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Posts Tagged ‘हिन्दी कविता’

बहुत लंबे इंतजार के बाद नया युग आरंभ हुआ है

अब सुबह समय से होती है और प्रफुल्लित वातावरण में

वैसी ही हवा बहती है जैसी

अंधकार युग के विदा होने के बाद बहनी चाहिए

 

जिसके फलस्वरूप फूल खिलने लगे हैं

फसलें लहलहाने लगी हैं चिड़ियां गाने लगी हैं।

 

जिन्हें रास्ते से हटाना था हटा दिया गया है

जिन्हें रास्ते पर लाना था ला दिया गया है

सारे रास्तों की सारी बाधाएं दूर कर दी गई हैं

अब जाकर विकास ने पकड़ी है रफ्तार।

विकास इतना तेज चल रहा है कि लोग पीछे छूट जाते हैं

मगर उन्हें उनके हाल पर छोड़ नहीं दिया गया है

उन्हें विकास से जोड़ने के लिए कमेटियां

और योजनाएं बना दी गई हैं

और उन्हें बुलाकर या लाकर

जगह-जगह संबोधित भी किया जाता है।

 

विकास के रफ्तार पकड़ने के साथ ही

या उसके पहले से

आंकड़े एकदम दुरुस्त आने लगे हैं

अब आंकड़े जान लेने के बाद अलग से

सच्चाई जानने की जरूरत नहीं रहती।

 

जिसे वापस लाना था ला दिया गया है

जिसे भगाना था भगा दिया गया है

जिसे डराना था डरा दिया गया है

जिसे बचाना था बचा लिया गया है

कीमतों पर काबू पा लिया गया है

वे लोग काबू में हैं जिनकी कुछ कीमत है

जिसकी अभी -अभी कीमत लगी

उसकी खुशी देखते ही बनती है

बाकी यह सोचकर मुस्कराते हैं

कि मायूस दिखने से रही-सही कीमत भी जाती रहेगी।

 

इस तरह बने चतुर्दिक खुशनुमा माहौल में

नकारात्मक नजरिए के लिए गुंजाइश ही कहां बचती है

अब ना कहने के लिए बहुत हिम्मत जुटानी पड़ती है

सकारात्मक सोच का जोश इस कदर हावी है

कि घोषणा होती ही काम हुआ मान लिया जाता है

आश्वासन मात्र से होता है प्राप्ति का अहसास

वर्णन मात्र से छा जाता है संबंधित वस्तु के होने का विश्वास।

 

इस नवयुग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ऊंची-ऊंची कुर्सियों पर पहली बार ऐसे लोग बिठाये गए हैं

जिनका कद पद के अनुरूप है जिनको काबिलियत पर

शक नहीं किया जा सकता जो भरोसे के काबिल हैं

जो अलिखित निर्देशों को भी पढ़-समझ लेते हैं

और उन पर अमल करने को तत्पर रहते हैं

जिन्हें स्वयं सोचने की इच्छा या अवकाश नहीं

इसलिए जिनसे गलतियां नहीं होतीं और जो अपराध-बोध से दूर

सदा प्रसन्न रहते हैं बड़े फख्र से कहते हैं

हमारी अमूल्य सेवाओं के लिए

एक ही पुरस्कार पर्याप्त है

कि हमें निजाम में असीम निष्ठा रखने का

परम सौभाग्य प्राप्त है।

  • राजेन्द्र राजन
  • सभार-‘गांव के लोग’ से

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वे जो भी कहते हैं

चुपचाप मान लो

हुक्मरान सबूत नहीं देते।

सबूत नागरिकों को देने पड़ते हैं

उन्हें दिखाना पड़ता है हर मौके-बेमौके

प्रमाणपत्र

नागरिक होने का,मतदाता होने का,भारतीय

होने का

पते का,बैंक खाते का,कर अदायगी का

जन्म का,जाति का,शिक्षा का,गरीबी का

मकान का,दुकान का,खेत का,मजूरी का

चरित्र का,नौकरी का,सेवानिवृत्ति का

और कई बार खुद हाजिर होकर

बताना पड़ता कि आप खुद आप हैं

और जिंदा हैं।

सबूत देते रहना

नागरिक होने की नियति है

पर हुक्मरानों की बात कुछ और है

दाल में भले कुछ काला हो

उनका एलान या बयान भर काफी है

उस पर सवाल मत उठाओ

वरना संदिग्ध करार दिए जाओगे

तुम्हारे देशप्रेम पर शक किया जाएगा

फिर देशभक्ति का सबूत कहां से लाओगे?

