है। अक्सर वे भाषा में ही अटक जाते हैं, विषय को समझने का नंबर ही नहीं आता है। फिर वे रटने लगते हैं। लेकिन विदेशी भाषा में रटने की भी एक सीमा होती है। इसमें कुछ ही बच्चे सफल हो पाते हैं, बाकी बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए यह एक मृग-मरीचिका ही साबित होता है। देश के करोड़ों बच्चे अंग्रेजी के इस मरुस्थल में क्लान्त और हैरान भटकते रहते हैं, कोई-कोई दम भी तोड़ देते हैं।
        यह सही है कि आज भी देश का ऊपर का कामकाज अंग्रेजी में होता है। प्रशासन, न्यायपालिका, उच्च शिक्षा, उद्योग, व्यापार सबमें ऊपर जाने पर अंग्रेजी का वर्चस्व मिलता हैं। अंग्रेजी न जानने पर ऊपर पहुंचना और टिकना काफी मुश्किल होता है। लेकिन इसका इलाज यह नहीं है कि सारे बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाई जाए। यह एक अस्वाभाविक स्थिति है और गुलामी की विरासत है, इसे जल्दी से जल्दी बदलना चाहिए। देश के शासक वर्ग ने अंग्रेजी की दीवार को इसीलिए बनाकर रखा है कि देश के करोड़ो बच्चे आगे नहीं बढ़ पाए और उनकी संतानों का एकाधिकार बना रहे। अंग्रेजी को अनिवार्य रुप से स्कूलों में पढ़ाने से यह एकाधिकार
टूटता नहीं, बल्कि मजबूत होता है।  अभिजात्य वर्ग के बच्चों को तो अंग्रेजी विरासत में मिलती है। फर्राटे से अंग्रेजी न बोल पाने और न लिख पाने के कारण साधारण पृष्ठभूमि के बच्चे प्राय: हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। आधुनिक भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व न केवल भेदभाव, विशेषाधिकारों और यथास्थिति को बनाए रखने का बहुत बड़ा औजार है, बल्कि देश की प्रगति को रोकने का बहुत बड़ा कारण भी है। जिस देश के ज्यादातर बच्चे कुंठित एवं हीन भावना के शिकार होंगें, उनके ऊपर दोहरी शिक्षा का अन्यायपू्र्ण बोझ लदा रहेगा, वे ज्ञान-विज्ञान के विषयों को समझ ही नहीं पाएंगे और उनके आगे बढ़ने के रास्ते अवरुद्ध रहेगें, वह देश कैसे आगे बढ़ेगा।
        अंग्रेजी के वर्चस्व का दूसरा नुकसान यह भी होता है कि देशी परिस्थितियों के मुताबिक मौलिक सोच, स्वतंत्र चिन्तन व देशज शोध-अनुसंधान भी काफी हद तक नहीं हो पाता है। पूरा देश नकलचियों का देश बना रहता है और कई बार नकल में अकल भी नहीं लगाई जाती है।
        इसीलिए समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया ने आजाद भारत में सार्वजनिक जीवन से अंग्रेजी के वर्चस्व को हटाने का आह्वान किया था। डॉ. लोहिया की जन्म शताब्दी इस वर्ष मनाई जा रही है और यदि इस दिशा में हम कुछ कर सकें, तो यह उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी। यह वर्ष महात्मा गांधी की  अद्वितीय पुस्तक ‘‘हिन्द स्वराज’’ का भी शताब्दी वर्ष है। इसमें लिखे गांधी जी के इन शब्दों को भुलाकर हमने अपनी बहुत बड़ी क्षति की है –
        ‘‘ अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। ……………यह क्या कम जुल्म  की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। ………. यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है ?’’

——–00——–

(लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय अध्यक्ष है।)

 

    सुनील
    ग्राम पोस्ट -केसला, वाया इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) 461 111
    फोन नं० – 09425040452

ई – मेल   sjpsunilATgmailDOTcom

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