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Posts Tagged ‘Gandhi’

” गांधी – एक सख़्त पिता । जेपी – एक असहाय मां । विनोबा – एक पुण्यात्मा बड़ी बहन ।
लोहिया – गांव-दर-गांव भटकने वाला यायावर । अम्बेडकर – पक्षपाती हालात से नाराज होकर घर से बाहर रहने वाला बेटा ।
यह है हमारा हमारा कुटुंब । हम हैं इस परिवार की संतान। इसे और किस नजरिए से देखा जा सकता है ?”
– देवनूर महादेव , (प्रख्यात कन्नड़ साहित्यकार और अध्यक्ष , सर्वोदय कर्नाटक पक्ष)

देवनूर महादेव

अध्यक्ष ,सर्वोदय कर्नाटक पक्ष

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प्रख्यात चिन्तक बर्ट्रेण्ड रसल ने अपनी लम्बी आत्मकथा के आखिरी हिस्से में कहा था कि दुनिया की सभी समस्याएं तीन श्रेणियों में रखी जा सकती हैं :

जो मनुष्य की खुद से या खुद में पैदा होने वाली समस्याएं हैं ,  जो समस्याएं समाज के अन्य लोगों से जुड़ी हैं तथा मनुष्य और प्रकृति के द्वन्द्व से पैदा समस्याएं । विनोबा भावे ने १९३० में इन तीन प्रकारों को व्यक्ति ,समष्टि तथा सृष्टि के रूप में मन्त्रबद्ध किया ।

नारायण देसाई

नारायण देसाई

गत दो वर्षों में हमारे देश में दो लाख से ज्यादा लोगों नी आत्मह्त्या की । इनमें से ज्यादातर किसान थे। इनकी आत्महत्या की जड़ में हमारी अर्थव्यवस्था से जुड़े कारण भले ही रहे हों ,इन लोगों ने अपनी सबसे मूल्यवान वस्तु को समाप्त करने का फैसला व्यक्तिगत स्तर पर लिया होगा। अमीर देशों के अस्पतालों में भर्ती होने वालों में सड़क दुर्घटनाओं में मृत तथा घायल हुए लोगों के बाद मानसिक समस्याओं वाले रोगियों का ही नम्बर आता है । अवसाद एक प्रमुख व्याधि बन गया है । हृदय रोग से प्रभावित होने वालों की उम्र लगातार घटती जा रही है । तलाक लेने वाले जोड़ों की संख्या में वृद्ध हो रही है ।

समष्टि से जुड़ी समस्याओं में सबसे अहम है आर्थिक विषमता । डांडी यात्रा से पहले गांधी द्वारा वाइसरॉय को लिखे पत्र में कहा गया था यदि आप हमारे देश के कल्याण के बारे में सचमुच गंभीर हैं तो देश से जुड़ी प्रमुख समस्याओं और मांगों के सन्दर्भ में क्या कर रहे हैं बतायें । इस पत्र में चौथे नम्बर पर नमक कानून वापस लेने की बात जरूर थी लेकिन देश की न्यूनतम मजदूरी पाने वाले से लगायत प्रधान मन्त्री के वेतन के अनुपात तथा इन सबसे कई गुना ज्यादा वाईस रॉय को मिलने वाले वेतन का हवाला दिया गया था तथा इन ऊँची तनख्वाहों को आधा करने की मांग की गयी थी ।

दारिद्र्य का मूल्यांकन औसत से किया जाना एक धोखा देने वाली परिकल्पना है । भारत वर्ष में ऊपर के तथा मध्य वर्गों में आई आर्थिक मजबूती के कारण यह भ्रम पाल लेना गलत होगा की गरीबी मिट गयी । गरीब की मौत सौ फीसदी का मानक है , ऊंचे औसतों से उसमें फरक नहीं आता ।

संगठित हिंसा का स्वरूप चिन्ताजनक हो गया है । अखबारों में विज्ञापनों के बाद हत्याओं की खबरें सर्वाधिक होती हैं । अणुशस्त्रों के समर्थकों द्वारा कहा जाता है  कि  इतने बम बन गये हैं कि उनके ’निरोधक गुण’ के कारण तीसरे महायुद्ध का खतरा टल गया । दुनिया के युद्धों के स्वरूप पर गौर करने से हम पाते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध में समर में प्रत्यक्ष लगे सैनिक असैनिक नागरिकों की तुलना में ज्यादा मारे गये थे । दूसरे विश्वयुद्ध में तथा इसके बाद के सभी युद्धों में यह प्रक्रिया उलट गयी है । अब युद्धों में असैनिक नागरिकों की मौत प्रत्यक्ष लड़ रहे सैनिकों से कहीं ज्यादा हो रही हैं ।

आतंकवाद , हमारे देश में व्याप्त जातिगत विषमता , आदिवासी का शोषण तथा दुनिया भर में व्याप्त लैंगिक भेद भाव प्रमुख सामाजिक समस्याएं हैं । उपभोगवाद द्वारा राग ,द्वेष और घृणा पोषित हुए हैं ।