  • राजेन्द्र राजन
  • (साभार- ‘गांव के लोग’)

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आज अपराह्न में भदैनी, वाराणसी स्थित तुलसी पुस्तकालय में चर्चित और प्रखर कवि राजेन्द्र राजन ने अपनी लगभग बीस कविताओं का पाठ करके यह स्पष्ट कर दिया कि सरल सहज भाषा में सभी कुछ इतनी तीव्रता के साथ व्यंजित किया जा सकता है कि फ़िर और किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं पड़ती। निश्चय ही कुछ कविताएं एक-दो दशक पहले से हमारे सामने आ रही हैं, पर वे वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक संदर्भों और राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में इतनी ताजगी लिए हुए हैं, मानों उन्हें अभी-अभी कहा गया हो।

 

इस एकल काव्य कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति ने कहा कि कवि ने विद्रूपता के किसी भी कोने को छोड़ा नहीं है। सत्ता और ताकत से सम्पन्न शासक-वर्ग के मन की कुरूपता को यदि नग्न किया है तो उस जनता को भी नहीं छोड़ा है, जो विजेता के पक्ष में होने के सुखद अहसास को महसूस करना चाहती है। कवि ने स्वयं को भी नहीं छोड़ा है, जो अपनी ज़िन्दगी को चलाने के लिए दूसरों के द्वारा दिए गए विषय पर सोचता है और दूसरों के द्वारा निर्धारित भाषा में सुर में सुर मिलाकर बोलता है; और कवि ऐसा पेड़ हो गया है, जो छाया फ़ल और वसंत की अनुभूति देने में सक्षम नहीं रहा। कवि शब्दों को भी नहीं छोड़ता है क्योंकि फूल, पहाड़, नदियों का सौन्दर्य और बाकी सब कुछ शब्दों से ढंका हुआ है और वह वास्तविक सौन्दर्य को नहीं देख पाता है।

 

श्रेय पाने की लिप्सा में पहले के लोगों की कोशिशों को नकार दिया जाए और नया इतिहास लिखने की कोशिश हो, इससे कवि सहमत नहीं है। इतिहास में जगह बनाने के लिए आतुर लोग जानते हैं कि इतिहास में कितनी जगह है, अत: वे अपनी जगह बनाने के लिए एक-दूसरे को धकियाते हैं। मज़े की बात है कि कुछ लोग अपनी छोटी-सी जगह पर इस कारण चुप रहते हैं कि उनसे वह जगह भी न छिन जाए। ‘विकास’ में विकास के नाम पर सभी प्राकृतिक अवदानों के कम होते जाने पर और ‘नया युग’ असहमत लोगों को हटाने मात्र से विकास का अहसास कराए जाने की कुत्सित चेष्टा को सामने लाती है। ‘प्रतिमाओं के पीछे’ में स्वयं के वास्तविक रूप को छिपाने की चेष्टा करने वालों पर तीखी टिप्पणी है। ‘ताकत बनाम आज़ादी’ में निस्सार सत्ता-सुख में डूबे लोगों को आज़ादी के सुख को याद दिलाया गया। ‘छूटा हुआ रास्ता’ और ‘लौटना’ कविताओं में कवि अपने वास्तविक व्यक्तित्व के क्षय से पीड़ित होता है और लौटना चाहता है।

 

तालिबान द्वारा ‘बामियान में बुद्ध’ की विशालकाय मूर्तियों को तोड़ा जाना कवि को आहत करता है और उसे खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान याद आते हैं, जो बुद्ध की तलाश में बामियान में भटक रहे हैं। ‘बाजार में कबीर’ कबीर अपनी चादर इसलिए नहीं बेच पाते हैं क्योंकि वह किसी कंपनी का नहीं है। उस चादर का खरीदार नौकरशाहों द्वारा संचालित कंपनी-अधिनियम और राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चमक में कबीर को भला कैसे खोज पाएगा। ‘मनुष्यता के मोर्चे पर’ इस विडंबना को सामने लाती है कि आदमी ज़िन्दगी में उठने के लिए गिरता है और ऐसी स्थिति में कवि आत्मकेन्द्रित होता चला जाता है। ‘हत्यारों का गिरोह’ कविता उस षड्यंत्र को नग्न करती है जो संवेदनशून्य-तंत्र नित्य हमारे आस-आस रच रहा है। ‘तुम थे हमारे समय के राडार” कविता में कवि ने समाजवाद के पुरोधा और अपने गुरु किशन पटनायक जी को शिष्य के रूप में तथा अहोभाव से याद किया है।

 

 

