मनुष्य की आज़ादी एक टेढ़ी खीर है । किसी भी व्यवस्थित समाज में अभिव्यक्ति की पगडंडियां बन जाती हैं । आजादी के औजार बने बनाये रहते हैं । औसत मनुष्य उन औजारों के सहारे अपनी स्वतंत्रता का बोध कर लेता है । आजादी की जो पगडंडियां बनी हुई हैं , उनमें से समाचार – पत्र एक है । रोज सबेरे एक अखबार खरीदकर आप इस पगडंडी पर चल सकते हैं । वोट देने , वकील नियुक्त करने , अखबार खरीदने की प्रक्रियाओं में हमारी सांवैधानिक आजादी प्रतिफलित होती है । अगर राजनैतिक दलों , अखबारों , वकीलों की आजादी नहीं रहेगी , तो हमारी आजादी भी नही रहेगी ।
आधुनिक टेकनोलौजी ने समाचार-पत्रों तथा दूसरे संचार माध्यमों की क्षमता बढ़ा दी है । करोड़ों – अरबों लोगों की अभिव्यक्ति का ठेका एक समाचार-पत्र ले सकता है । ऐसे समाचार-पत्रों का संचालन सिर्फ सत्ताधारी पूंजीपति कर सकते हैं। संचार और अभिव्यक्ति – इन दो शब्दों का कुछ लोग एक ही अर्थ लगाते हैं । संचार आसान हो गया है तो कहते हैं कि अभिव्यक्ति आसान हो गयी है । बात उलटी है । संचार माध्यमों के द्वारा सिर्फ उन सारे लोगों की अभिव्यक्ति बनी रहेगी , जिनको संचार-माध्यमों के मालिक चुन लेंगे । बड़े समाचार-पत्रों ने छोटे पत्रों की अभिव्यक्ति छीन ली है । अब जो स्थानीय पत्र होते हैं , वे बड़े पत्रों के स्थानीय संस्करण जैसे ही होते हैं । अलग अभिव्यक्ति हो नहीं सकती। पुरानी टेकनौलोजी में यह संभव था कि सत्ता में रहे बगैर भी समाजवादी , साम्यवादी , ग्रामोद्योगवादी , नास्तिकवादी दृ्ष्टिकोण की पत्रिकाएँ समाज में प्रतिष्ठित हो सकती थीं । अब सिर्फ़ अपने समर्थकों के बीच ही उनका वितरण सीमित रहता है । तात्कालिक राजनैतिक प्रश्नों को छोड़कर हर चीज पर सारे प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों का स्वर एक-जैसा होता है । ’टाइम’ और ’न्यूजवीक’ के बीच , हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के बीच अभिव्यक्तियों का संसार पूरा हो जाता है ।
कुछ लोग आजादी के बाद और उसके पहले की पत्रकारिता की तुलना करते हैं और कहते हैं कि पहले के पत्रकार अच्छे थे । ऐसा कहना गलत है । अच्छे और बुरे पत्रकार की बात नहीं है । टेकनौलोजी बदल गयी है । आधुनिक टेकनौलोजी के फलस्वरूप पत्रकारिता एक बड़ा उद्योग बन चुकी है और पत्रकार नामक एक नये किस्म के सम्पन्न कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है । दूसरे बड़े उद्योगों को चलानेवाला कोई पूंजीपति इस उद्योग को भी चला सकता है या अपनी औद्योगिक शुरुआत समाचार-पत्र के ’उत्पादन’ से कर सकता है । इस उद्योग के सारे कर्मचारी उद्योगपति समेत पत्रकार हैं । हम जब समाचार-पत्र की आजादी की बात कहते हैं , तो उसे पत्रकारों की आजादी कहना एक भयंकर भूल होगी । आधुनिक टेकनौलोजी ने पत्रकार के साथ यही किया है , जो हर प्रकार के श्रमिक-उत्पादकों के साथ किया है । आधुनिक टेकनौलोजी ने बुनकरों , चर्मकारों , लोहारों जैसे श्रमिक-उत्पादकों के हाथ में ऐसा कोई कौशल नहीं दिया जिससे उनकी उत्पादन-कार्यक्षमता बढ़ जाए । इस टेकनौलोजी ने ऐसा यन्त्र और ऐसी व्यवस्था पैदा की है , जिसमें श्रमिक खुद उत्पादक न हो सके , वह किसी व्यवस्थापक या प्रबन्धक के अधीन एक मजदूर बन कर रह जाए । लेखकों -पत्रकारों के साथ यही हुआ । आधुनिक टेकनौलोजी के पहले जो पत्र निकलते थे,उनमें अधिकांश पत्रों को निकालने वाले लोग लेखक-साहित्यिक-विचारक थे । औपचारिक या अनौपचारिक ढंग से उनका समूह होता था और उस समूह की ओर से पत्र प्रकाशित होते थे । नई टेकनौलोजी के बाद लेखक अपना पत्र नहीं निकाल सकता। पत्रकार अपना लेख भी नहीं लिख सकता । उसका लिखना एक व्यवस्थापक के संयोजन के तहत होता है । किसी प्रतिष्ठित पत्र के मालिक अब प्रेमचन्द , बाल गंगाधर तिलक , गांधी या गोपबन्धु दास नहीं हो सकते । इसका मतलब यह नहीं कि कोई लेखक समाचार-पत्र का मालिक नहीं हो सकता है । होने के लिए उसे अपना लेखक-साहित्यिक-विचारक का जीवन छोड़कर व्यवस्थापक या उद्योगपति का जीवन अपनाना होगा । कहने का मतलब यह भी नहीं है कि हरेक लेखक या विचारक का अपना पत्र होना चाहिए । लेकिन पत्र अवश्य लेखकों का होना चाहिए । समाचार-पत्र हो या कपड़ा , आज की उत्पादन – व्यवस्था में उद्योगपति-व्यवस्थापक को छोड़कर कोई नहीं कह सकता है कि यह ’मेरा उत्पाद है ।’ कुछ लोग अपने को धोखा देने के लिए कह सकते हैं कि यह हमारा सामूहिक उत्पादन है । इस धोखे को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए ’प्रबन्धन में मजदूरों की हिस्सेदारी’ का सिद्धान्त कुछ दिनों तक चला । आधुनिक टेकनौलोजी ने इस सिद्धान्त का मखौल उड़ाया है । अत्याधुनिक टेकनौलोजी में मजदूरों का जो स्थान है , दैत्याकार समाचार-पत्रों में पत्रकारों का वही स्थान है । इसलिए उनको वास्तविक रूप में पत्रकार माना और कहा जाए या नहीं , यह प्रश्न उठ सकता है ।