गलत खबरों की बात दूर रही , हम सच्ची किन्तु बेजान खबरों को छाप कर यह मानते हैं कि अखबार की शोभा बढ़ाई । जितनी खबरें हाथ लगती हैं क्या उन सब को छापना जरूरी है ? मेरे पास एक अखबार पड़ा है जिस में दो कॉलम का एक शीर्षक है : “मशहूर सुन्दरी का अन्तिम फैसला : गरीबों के बीच बसेंगी “ । खबर के साथ उस महिला का चित्र है , चित्र के ऊपर एक चौकोर बॉक्स है : ” चार बार शादी ” । ऐसा ही एक अन्य भड़काऊ शीर्षक है : उस नर्तकी से शादी हेतु ५०० लोग तैयार हुए – परन्तु उसने शादी नहीं ही की ।” इन समाचारों को इस रूप में दे कर अथवा मूल रूप में दे कर भी पाठक की कौन सी सेवा सधी होगी ? एक अन्य अखबार में पाँच कॉलम का शीर्षक है : ” सख़्त पिटाई के बाद औरत को मायके भेजा । ” इसके लिए पाँच कॉलम क्यों? पिटाई करने वाला अपनी वीरता पर गर्व कर सके, इसलिए ? एक अन्य अखबार में खबर है : ‘ नाग सन्यासी बना। सब पुजारी दिग्मूढ़ हुए । ‘ जिस संवाददाता ने इस खबर को भेजा उसके सम्पादक ने शायद ही उसे बुलाकर पूछा होगा कि उसकी नज़र के सामने घटित हुआ अथवा सुनी-सुनाई गप्प है । अन्य अखबार जब इस गप्प की नकल करेंगे तब उन्हें तो सोचने की भी जरूरत नहीं होगी । एक अन्य अखबार खबर दे रहा है : ” प्रणयग्रन्थि में बन्धे जोड़े ने की आत्महत्या ” , अन्य ऐसे पागल युगलों को को इस खबर से उत्तेजन नहीं मिलता होगा ? स्टोव से जल कर मरनेवालियों की खबर बारम्बार छपने से ऐसे किस्सों में कुछ बढ़ोतरी होती होगी , इस बाबत कोई शंका है ? एक प्रसिद्ध अमेरिकी दैनिक क्रिश्चन साइन्स मॉनिटर की नीति जानने लायक है । उसका लंडन संवाददाता मुझसे लंडन में मिला था । वहाँ के अखबारों में हिन्दुस्तान के विषय में जब गलत खबरें छपती थीं , तब – तब वह मेरे पास आता और मुझसे सही खबर ले कर अमेरिका भेजता था । वह अखबार जनहित के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के लिए मशहूर है । इस अखबार के बारे में विलिस ऍबट नामक प्रसिद्ध पत्रकार लिखते हैं : ” उस अखबार में अपराधों और गुनाहों की खबरें दी ही नहीं जातीं – सिवा इसके कि वह समाचार सरकार अथवा समाज की प्रगति का नुकसान करने वाला हो ; इस पत्र में बड़ी बड़ी आपदाओं व विपदाओं की खबर भड़काऊ ढंग से नहीं छापी जाती ; पत्र का एक मालिक नहीं है बल्कि एक मण्डल है । ” विलायत के सम्मानित पत्र ‘टाइम्स’ तथा ‘मैनचेस्टर गार्डियन’ में भी काफ़ी हद तक इस प्रथा का पालन होता है तथा चौंकाने वाली सुर्खियाँ देने की धूर्ततापूर्ण आदत से ये अखबार मुक्त हैं ।हमारे कई अखबारों की खपत ऐसी खबरों के बूते होती है । समाचारपत्र पढ़ने का लोगों में शौक बढ़ा है , एक – एक पैसे की कीमत वाले अखबार हजारों की संख्या में बिकते हैं , उससे भी अखबार मालिक मोटा-नफ़ा कमाते हैं , इसके बदले स्वच्छ वाचन की पूर्ति करने की अपनी जिम्मेदारी क्या वे समझते हैं ?
( जारी )
इस भाषण के अन्य भाग :
पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य
पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव देसाई
पत्रकारिता (३) : खबरों की शुद्धता , ले. महादेव देसाई
पत्रकारिता (४) : ” क्या गांधीजी को बिल्लियाँ पसन्द हैं ? ”
पत्रकारिता (५) :ले. महादेव देसाई : ‘ उस नर्तकी से विवाह हेतु ५०० लोग तैयार ‘
पत्रकारिता (६) : हक़ीक़त भी अपमानजनक हो, तब ? , ले. महादेव देसाई
समाचारपत्रों में गन्दगी : ले. महादेव देसाई
क्या पाठक का लाभ अखबारों की चिन्ता है ?
समाचार : व्यापक दृष्टि में , ले. महादेव देसाई
रिपोर्टिंग : ले. महादेव देसाई
तिलक महाराज का ‘ केसरी ‘ और मैंचेस्टर गार्डियन : ले. महादेव देसाई
विशिष्ट विषयों पर लेखन : ले. महादेव देसाई
अखबारों में विज्ञापन , सिनेमा : ले. महादेव देसाई
अखबारों में सुरुचिपोषक तत्त्व : ले. महादेव देसाई
अखबारों के सूत्रधार : सम्पादक , ले. महादेव देसाई
कुछ प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार (१९३८) : महादेव देसाई
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आज यह बात समाचार चैनलो पर लागु होती है.
इन लेखों की श्रिंखला बहुत अच्छी व ज्ञानवर्धक रही । सोचकर आश्चर्य होता है कि तब के समय में भी वे ही समाचार थे जो आज हैं । तब भी स्त्रियाँ पिटती थीं अब भी , तब भी स्टोव का उपयोग खाना बनाने के साथ साथ स्त्रियों को ठिकाने लगाने में किया जाता था । तब भी प्रेमी युगल आत्महत्या करते थे आज भी । नाग तब भी हमारी पत्रकारिता में बहुमूल्य भूमिका निभाते थे आज भी । शायद यदि दिनांक बदल दिया जाए तो बहुत सी खबरें हम आज भी वैसी की वैसी पोस्ट कर सकते हैं । स्त्रियों की पिटाई भी आजकल सुर्खियों में है ।
यह श्रिंखला समाप्त करने के बाद आप पत्रकारों की नजर से भारत कल आज और कल लिखें तो बहुत अच्छा रहेगा ।
घुघूती बासूती
यह लेख बताता है कि समय बदलता है स्वभाव नहीं…चाहे पत्रकारों का हो या समाज के किसी भी तबके के आदमी का।
तो कया यह मान लें की हर समय पत्रकारिता का यही हाल रहा है….यानी कमाओ…..और घर भरो
बेहद रोचक है ये श्रृंखला ! जो बात इतने दिन पहले कही गई वो आज भी उतनी ही तर्कसंगत जान पड़ती है।
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