कार्यक्रम के आरंभ में संजय गौतम ने बताया कि किस प्रकार राजेन्द्र राजन ने स्वयं को विचारधाराओं और संगठनों की सीमाओं से बचाए रखा और शब्दों के अर्थ को सुनिश्चित करते हुए आज के समय की प्रत्येक मूर्त और अमूर्त घटना और समस्या को पैनी निगाह से देखा है। इसीलिए उनकी कविताएं उद्वेलित करती हैं। कवि एवं आलोचक राम प्रकाश कुशवाहा ने राजेन्द्र राजन की कविताओं पर विशद टिप्पणी की। कार्यक्रम के संचालक अफ़लातून ने छात्र-जीवन मे राजेन्द्र राजन द्वारा लिखी गयी कविताओं का उल्लेख करते हुए बताया कि किस प्रकार उनकी कविताएं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र-आंदोलनों में अपनी भूमिकाएं निभाती रहीं। धन्यवाद ज्ञापन करते हुए चंचल मुखर्जी ने कहा कि राजन की कविताओं से उन्हें अपने सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यों में सदैव सहयोग मिला है। – राजेश प्रसाद

रामप्रकाश कुशवाहा :

वरिष्ठ कवि ज्ञानेंद्रपति की अध्यक्षता में सम्पन्न सामाजिक परिवर्तन के लिए लिखने वाले अति-महत्वपूर्ण और अपरिहार्य कवि राजेंद्र राजन की कविताओं का एकल पाठ अस्सी(भदैनी)स्थित तुलसी पुस्तकालय के सभागार में दो अक्टूबर को गाँधी जयंती के दिन संपन्न हुआ..नगर में तीन कार्यक्रमों में बंटे होने के बावजूद पर्याप्त संख्या में साहित्यप्रेमी स्रोतागण राजेन्द्र राजन की कविताएँ सुनने तुलसी पुस्तकालय पहुंचे .इस अवसर पर राजेंद्र राजन नें
अपनी चुनीहुई श्रेष्ठ कविताएँ -‘इतिहास में जगह’, ‘बामियान में बुद्ध’ ,’श्रेय ‘,’हत्यारे ‘ ‘पेड़’,’ विजेता की प्रतीक्षा.’,’इतिहासका नक्शा;,’नयायुग’,’बाजार’ ,’प्रतिमाओं के पीछे’,’लौटना तथा ,’छूटा हुआ रास्ता ‘ आदि का पाठ किया.
श्रोताओं नें राजन की नए ज़माने के कबीर रूप को खूब पसंद किया .उनकी बाजार में खड़े कबीरऔर शेयर बाजार के प्रतीक सांड को आधार बनाकर लिखी गयी कविता बहुत पसंद की गयी..काव्यपाठ के बाद विशेषज्ञ वक्तव्य देते हुए मैंने उन्हें इतिहस के निर्णायक मोड़ों और क्षणों की शिनाख्त करने वाला कवि बताया.उनकी बाजार कविता बाजार की नैतिकता की पड़ताल करती है.शेयर बाजार का प्रतीक-चिन्ह सांड बाजार के अस्थिर चरित्र पर प्रकाश डालता है. बामियान में बुद्ध कविता सौन्दर्य,सम्मान एवं करुणा कीभाषाको मिटाकर हिंसा की लिखी जा रही नयी इबारत को अंकित करती है .अंततःमहत्त्व धर्म के सम्मान का नहीं मनुष्य के सम्मान का है.यह कविता ऐतिहासिक चरित्रों को मानवता के पक्ष में नैतिक मूल्यों के प्रतिमान के रूप में प्रस्तुत करती है.
. राजेंद्र राजन की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति नें कहा कि –
‘राजेन्द्र राजन कविता की कबीरी परंपरा में हैं.वे किसी को भी नहीं छोड़ते हैं-विजेताओं और जनता को भी नहीं छोड़ते -स्वयं को भी नहीं.राजेंद्र राजन के यहाँ कविता आत्मा के रूप में बची हुई है .पेड़ नहीं बन पाने की पीड़ा या अहसास इन की काव्यालोचना को आत्मिक आधार देता है. उनका कवि उस मनुष्य से अलग नहीं है.वह सबसे जुड़ने की आकांक्षा का नाम है.कवि को अपने अंतर्वस्तु पर भरोसा है.. उसे भाषा-बद्धकर पाना उसकी चुनौती है.