’ओज़ोन परत मे छि्द्र” कहने पर उक्त छिद्र के बहुत छोटा होने की छवि दिमाग में बनती है। हकीकत है कि वह ’छिद्र’ आकार में एशिया महादेश से भी बड़ा है । हम साधु को स्वामी कह कर सम्बोधित करते हैं लेकिन पश्चिमी सभ्यता का ’सामाजिक अहंकार’ मनुष्य को प्रकृति का स्वामी मानता है । धरती के विनाश का खतरा है। गांधी ने मनुष्य को प्रकृति का स्वामी नहीं प्रकृति को शिरोधार्य माना ।

आज से १०० साल पहले ये समस्याएं कुछ कम जटिल रूप में मौजूद थीं । लेकिन इनकी बुनियाद उससे भी करीब डेढ़ सौ साल पहले औद्योगिक क्रान्ति के साथ पड़ चुकी थी । डार्विन के सिद्धान्त survival of the fittest से पश्चिम के सामाजिक अहंकार को बल मिला था। गांधी ने विश्व में व्यक्ति केन्द्रित पूंजीवाद और समष्टि केन्द्रित समाजवाद को समझा । पूंजीवाद और साम्यवाद इस आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था की जु्ड़वा सन्ताने हैं, यह गांधी समझ सके। आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था के दुष्परिणामों और उसके भविष्य के संकेतों को समझने के पश्चात एक कवि के समान सृजन की विह्वलता के साथ उन्होंने ’हिन्द स्वराज’ की रचना की । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ’निर्झरेर स्वप्नभंग’ को अपनी प्रथम रचना मानते हैं , उसके पहले की कविताओं को तुकबन्दियां मात्र मानते हैं । ठीक उसी प्रकार ’हिन्द स्वराज’ गांधी की प्रथम स्रुजनात्मक रचना है । जहाज के कप्तान से स्टेशनरी की मांग करना , दाहिने हाथ से लिखते लिखते थक जाने पर बांए हाथ से लिखना उनकी उत्कटता के द्योतक थे।(हिन्द स्वराज की रचना इंग्लैंण्ड से अफ़्रीका पानी के जहाज से जाते वक्त लिखी गयी थी) । उन्होंने यह स्पष्ट कहा भी जब मुझसे बिलकुल नहीं रुका गया तब ही मैंने इसकी रचना की।

तेनसिंग और हिलेरी ने आपस में यह समझदारी बना ली थी कि वे दुनिया को यह नहीं बतायेंगे कि किसने एवरेस्ट की चोटी पर पहला कदम रखा । परन्तु ऊपर पहुंचने के बाद उन दोनों ने जो किया वह गौर तलब है । हिलेरी ने अपना झण्डा गाड़ा और तेनसिंग ने वहाँ की बरफ़ उठा कर मस्तक पर लगाई।

मौजूदा अर्थव्यवस्था अब उत्पादन से ज्यादा कीमतों और ब्याज के हेर-फेर पर निर्भर है । मौजूदा संकट सभ्यता के अंत का प्रथम भूचाल है । सत्य ,अहिंसा,साधन शुद्धि आदि के गांधी के ’तत्व ’ हैं । यह तत्व हमेशा प्रासंगिक रहेंगे । चरखा गांधी का तन्त्र है जो सतत परिवर्तनशील रहेगा। अपने जीवन काल में ही गांधी ने स्थानीय तकनीक से १०० गज धागा बनाने वाले चरखे की खोज के लिए एक लाख रुपये के ईनाम की घोषणा की थी ।

गांधी ने स्वराज का अर्थ सिर्फ़ राजनैतिक स्वराज से नहीं लिया था। उसका सन्दर्भ समूची संस्कृति से था। जरूरतों को अनिर्बन्ध बढ़ाना नहीं स्वेच्छया नियन्त्रित करना ताकि हर व्यक्ति स्वराज का अनुभव करे। ’हिन्द स्वराज” ने आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था के शक्तिवाद , उद्योगवाद , उपभोक्तावाद,बाजारवाद के विकल्प में सत्याग्रह,प्रकृति के साथ साहचर्य ,सादगी,प्रेम,स्वावलंबन पर आधारित विकास की परिकल्पना दी।

[ काशी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में मौजूदा वैश्विक संकट और ’हिन्द स्वराज’ विषयक श्री नारायण देसाई द्वारा दिए गए व्याख्यान के आधार पर । व्याख्यान का आयोजन प्रोफेसर किरन बर्मन ने किया था। ]

