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Posts Tagged ‘गांधी’

सफाई पर गांधीः
श्रम और बुद्धि के बीच जो अलगाव हो गया है,उसके कारण अपने गांवों के प्रति हम इतने लपरवाह हो गए हैं कि वह एक गुनाह ही माना जा सकता है ।नतीजा यह हुआ है कि देश में जगह-जगह सुहावने और मनभावने छोटे-छोटे गांवों के बदले हमें घूरे जैसे गांव देखने को मिलते हैं।बहुत से या यों कहिए कि करीब-करीब सभी गांवों में घुसते समय जो अनुभव होता है, उससे दिल को खुशी नहीं होती। गांव के आसपास और बाहर इतनी गंदगी होती है और वहां इतनी बदबू आती है कि अक्सर गांव में जाने वाले को आंख मूंद कर और नाक दबा कर जाना पड़ता है। ज्यादातर कांग्रेसी गांव के बाशिन्दे होने चाहिए; अगर ऐसा हो तो उनका फर्ज हो जाता है कि वे अपने गांवों को सब तरह से सफाई के नस्मूने बनायें। लेकिन गांव वालों के हमेशा के यानी रोज-रोज के जीवन में शरीक होने या उनके साथ घुलने-मिलने को उन्होंने कभी अपना कर्तव्य माना ही नहीं। हमने राष्ट्रीय या सामाजिक सफाई को न तो जरूरी गुण माना; और न उसका विकास ही किया। यों रिवाज के कारण हम अपने ढंग से नहा-भर लेते हैं,मगर जिस नदी,तालाब या कुए के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं, और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचार से हम नहाते हैं , उनके पानी को बिगाड़ने या गन्दा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती। हमारी इस कमजोरी को मैं एक बड़ा दुर्गुण मानता हूं। जिस दुर्गुण का ही यह नतीजा है कि हमारे गांवों की और हमारी पवित्र नदियों के पवित्र तटों की लज्जाजनक दुर्दशा और गन्दगी से पैदा होने वाली बीमारियां हमें भोगनी पड़ती हैं।
(उद्धरण का स्रोत संदेश के रूप में बता सकते हैं)

खास आदमी कार्यकर्ता

खास आदमी कार्यकर्ता

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जन लोकपाल विधेयक के लिए टीम-अन्ना के साथ मंत्रीमण्डल  के पांच प्रमुख सदस्यों की फेहरिश्त को सरकारी गजट में छापने के बाद अण्णा हजारे का पिछला अनशन टूटा था । प्रस्तावित विधेयक के मसौदे पर टीम-अण्णा और टीम – सोनिया की सहमती न बन पाने के बाद जनता के समक्ष दो मसौदे हैं । हृदय-परिवर्तन , आत्मशुद्धि – यह सब उपवास के साथ चलने वाली प्रक्रियाएं हैं , अनशन के साथ की नहीं । इसलिए हृदय – परिवर्तन या आत्मशुद्धि की उम्मीद रखना अनुचित है । उपवास से अलग अनशन में कुछ मांगों के पूरा होने की उम्मीद रखी जाती है । हृदय – परिवर्तन के दर्शन में लोहिया का एक गम्भीर योगदान है । ऐसे मौके पर देश का ध्यान उस ओर दिलाना भी बहुत जरूरी है । लोहिया इस बात पर जोर देते थे कि प्रतिपक्षी के हृदय – परिवर्तन से ज्यादा महत्वपूर्ण है व्यापक जनता का लड़ने के लिए मन और हृदय का बनना । व्यापक जनता का मन जब लड़ने के लिए तैयार हो जाता है तब अनशन जैसे तरीकों की जरूरत टल जाया करती है। भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए निर्णायक संघर्ष में किसी नेता के अनशन से आन्दोलन करने के लिए व्यापक जनता का मन बना लेना कम महत्वपूर्ण नहीं होता है । अण्णा के अनशन द्वारा जनता का हृदय लड़ने के लिए अवश्य परिवर्तित होगा ।

