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Archive for the ‘journalism’ Category

१९३६ में गुजरात साहित्य परिषद के समक्ष परिषद के पत्रकारिता प्रभाग की रपट महादेव देसाई ने प्रस्तुत की थी । उक्त रपट के प्रमुख अनुदित हिस्से इस ब्लॉग पर मैंने दिए थे । नीचे की कड़ी ऑनलाईन पीडीएफ़ पुस्तिका के रूप में पेश है । मुझे उम्मीद है कि पीडीएफ़ फाइल में ऑनलाईन पेश की गई इस पुस्तिका का ब्लॉगरवृन्द स्वागत करेंगे और उन्हें इसका लाभ मिलेगा । महादेव देसाई गांधीजी के सचिव होने के साथ-साथ उनके अंग्रेजी पत्र हरिजन के सम्पादक भी थे । कई बार गांधीजी के भाषणों से सीधे टेलिग्राम के फार्म पर रपट बना कर भाषण खतम होते ही भेजने की भी नौबत आती थी । वे शॉर्ट हैण्ड नहीं जानते थे लेकिन शॉर्ट हैण्ड जानने वाले रिपोर्टर अपने छूटे हुए अंश उनके नोट्स से हासिल करते थे ।

पत्रकारिता : महादेव देसाई-पीडीएफ़

इस ब्लॉग पर पुस्तिका की पोस्ट-माला (लिंक सहित) नीचे दी हुई है :

पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य

पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव देसाई

पत्रकारिता (३) : खबरों की शुद्धता , ले. महादेव देसाई

पत्रकारिता (४) : ” क्या गांधीजी को बिल्लियाँ पसन्द हैं ? ”

पत्रकारिता (५) :ले. महादेव देसाई : ‘ उस नर्तकी से विवाह हेतु ५०० लोग तैयार ‘

पत्रकारिता (६) : हक़ीक़त भी अपमानजनक हो, तब ? , ले. महादेव देसाई

समाचारपत्रों में गन्दगी : ले. महादेव देसाई

क्या पाठक का लाभ अखबारों की चिन्ता है ?

समाचार : व्यापक दृष्टि में , ले. महादेव देसाई

रिपोर्टिंग : ले. महादेव देसाई

तिलक महाराज का ‘ केसरी ‘ और मैंचेस्टर गार्डियन : ले. महादेव देसाई

विशिष्ट विषयों पर लेखन : ले. महादेव देसाई

अखबारों में विज्ञापन , सिनेमा : ले. महादेव देसाई

अखबारों में सुरुचिपोषक तत्त्व : ले. महादेव देसाई

अखबारों के सूत्रधार : सम्पादक , ले. महादेव देसाई

कुछ प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार (१९३८) : महादेव देसाई

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प्रथम भाग से आगे :

    भारतीयता के अलग – अलग युग हुए हैं और इनमें नारी जीवन के अलग-अलग मूल्य बने हैं । इनके अनुसार अलग – अलग प्रथायें भी प्रचलित हुईं हैं । आज का भारतीय अपने ही इतिहास से किसी एक परम्परा को बनाए रखने के लिए कुछ अन्य परम्पराओं को तथा प्रथाओं को ठुकरायेगा ही । सती – प्रथा भारतीय – समाज के कुछ ही इलाकों में , कुछ ही कालखण्डों में प्रचलित प्रथा है । इसलिए कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति की जो स्वस्थ मुख्यधारा रही है उससे इसका तार्किक मेल नहीं है । जिन दिनों हिन्दू समाज में पुरुषार्थ इतना घट गया था कि अपने मुल्क या अपने धर्म की रक्षा करने के लिए सामर्थ्य नहीं रह गया था , जिन दिनों राजपूत रमणियों के पास आत्महत्या के अलावा सम्मान – रक्षा का कोई उपाय नहीं बच गया था , सती – प्रथा को उन्हीं दिनों गौरव प्राप्त हुआ था । उसके पहले सिर्फ निकृष्ट व्यक्ति और निकृष्ट संस्कृति के सन्दर्भ में सती – प्रथा का उल्लेख है । रामायण की सती अयोध्या में नहीं लंका में है । कुन्ती सती नहीं होती है , माद्री होती है । आपने अपने ही लेख में लड़कियों के पैदा होते ही मार दिए जाने की घटना को शर्मनाक और राजपूतों की कायरता की निशानी कहा है । अपनी बेटियों के मान – सम्मान की रक्षा का आत्मविश्वास उनमें नहीं था । सती – प्रथा पर भी ठीक वही बात लागू होती है , क्योंकि कायरता के जमाने में ही पद्मिनी को आदर्श नारी माना गया है ।

    भारतीय समाज में  सिद्धान्त और आचरण की दूरी शायद दूसरे समाजों की तुलना में ज्यादा है । आपने ऐसे सिद्धान्तों का हवाला दिया है जिन पर अमल नहीं होता है या किसी एक जमाने में सम्भवत: उन पर अमल होता हो जबकि अधिकांश कालावधि में उनसे विपरीत व्यवहार चला है । आपने पंचकन्याओं का उल्लेख कर कहा है कि नारी के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टिकोण कितना उदार और विज्ञान सम्मत है । लेकिन क्या आपने कभी हिन्दू परिवार में किसी को कहते हुए सुना है कि अमुक स्त्री द्रौपदी जैसी या कुन्ती जैसी या अहिल्या जैसी सती-साध्वी है ? वाल्मीकि रामायण और महाभारत के बाद नारी का इस प्रकार का आदर्श न पुराणों में है , न किस्सों-कहानी में है , न कथोपकथन में है । भारतीय नारी का वह स्वर्ण युग खतम हो गया है । उसके बाद के कालों की जो भारतीयता हमारे सामने है , उसमें नारी का सामाजिक मूल्य भिन्न प्रकार का हो गया है । यह शायद सर्वसम्मत है कि उपनिषद और महाभारत के बाद भारतीय नारी का अवमूल्यन होता रहा । वाल्मीकि की सीता असभ्य कट्टर राम की आलोचना करती है । तुलसी की सीता के मुँह से ऐसी आलोचना निकल नहीं सकती है । पंचकन्या को सती माननेवाला समाज और सती की पूजा करनेवाला समाज दो अलग – अलग दृष्टिकोणों की उपज हैं । दो भिन्न संस्कृतियाँ हैं । आप जब भारतीयता के बारे में लिखते हैं तब उपनिषद , गौतम बुद्ध , महाभारत , मनुस्मृति , तुलसीदास और मुगलकालीन राजपूत समाज , इन सबको एक ही संस्कृति मान लेते हैं । एक  ही सभ्यता की कुछ मौलिक धारणायें इन सबके पीछे कड़ी के तौर पर रही होंगी । लेकिन आचरण , प्रथा , पुरुषार्थ , दृष्टिकोण , मान्यताएँ अलग – अलग हैं । एक दूसरे के विपरीत भी हैं । भारतीयता के किसी एक युग या एक स्थल के सिद्धान्त को बताकर भारतीयता के किसी दूसरे युग या स्थल की मान्यताओं के पक्ष में बहस करना तर्क की बहुत बड़ी ग़लती होगी । वर्णाश्रम और जाति-प्रथा का फर्क काफ़ी सूक्ष्म है । फिर भी जाति प्रथा के पक्ष में बहस करने के लिए वर्णाश्रम के सिद्धान्त को बताना तर्क की ग़लती होगी ।