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      बात मध्यप्रदेश की है, किन्तु कमोबेश पूरे देश पर लागू होती है। मध्यप्रदेश हाईस्कूल का परीक्षा परिणाम इस साल बहुत खराब रहा। मात्र 35 फीसदी विद्यार्थी ही पास हो सके। परिणाम निकलने के बाद प्रदेश के कई हिस्सों से छात्र-छात्राओं की आत्महत्याओं की खबरें आईं।
        इतने खराब परीक्षा परिणाम की विवेचना चल रही है। मंत्री एवं अफसरों ने कहा कि शिक्षकों के चुनाव में व्यस्त होने के कारण परीक्षा परिणाम बिगड़ा है। किसी ने कहा कि आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा खत्म कर देने से यह हुआ है। लेकिन सच तो यह है कि लगातार बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था का यह परिणाम है। सरकार खुद इसे लगातार बिगाड़ रही है।
        इस परीक्षा परिणाम में एक मार्के की बात यह है कि सबसे ज्यादा अंग्रेजी और गणित  इन दो विषयों में ही विद्यार्थी फेल हुए हैं। अंग्रेजी में 3 लाख 21 हजार और गणित में 2 लाख विद्यार्थी फेल हुए हैं। कुछ दिन पहले घोषित मध्यप्रदेश हायर सेकेण्डरी की परीक्षा में भी फेल विद्यार्थियों में ज्यादातर अंग्रेजी व गणित में ही अटके हैं। अमूमन यही किस्सा हर साल का और देश के हर प्रांत का है। अंग्रेजी और गणित विषय आम विद्यार्थियों के लिये आतंक का स्त्रोत बने हुए हैं।
        गणित का मामला थोड़ा अलग है। गणित के साथ समस्या यह है कि इसे रटा नहीं जा सकता। इसकी परीक्षा में नकल भी आसान नहीं है। शुरुआती कक्षाओं में गणित को ठीक से न पढ़ाने की वजह से बाद की कक्षाओं में गणित कुछ भी समझ पाना एवं याद करना बहुत मुश्किल होता है। गणित विषय की बेहतर पढ़ाई की व्यवस्था जरुरी है।
        लेकिन अंग्रेजी क्यों इस देश के बच्चों पर लादी गई है ? पूरी तरह विदेशी भाषा होने के कारण बच्चों के लिए यह बहुत बड़ा बोझ बनी हुई है। देश के कुछ मुट्ठी भर अभिजात्य परिवारों को छोड़ दें , जिनकी संख्या देश की आबादी के एक प्रतिशत से भी कम होगी, तो देश के लोगों के लिए अंग्रेजी एक अजनबी, विदेशी और बोझिल भाषा है। अपनी जिन्दगी में दिन-रात उनका काम भारतीय भाषाओं या उसकी स्थानीय बोलियों में चलता है। उनमें अंग्रेजी के कुछ शब्द जरुर प्रचलित हो गए हैं, लेकिन अंग्रेजी भाषा बोलना, लिखना या पढ़ना उनके  लिए काफी मुश्किल काम है। फिर भी अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रुप में सारे बच्चों पर थोपी जा रहा है। पहले माध्यमिक शालाओं में कक्षा 6 से इसकी पढ़ाई शुरु होती थी, अब लगभग सारी सरकारों ने इसे पहली कक्षा से अनिवार्य कर दिया है।
        अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रुप में भारत के सारे बच्चों को पढ़ाने के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं, जो सब खोखले और गलत हैं। यह कहा जाता है कि अंग्रेजी दुनिया भर में बोली जाती है। अंग्रेजी से हमारे लिए दुनिया के दरवाजे खुलते हैं। हमारे देश को आगे बढ़ना हैं, शोध कार्य करना है, वैज्ञानिक प्रगति करना है, व्यापार करना है, विदेशों में नौकरी पाना है, तो अंग्र्रेजी सीखना ही होगा। लेकिन यह सत्य नहीं है। अंग्रेजी का प्रचलन सिर्फ उन्हीं देशों में     है जो कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं और वहां भी आम लोग अंग्रेजी नहीं जानते हैं। दुनिया के बाकी देश अपनी-अपनी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और वहां जाने, उनके साथ संवाद करने और उनको समझने के लिए उनकी भाषा सीखने की जरुरत होगी। स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, रुसी, पु्र्तगाली, इटेलियन, डच, चीनी, जापानी, अरबी, फारसी, कोरियन आदि भी अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं हैं। यदि दुनिया के दरवाजे वास्तव में भारतीयों के लिए खोलने हैं तो इन भाषाओं को भी सीखना पड़ेगा।