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राजेंद्र राजन की कविताएँ-

कविता : पेड़ : राजेन्द्र राजन

छुटपन में ऐसा होता था अक्सर
कि कोई टोके
कि फल के साथ ही तुमने खा लिया है बीज
इसलिए पेड़ उगेगा तुम्हारे भीतर

मेरे भीतर पेड़ उगा या नहीं
पता नहीं
क्योंकि मैंने किसी को कभी
न छाया दी न फल न वसंत की आहट

लेकिन आज जब मैंने
एक जवान पेड़ को कटते हुए देखा
तो मैंने सुनी अपने भीतर
एक हरी – भरी चीख

एक डरी – डरी चीख
मेरे भीतर से निकली

मेरी चीख लोगों ने सुनी या नहीं
पता नहीं
क्योंकि लोगों के भीतर
मैं पेड़ की तरह उगा नहीं

क्योंकि मैंने किसी को कभी
न छाया दी न फल न वसंत की आहट.

। । इतिहास पुरुष अब आयें। ।

काफ़ी दिनों से रोज़-रोज़ की बेचैनियां इकट्ठा हैं हमारे भीतर
सीने में धधक रही है भाप
आंखों में सुलग रही हैं चिनगारियां हड्डियों में छिपा है ज्वर
पैरों में घूम रहा है कोई विक्षिप्त वेग
चीज़ों को उलटने के लिये छटपटा रहे हैं हाथ

मगर हम नहीं जानते किधर जायें क्या करें
किस पर यकीन करें किस पर संदेह
किससे क्या कहें किसकी बांह गहें
किसके साथ चलें किसे आवाज़ लगाएं
हम नहीं जानते क्या है सार्थक क्या है व्यर्थ
कैसे लिखी जाती है आशाओं की लिपि

हम इतना भर जानते हैं
एक भट्ठी जैसा हो गया है समय
मगर इस आंच में हम क्या पकायें

ठीक यही वक्त है जब अपनी चौपड़ से उठ कर
इतिहास-पुरुष आयें
और अपनी खिचड़ी पका लें-

राजेन्द्र राजन .

संतोष कुमार ,फेसबुक परः

तुलसी पुस्तकालय भदैनी के हाल मे एकाकी पंखा अपनी गति से बल्ब की पीली रोशनी मे राजेन्द्र राजन के शब्दों को इतिहास से लेकर वर्तमान तक बिखेर रहा था। बमियान मे घायल बुद्ध से एक बुर्जग पख्तून से संवाद के बहाने वर्तमान की निर्ममता को उकेरते राजेन्द्र राजन बाजार मे बिकने के लिए विवश कबीर को हाल मे बैठे श्रोतागण के समक्ष दो-चार कर रहे थे । अफलातून ने सुधी श्रोताओ के लिए राजेन्द्र राजन की कविता का एकल पाठ और ज्ञानेन्द्रपति के सभापतित्व का सुनहरा अवसर दिया था । बहुत सारी त्रासदियां और उनके बीच से निकलती उम्मीद की किरणों को टटोलते कवि ने श्रोतागण को इस कदर बांधे रखा कि समय कम पड़ गया । प्रस्तुत है राजेन्द्र राजन की दो कविताएं-
विकास
कम हो रहीं है चिड़ियां
गुम हो रही है गिलहरियां
अब दिखती नही है तितलियां
लुप्त हो रही हैं जाने कितनी प्रजातियां

कम हो रहा है
धरती के घड़े म ेजल
पौधों मे रस
अन्न मे स्वाद
कम हो रही है फलो मे मिठास
फूलों मे खुशबू
शरीर मे सेहत
कम हो रहा है
जमीन मे उपजाऊपन
हवा मे आक्सीजन

सब कुछ कम हो रहा है
जो जरुरी है जीने के लिए
मगर चुप रहो
विकास हो रहा है इसलिए। राजेन्द्र राजन
पेंड़
छुटपन मे ऐसा होता था अक्सर
कि कोई टोके
कि फल के साथ ही तुमने खा लिया है बीज
इसलिए पेंड़ उगेगा तुम्हारे भीतर
मेरे भीतर पेड़ उगा या नहीं
पता नही
क्योंकि मैने किसी को कभी
न छाया दी न फल न वसंत की आहट
लेकिन आज जब मैने
एक जवान पेड़ को कटते हुए देखा
ते मैने सुनी अपने भीतर
एक हरी भरी चीख
मेरी चीख लोगो ने सुनी या नही
पता नही
क्योेंकि लोगो के भीतर
मैं पेड़ की तरह उगा नही
क्योंकि मैने किसी को कभी
न छाया दी न फल न वसंत की आहट ।

राजेन्द्र राजन

 