सरकार ने अपना विधेयक संसद में पेश किया है तथा इसी आधार पर टीम सोनिया के मुखर सदस्य टीम अण्णा द्वारा जन-लोकपाल बिल के लिए अनशन-प्रदर्शन को भी संसद की अवमानना कह रहे हैं । आजाद भारत के संसदीय इतिहास में कई बार अलोकतांत्रिक और जन विरोधी विधेयकों का विरोध हुआ है और फलस्वरूप विधेयक अथवा अध्यादेश कानून नहीं बन पाये हैं । बिहार प्रेस विधेयक और ५९वां संविधान संशोधन विधेयक की यही परिणति हुई थी।  मानवाधिकारों के बरक्स पोटा जैसे कानूनों के खरा न उतरने की वजह से संसद ने ही उसे रद्द भी किया । वैसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में जनता के सर्वोपरि होने का एक बड़ा उदाहरण टीम सोनिया को याद दिलाना जरूरी है । देश के संविधानमें आन्तरिक आपातकाल लागू किए जाने के प्राविधान को १९७७ की जनता पार्टी की सरकार द्वारा संशोधित किया जाना जनता की इच्छा की श्रेष्टता का सबसे उचित उदाहरण माना जाना चाहिए । केन्द्र की विधायिका के अलावा संघीय ढांचे को महत्व देते हुए अब दो-तिहाई राज्यों की विधान सभाओं में दो-तिहाई बहुमत के बिना आन्तरिक आपातकाल नहीं लगाया जा सकता । देश के लोकतंत्र पर कांग्रेस सरकार द्वारा लादे गए एक मात्र आन्तरिक आपातकाल का जवाब देश की जनता ने उक्त संविधान संशोधन करने वाली जनता पार्टी को जिता कर किया था। जनता पार्टी की तमाम कमजोरियों के बावजूद इस एक  ऐतिहासिक संविधान संशोधन को याद किया जाएगा जिसके लिए जनता द्वारा दिए गए जनादेश को लोकतंत्र की तानाशाही पर जीत की संज्ञा दी गई । अण्णा हजारे के आन्दोलन के पूर्व इस परिवर्तन को ही ’दूसरी आजादी’ कहा जाता था ।

 जनता और संसद की औकात को गांधीजी ने ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ नामक पुस्तिका में स्पष्ट किया है । उम्मीद है इन बुनियादी बातों को हम इतिहास के इस मोड़ पर याद रखेंगे ।

” हम अरसे से इस बात को मानने के आदी बन गये हैं कि आम जनता को सत्ता या हुकूमत सिर्फ धारा सभा (विधायिका) के जरिये मिलती है। इस खयाल को मैं अपने लोगों की एक गंभीर भूल मानता रहा हूं। इस भ्रम या भूल की वजह या तो हमारी जड़ता है या वह मोहिनी है, जो अंग्रेजों को रीति रिवाजों ने हम पर डाल रखी है। अंग्रेज जाति के इतिहास के छिछले या ऊपर-ऊपर के अध्ययन से हमने यह समझ लिया है कि सत्ता शासन-तंत्र की सबसे बड़ी संस्था पार्लमेण्ट से छनकर जनता तक पहुंचती है। सच बात यह है कि हुकूमत या सत्ता जनता के बीच रहती है, जनता की होती है और जनता समय-समय पर अपने प्रतिनिधियों की हैसियत से जिनको पसंद करती है, उनको उतने समय के लिए उसे सौंप देती है। यही क्यों, जनता के बिना स्वतंत्र पार्लमेण्ट की सत्ता तो ठीक, हस्ती तक नहीं होती। पिछले इक्कीस बरसों से भी ज्यादा अरसे से मैं यह इतनी सीधी-सादी बात लोगों के गले उतरने की कोशिश करता रहा हूं। सत्ता का असली भण्डार या खजाना तो सत्याग्रह की या सिविल नाफरमानी की शक्ति में है। एक सूमचा राष्ट्र अपनी धारा सभा के कानूनों के अनुसार चलने से इनकार कर दे, और इस सिविल नाफरमानी के नतीजों को बरदाश्त करने के लिए तैयार हो जाए तो सोचिये कि क्या होगा ! ऐसी जनता धारा सभा को और उसके शासन-प्रबंधन को जहां का तहां, पूरी तरह, रोक देगी। सरकार की, पुलिस की या फौज की ताकत, फिर वह इतनी जबरदस्त क्यों नहीं हो, थोड़े लोगों को ही दबाने में कारगर होती है। लेकिन जब कोई समूचा राष्ट्र सब कुछ सहने को तैयार हो जाता है, तो उसके दृढ़ संकल्प को डिगाने में किसी पुलिस की या फौज की कोई जबरदस्ती काम नहीं देती। “

गांधी जितनी व्यापक जन सहभागिता वाली सिविल नाफ़रमानी की बात यहां कर रहे हैं उसके लिए भ्रष्टाचार के अलावा उन तमाम जन आन्दोलनों को जोड़ना होगा जो देश भर में आर्थिक नीतियों से उत्पन्न दुष्परिणामों के विरुद्ध चल रहे हैं ।

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प्रख्यात चिन्तक बर्ट्रेण्ड रसल ने अपनी लम्बी आत्मकथा के आखिरी हिस्से में कहा था कि दुनिया की सभी समस्याएं तीन श्रेणियों में रखी जा सकती हैं :