        फिर अंतर्राष्ट्रीय जगत से तो बहुत थोड़े भारतीयों को काम पड़ता है। उच्च स्तरीय शोधकार्य करने वाले मुट्ठी भर लोग ही होते हैं। उसके लिए देश के सारे बच्चों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जाए ? उन्हें क्यों कुंठित किया जाए ? बार-बार फेल करके उनके आगे बढ़ने के रास्ते क्यों रोके जाए ? प्रतिवर्ष पूरे देश में विभिन्न कक्षाओं में अंग्रेजी में फेल होते बच्चों की संख्या जोड़ी जाए, तो यह करोड़ों में होगी। क्या यह स्वतंत्र भारत का बहुत बड़ा अन्याय नहीं है ? जिन्हें उच्च स्तरीय शोधका्र्य करना है या विदेश जाना है, वे जरुरत होने पर अंग्रेजी या कोई भी विदेशी भाषा का छ: महीने का कोर्स करके कामचलाऊ ज्ञान हासिल कर सकते हैं। दूसरों देशों के नागरिक ऐसा ही करते हैं। सिर्फ भारत जैसे चंद पूर्व गुलाम देशों में ही एक विदेशी भाषा पूरे देश में थोपी जाती है। सच कहें तो, दुनिया का कोई भी देश एक विदेशी भाषा में प्रशासन, शिक्षा, अनुसंधान आदि करके आगे नहीं बढ़ पाया है।
        कई अभिभावक सोचते हैं कि अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाकर वे उसे ऊपर तक पहुंचा सकेगें। ‘‘इंग्लिश मीडियम’’ का एक पागलपन इन दिनों चला है और हर जगह घटिया निजी स्कूलों के रुप में इंग्लिश मीडियम की कई दुकानें खुल गई हैं। इंग्लिश मीडियम का मतलब है कि बच्चों को अंग्रेजी सिर्फ एक विषय के रुप में नहीं पढ़ाना, बल्कि सारे विषय अंग्रेजी भाषा में पढ़ाना। यह बच्चों के साथ और बड़ा अन्याय होता है। अपनी मातृभाषा में अच्छे तरीके से और आसानी से जिस विषय को वे समझ सकते थे, उसे उन्हें एक विदेशी भाषा में पढ़ना पड़ता है। उनके ऊपर दोहरा बोझ आ जाता है। अक्सर वे भाषा में ही अटक जाते हैं, विषय को समझने का नंबर ही नहीं आता है। फिर वे रटने लगते हैं। लेकिन विदेशी भाषा में रटने की भी एक सीमा होती है। इसमें कुछ ही बच्चे सफल हो पाते हैं, बाकी बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए यह एक मृग-मरीचिका ही साबित होता है। देश के करोड़ों बच्चे अंग्रेजी के इस मरुस्थल में क्लान्त और हैरान भटकते रहते हैं, कोई-कोई दम भी तोड़ देते हैं।
        यह सही है कि आज भी देश का ऊपर का कामकाज अंग्रेजी में होता है। प्रशासन, न्यायपालिका, उच्च शिक्षा, उद्योग, व्यापार सबमें ऊपर जाने पर अंग्रेजी का वर्चस्व मिलता हैं। अंग्रेजी न जानने पर ऊपर पहुंचना और टिकना काफी मुश्किल होता है। लेकिन इसका इलाज यह नहीं है कि सारे बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाई जाए। यह एक अस्वाभाविक स्थिति है और गुलामी की विरासत है, इसे जल्दी से जल्दी बदलना चाहिए। देश के शासक वर्ग ने अंग्रेजी की दीवार को इसीलिए बनाकर रखा है कि देश के करोड़ो बच्चे आगे नहीं बढ़ पाए और उनकी संतानों का एकाधिकार बना रहे। अंग्रेजी को अनिवार्य रुप से स्कूलों में पढ़ाने से यह एकाधिकार
टूटता नहीं, बल्कि मजबूत होता है।  अभिजात्य वर्ग के बच्चों को तो अंग्रेजी विरासत में मिलती है। फर्राटे से अंग्रेजी न बोल पाने और न लिख पाने के कारण साधारण पृष्ठभूमि के बच्चे प्राय: हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। आधुनिक भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व न केवल भेदभाव, विशेषाधिकारों और यथास्थिति को बनाए रखने का बहुत बड़ा औजार है, बल्कि देश की प्रगति को रोकने का बहुत बड़ा कारण भी है। जिस देश के ज्यादातर बच्चे कुंठित एवं हीन भावना के शिकार होंगें, उनके ऊपर दोहरी शिक्षा का अन्यायपू्र्ण बोझ लदा रहेगा, वे ज्ञान-विज्ञान के विषयों को समझ ही नहीं पाएंगे और उनके आगे बढ़ने के रास्ते अवरुद्ध रहेगें, वह देश कैसे आगे बढ़ेगा।
        अंग्रेजी के वर्चस्व का दूसरा नुकसान यह भी होता है कि देशी परिस्थितियों के मुताबिक मौलिक सोच, स्वतंत्र चिन्तन व देशज शोध-अनुसंधान भी काफी हद तक नहीं हो पाता है। पूरा देश नकलचियों का देश बना रहता है और कई बार नकल में अकल भी नहीं लगाई जाती है।
        इसीलिए समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया ने आजाद भारत में सार्वजनिक जीवन से अंग्रेजी के वर्चस्व को हटाने का आह्वान किया था। डॉ. लोहिया की जन्म शताब्दी इस वर्ष मनाई जा रही है और यदि इस दिशा में हम कुछ कर सकें, तो यह उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी। यह वर्ष महात्मा गांधी की  अद्वितीय पुस्तक ‘‘हिन्द स्वराज’’ का भी शताब्दी वर्ष है। इसमें लिखे गांधी जी के इन शब्दों को भुलाकर हमने अपनी बहुत बड़ी क्षति की है –
        ‘‘ अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। ……………यह क्या कम जुल्म  की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। ………. यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है ?’’