    आप पश्चिमी   संस्कृति और भारतीय संस्कृति की तुलना करते हैं , इस प्रकार की गलतियाँ बार – बार होती हैं । भारतीय संस्कृति की कुछ अवधारणायें जरूर ऐसी हैं जो दुनिया में श्रेष्ठ हैं और मानव संस्कृति के नवनिर्माण के लिए आधार बन सकती हैं । लेकिन आपकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति में सब कुछ अच्छा है , युरोपीय संस्कृति में सब कुछ तुच्छ है । भारतीय नारी के बारे में आप चुन चुन कर ऐसी बातें निकालते हैं जो श्रेष्ठ हैं और वे ज्यादातर तो सिद्धान्तरूप में हैं , व्यवहार में नहीं हैं ( जैसी पंचसती का श्लोक ) । नारी के सम्बन्ध में जो प्रतिकूल बाते हैं , श्लोकों से लेकर कहावत तक ,  उसका आप उल्ले नहीं करते । जिन श्लोकों में और कहावतों में कामुकता का स्रोत नारी को ही माना गया है  , पराधीनता नारी की स्वाभाविक स्थिति मानी गयी है ,  उनको आपने छोड़ दिया है । दूसरी ओर युरोपीय समाज की जो खास उपलब्धियाँ हैं उनको आप छोड़ देते हैं और वहाँ की निकृष्ट बातों का जिक्र करते हैं । कैथलिक संन्यासिनियों की परम्परा को आपने बिलकुल नजरअन्दाज कर दिया है । संयुक्त परिवार को आपने भारतीय विशेषता मान ली है , जब कि यह यूरोप तथा सारी दुनिया में प्रचलित था ।

    आधुनिकतावाद और युरोपीय संस्कृति दो अलग – अलग चीजें हैं । आप दोनों को एक मान रहे हैं । युरोपीय संस्कृति की अपनी जड़ें हैं जबकि आधुनिकतावाद जड़विहीन है । पश्चिम की प्रभुता और समृद्धि से प्रभावित होकर गैरयूरोपीय बुद्धिजीवियों ने उसका अनुकरण किया है । हीन – भावनाग्रस्त होकर , अपनी भाषाओं को छोड़कर , अपने इतिहास को बाजू में रखकर उन्होंने एक नकली संस्कृति का निर्माण किया है । यही आधुनिकतावाद है । यूरोपीय संस्कृति में फ्रांस या जरमनी में आप कल्पना कर नहीं सकते कि किसी विदेशी भाषा को राष्ट्रीय कार्यकलाप , अनुसन्धान और शिक्षा का माध्यम बनाया जाए । पश्चिमी समाज अभी भी नये नये सत्यों और तथ्यों का अनुसंधान करता है । नए सत्यों का उद्घाटन , नए प्रतिपादनों की स्थापना , मौलिक यन्त्रों का निर्माण आधुनिकतावाद की क्षमता के बाहर है । आधुनिकतावाद विकासशील देशों की संस्कृति है ,  यूरोप की नहीं । यूरोपीय समाज और आधुनिकतावादी समाज में काफ़ी सामंजस्य है , कारण आधुनिकतावादी समाज उस सारे सामान , तरीकों और धारणाओं का इस्तेमाल करता है जिनकी उत्पत्ति पश्चिम में हुई है । इस बाह्य सामंजस्य के तले जो आधुनिकतावाद की असलियत है , वह एक नकलची और गुलामों की संस्कृति है ।

    यूरोपीय संस्कृति का विकास भारत जैसा लम्बा या पुराना नहीं है , इसका पतन भी शुरु हो चुका है । प्रभुता और यान्त्रिक सम्रुद्धि को छोड़कर उसमें और कोई प्रभावशाली गुण नहीं रह गया है । लेकिन उसके पूरे इतिहास को देखें तो मानव समाज के लिए उसके कई महत्वपूर्ण योगदान हैं । जिन मुद्दों पर उसका योगदान है उन बातों में भारतीय संस्कृति में कमियाँ पाई जाती हैं । व्यक्ति की गरिमा , जिसका आपने कई बार जिक्र किया है , एक यूरोपीय अवधारणा थी ,अब सारी दुनिया की अवधारण है । फ्रांसीसी क्रान्ति के तीन शब्द ’स्वतंत्रता , समता और भातृभाव ’ आधुनिक मनुष्य के सपने के पर्यायवाची बन गये हैं । जब किसी समाज में पुरुषार्थ होता है और कुछ मूल्य होते हैं तब उन मूल्यों की दिशा में सत्य का अनुसंधान चलता है । जब भारतीय समाज में पुरुषार्थ था तब एक खास दिशा में सत्य का अनुसंधान था । इसको हम ’आध्यात्मिक दिशा’ कह सकते हैं । यूरोपीय समाज में भौतिक मूल्यों को अग्राधिकार मिला । भौतिक सुख को सर्वोच्च मानकर पश्चिम में जो अभूतपूर्व अनुसंधान चला , वह अभी भी भी जारी है लेकिन मौजूदा भारतीय समाज में आध्यात्मिक या भौतिक किसी प्रकार के सत्य का अनुसन्धान नहीं है । उसमें जड़ता आ गई है । यूरोप के सत्य से जो भौतिक सम्रुद्धि बनी वह राक्षसी हो गई क्योंकि पश्चिम की प्रभुता और समृद्धि को बनाये रखने के लिए बाकी मानव समाज को कंगाली और गुलामी में रखना पड़ता है । यूरोप का अपना लक्ष्य (स्वतंत्रता , समता और भ्रातृत्व ) अब मौजूदा यूरोपीय संस्कृति के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है । मानव समाज को एक नई संस्कृति चाहिए 