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उत्तराखंड की त्रासदी को सभी नेता और अफसर प्राकृतिक आपदा बताते नहीं थक रहे हैं, लेकिन यह सच सभी जानते हैं कि अगर कथित विकास के चलते पहाड़ को खोखला नहीं किया होता तो यह त्रासदी इतनी भयानक नहीं होती। आपको याद होगा भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री निशंक को घोटालों के आरोपों के बाद हटा दिया था। उन पर खनन माफिया से गठजोड़ के आरोप थे और बात अरबों रुपए के घोटाले की थी।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार काबीना मंत्री जयराम रमेश को इसलिए लताड़ लगाई थी कि वे पर्यावरण के नाम पर कई विकास योजनाओं को स्वीकृति नहीं दे रहे थे। तब मनमोहन सिंह ने कहा था कि ऐसे में तो विकास रुक जाएगा। उन विकास योजनाओं में से कई उत्तराखंड की भी थी। जिन्हें बाद में भाजपा सरकार ने भी हाथोंहाथ लिया। इस आपदा में करीब 50 हजार से लेकर एक लाख लोगों के मरने के कयास लगाए जा रहे हैं, लेकिन सरकारी आंकड़ा हजार तक भी नहीं पहुंच रहा है। जब तक हमारे नुमाइंदे सच्चाई को स्वीकार नहीं करते और उन कारणों को नहीं समझते जो त्रासदी के लिए जिम्मेदार हैं, तब तक आप ऐसे हादसों को झेलने के लिए तैयार रहिए।
संकट की घड़ी में भी लोग कमाने से नहीं चूके। पांच सौ रुपए का एक प्लेट चावल था। 180 रुपए की एक रोटी बिकी। पांच सौ रुपए वाले कमरे के तीन हजार रुपए वसूले गए। लूट की घटनाएं भी कम नहीं हैं। दूसरी तरफ ऐसे भी उदाहरण सामने आए हैं जब स्थानीय लोगों ने फंसे हुए लोगों को खाना खिलाया और उनकी जिंदगी बचाई। सेना के जवान भी शानदार काम कर रहे हैं। ऐसे संकटमोचक जांबाजों को सलाम, लेकिन जो घडि़याली आंसू बहाकर धंधा बढ़ाने की फिराक में हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है।
उत्तराखंड में करीब 60 गांव बह गए हैं। केदारनाथ में 90 धर्मशालाएं भी बह गईं। इस आपदा ने हमारे विकास पुरुषों के लिए रास्ता साफ कर दिया है। अब तो उस खाली जमीन का कोई माई-बाप भी नहीं रह गया है। उस पर अब नेता, नौकरशाह और बिल्डर विकास की इमारत खड़ी करेंगे। आखिर उत्तराखंड को इस आपदा से उबारना भी तो है।

दुख में दोहे

खेल ये कुदरत का नहीं, इंसानी करतूत
मोहना तेरे विकास का ये है असली रूप

पीटे ढोल विकास का, खोदे रोज पहाड़
कुदरत भी कितना सहे, तेरा ये खिलवाड़़

बड़ी मशीनें देखकर, रोये खूब पहाड़
कैसे झेलेगा भला जब आएगी बाढ़

खनन माफिया से हुआ सत्ता का गठजोड़
पैसा खूब कमाएंगे, धरती का दिल तोड़

खंड खंड बहता रहा हाय उत्तराखंड
मलबा बन गई जिंदगी, रुका नहीं पाखंड

आपदा राहत कोष से, होंगे कई अमीर
जनता बिन राहत मरे, वे खाएंगे खीर

धरम करम के चोचले, दान पुण्य भी खूब
भक्त बचे कैसे भला, खुद भगवन गए डूब

गांव बहे और हो गई, खाली यहां जमीन
बिल्डर लेकर आएगा, अबके नई मशीन

नरेंद्र कुमार मौर्य

गांव बहे और हो गई, खाली यहां जमीन बिल्डर लेकर आएगा, अबके नई मशीन

गांव बहे और हो गई, खाली यहां जमीन
बिल्डर लेकर आएगा, अबके नई मशीन

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थोड़ी-सी जगह

थोड़ी सी जगह जरूरी है
किसी और के लिए
चाहे वह ईश्वर हो या फिर कोई और
थोड़ा सा भोजन उसके लिए
जो अभी नहीं आया है
लेकिन जो आ सकता है कभी भी

थोड़ा सा धैर्य – जो दुख में है
उसकी नाराजगी और क्रोध के लिए
थोड़ा सा बोझ दूसरों की विपत्ति को
बांट लेने और बचा लेने के लिए

