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Posts Tagged ‘पत्रकारिता’

१९३६ में गुजरात साहित्य परिषद के समक्ष परिषद के पत्रकारिता प्रभाग की रपट महादेव देसाई ने प्रस्तुत की थी । उक्त रपट के प्रमुख अनुदित हिस्से इस ब्लॉग पर मैंने दिए थे । नीचे की कड़ी ऑनलाईन पीडीएफ़ पुस्तिका के रूप में पेश है । मुझे उम्मीद है कि पीडीएफ़ फाइल में ऑनलाईन पेश की गई इस पुस्तिका का ब्लॉगरवृन्द स्वागत करेंगे और उन्हें इसका लाभ मिलेगा । महादेव देसाई गांधीजी के सचिव होने के साथ-साथ उनके अंग्रेजी पत्र हरिजन के सम्पादक भी थे । कई बार गांधीजी के भाषणों से सीधे टेलिग्राम के फार्म पर रपट बना कर भाषण खतम होते ही भेजने की भी नौबत आती थी । वे शॉर्ट हैण्ड नहीं जानते थे लेकिन शॉर्ट हैण्ड जानने वाले रिपोर्टर अपने छूटे हुए अंश उनके नोट्स से हासिल करते थे ।

पत्रकारिता : महादेव देसाई-पीडीएफ़

इस ब्लॉग पर पुस्तिका की पोस्ट-माला (लिंक सहित) नीचे दी हुई है :

पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य

पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव देसाई

पत्रकारिता (३) : खबरों की शुद्धता , ले. महादेव देसाई

पत्रकारिता (४) : ” क्या गांधीजी को बिल्लियाँ पसन्द हैं ? ”

पत्रकारिता (५) :ले. महादेव देसाई : ‘ उस नर्तकी से विवाह हेतु ५०० लोग तैयार ‘

पत्रकारिता (६) : हक़ीक़त भी अपमानजनक हो, तब ? , ले. महादेव देसाई

समाचारपत्रों में गन्दगी : ले. महादेव देसाई

क्या पाठक का लाभ अखबारों की चिन्ता है ?

समाचार : व्यापक दृष्टि में , ले. महादेव देसाई

रिपोर्टिंग : ले. महादेव देसाई

तिलक महाराज का ‘ केसरी ‘ और मैंचेस्टर गार्डियन : ले. महादेव देसाई

विशिष्ट विषयों पर लेखन : ले. महादेव देसाई

अखबारों में विज्ञापन , सिनेमा : ले. महादेव देसाई

अखबारों में सुरुचिपोषक तत्त्व : ले. महादेव देसाई

अखबारों के सूत्रधार : सम्पादक , ले. महादेव देसाई

कुछ प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार (१९३८) : महादेव देसाई

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( लेख का पिछला भाग ) पत्रकारों में एक निपुणता होती है । उनकी भाषा चुस्त होती है । वे तर्क और भावना का पुट देकर विषयों पर रोशनी डालते हैं । लेकिन विज्ञापन सामग्री के रचनाकारों में भी तो ये सारी योग्यतायें होती हैं । कुछ विज्ञापनों को पढ़ते वक्त भ्रम हो जाता है कि हम साहित्य या दर्शन पढ़ रहे हैं । विज्ञापन सामग्री बनाने वाले का नाम नहीं छपता है । कुछ अरसे के बाद छप सकता है । क्यों नहीं ? राजनैतिक – सामाजिक मुद्दों पर समाचार – टिप्पणी लिखनेवालों की ज्यादा चर्चा होती है । उनकी प्रतिष्ठा बनती है ।  उस प्रतिष्ठा का बड़ा हिस्सा यह है कि वे एक दैत्याकार उद्योग के बुद्धिजीवी हैं । प्रतिष्ठा का दूसरा हिस्सा यह है कि कुछ पत्रकारों में लेखकवाला अंश भी होता है । यहाँ हम ’लेखक’ शब्द का इस्तेमाल बहुत संकुचित अर्थ में कर रहे हैं । लेखक वह है जो अपनी समग्र चेतना के बल पर अभिव्यक्ति करता है । लेखक की कसौटी पर पत्रकार की कोटि लेखक और लिपिक के बीच की है । जैसे किसी जाँच आयोग का प्रतिवेदन लिखनेवाला कर्मचारी , कनूनी बहस की अरजी लिखनेवाला वकील या पर्यटन गाइड लिखनेवाला भी लेखक ही होता है। आज के दिन आप नहीं कह सकते हैं कि एक अच्छा पत्रकार एक घटिया साहित्यकार से बेहतर है । दोनोंके प्रेरणा स्रोत अलग हैं । यह हो सकता है कि कोई व्यक्ति साहित्य लिखना छोड़कर  पत्रकार के रूप में अच्छा नाम कमाए । अभी सिर्फ भारतीय भाषाओं की पिछड़ी हुई पत्र – पत्रिकाओं में साहित्यिकों को पत्रकारिता के काम के लिए बुलाया जाता है।अत्याधुनिक पत्र-पत्रिकाओं में ऐसी परिपाटी खत्म हो गई है , क्योंकि साहित्यिकों में ऐसे संस्कार होते हैं , जो पत्रकारिता के लिए अयोग्यता के लक्षण हैं ।