     ( अगली किश्त में समाप्य  ) 

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लेख का भाग एक , दो 

    समाचार-पत्र अगर समाचारों के पत्र होते , तो इतनी सारी बहस की जरूरत नहीं होती । अगर दुनिया मे कभी समाचारों का पत्र होगा तो वह एक बिलकुल भिन्न चीज होगी । मौजूदा सभ्यता में समाचार-पत्र एक तरह से देखें तो जनमत का प्रहरी है , दूसरे ढंग से देखें तो वह जनमत का निर्माता है । यह मत-निर्माण सिर्फ तात्कालिक मुद्दों के बारे में नहीं होता है , बल्कि गहरी मान्यताओं और दीर्घकालीन समस्याओं के स्तर पर भी होता है । यह मत-निर्माण या प्रचार इतना मौलिक और प्रभावशाली है कि इसे मानस-निर्माण ही कहा जा सकता है । प्रचार का सबसे प्रभावशाली रूप है समाचार वाला रूप । अगर आप यह कहें कि ’ गन्दगी से घृणा करनी चाहिए’, तो यह गन्दगी के खिलाफ़ एक कमजोर प्रचार है । अगर आप कहें कि ’गन्दगी बढ़ गयी है’, तो गन्दगी के खिलाफ़ यह ज्यादा प्रभावशाली वाक्य है । आप कहे कि ’पाकिस्तान को दुश्मन समझो’, तो इसका असर कम लोगों पर होगा । कुछ लोग पूछेंगे , क्यों ? लेकिन वही लोग जब पढ़ेंगे कि ’ पाकिस्तान को अमरीका से हथियारों का नया भंडार मिला’ तो दुश्मनी अपने आप मजबूत हो जायेगी । आप प्रचार करेंगे कि ’ हमें पाँच-सितारा होटलों की जरूरत है’, तो लोग कहेंगे – नहीं । लेकिन वे जब पढ़ेंगे कि ’ होटल व्यवसाय से सरकार ने १० करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा कमाई’ तो उन्हें खुशी होगी । प्रचार में द्वन्द्व रहता है । शिक्षा – दान में द्वन्द्व रहता है । समाचार में द्वन्द्व नहीं होता है – इसलिए समाचारों से मान्यतायें बनती हैं , मानस पैदा होता है । इसीसे अनुमान लगाना चाहिए कि दैत्याकार बहुराष्ट्रीय पत्र – पत्रिकाओं का कितना प्रभाव तीसरी दुनिया के शिक्षित वर्ग पर होता है ।

     गांधीजी ने जब ’हिन्द-स्वराज्य’ लिखा, डॉक्टरों और वकीलों के पेशे को समाज-विरोधी पेशे के रूप में दिखाया । हो सकता है कि वे उदाहरणॊं की संख्या बढ़ाना नहीं चाहते थे या हो सकता है कि पत्रकारों के समाज – विरोधी चरित्र का साक्षात्कार उन दिनों उन्हें नहीं हुआ था । गांधी अति अव्यावहारिक विचारकों की श्रेणी में आते हैं । उनके सपने का समाज नहीं बनने वाला है । हम वकीलों-डॉक्टरों के पेशे को समाज -विरोधी नहीं कह सकते । साधारण नागरिक के लिए पग-पग पर वकील-डॉक्टर की सेवा की जरूरत पड़ जाती है । जैसे हम जानते हैं कि स्कूलों में अच्छी शिक्षा नहीं दी जाती है, लेकिन हम अगर स्कूलों को समाज विरोधी कहेंगे, तो हमारे बच्चे मूर्ख रह जायेंगे । इसी तरह समाचार-पत्र के आधुनिक मनुष्य के लिए  एक बहुत बड़ा बोझ होने पर भी उसे पढ़े बिना रहने पर हम अज्ञानी रह जायेंगे । समाज में बात करने लायक नहीं रह जायेंगे । ज्यादा से ज्यादा आप इसे एक विडम्बनापूर्ण स्थिति कह सकते हैं , जहाँ समाचार-पत्रों की स्वाधीनता है , लेकिन पत्रकार पराधीन है । समाचार-पत्र आधुनिक मनुष्य के ऊपर एक बहुत बड़ा अत्याचार है । साथ ही , वह हमारी सांवैधानिक आजादी का माध्यम भी है ।

– स्रोत : सामयिक वार्ता , अक्टूबर , १९८८

 

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( लेख का पिछला भाग ) पत्रकारों में एक निपुणता होती है । उनकी भाषा चुस्त होती है । वे तर्क और भावना का पुट देकर विषयों पर रोशनी डालते हैं । लेकिन विज्ञापन सामग्री के रचनाकारों में भी तो ये सारी योग्यतायें होती हैं । कुछ विज्ञापनों को पढ़ते वक्त भ्रम हो जाता है कि हम साहित्य या दर्शन पढ़ रहे हैं । विज्ञापन सामग्री बनाने वाले का नाम नहीं छपता है । कुछ अरसे के बाद छप सकता है । क्यों नहीं ? राजनैतिक – सामाजिक मुद्दों पर समाचार – टिप्पणी लिखनेवालों की ज्यादा चर्चा होती है । उनकी प्रतिष्ठा बनती है ।  उस प्रतिष्ठा का बड़ा हिस्सा यह है कि वे एक दैत्याकार उद्योग के बुद्धिजीवी हैं । प्रतिष्ठा का दूसरा हिस्सा यह है कि कुछ पत्रकारों में लेखकवाला अंश भी होता है । यहाँ हम ’लेखक’ शब्द का इस्तेमाल बहुत संकुचित अर्थ में कर रहे हैं । लेखक वह है जो अपनी समग्र चेतना के बल पर अभिव्यक्ति करता है । लेखक की कसौटी पर पत्रकार की कोटि लेखक और लिपिक के बीच की है । जैसे किसी जाँच आयोग का प्रतिवेदन लिखनेवाला कर्मचारी , कनूनी बहस की अरजी लिखनेवाला वकील या पर्यटन गाइड लिखनेवाला भी लेखक ही होता है। आज के दिन आप नहीं कह सकते हैं कि एक अच्छा पत्रकार एक घटिया साहित्यकार से बेहतर है । दोनोंके प्रेरणा स्रोत अलग हैं । यह हो सकता है कि कोई व्यक्ति साहित्य लिखना छोड़कर  पत्रकार के रूप में अच्छा नाम कमाए । अभी सिर्फ भारतीय भाषाओं की पिछड़ी हुई पत्र – पत्रिकाओं में साहित्यिकों को पत्रकारिता के काम के लिए बुलाया जाता है।अत्याधुनिक पत्र-पत्रिकाओं में ऐसी परिपाटी खत्म हो गई है , क्योंकि साहित्यिकों में ऐसे संस्कार होते हैं , जो पत्रकारिता के लिए अयोग्यता के लक्षण हैं ।