थोड़ी सी संभावनाएं बची रहनी चाहिए
नए अविष्कारों के लिए भी
और थोड़ी सी ऊब
नए प्रश्नों के लिए
थोड़ा सा मन
नैराश्य के अंतिम क्षणों के विरुद्ध
थोड़ी सी चुप्पी और थोड़ा सा संवाद
एक संवेदनशील मन
और सुरक्षित जीवन के लिए…
– रामप्रकाश कुशवाहा
कवि का संपर्कः बी १ साईं अपार्टमेंट,टडिया,करौंदी,सुन्दरपुर, वाराणसी २२१०००५
( सामयिक वार्ता , जनवरी २०१३ से साभार। वार्षिक सदस्यता शुल्क- सौ रुपये,पांच वर्षीय ६ सौ रुपये,आजीवन २००० रुपये
मनी आर्डर से – सामयिक वार्ता,द्वारा चन्द्रशेखर मिश्र,दूसरी लाइन,इटारसी,जि होशंगाबाद,म.प्र. ४६११११ पर भेजें। varta3@gmail.com )

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तुम्हे जानना चाहिए कि हम

मिट कर फिर पैदा हो जायेंगे

हमारे गले जो घोंट दिए गए हैं

फिर से उन्हीं गीतों को गायेंगे

जिनकी भनक से

तुम्हें चक्कर आ जाता है !

तुम सोते से चौंक कर चिल्लाओगे

कौन गाता है ?

इन गीतों को तो हमने

दफना दिया था !

तुम्हें जानना चाहिए कि

लाशें दफनाई जा कर सड़ जातीं हैं

मगर गीत मिट्टी में दबाओ

तो फिर फूटते हैं

खेत में दबाये गए दाने की तरह !

– भवानीप्रसाद मिश्र .

 

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तुम तरुण हो या नहीं

तुम तरुण हो या नहीं यह संघर्ष बतायेगा ,

जनता के साथ हो या और कहीं यह संघर्ष बतायेगा ।

तुम संघर्ष में कितनी देर टिकते हो ,

सत्ता के हाथ कबतक नहीं बिकते हो ?

इससे ही फैसला होगा –

कि तुम तरुण हो या नहीं –

जनता के साथ हो या और कहीं ।

 

तरुणाई का रिश्ता उम्र से नहीं, हिम्मत से है,

आजादी के लिए बहाये गये खून की कीमत से है ,

जो न्याय-युद्ध में अधिक से अधिक बलिदान करेंगे,

आखिरी साँस तक संघर्ष में ठहरेंगे ,

वे सौ साल के बू्ढ़े हों या दस साल के बच्चे –

सब जवान हैं ।

और सौ से दस के बीच के वे तमाम लोग ,

जो अपने लक्ष्य से अनजान हैं ,

जिनका मांस नोच – नोच कर

खा रहे सत्ता के शोषक गिद्ध ,

फिर भी चुप सहते हैं, वो हैं वृद्ध ।

 

ऐसे वृद्धों का चूसा हुआ खून

सत्ता की ताकत बढ़ाता है ,

और सड़कों पर बहा युवा-लहू

रंग लाता है , हमें मुक्ति का रास्ता दिखाता है ।

 

इसलिए फैसला कर लो

कि तुम्हारा खून सत्ता के शोषकों के पीने के लिए है,

या आजादी की खुली हवा में,

नई पीढ़ी के जीने के लिए है ।

तुम्हारा यह फैसला बतायेगा

कि तुम वृद्ध हो या जवान हो,

चुल्लू भर पानी में डूब मरने लायक निकम्मे हो

या बर्बर अत्याचारों की जड़

उखाड़ देने वाले तूफान हो ।

 

इसलिए फैसले में देर मत करो,

चाहो तो तरुणाई का अमृत पी कर जीयो ,

या वृद्ध बन कर मरो ।

 

तुम तरुण हो या नहीं यह संघर्ष बतायेगा ,

जनता के साथ हो या और कहीं यह संघर्ष बतायेगा ।

तुम संघर्ष में कितनी देर टिकते हो ,

सत्ता के हाथ कबतक नहीं बिकते हो ?

इससे ही फैसला होगा –

कि तुम तरुण हो या नहीं –

जनता के साथ हो या और कहीं ।

 

श्याम बहादुर नम्र

अंकुर फार्म , जमुड़ी , अनूपपुर , मप्र – ४८४२२४

namrajee@gmail.com

 

 

 

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जल्दी में

प्रियजन

मैं बहुत जल्दी में लिख रहा हूं

क्योंकि मैं बहुत जल्दी में हूं लिखने की

जिसे आप भी अगर

समझने की उतनी ही बड़ी जल्दी में नहीं हैं

तो जल्दी समझ नहीं पायेंगे

कि मैं क्यों जल्दी में हूं ।

जल्दी का जमाना है

सब जल्दी में हैं

कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में

तो कोई कहीं लौटने की …

हर बड़ी जल्दी को

और बड़ी जल्दी में बदलने की

लाखों जल्दबाज मशीनों का

हम रोज आविष्कार कर रहे हैं

ताकि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई

हमारी जल्दियां हमें जल्दी से जल्दी

किसी ऐसी जगह पर पहुंचा दें

जहां हम हर घड़ी

जल्दी से जल्दी पहुंचने की जल्दी में हैं ।

मगर….कहां ?