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(लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय अध्यक्ष है।)

 

    सुनील
    ग्राम पोस्ट -केसला, वाया इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) 461 111
    फोन नं० – 09425040452

ई – मेल   sjpsunilATgmailDOTcom

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    पिछले भाग : एक , दो

    युनाइटेड फार्म वर्कर्स आर्गनाइजिंग कमेटी के जिस कार्यक्रम को अधिक सफलता मिली है , वह है बहिष्कार । सीजर ने देखा कि केवल हड़ताल से काम बनता नहीं और एक मजदूर की जगह लेने के लिये अन्य मजदूर तैयार हैं , तो उसने दूसरा उपाय बहिष्कार का सोचा । अमरीका के बड़े – बड़े शहरों में जाकर उसने लोगों को यह समझाया कि केलिफोर्निया के उन उत्पादकों के अंगूर मत खरीदिए , जो अत्याचारी हैं और मजदूरों पर अन्याय कर रहे हैं । ये अंगूर एक खास प्रकार के होते हैं । इसलिए ग्राहकों के लिए पहचानना आसान होता है । बहिष्कार का यह कार्यक्रम काफी सफलता पा रहा है । इस समय अमरीका के कुछ प्रमुख शहरों में तथा इंग्लैण्ड , केनेडा , आयर्लैंड आदि कुछ देशों में भी केलिफोर्निया के उन अंगूरों की दूकानें बन्द हैं । इसके कारण सारे आन्दोलन को काफी प्रसिद्धि भी मिली है ।

    भूपतियों के क्रोध का सीजर को कई बार शिकार बनना पड़ा है । उसकी सभाओं में उस पर अंडे फेंके गये हैं । लेकिन फिर भी उसके व्याख्यान जारी रखने पर उसी श्रोता – मंडली ने उसका उत्साह से अभिनन्दन किया है । आंदोलन को बदनाम करने के लिये कुछ हिंसक उपद्रवियों को उसमें घुसाने की चेष्टा भी की गयी है । लेकिन त्याग और तपस्या पर अधिष्ठित  इस आंदोलन में ऐसे तत्व अधिक दिनों तक टिक नहीं पाये हैं ।

    १९६६ में सीजर और उसके साथियों ने अपने स्थान डेलेनी से केलिफोर्निया की राजधानी सेक्रामेन्टो तक की ३०० मील की पद-यात्रा की । इस पद-यात्रा को बहुत अच्छी प्रसिद्धि मिली । पद-यात्रा का उद्देश्य था राजधानी में गवर्नर से भेंट करना। लेकिन पूरी यात्रा समाप्त करके जब पचास पद-यात्री सेक्रामेन्टो पहुंचे , तब बारिश  में भीगते हुए उनके साथ और कई जाने – माने लोग और हजारों नागरिक शामिल हो गये थे । गवर्नर साहब ने इन लोगों से भेंट करने की अपेक्षा शनि और रविवार की छुट्टी मनाने के लिए चला जाना अधिक पसंद किया । लेकिन उसी समय अंगूर-उत्पादकों की एक बड़ी कम्पनी श्चेन्लीवालों ने मजदूरों के साथ एक कान्ट्रैक्ट पर दस्तख़त किये , जिसके अनुसार मजदूरों को प्रति घण्टे पौने दो डालर मजदूरी देने का तय हुआ । यह मजदूरों के लिए आज तक हुई सबसे बड़ी जीत थी ।

    सीजर की एक पद्धति ने उसे न चाहते हुए भी काफी प्रसिद्धि दी है । वह है अनशन । उसने आज तक अनेक बार अनशन किये हैं । सीजर को गांधी का चेला करार देनेवाला भी शायद यही सबसे बड़ा तत्व होगा ।

    अनशन के बारे में सीजर कहता है :

    ” मैंने अपने काम का आरम्भ ही अनशन से किया था । किसी पर दबाव डालने या अन्याय का प्रतिकार करने के लिए नहीं । मैंने तो सिर्फ़ इतना ही सोचा था कि एक बड़ी जिम्मेवारी का काम ले रहा हूँ । गरीब लोगों की सेवा करनी है । सेवा करने के लिए कष्ट उठाने की जो तैयारी होनी चाहिए , वह मुझमें है या नहीं , इसीकी परीक्षा करने के लिए वे अनशन थे । “