अगर किसी बड़े समाचार-पत्र का सम्पादक दावा करता है कि उसके काम – काज में सेठजी ने कभी दखल नहीं दिया , तो उस सम्पादक को यह भी मालूम होना चाहिए कि आधुनिक सेठजी दखल नहीं दिया करते । ऐसे अनेक सेठजी होंगे , जिन्होंने कभी अपने बावरची , खजांची या दरजी के काम में दखल नहीं दिया हो । बड़े समाचार-पत्रों का सम्पादक चुने जाने की एक योग्यता यह है कि  उसको अक्लमन्द होना चाहिए , ताकि उसके काम में मालिक को दखल देना न पड़े । जिस पत्रकार में लेखक वाला संस्कार बचा है  , उसके काम में दखल देना पड़ जाता है । इसीलिए मुम्बई के हमारे एक दोस्त को बहुत समय तक सम्पादक नहीं बनाया गया । दिल्ली में हमारे एक दूसरे दोस्त एक बड़े उद्योगपति के प्रमुख अखबार के पत्रकार हैं । उस अखबार में एक वरिष्ठ पत्रकार थे , जो अपने व्यक्तिगत जीवन में घोर साम्यवादी हैं । उनका लेखन उच्च कोटि का था , जिस पर अखबार को गर्व था । जब उनकी सेवा-निवृत्ति का समय आया , तो हमारे दोस्त ने चुटकी ली ,” कामरेड , आपका जो लम्बा जीवन बाकी है उसमें मैं आशा करता हूं कि आप हमारे उद्योगपति – मालिक के धन्धों के बारे में एक पुस्तक लिखेंगे ।” “क्यों ?” ” उनमें स्वतंत्र-लेखन शक्ति बच नहीं गई है , अगर उनमें ऐसी कोई शक्ति बची होगी तो मालिक की ओर से पत्र में नियमित कॉलम के माध्यम से उनको अच्छी रकम मिलती रहेगी । “

नई पीढ़ी के पत्रकारों के मामलों में यह जोखिम नहीं है । वे लेखक या विचारक के रूप में नहीं , शुरु से ही पत्रकार के रूप में प्रशिक्षित हो रहे हैं । यहाँ विचारों को दबाने के लिए अधिक भत्ता देना नहीं पड़ता है – सिर्फ इस काम को आकर्षक बनाने के लिए खूबसूरत वेतन – भत्ते का प्रबन्ध रहता है । यह वेतन – भत्ता विशिष्टजनों के लायक है । इस वेतन-भत्ते के लायक होने के लिए प्रतिबद्धताविहीन बुद्धिजीवी होने का प्रशिक्षण उन्हें मिलता रहता है । समाचार-पत्र उद्योग के प्रसार के लिए यह एक शर्त है कि समाज में प्रतिबद्धताविहीन लेखकों का एक बुद्धिजीवी वर्ग पैदा किया जाये । यानी शिक्षा और प्रशिक्षण की प्रक्रिया में ही उन्हें मालिक वर्ग की विचारदृष्टि में दीक्षित कर लिया जाए , ताकि किसी आदरणीय सम्पादक के बारे में यह कहना न पड़े कि वे अपने विचारों को दबाकर लिख रहे हैं । हम सीधे कह सकते हैं कि सम्पादक की विश्वदृष्टि और सेठजी की विश्वदृष्टि में एक अपूर्व मेल का संयोग है ।

( अगली किश्त में समाप्य )

भाग – तीन

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मनुष्य की आज़ादी एक टेढ़ी खीर है । किसी भी व्यवस्थित समाज में अभिव्यक्ति की पगडंडियां बन जाती हैं । आजादी के औजार बने बनाये रहते हैं । औसत मनुष्य उन औजारों के सहारे अपनी स्वतंत्रता का बोध कर लेता है । आजादी की जो पगडंडियां बनी हुई हैं , उनमें से समाचार – पत्र एक है । रोज सबेरे एक अखबार खरीदकर आप इस पगडंडी पर चल सकते हैं । वोट देने , वकील नियुक्त करने , अखबार खरीदने की प्रक्रियाओं में हमारी सांवैधानिक आजादी प्रतिफलित होती है । अगर राजनैतिक दलों , अखबारों , वकीलों की आजादी नहीं रहेगी , तो हमारी आजादी भी नही रहेगी ।

आधुनिक टेकनोलौजी ने समाचार-पत्रों तथा दूसरे संचार माध्यमों की क्षमता बढ़ा दी है । करोड़ों – अरबों लोगों की अभिव्यक्ति का ठेका एक समाचार-पत्र ले सकता है । ऐसे समाचार-पत्रों का संचालन सिर्फ सत्ताधारी पूंजीपति कर सकते हैं। संचार और अभिव्यक्ति – इन दो शब्दों का कुछ लोग एक ही अर्थ लगाते हैं । संचार आसान हो गया है तो कहते हैं कि अभिव्यक्ति आसान हो गयी है । बात उलटी है । संचार माध्यमों के द्वारा सिर्फ उन सारे लोगों की अभिव्यक्ति बनी रहेगी , जिनको संचार-माध्यमों के मालिक चुन लेंगे ।IMG_0314 बड़े समाचार-पत्रों ने छोटे पत्रों की अभिव्यक्ति छीन ली है । अब जो स्थानीय पत्र होते हैं , वे बड़े पत्रों के स्थानीय संस्करण जैसे ही होते हैं । अलग अभिव्यक्ति हो नहीं सकती। पुरानी टेकनौलोजी में यह संभव था कि सत्ता में रहे बगैर भी समाजवादी , साम्यवादी , ग्रामोद्योगवादी , नास्तिकवादी दृ्ष्टिकोण की पत्रिकाएँ समाज में प्रतिष्ठित हो सकती थीं । अब सिर्फ़ अपने समर्थकों के बीच ही उनका वितरण सीमित रहता है । तात्कालिक राजनैतिक प्रश्नों को छोड़कर हर चीज पर सारे प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों का स्वर एक-जैसा होता है । ’टाइम’ और ’न्यूजवीक’ के बीच , हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के बीच अभिव्यक्तियों का संसार पूरा हो जाता है ।