जो मनुष्य की खुद से या खुद में पैदा होने वाली समस्याएं हैं ,  जो समस्याएं समाज के अन्य लोगों से जुड़ी हैं तथा मनुष्य और प्रकृति के द्वन्द्व से पैदा समस्याएं । विनोबा भावे ने १९३० में इन तीन प्रकारों को व्यक्ति ,समष्टि तथा सृष्टि के रूप में मन्त्रबद्ध किया ।

नारायण देसाई

नारायण देसाई

गत दो वर्षों में हमारे देश में दो लाख से ज्यादा लोगों नी आत्मह्त्या की । इनमें से ज्यादातर किसान थे। इनकी आत्महत्या की जड़ में हमारी अर्थव्यवस्था से जुड़े कारण भले ही रहे हों ,इन लोगों ने अपनी सबसे मूल्यवान वस्तु को समाप्त करने का फैसला व्यक्तिगत स्तर पर लिया होगा। अमीर देशों के अस्पतालों में भर्ती होने वालों में सड़क दुर्घटनाओं में मृत तथा घायल हुए लोगों के बाद मानसिक समस्याओं वाले रोगियों का ही नम्बर आता है । अवसाद एक प्रमुख व्याधि बन गया है । हृदय रोग से प्रभावित होने वालों की उम्र लगातार घटती जा रही है । तलाक लेने वाले जोड़ों की संख्या में वृद्ध हो रही है ।

समष्टि से जुड़ी समस्याओं में सबसे अहम है आर्थिक विषमता । डांडी यात्रा से पहले गांधी द्वारा वाइसरॉय को लिखे पत्र में कहा गया था यदि आप हमारे देश के कल्याण के बारे में सचमुच गंभीर हैं तो देश से जुड़ी प्रमुख समस्याओं और मांगों के सन्दर्भ में क्या कर रहे हैं बतायें । इस पत्र में चौथे नम्बर पर नमक कानून वापस लेने की बात जरूर थी लेकिन देश की न्यूनतम मजदूरी पाने वाले से लगायत प्रधान मन्त्री के वेतन के अनुपात तथा इन सबसे कई गुना ज्यादा वाईस रॉय को मिलने वाले वेतन का हवाला दिया गया था तथा इन ऊँची तनख्वाहों को आधा करने की मांग की गयी थी ।

दारिद्र्य का मूल्यांकन औसत से किया जाना एक धोखा देने वाली परिकल्पना है । भारत वर्ष में ऊपर के तथा मध्य वर्गों में आई आर्थिक मजबूती के कारण यह भ्रम पाल लेना गलत होगा की गरीबी मिट गयी । गरीब की मौत सौ फीसदी का मानक है , ऊंचे औसतों से उसमें फरक नहीं आता ।

संगठित हिंसा का स्वरूप चिन्ताजनक हो गया है । अखबारों में विज्ञापनों के बाद हत्याओं की खबरें सर्वाधिक होती हैं । अणुशस्त्रों के समर्थकों द्वारा कहा जाता है  कि  इतने बम बन गये हैं कि उनके ’निरोधक गुण’ के कारण तीसरे महायुद्ध का खतरा टल गया । दुनिया के युद्धों के स्वरूप पर गौर करने से हम पाते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध में समर में प्रत्यक्ष लगे सैनिक असैनिक नागरिकों की तुलना में ज्यादा मारे गये थे । दूसरे विश्वयुद्ध में तथा इसके बाद के सभी युद्धों में यह प्रक्रिया उलट गयी है । अब युद्धों में असैनिक नागरिकों की मौत प्रत्यक्ष लड़ रहे सैनिकों से कहीं ज्यादा हो रही हैं ।

आतंकवाद , हमारे देश में व्याप्त जातिगत विषमता , आदिवासी का शोषण तथा दुनिया भर में व्याप्त लैंगिक भेद भाव प्रमुख सामाजिक समस्याएं हैं । उपभोगवाद द्वारा राग ,द्वेष और घृणा पोषित हुए हैं ।

’ओज़ोन परत मे छि्द्र” कहने पर उक्त छिद्र के बहुत छोटा होने की छवि दिमाग में बनती है। हकीकत है कि वह ’छिद्र’ आकार में एशिया महादेश से भी बड़ा है । हम साधु को स्वामी कह कर सम्बोधित करते हैं लेकिन पश्चिमी सभ्यता का ’सामाजिक अहंकार’ मनुष्य को प्रकृति का स्वामी मानता है । धरती के विनाश का खतरा है। गांधी ने मनुष्य को प्रकृति का स्वामी नहीं प्रकृति को शिरोधार्य माना ।