    लेकिन हर वक्त इसी उद्देश्य से उपवास नहीं हो सकते थे । बीच में एक बार उसने उपवास इसलिए किए थे कि उसे लग रहा था कि उसके साथियों में अहिंसा पर निष्ठा कम हो रही है । चुपचाप उपवास शुरु कर दिये । पहले तीन – चार दिन तक तो उसकी पत्नी और आठ बच्चों को भी पता नहीं चला कि सीजर खा नहीं रहा है । लेकिन फिर उसने अपनी शैय्या युनाइटेड फार्म वर्कर्स आर्गनाइजिंग कमेटी के दफ्तर  में लगा ली । सिरहाने गाँधी की एक तसवीर टँगी हुई है । बगल में जोन बाएज़ के भजनों के रेकार्ड पड़े हैं । कमरे के बाहर स्पैनिश क्रांतिकारी एमिलियानो ज़पाटा का एक पोस्टर लिखा था : ‘ विवा ला रेवोल्यूशियो’ जिसका अर्थ होता है – इन्कलाब जिन्दाबाद । दूसरी ओर मार्टिन लूथर किंग की तसवीर । “उपवास का सबसे बड़ा असर मुझ ही पर हुआ ”  सीजर ने कहा । गाँधी के बारे में  मैंने काफी पढ़ा था । लेकिन उसमें से बहुत सारी बातें मैं इस उपवास के समय ही समझ पाया । मैं पहले तो इस समाचार को गुप्त रखना चाहता था , लेकिन फिर तरह तरह की अफवाहें चलने लग गयीं । इसलिए सत्य को प्रकट करना पड़ा कि मैं उपवास कर रहा हूँ । लेकिन मैंने साथ ही यह भी कहा कि मैं इसे अखबार में नहीं देना चाहता हूँ , न हमारी तसवीरें ली जानी चाहिए । बिछौने में पड़े – पड़े मैंने संगठन का इतना काम किया  , जितना पहले कभी नहीं किया था । उपवास के समाचार सुनकर लोग आने लगे । दसेक हजार लोग आये होंगे । खेत – मजदूर आये । चिकानो तो आये ही , लेकिन नीग्रो भी आये , मेक्सिकन आये , फिलिपीन भी आये । मुझे यह पता नहीं था कि इस उपवास का असर फिलिपीन लोगों पर किस प्रकार का होगा । लेकिन उन लोगों की धार्मिक परम्परा में उपवास का स्थान है ।  कुछ फिलिपीन लोगों ने आकर घर के दरवाजे  , खिड़कियों रँग दिया , कुछ ने और तरह से सजाना शुरु किया । ये लोग कोई कलाकार नहीं थे । लेकिन सारी चीज ही सौन्दर्यमय थी । लोगों ने आकर तसवीरें दीं । सुन्दर सुन्दर तसवीरें । अक्सर ये तसवीरें धार्मिक थीं । अधार्मिक तसवीरें थीं तो वह जान केनेडी की । और लोगों ने इस उपवास के समय मार्टिन लूथर किंग और गांधी के बारे में इतना जाना , जितना सालभर के भाषणों से नहीं जान पाये । और एक बहुत खूबसूरत चीज हुई । मेक्सिको के केथोलिक लोग वहाँ के प्रोटेस्टेन्ट लोगों से बहुत अलग – अलग रहते थे । उनके बारे में कुछ जानते तक नहीं थे । हम लोग रोज प्रार्थना करते थे । एक दिन एक प्रोटेस्टेन्ट पादरी आया , जो श्चेन्ली में काम करता है । मैंने उसे प्रार्थना सभा में बोलने के लिए निमंत्रण दिया । पहले तो वह मान ही नहीं रहा था , पर मैंने कहा कि प्रायश्चित का यह अच्छा तरीका होगा । उसने कहा कि मैं यहाँ बोलने की कोशिश करूँगा तो लोग मुझे उठाकर फेंक देंगे । मैंने उनसे कहा कि यदि लोग आपको निकाल देंगे तो मैं भी आपके साथ निकल आऊँगा । उन्होंने कबूल कर लिया । भाषण से पहले उनका पूरा परिचय दिया गया , ताकि किसीके मन में यह भ्रम न रहे कि यह केथोलिक है । उनका भाषण अद्भुत हुआ । मैथ्यू के आधार पर उन्होंने अहिंसा की बात की । लोगों ने भी बहुत ध्यान से और उदारता से उनको सुना । और फिर तो हमारे पादरी ने जाकर उनके गिरजे में भाषण किया । “