कुछ लोग आजादी के बाद और उसके पहले की पत्रकारिता की तुलना करते हैं और कहते हैं कि पहले के पत्रकार अच्छे थे । ऐसा कहना गलत है । अच्छे और बुरे पत्रकार की बात नहीं है । टेकनौलोजी बदल गयी है । आधुनिक टेकनौलोजी के फलस्वरूप पत्रकारिता एक बड़ा उद्योग बन चुकी है और पत्रकार नामक एक नये किस्म के सम्पन्न कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है । दूसरे बड़े उद्योगों को चलानेवाला कोई पूंजीपति इस उद्योग को भी चला सकता है या अपनी औद्योगिक शुरुआत समाचार-पत्र के ’उत्पादन’ से कर सकता है । इस उद्योग के सारे कर्मचारी उद्योगपति समेत पत्रकार हैं । हम जब समाचार-पत्र की आजादी की बात कहते हैं , तो उसे पत्रकारों की आजादी कहना एक भयंकर भूल होगी । आधुनिक टेकनौलोजी ने पत्रकार के साथ यही किया है , जो हर प्रकार के श्रमिक-उत्पादकों के साथ किया है  । आधुनिक टेकनौलोजी ने बुनकरों , चर्मकारों , लोहारों जैसे श्रमिक-उत्पादकों के हाथ में ऐसा कोई कौशल नहीं दिया जिससे उनकी उत्पादन-कार्यक्षमता बढ़ जाए । इस टेकनौलोजी ने ऐसा यन्त्र और ऐसी व्यवस्था पैदा की है , जिसमें श्रमिक खुद उत्पादक न हो सके , वह किसी व्यवस्थापक या प्रबन्धक के अधीन एक मजदूर बन कर रह जाए । लेखकों -पत्रकारों के साथ यही हुआ । आधुनिक टेकनौलोजी के पहले जो पत्र निकलते थे,उनमें अधिकांश पत्रों को निकालने वाले लोग लेखक-साहित्यिक-विचारक थे । औपचारिक या अनौपचारिक ढंग से उनका समूह होता था और उस समूह की ओर से पत्र प्रकाशित होते थे । नई टेकनौलोजी के बाद लेखक अपना पत्र नहीं निकाल सकता। पत्रकार अपना लेख भी नहीं लिख सकता । उसका लिखना एक व्यवस्थापक के संयोजन के तहत होता है ।  किसी प्रतिष्ठित पत्र के मालिक अब प्रेमचन्द , बाल गंगाधर तिलक , गांधी या गोपबन्धु दास नहीं हो सकते । इसका मतलब यह नहीं कि कोई लेखक समाचार-पत्र का मालिक नहीं हो सकता है । होने के लिए उसे अपना लेखक-साहित्यिक-विचारक का जीवन छोड़कर व्यवस्थापक या उद्योगपति का जीवन अपनाना होगा । कहने का मतलब यह भी नहीं है कि हरेक लेखक या विचारक का अपना पत्र होना चाहिए । लेकिन पत्र अवश्य लेखकों का होना चाहिए । समाचार-पत्र हो या कपड़ा , आज की उत्पादन – व्यवस्था में उद्योगपति-व्यवस्थापक को छोड़कर कोई नहीं कह सकता है कि यह ’मेरा उत्पाद है ।’ कुछ लोग अपने को धोखा देने के लिए कह सकते हैं कि यह हमारा सामूहिक उत्पादन है । इस धोखे को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए ’प्रबन्धन में मजदूरों की हिस्सेदारी’ का सिद्धान्त कुछ दिनों तक चला । आधुनिक टेकनौलोजी ने इस सिद्धान्त का मखौल उड़ाया है । अत्याधुनिक टेकनौलोजी में मजदूरों का जो स्थान है , दैत्याकार समाचार-पत्रों में पत्रकारों का वही स्थान है । इसलिए उनको वास्तविक रूप में पत्रकार माना और कहा जाए या नहीं , यह प्रश्न उठ सकता है ।

( जारी – भाग दो , तीन )

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Fraud

Fraud

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लोकसभा का १९७७ का आम चुनाव । जेपी ने कहा कि इस चुनाव में लोगों को तानाशाही और लोकतंत्र के बीच चुनाव करना है । जेपी की कल्पना की तरुणों की जमात – छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का उत्तर प्रदेश में भी गठन हो चुका था । कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए बनी जनता पार्टी से अलग थी – वाहिनी । ‘ डरो मत ! अभी हम जिन्दा हैं ‘ और ”जनता पार्टी को वोट जरूर दो लेकिन वोट देकर सो मत जाना ‘ – जैसे जेपी के मुँह से निकले सूत्रों को लोगों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी वाहिनी की थी । वाहिनी की बनारस की टीम ने प्रचार का एक नायाब तरीका सृजित किया – ‘पोस्टर चित्र प्रदर्शनी’। एक अत्यन्त प्रभावशाली माध्यम । सैंकड़ों की भीड़ प्रदर्शनी देखने उमड़ पड़ती थी । आँकड़ों सूक्तियों और कविताओं के साथ – साथ हर पोस्टर में प्रभावशाली चित्र होते हैं । निरंकुश तानाशाही के दो प्रमुख सत्ता केन्द्रों के चुनाव क्षेत्रों – रायबरेली और अमेठी में इस टीम ने यह प्रदर्शनी दिखाई । टीम का सबसे कम उम्र का किन्तु सबसे हूनरमन्द सदस्य था सुशील । कबीर और लोहिया का तेवर लिए पेन्टिंग का विद्यार्थी । टीम के अन्य सदस्य थे  दृश्य कला संकाय में सुशील के सीनियर सन्तोष सिंह , ‘६७ के अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन से युवजन राजनीति में आए अशोक मिश्र और ‘शिक्षा में क्रान्ति’ के लिए जेपी के आवाहन पर विश्वविद्यालयी पढ़ाई छोड़ कर बिहार के सहरसा और मुजफ़्फ़रपुर जिलों के गाँवों में साल भर रहकर आए नचिकेता ।

    रायबरेली – अमेठी से लौट कर इस टीम ने पूरे यक़ीन से बताया कि इन्दिरा गांधी और संजय गांधी भी चुनाव हार रहे हैं । जनता खुद कैसे नारे गढ़ती है इसका एक नमूना भी बताया । रामदेव नामक एक कांग्रेसी विधायक को घेर कर लोग उन दिनों कहते- ‘ जब कटत रहे कामदेव ,तब कहाँ रहें रामदेव ?’  सवाल का जवाब और आगे की कार्रवाई की सलाह अगली पंक्ति में स्पष्ट थी – ‘ अब , जब वोट माँगे रामदेव , तब पेड़ में ‘उनका’ बाँध देओ ।’ नारे में अलंकार !