यह सवाल हमें चौंकाता है

यह अचानक सवाल इस जल्दी के जमाने में

हमें पुराने जमाने की याद दिलाता है ।

किसी जल्दबाज आदमी की सोचिए

जब वह बहुत तेजी से चला जा रहा हो

-एक व्यापार की तरह-

उसे बीच में ही रोक कर पूछिए,

‘क्या होगा अगर तुम

रोक दिये गये इसी तरह

बीच ही में एक दिन

अचानक….?’

वह रुकना नहीं चाहेगा

इस अचानक बाधा पर उसकी झुंझलाहट

आपको चकित कर देगी ।

उसे जब भी धैर्य से सोचने पर बाध्य किया जायेगा

वह अधैर्य से बड़बड़ायेगा ।

‘अचानक’ को ‘जल्दी’ का दुश्मान मान

रोके जाने से घबड़ायेगा । यद्यपि

आपको आश्चर्य होगा

कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ

उसके पास कोई तैयारी नहीं….

क्या वह नहीं होगा

क्या फिर वही होगा
जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?

क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?

क्या वे खरीद ले जायेंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?

क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जायेंगे हमारा सोना
हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?

और हम क्या इसी तरह
पीढी-दर-पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?

अजीब वक्त है

अजीब वक्त है –

बिना लड़े ही एक देश-का देश

स्वीकार करता चला जाता

अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता !

कुछ तो फर्क बचता

धर्मयुद्ध और कीटयुद्ध में –

कोई तो हार जीत के नियमों में

स्वाभिमान के अर्थ को

फिर से ईजाद करता ।

– कुंवर नारायण

[ वरिष्ट कवि कुंवर नारायण की राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘कोई दूसरा नहीं’ तथा ‘सामयिक वार्ता’ (अगस्त-सितंबर १९९३) से साभार ]

अयोध्या , १९९२

हे राम ,

जीवन एक कटु यथार्थ है

और तुम एक महाकव्य !

तुम्हारे बस की नहीं

उस अविवेक पर विजय

जिसके दस बीस नहीं

अब लाखों सिर – लाखों हाथ हैं

और विवेक भी अब

न जाने किसके साथ है ।

इससे बड़ा क्या हो सकता है

हमारा दुर्भाग्य

एक विवादित स्थल में सिमट कर

रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं

योद्धाओं की लंका है ,

‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं

चुनाव का डंका है !

हे राम , कहाँ यह समय

कहाँ तुम्हारा त्रेता युग ,

कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम

और कहाँ यह नेता – युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ

किसी पुराण – किसी धर्मग्रंथ में

सकुशल सपत्नीक….

अब के जंगल वो जंगल नहीं

जिनमें घूमा करते थे बाल्मीक !

– कुँवरनारायण

( फरवरी ,१९९३ में राजेन्द्र राजन द्वार सम्पादित तथा समकालीन सहित्य मंच , वाराणसी द्वारा प्रकाशित ’उन्माद के खिलाफ’ से )

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रुको

कविता रुको
समाज, सामाजिकता रुको
रुको जन, रुको मन।

रुको सोच
सौंदर्य रुको
ठीक इस क्षण इस पल
इस वक्त उठना है
हाथ में लेना है झाड़ू
करनी है सफाई
दराजों की दीवारों की
रसोई गुसल आँगन की
दरवाजों की

कथन रुको
विवेचन रुको
कविता से जीवन बेहतर
जीना ही कविता
फतवों रुको हुंकारों रुको।

इस क्षण
धोने हैं बर्त्तन
उफ्, शीतल जल,
नहीं ठंडा पानी कहो
कहो हताशा तकलीफ
वक्त गुजरना
थकान बोरियत कहो
रुको प्रयोग
प्रयोगवादिता रुको

इस वक्त
ठीक इस वक्त
बनना है
आदमी जैसा आदमी।
(इतवारी पत्रिकाः ३ मार्च १९९७)
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स्केच