     शियुलकिल नदी के किनारे कई घण्टों तक बातें हुई । इन बातों में सीजर की जिज्ञासा ने मुझे श्रोता न रखकर वक्ता बना दिया था । मेरे पिताजी का गांधी से मिलन , प्यारेलाल और पिताजी का सम्बन्ध , राम – नाम पर गांधीजी की आस्था , प्राकृतिक चिकित्सा पर श्रद्धा , विनोबा का व्यक्तित्व , भूदान और ग्रामदान की तफसील , शांति – सेना के बारे में , सब कुछ उसने पूछ डाला । उठने से पहले मैंने सीजर से दो प्रश्न किये । पहला प्रश्न था : ” अहिंसा की प्रेरणा आपको कहाँ से हुई ? ” उसने कहा : ” मेरी माँ से । बचपन ही से वह हम बच्चों को  यही कहती रहती थी कि बड़ों से डरना नहीं चाहिए और झगड़ा हो तो उनको सामने मारना भी नहीं चाहिए । मैंने इस उद्देश्य को अपने खेलों में बड़ों के साथ झगड़ा होने पर आजमाकर देखा । मैं बड़ों से डरता नहीं था , लेकिन उनको मारता भी नहीं था । मैंने देखा कि इसका काफी असर होता है । शायद इसीसे अहिंसा के बारे में मेरी श्रद्धा के बीज डाले गये होंगे । “

      दूसरा प्रश्न था : ” गांधी के बारे में आप कब और किस प्रकार आकर्षित हुए ? “

      उसके जवाब में सीजर ने एक मजेदार किस्सा बताया : ” १९४२ में मैं १५ साल का था । एक सिनेमा की न्यूज रील में गांधी के आन्दोलन के बारे में कुछ चित्र दिखाये गये । मैंने देखा कि एक दुबला – पतला- सा आदमी इतनी बड़ी अंग्रेज सरकार का मुकाबला कर रहा है । मैं प्रभावित तो हुआ ,  लेकिन थियेटर से बाहर आने पर उस दुबले-पतले आदमी का नाम भूल गया । तो उसके बारे में अधिक जानकारी कैसे प्राप्त करता ? लेकिन मेरे मन में उस आदमी का चित्र बन गया । अकस्मात एक दिन अखबार में मैंने उसी आदमी की तसवीर देखी । मैंने लपककर अखबार उठा लिया और उस आदमी का नाम लिख लिया । फिर पुस्तकालय में जाकर उनके बारे में जो कुछ भी मिला , पढ़ लिया । “

    इस लेख का अन्त हम सीजर शावेज के उस वचन से करेंगे , जो उसने अपने एक अनशन के बाद कहे थे : ” हम अगर सचमुच में ईमानदार हों , तो हमें कबूल करना होगा कि हमारे पास कोई चीज हो तो वह अपना जीवन ही है । इसलिए हम किस प्रकार के आदमी हैं , यह देखना होत तो यही देखना चाहिए कि हम अपने जीवन का किस प्रकार उपयोग करते हैं । मेरी यह पक्की श्रद्धा है कि हम जीवन को देकर ही जीवन को पा सकते हैं । मुझे विश्वास है कि सच्ची हिम्मत और असली मर्दानगी की बात तो दूसरों के लिए अपने जीवन को पूरी तरह अहिंसक ढंग से समर्पण करने में ही है । मर्द वह है , जो दूसरों के लिए कष्त सहन करता है । भगवान हमें मर्द बनाने में सहायता करें । “

    

   

 

    

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[ गांधी शताब्दी वर्ष ( १९६९ ) के उपलक्ष्य में सर्वोदय नेता नारायण देसाई दुनिया के कई देशों की यात्रा पर गये थे । उनका यात्रा वृत्तांत ‘ यत्र विश्वं भवत्येकनीड़म ‘ नाम से प्रकाशित हुआ था । अशोक पाण्डे की एक पोस्ट से प्रेरित हो कर जोन बाएज़ के बारे में लिखे इस किताब के एक अध्याय को ब्लॉग पर मैंने प्रकाशित किया था । आज भारत भूषण तिवारी ने गांधी प्रभावित किसान नेता सीजर शावेज़ पर एक पोस्ट लिखी है । इस पोस्ट से प्रेरणा मिली कि उपर्युक्त यात्रा वृत्तांत से सीजर शावेज़ के बारे में लिखे दो अध्याय चिट्ठे पर प्रकाशित किए जांए । ]

सीजर शावेज से मुलाकात

भारत के कवियों के डाक टिकटों का जब एक अलबम छपा , तब जाने किसकी पसंदगी के कारण , गुरुदेव की ये पंक्तियां रवीन्द्रनाथ के टिकट के साथ छापी गयीं :

कतो अजानारे जानाइले तुमि

कतो घरे दिले ठाई ।

दूर के करिले निकट बंधु

पर के करिले भाई ।

कितने अनजानों से तुमने करवाई पहचान । कितने-कितने घरों में दिलवाया स्थान , दूर पड़े को निकट में लाया , पर को किया भाई जान ।

मेरे प्रिय गीतों में से एक यह है । उसका सुर – छंद मैं जानता नहीं ; लेकिन जीवन में बार – बार इस गीत की धुन का अनुभव किया है । अनेक बार नये – नये घरों में अपनत्व का अनुभव किया है , जिनको कल तक देखा भी नहीं था , वे आज अचानक चिर-परिचित हो गये हैं ।

सीजर शावेज से परिचय भी उसी प्रकार की एक अद्भुत अनुभूति थी । पूर्वजन्म के बारे में मैं अज्ञानी आदमी हूँ । लेकिन अगर कभी कभी पूर्व जन्म के बारे में विश्वास होता है तो इसी कारण से । कभी – कभी मैं सोचता हूँ कि पूर्वजन्म में मैं जरूर कोई संतचरणरजअनुरागी रहा होऊँगा । ऐसा न होता तो इस जन्म में इतने संतों की सत्संगति बिना मांगे ही अनायास कैसे मिल जाती है ?