   ‘ दिनमान ‘ में रघुवीर सहाय आए तो उन्होंने छोटे शहरों , कस्बों और देहात के तरुणों को पत्रकारिता की तालीम खुद दी । ‘सुशील को उनके हाथ से लिखे ख़त मिलते थे ‘ ‘शीर्षक कैसे चुनें’ जैसे विषयों पर । दिनमान में सुशील की रपट भी छपती थी और रेखाचित्र ( स्केच ) भी । सुशील से हम पूछते , ‘सड़क से चिपकी , विकृत-सी मनुष्य आकृति , क्यों ?’ अत्यन्त सहजता से किन्तु दर्द के साथ सुशील परिप्रश्न करते,‘क्या मानवता विकृत नहीं हुई ?’

  सुशील छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के पहले जिला संयोजक बने । जनता पार्टी सत्ता में आ गई लेकिन सुशील के वरिष्ट साथी अरुण कुमार रिहा नहीं हुए । जनसंघी पृष्टभूमि के ओमप्रकाश सिंह मंत्री बने । ‘ बेशक सरकार हमारी है , दस्तूर पुराना जारी है ‘– अरुण कुमार की रिहाई के लिए हुए प्रदर्शन में यह नारा लगा । लाठियाँ लिए ढीली हाफ़ पैन्ट से निकली बूढ़ी टागों वाले संघियों ने नचिकेता के हाथ से कैमेरा छीन कर तोड़ दिया।

    युवा रंगकर्मी कुमार विजय , युवा कवि अरविन्द चतुर्वेद और सुशील ने ‘समवेत’ की स्थापना की । बनारस शहर के सांस्कृतिक कर्मियों की लमही जाने की स्वस्थ परम्परा की शुरुआत ‘समवेत’ की पहल पर हुई ।

    बतौर विश्वविद्यालय संवाददाता सुशील आज से जुड़े । हर सोमवार छपने वाली ‘विश्वविद्यालय की हलचल’ से सिर्फ़ हलचल नहीं मचती थी । विश्वविद्यालय के कर्मचारियों , अधिकारियों और शिक्षकों द्वारा ‘अवकाश यात्रा छूट ( Leave Travel Concession )  में व्यापक भ्रष्टाचार की खबर सुशील ने छापनी शुरु की । कार्रवाई का आदेश जारी करने के पूर्व तत्कालीन कुलसचिव ने खुद एल.टी.सी. की रकम लौटाई – यह भी खबर बनी ।

    महामना मालवीय को देश के विभिन्न भागों में दान में सम्पत्तियां भी मिली थीं । शिमला में ‘हॉली डे होम’ हो , मुम्बई में मिला विशाल भवन हो अथवा बनारस शहर में मिली कई सम्पत्तियाँ । कुछ भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा इन्हें अपने सम्बन्धियों को औने-पौने दामों में बेचने की साजिश चल रही थी । इस पर अपने कॉलम में लगातार लिख कर सुशील ने इन्हें बचाया ।

    भ्रष्टाचार से समझौता न करने स्वभाव के कारण सुशील इन मामलों को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से उठाते थे ।

     प्रवासी पक्षियों के विवरण हों अथवा कला-शिल्प पर समीक्षा हो – सुशील का कलाकार खिल कर सामने आता था – प्रकृति प्रेम और सौन्दर्य बोध ले कर । सुशील पेन्टिंग और पत्रकारीय लेखन के अलावा दोहे भी लिखे । सधी हुई लय के साथ सुशील गाते भी थे ।

      नौगढ़ स्थित गुफाओं के भित्ति चित्रों के बारे में करीब तीस साल पहले सुशील ने हमे बताया था और लिखा भी था । इस बार उन्हीं गुफाओं को देखने सुशील गए तो पाँव फिसल कर २० फुट नीचे गिरे । विश्वविद्यालय स्थित अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में रहे । उसके साथ गए हिन्दुस्तान अखबार के संदीप त्रिपाठी ने कल इन गुफाओं पर अपने ब्लॉग पर लिखा । बिना सुशील का जिक्र किए । अस्पताल में सुशील के भर्ती होने के बाद से यह सज्जन वहाँ दिखायी भी नहीं दिए ।

    जिस अखबार में सप्ताह में चार दिन सम्पादक या उसके नात-रिश्तेदारों के ही लेख छपते हों, अखबार – मालिक की पत्नी के गुजरने पर सम्पादक द्वारा मालिक को लिखे पत्र के प्रत्युत्तर को प्रथम पेज की खबर माना जाता हो वहाँ सुशील की प्रतिभा और तजुर्बे से ज्यादा तरजीह चमचागिरी को मिलनी लाजमी है । कल चिट्ठे पर छपे इन गुफाओं के विवरण की रपट पर टिप्पणी कर हमने मांग की थी कि इस रपट में सुशील का जिक्र होना चाहिए था । उस चिट्ठेकार में इस टिप्पणी को अनुमोदित करने का माद्दा नहीं है । आज के अखबार वही रपट छपी है , सुशील का नाम उस अयोज्ञ लड़के की रपट के साथ बाई – लाइन में जोड़ दिया गया है ।

    सुशील की खबर लेने रोज़ सैंकड़ों लोग अस्पताल आते थे । बिहार आन्दोलन के दरमियान पटना में आयुर्विज्ञान के छात्र रहे सुशील के अग्रज कवि डॉ. शैलेन्द्र त्रिपाठी ने कहा था , ‘सुशील के लौकिक जीवन का प्रमाण सामने है , बस अब कुछ अलौकिक हो जाए !’ हिन्दी पत्रकारिता का दुर्भाग्य है कि कुछ अलौकिक नहीं हुआ और एक ईमानदार , प्रतिभासम्पन्न पत्रकार हमारे बीच नहीं रहा । आज करीब दस बजे उसने आखिरी साँस ली।

 साथी , तेरे सपनों को हम मंजिल तक पहुंचायेंगे !