अगर किसी बड़े समाचार-पत्र का सम्पादक दावा करता है कि उसके काम – काज में सेठजी ने कभी दखल नहीं दिया , तो उस सम्पादक को यह भी मालूम होना चाहिए कि आधुनिक सेठजी दखल नहीं दिया करते । ऐसे अनेक सेठजी होंगे , जिन्होंने कभी अपने बावरची , खजांची या दरजी के काम में दखल नहीं दिया हो । बड़े समाचार-पत्रों का सम्पादक चुने जाने की एक योग्यता यह है कि  उसको अक्लमन्द होना चाहिए , ताकि उसके काम में मालिक को दखल देना न पड़े । जिस पत्रकार में लेखक वाला संस्कार बचा है  , उसके काम में दखल देना पड़ जाता है । इसीलिए मुम्बई के हमारे एक दोस्त को बहुत समय तक सम्पादक नहीं बनाया गया । दिल्ली में हमारे एक दूसरे दोस्त एक बड़े उद्योगपति के प्रमुख अखबार के पत्रकार हैं । उस अखबार में एक वरिष्ठ पत्रकार थे , जो अपने व्यक्तिगत जीवन में घोर साम्यवादी हैं । उनका लेखन उच्च कोटि का था , जिस पर अखबार को गर्व था । जब उनकी सेवा-निवृत्ति का समय आया , तो हमारे दोस्त ने चुटकी ली ,” कामरेड , आपका जो लम्बा जीवन बाकी है उसमें मैं आशा करता हूं कि आप हमारे उद्योगपति – मालिक के धन्धों के बारे में एक पुस्तक लिखेंगे ।” “क्यों ?” ” उनमें स्वतंत्र-लेखन शक्ति बच नहीं गई है , अगर उनमें ऐसी कोई शक्ति बची होगी तो मालिक की ओर से पत्र में नियमित कॉलम के माध्यम से उनको अच्छी रकम मिलती रहेगी । “

नई पीढ़ी के पत्रकारों के मामलों में यह जोखिम नहीं है । वे लेखक या विचारक के रूप में नहीं , शुरु से ही पत्रकार के रूप में प्रशिक्षित हो रहे हैं । यहाँ विचारों को दबाने के लिए अधिक भत्ता देना नहीं पड़ता है – सिर्फ इस काम को आकर्षक बनाने के लिए खूबसूरत वेतन – भत्ते का प्रबन्ध रहता है । यह वेतन – भत्ता विशिष्टजनों के लायक है । इस वेतन-भत्ते के लायक होने के लिए प्रतिबद्धताविहीन बुद्धिजीवी होने का प्रशिक्षण उन्हें मिलता रहता है । समाचार-पत्र उद्योग के प्रसार के लिए यह एक शर्त है कि समाज में प्रतिबद्धताविहीन लेखकों का एक बुद्धिजीवी वर्ग पैदा किया जाये । यानी शिक्षा और प्रशिक्षण की प्रक्रिया में ही उन्हें मालिक वर्ग की विचारदृष्टि में दीक्षित कर लिया जाए , ताकि किसी आदरणीय सम्पादक के बारे में यह कहना न पड़े कि वे अपने विचारों को दबाकर लिख रहे हैं । हम सीधे कह सकते हैं कि सम्पादक की विश्वदृष्टि और सेठजी की विश्वदृष्टि में एक अपूर्व मेल का संयोग है ।

( अगली किश्त में समाप्य )