एक इंसान रो रहा है

औरत है

लेटर बाक्स पर

दोनों हाथों पर सिर टिकाए

बिलख रही है

टेढ़ी काया की निचली ओर

दिखता है स्तनों का उभार

औरत है

औरत है

दिखता है स्तनों का उभार

टेढ़ी काया की निचली ओर

बिलख रही है

दोनों हाथों पर सिर टिकाए

लेटर बाक्स पर

औरत है

एक इंसान रो रहा है

(पश्यंती १९९५)
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खबर

जाड़े की शाम

कमरा ठंडा   ठ  न्  डा

इस वक्त यही खबर है

– हालाँकि समाचार का टाइम हो गया है

कुछेक खबरें पढ़ी जा चुकी हैं

और नीली आँखों वाली ऐश्वर्य का ब्रेक हुआ है
है खबर अँधेरे की भी

काँच के पार जो और भी ठंडा

थोड़ी देर पहले अँधेरे से लौटा हूँ

डर के साथ छोड़ आया उसे दरवाजे पर
यहाँ खबर प्रकाश की जिसमें शून्य है

जिसमें हैं चिंताएं, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ

अकेलेपन का कायर सुख
और बेचैनी……..

……..इसी वक्त प्यार की खबर सुनने की

सुनने की खबर साँस, प्यास और आस की
कितनी देर से हम अपनी

खबर सुनने को बेचैन हैं।
(इतवारी पत्रिका – ३ मार्च १९९७)
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बकवास

कुछ पन्ने बकवास के लिए होते हैं

जो कुछ भी उन पर लिखा बकवास है
वैसे कुछ भी लिखा बकवास हो सकता है

बकवास करते हुए आदमी

बकवास पर सोच रहा हो सकता है

क्या पाकिस्तान में जो हो रहा है

वह बकवास है

हिंदुस्तान में क्या उससे कम बकवास है
क्या यह बकवास है

कि मैं बीच मैदान हिंदुस्तान और पाकिस्तान की

धोतियाँ खोलना चाहता हूँ
निहायत ही अगंभीर मुद्रा में

मेरा गंभीर मित्र हँस कर कहता है

सब बकवास है
बकवास ही सही

मुझे लिखना है कि

लोगों ने बहुत बकवास सुना है
युद्ध सरदारों ध्यान से सुनो

हम लोगों ने बहुत बकवास सुना है
और यह बकवास नहीं कि

हम और बकवास नहीं सुनेंगे।
(पश्यंतीः अक्तूबर-दिसंबर २०००)
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दिखना

आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं?

अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो?

बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में

कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?
कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है

जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है

बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है

इंसान खाते हुए दिखता है

आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ

वैसे आदम किस को दिखता है !
देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है

मुझे कहना है दिखने के बारे में

यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं

जब आप सबसे कम दिख रहे हों।

–पहल-७६ (२००४)
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एक और रात

दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है

उसे रातें गुजारने की आदत हो गई है
रात की मक्खियाँ रात की धूल

नाक कान में से घुस जिस्म की सैर करती हैं
पास से गुजरते अनजान पथिक

सदियों से उनके पैरों की आवाज गूँजती है

मस्तिष्क की शिराओं में।
उससे भी पहले जब रातें बनीं थीं

गूँजती होंगीं ये आवाजें।

उससे भी पहले से आदत पड़ी होगी

भूखी रातों की।
(पश्यंतीः – अक्तूबर-दिसंबर २०००; पाठ २००९)
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सखीकथा

हर रोज बतियाती सलोनी सखी

हर रोज समझाती दीवानी सखी

गीतों में मनके पिरोती सखी

सपनों में पलकें भिगोती सखी

नाचती है गाती इठलाती सखी

सुबह सुबह आग में जल जाती सखी
पानी की आग है

या तेल की है आग

झुलसी है चमड़ी

या फंदा या झाग
देखती हूँ आइने में खड़ी है सखी

सखी बन जाऊँ तो पूरी है सखी
न बतियाना समझाना, न मनके पिरोना

न गाना, इठलाना, न पलकें भिगोना
सखी मेरी सखी हाड़ मास मूर्त्त

निगल गई दुनिया

निष्ठुर और धूर्त्त।

(पश्यंती; अप्रैल-जून २००१)
———————– लाल्टू .

लाल्टू की अभिव्यक्ति

लाल्टू की अभिव्यक्ति


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मैं दिए गए विषयों पर सोचता हूं
मैं दी हुई भाषा में लिखता हूं
मैं सुर में सुर मिला कर बोलता हूं
ताकि जिंदगी चलती रहे ठीकठाक
मिलती रहे पगार

घर छूटे हो गए हैं बरसों
अब मैं लौटना चाहता हूं
अपनी भाषा में अपनी आवाज में अपनी लय में

कभी कभी मैं पूछता हूं अपने आप से
अपने बचे – खुचे एकांत में
क्या मैं पा सकूंगा कभी
अपना छूटा हुआ रास्ता ?

– राजेन्द्र राजन .

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