– अफ़लातून

 

 

  

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वरिष्ट पत्रकार और चिन्तक साथी राजकिशोर का यह लेख प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है । लेख पीडीएफ़ में है इसलिए संजाल से अलग कर इसे पढ़ना भी सरल है । आपकी टिप्पणियाँ राजकिशोर जी को भेजी जाएंगी ।

हिन्दी पत्रकारिता की भाषा : राजकिशोर 

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आज के हिन्दुस्तान में रवीश कुमार ने समाजवादी जनपरिषद , उ.प्र. नामक मेरे ब्लॉग की चर्चा की है ।  ब्लॉग के पते ( URL )के कारण दल का नाम गलत लिख गये हैं – समतावादी जनपरिषद। ‘समता’ शब्द ‘समाजवाद’ से सुन्दर तो लगता ही है।

रवीश कहते हैं ‘– तब तक क्यों न इस (ब्लॉग) पर मिल रही जानकारियों का मजा लिया जाए ।’

    रवीश नेट पर इस चिट्ठे को विकल्प की जमीन भी कहते हैं । रवीश एक टेलीविजन कम्पनी में पत्रकार हैं । मेरे गुरु किशन पटनायक ने इस कम्पनी के संस्थापक (प्रणय रॉय) के बारे में १९९४ में एक लेख लिखा था- ‘प्रोफेसर से तमाशगीर’ । तब प्रणय रॉय दूरदर्शन के लिए साप्ताहिक विश्वदर्शन प्रस्तुत करते थे । प्रणय रॉय सरीखे प्रगतिशील धारा के प्रोफेसर को अध्ययन और अनुसन्धान के कार्यकलाप को छोड़ देने में कोई झिझक नहीं हुई और खुशी खुशी कैसे वे एक तमाशगीर बन गए । किशनजी ने तमाशगीर शब्द मराठी से लिया था ‘शो मैन’ के लिए। रवीश अभी उस स्तर के तमाशगीर नहीं बने हैं,  गनीमत है । परन्तु, परिवर्तन और विकल्प उनके लिए ‘मजा लेने’ के विषय हैं ।

 क्रान्तिकारी चे ग्वारा ने कहा था कि- ‘हमने क्रान्ति को अपनाया है क्योंकि वह जीने का सर्वोत्तम तरीका है।’ सर्वोत्तम तरीके में मजा तो जरूर आएगा , मेरे भाई !

    किशन पटनायक के उक्त लेख का उपसंहार यहाँ दे रहा हूँ :

“नई आर्थिक नीति तथा आधुनिक संचार माध्यमों के संयोग से एक नए बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हो रहा है। इस वर्ग के पहले उभार में वे महानगरीय बुद्धिजीवी हैं जो अपने को विज्ञापन का हिस्सा बनाने के लिए और करोड़ों साधारण जनों को अप्रासंगिक मानने के लिए तैयार हैं।”

चर्चा में बनाए रखने के लिए राजनैतिक कार्यकर्ता आभार ही व्यक्त कर रहा है । रवीश महानगरीय नहीं हैं इसलिए उनसे उम्मीद बची है ।

  

रवीश द्वारा की गयी चिट्ठा चर्चा : http___wwwhindustandainikcom_news_2031_214611000830001

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अग्रगण्य विदेशी पत्रकारों के विषय में बताना ज्यादा अनुकूल है , उनसे हमें जितना सीखने लायक है वह सीखना है , कारण पत्रकारिता अपनी कला नहीं विदेशी कला है ।

लॉईड गैरिसन का नाम लेते ही आँखें भर आती हैं ।   लॉयड गैरीसन जैसे  अमानुषिक अत्याचार तथा घनघोर गुलामी के मुकाबले भयानक परिणामों की परवाह किए बगैर जूझने वाले व्यक्ति को कोई सत्याग्रही कैसे भुला सकता है ! एक बार उनके मुह से यह बात निकल गयी कि गुलामी रफ़्ता रफ़्ता बन्द होनी चाहिए । तुरन्त भूल समझ में आई तब इसका सार्वजनिक पश्चाताप प्रकट करने में उन्हें संकोच नहीं हुआ । उक्त पश्चाताप को प्रकट करना उन्होंने अपना धर्म माना । उस वक्त के उनके यह उद्गार इतिहास प्रसिद्ध हैं :

” पार्क स्ट्रीट के गिरजा में रफ़्ता रफ़्ता गुलामी नाबूद करने के लोकप्रिय किन्तु दूषित विचार मैंने बगैर सोचे-समझे कबूले थे । आज उन्हें पूरी तरह वापस लेने का अवसर ले रहा हूँ ताकि उनका कोई दुरुपयोग न कर सके । ईश्वर से , अपने मुल्क से और गरीब गुलामों से जाहिर तौर पर माफ़ी माँग रहा हूँ – कि मैंने भीरुतापूर्ण , अन्यायपूर्ण और बगैर अक्ल के के विचार को खुद के दिमाग में घुसने दिया तथा मैंने उन्हें प्रकट किया । सार्वजनिक माफ़ी माँग कर मेरे अन्तर को ठण्डक पहुँच रही है । मेरी भाषा की कठोरता कइयों को  पसन्द नहीं , यह मैं जानता हूँ । क्या कठोर भाषा की आवश्यकता नहीं है ?  निश्चित ही मैं सत्य जैसा कठोर बनूँगा , न्याय के समान न झुकने वाला रहूँगा । जिस घर में आग लगी हो उसके मालिक को क्या मद्धिम स्वर में पुकार लगानी चाहिए ? – आपका विवेक यदि कहता हो तो बताएँ । जिसकी पत्नी के साथ बलात्कार हो रहा हो उसे आहिस्ता आहिस्ता बचाने की सलाह आप के दिमाग में आती हो तो दीजिए । आग से घिरे बच्चे को रफ़्ता रफ़्ता बचाने की सलाह देने वाला आपका हृदय कठोर हो तो वह आपको मुबरक ! परन्तु इस गुलामी को रफ़्ता रफ़्ता नाबूद करने की बात मेरे सामने मुँह से मत निकालिएगा । गुलामी को नाबूद करनी की मुझे झक चढ़ी है , मैं फूँक फूँक कर नहीं बोलनी वाला हूँ और न ही किसी पर मुरव्वत करने वाला हूँ। मैं रत्ती भर पीछे हटने को तैय्यार नहीं हूँ । मुझे सुने बिना आपका चारा नहीं है । “