आज से १०० साल पहले ये समस्याएं कुछ कम जटिल रूप में मौजूद थीं । लेकिन इनकी बुनियाद उससे भी करीब डेढ़ सौ साल पहले औद्योगिक क्रान्ति के साथ पड़ चुकी थी । डार्विन के सिद्धान्त survival of the fittest से पश्चिम के सामाजिक अहंकार को बल मिला था। गांधी ने विश्व में व्यक्ति केन्द्रित पूंजीवाद और समष्टि केन्द्रित समाजवाद को समझा । पूंजीवाद और साम्यवाद इस आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था की जु्ड़वा सन्ताने हैं, यह गांधी समझ सके। आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था के दुष्परिणामों और उसके भविष्य के संकेतों को समझने के पश्चात एक कवि के समान सृजन की विह्वलता के साथ उन्होंने ’हिन्द स्वराज’ की रचना की । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ’निर्झरेर स्वप्नभंग’ को अपनी प्रथम रचना मानते हैं , उसके पहले की कविताओं को तुकबन्दियां मात्र मानते हैं । ठीक उसी प्रकार ’हिन्द स्वराज’ गांधी की प्रथम स्रुजनात्मक रचना है । जहाज के कप्तान से स्टेशनरी की मांग करना , दाहिने हाथ से लिखते लिखते थक जाने पर बांए हाथ से लिखना उनकी उत्कटता के द्योतक थे।(हिन्द स्वराज की रचना इंग्लैंण्ड से अफ़्रीका पानी के जहाज से जाते वक्त लिखी गयी थी) । उन्होंने यह स्पष्ट कहा भी जब मुझसे बिलकुल नहीं रुका गया तब ही मैंने इसकी रचना की।

तेनसिंग और हिलेरी ने आपस में यह समझदारी बना ली थी कि वे दुनिया को यह नहीं बतायेंगे कि किसने एवरेस्ट की चोटी पर पहला कदम रखा । परन्तु ऊपर पहुंचने के बाद उन दोनों ने जो किया वह गौर तलब है । हिलेरी ने अपना झण्डा गाड़ा और तेनसिंग ने वहाँ की बरफ़ उठा कर मस्तक पर लगाई।

मौजूदा अर्थव्यवस्था अब उत्पादन से ज्यादा कीमतों और ब्याज के हेर-फेर पर निर्भर है । मौजूदा संकट सभ्यता के अंत का प्रथम भूचाल है । सत्य ,अहिंसा,साधन शुद्धि आदि के गांधी के ’तत्व ’ हैं । यह तत्व हमेशा प्रासंगिक रहेंगे । चरखा गांधी का तन्त्र है जो सतत परिवर्तनशील रहेगा। अपने जीवन काल में ही गांधी ने स्थानीय तकनीक से १०० गज धागा बनाने वाले चरखे की खोज के लिए एक लाख रुपये के ईनाम की घोषणा की थी ।

गांधी ने स्वराज का अर्थ सिर्फ़ राजनैतिक स्वराज से नहीं लिया था। उसका सन्दर्भ समूची संस्कृति से था। जरूरतों को अनिर्बन्ध बढ़ाना नहीं स्वेच्छया नियन्त्रित करना ताकि हर व्यक्ति स्वराज का अनुभव करे। ’हिन्द स्वराज” ने आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था के शक्तिवाद , उद्योगवाद , उपभोक्तावाद,बाजारवाद के विकल्प में सत्याग्रह,प्रकृति के साथ साहचर्य ,सादगी,प्रेम,स्वावलंबन पर आधारित विकास की परिकल्पना दी।

[ काशी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में मौजूदा वैश्विक संकट और ’हिन्द स्वराज’ विषयक श्री नारायण देसाई द्वारा दिए गए व्याख्यान के आधार पर । व्याख्यान का आयोजन प्रोफेसर किरन बर्मन ने किया था। ]

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[गांधी जयन्ती को बीते कल दो ही दिन हुए थे । सलीम मिले तो चार पंक्तियां सुनाईं । मैंने कहा लिख दीजिए तो लिखते – लिखते चार पंक्तियां और जुड़ गयीं । कवि और शायर के अलावा सलीम और मैं राजनैतिक साथी भी हैं। ]

बिखर चुका है गरीबों का शिराजा बापू ।

कैसे रह पाये मुफ़लिस भी यहां जिन्दा बापू ।

पूँजीपतियों के अब चंगुल में है निजाम-ए-चमन ।

खुदकु्शी के सिवा अब कुछ नहीं चारा बापू । ।

ये चादर छीन लेते हैं, बिछौने छीन लेते हैं ।

यहां तक के नेवाले और ठिकाने छीन लेते हैं ।

कहाँ अब खेलने जायें गरीब-ए-शहर के बच्चे ?

अमीर-ए-शहर के बच्चे खिलौने छीन लेते हैं । ।

– सलीम शिवालवी .

(शिराजा = व्यवस्था )

्सलीम शिवालवी

्सलीम शिवालवी

्सलीम शिवालवी

्सलीम शिवालवी


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