भाग – तीन

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साहित्य की परिभाषा और परिधि में आने लायक पत्रकारीय लेखन को हासिल करने के लिए हमें क्या करना होगा ? चिरंजीवी साहित्य लिखने का अधिकार तो गिने-चुने लोगों को है । रस्किन जिसे  कुछ कमतर आँकते हुए  ‘सुवाच्य लेखन’ की कोटि के रूप में परिभाषित करते हैं उसके अन्तर्गत हमारा पत्रकारीय लेखन कैसे आ सकता है ? -मैं इसकी चर्चा करना चाहता हूँ । सुवाच्य लेखन की कोटि में आने की जरूरी शर्त है कि वह लेखन बोधप्रद हो , आनन्दप्रद हो तथा सामान्य तौर पर लोकहितकारी हो : उसके अंग तथा उपांग लोकहितकी परम दृष्टि से तैयार किए गये हों । आधुनिक समाचारपत्र औद्योगिक कारखानों की भाँति पश्चिम की पैदाइश हैं । हमारे देश के कारखाने जैसे पश्चिम के कारखानों के प्रारम्भिक काल का अनुकरण कर रहे हैं , उसी प्रकार हमारे देशी भाषाओं के अखबार देशी अंग्रेजी अखबारों के ब्लॉटिंग पेपर ( सोख़्ता ) जैसे हैं तथा हमारे अंग्रेजी अखबार ज्यादातर पश्चात्य पत्रों का अनुकरण हैं । अनुकरण अच्छे और सबल हों तब कोई अड़चन नहीं होती, क्योंकि जिस कला को सीखा ही है दूसरों से , उसमें अनुकरण तो अनिवार्य होगा । हमारे अखबारों में  मौलिकता हो अथवा अनुकरण, यदि वे जनहितसाधक हो जाँएं तो भी काफ़ी है, ऐसा मुझे लगता है । जैसे यन्त्रों का सदुपयोग और दुरपयोग दोनो है , वैसे ही अखबारों के भी सदुपयोग और दुरपयोग हैं ,कारण अखबार यन्त्र की भाँति एक महाशक्ति हैं । लॉर्ड रोज़बरी ने अखबारों की उपमा नियाग्रा के प्रपात से की है तथा इस उपमा की जानकारी के बिना गांधीजीने स्वतंत्र रूप से कहा था : ” अखबार में भारी ताकत है । परन्तु जैसे निरंकुश जल-प्रपात गाँव के गाँव डुबो देता है,फसलें नष्ट कर देता है , वैसे ही निरंकुश कलम का प्रपात भी नाश करता है । यह अंकुश यदि बाहर से थोपा गया हो तब वह निरंकुशता से भी जहरीला हो जाता है ।भीतरी अंकुश ही लाभदायी हो सकता है । यदि यह विचार-क्रम सच होता तब दुनिया के कितने अख़बार इस कसौटी पर खरे उतरते ? और जो बेकार हैं ,उन्हें बन्द कौन करेगा ? कौन किसे बेकार मानेगा ? काम के और बेकाम दोनों तरह के अखबार साथ साथ चलते रहेंगे । मनुष्य उनमें से खुद की पसन्दगी कर ले । “

इस प्रकार समाचारपत्र दुधारी तलवार जैसे हो सकते हैं क्योंकि उनके दो पक्ष हैं । अख़बार धन्धा बन सकते हैं ,ऐसा हुआ भी है,यह हम जानते हैं । दूसरी तरफ़ अख़बार नगर पालिका की तरह, जल -कल विभाग की तरह, डाक विभाग की तरह लोकसेवा का अमूल्य साधन बन सकते हैं ।जब अख़बार कमाई का साधनमात्र बनता है तब बन्टाधार हो जाता है,जब अपना खर्च किसी तरह निकालने के पश्चात पत्रकार अखबार को सेवा का साधन बना लेता है तब वह लोकजीवन का आवश्यक अंग बन जाता है ।

पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य

पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव देसाई

पत्रकारिता (३) : खबरों की शुद्धता , ले. महादेव देसाई

पत्रकारिता (४) : ” क्या गांधीजी को बिल्लियाँ पसन्द हैं ? ”

पत्रकारिता (५) :ले. महादेव देसाई : ‘ उस नर्तकी से विवाह हेतु ५०० लोग तैयार ‘

पत्रकारिता (६) : हक़ीक़त भी अपमानजनक हो, तब ? , ले. महादेव देसाई

समाचारपत्रों में गन्दगी : ले. महादेव देसाई

क्या पाठक का लाभ अखबारों की चिन्ता है ?

समाचार : व्यापक दृष्टि में , ले. महादेव देसाई

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तिलक महाराज का ‘ केसरी ‘ और मैंचेस्टर गार्डियन : ले. महादेव देसाई

विशिष्ट विषयों पर लेखन : ले. महादेव देसाई

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अखबारों में सुरुचिपोषक तत्त्व : ले. महादेव देसाई

अखबारों के सूत्रधार : सम्पादक , ले. महादेव देसाई

कुछ प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार (१९३८) : महादेव देसाई

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