स्टेड कई बार जनता के कोप का शिकार हुआ था । बोर युद्ध में ब्रिटिश  पक्ष को अन्यायी मानते हुए उसकी हार की कामना के सार्वजनिक उद्गार उसने प्रकट किए थे तथा ब्रिटिश फौज द्वारा किए गए अत्याचारों के विवरण अपने पत्र में निडरता से व आग्रहपूर्वक छापे थे । एक बार अनिष्ठ का विरोध करने में वह जेल भी गया था । डीलेन और सी . पी. स्कॉट की कथा मैं कुछ तफ़सील से कहना चाहता हूँ ।

इंग्लैंड के इन दो नामचीन सम्पादकों से हर पत्रकार को कफ़ी कुछ सीखना चाहिए । इनमें सी . पी. स्कॉट की जीवनी तो किसी कर्मयोगी साधु की जीवनी है , जिसे पढ़ कर पवित्र और उन्नत हुआ जाता है । डीलेन स्कॉट का पूर्ववर्ती था । वह एक विलक्षण मूर्ति था। कहा जाता है कि ३६ वर्षों के सम्पादकत्व में उसने ‘टाईम्स ‘ में एक भी लेख नहीं लिखा – हांलाकि यह बात अक्षरश: सही नहीं है – बावजूद इसके ‘टाईम्स ‘ को उसने सरकार का मुखपत्र नहीं परन्तु सरकार का व्यवस्थापक , oragan नहीं organizer बनाया था।उसने अब्राहम लिंकन जैसी हस्ती का प्रमाणपत्र हासिल किया -”  ‘टाइम्स’ जगत की महाशक्ति है , मिसीसिपी के बाद उससे बड़ी और कोई शक्ति नहीं है ।” डीलेन की जीवनी असाधारण प्रतिभा का एक नमूना है । निडरता की मानो वह मुहर था तथा बड़े भूप अथवा बड़े मान्धाता जैसे प्रधानमन्त्रियों पर भी मुरव्वत किए बिना वह अख़बार चलाता था । ” किसी राज्य के धुरंधर का कर्तव्य भले चुप रहना हो, समाचारपत्र का कर्तव्य परिणाम के भय के बिना सत्य प्रगट करना है , अन्याय और अत्याचार को उद्घाटित करना तथा जगत के न्यायासन के समक्ष उसे पेश करना है…….. कोई सरकार चाहे जितना तीन पाँच कर सत्ता में आई हो अथवा उसके कृत्य चाहे जितने कूड़ा हों फिर भी उसके प्रति अन्य सरकारें बाह्य मान से भले बरतें परन्तु अख़बार के ऊपर ऐसा कोई बन्धन नहीं होता । कूटनीतिज्ञ परस्पर विवेकपूर्ण व्यवहार भले न करते हों , परन्तु अख़बार को उन धवल बगुला भगत बने लोगों के काले कृत्य तथा ख़ून कर गद्दी हासिल करने वालों के रक्तिम हाथों को अवश्य उद्घाटित करना चाहिए । समाचार विश्लेषकों का कर्तव्य इतिहासकार की भांति सत्य को खोज कर उसे जनता के समक्ष पेश करना है । ” – यह उद्गार एक ऐतिहासिक प्रसंग में उसने लिखे थे तथा इन्हीं तत्वों पर टिके रहकर उसने ३६ वर्षों तक ‘ टाईम्स ‘ का सम्पादन किया । सत्य ढूँढ़ निकालने तथा उसे प्रगट करने की उसकी रीति भी गजब थी ; प्रत्येक दिन समाज में और राजनेताओं के बीच घूमना , कैयों को दावत देना और कैयों के यहाँ दावत खाने जाना । इतिहास के झोंके को पहचान कर लोकमत को दिशा देने की तैयारी करना ; रात्रि १० से सुबह ४ – ५ बजे तक लगातार जगे रह कर पत्र की एक एक  खबर देखना , उसकी हर पंक्ति को जाँचना , हर लेख को जाँचना , सुधारना , भूल करने वालों के कान पकड़ना तथा अखबार के अंक की पहली प्रति निकलने से पहले दफ़्तर न छोड़ना । ‘ युरोप का सर्वाधिक जानकार व्यक्ति ‘ की उपाधि उसे मिली थी तथा रानी विक्टोरिया भी उसके लेख नियमित पढ़तीं । इस सब के बावजूद इस पद और प्रतिष्ठा से हासिल शक्ति और सत्ता का दुरुपयोग उसने कभी नहीं किया था , किसी के द्वारा दिए गए विश्वास का अघटित उपयोग नहीं किया , किसी के पक्ष के वश में हुए बिना या किसी पर मुरव्वत किए बिना अपने अख़बार की उच्च प्रतिष्ठा को कभी नीचा नहीं होने दिया , अपने पत्र की भाषा एवं विचार को भी उसने सदा उच्च कक्षा में स्थापित रखा ।

इस भाषण के अन्य भाग :

पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य

पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव देसाई

पत्रकारिता (३) : खबरों की शुद्धता , ले. महादेव देसाई

पत्रकारिता (४) : ” क्या गांधीजी को बिल्लियाँ पसन्द हैं ? ”

पत्रकारिता (५) :ले. महादेव देसाई : ‘ उस नर्तकी से विवाह हेतु ५०० लोग तैयार ‘

पत्रकारिता (६) : हक़ीक़त भी अपमानजनक हो, तब ? , ले. महादेव देसाई

समाचारपत्रों में गन्दगी : ले. महादेव देसाई

क्या पाठक का लाभ अखबारों की चिन्ता है ?

समाचार : व्यापक दृष्टि में , ले. महादेव देसाई

रिपोर्टिंग : ले. महादेव देसाई

तिलक महाराज का ‘ केसरी ‘ और मैंचेस्टर गार्डियन : ले. महादेव देसाई

विशिष्ट विषयों पर लेखन : ले. महादेव देसाई

अखबारों में विज्ञापन , सिनेमा : ले. महादेव देसाई

अखबारों में सुरुचिपोषक तत्त्व : ले. महादेव देसाई

अखबारों के सूत्रधार : सम्पादक , ले. महादेव देसाई

कुछ प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार (१९३८) : महादेव देसाई


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