सीजर के साथ की भेंट ने मेरा यह विश्वास पक्का किया ।

पहले से मैं सीजर के विषय में कुछ जानकारी जरूर रखता था । मुझे यह मालूम था कि केलिफोर्निया में अंगूरर की खेती करनेवाले मजदूरों का संगठन करनेवाला नेता सीजर शावेज है । मुझे यह भी पता था कि सीजर को अहिंसा में रुचि है । लेकिन मुझे यह पता नहीं था कि पहली ही भेंट में वह मेरे हृदय में इस प्रकार बस जायेगा ।

बंधु चार्ली वाकर सीजर को अपने ‘गांधी क्वोलोक्वियम’ के लिए लाने को कई दिनों से कोशिश कर रहा था । एक दिन उसने मुझसे आकर कहा , मैं तो उसे यहाँ नहीं ला पाया , लेकिन तुम उससे मिलने का मौका मत चूकना । अमरीका जाने से पहले जिन लोगों से मिलने की मैंने सूची बनाई थी , उसमें सीजर का नाम था ही। पश्चिमी किनारे पर जाने के समय मैं मिल लूँगा , ऐसी कल्पना थी । लेकिन पता चला कि जब मैं पश्चिमी किनारे पर जाऊँगा , तब वह वहाँ होगा नहीं । इसलिए पूर्वी किनारे पर ही कहीं मौका ढूँढ़ने की फिराक में था । अचानक पता चला कि सीजर फिलाडेलफिया आ रहा है । वहाँ उसका कार्यक्रम इतना व्यस्त था कि मिलना संभव होगा या नहीं , पता नहीं था । नीग्रो मित्र वाली नेल्सन से कह रखा था कि सम्भव हो तो परिचय करवा देना ।

एक छोटे-से यहूदी मम्दिर में उनका व्याख्यान था , वहाँ पहुँच गया । आमसभा की भीड़ में भेंट की आशा रखना वृथा था । इसीलिए छोटी सभा चुनी थी ।

सभा के पीछे बैठकर मैं देख रहा था । भारत की किसी भी भीड़ में आसानी से छिप जा सके , ऐसा शरीर । ऊँचाई साढ़े पाँच फुट से अधिक नहीं होगी । वजन १४० से १५० पौंड होगा । मैं अमरीकन आदमी तरह अन्दाज लगा रहा था । रँग साँवला । नाक बिलकुल भारतीय , बुशशर्ट और पैंट अनाकर्षक । भाषण करने से पहले जेब से कुछ कार्ड निकाल लिये । उसमें भाषण के मुद्दे होंगे , इन कार्डों की ओर बीच-बीच में झाँकते हुए , लेकिन अधिकांश में श्रोताओं की ओर सीधा ताकते हुए बोलता था , अत्यन्त सरल शैली , अनाडंबरित , ऋजु । भाषण में अधिकांश समय अहिंसा के ही बारे में बोलता रहा । अमरीका में आने के बाद यह पहला वक्ता , जिसने अहिंसा को अपना मुख्य विषय बनाया । बोलना था उसे अपने द्राक्षश्रमिक आन्दोलन के बारे में , लेकिन अहिंसा पर बोले बिना वह रह नहीं पाता था ।

मार्टिन लूथर किंग की मृत्यु के बाद अमरीका में अगर अहिंसा का कोई सबसे बड़ा भक्त हो तो वह सीजर शावेज है । कुछ लोग उसे मैक्सिकन अमरीकन लोगों का ( जिन्हें बोलचाल की भाषा में चिकानो कहा जाता है। ) गांधी भी कहते हैं ।

सभा के समय मैं पीछे बैठा था । लेकिन इस आदमी का व्यस्त कार्यक्रम देखकर मन में तय कर लिया था कि इससे परिचय करने में भारतीय संकोच छोड़कर अमरीकन आत्मप्रशंसा का तरीका अपनाऊंगा । वाली नेल्सन ने हमारा परिचय कराया ही था कि मैंने कहा : ” मैं गांधी के आश्रमों में पला हूँ । उनके साथ अपने जीवन के पहले अठारह साल बिताये हैं ।” सीजर से समय माँगने की जरूरत ही नहीं रही । हमारा पौरोहित्य करने के लिए गाँधी आ चुके थे । सामने से सीजर ही ने कहा: ” आपके पास समय है ? आपसे मैं बहुत – बहुत बातें करना चाहता हूँ । ” सीजर क्या समझ रहा था कि मेरा समय भी उसके जैसा व्यस्त होगा ?

” आपके पास गाड़ी है ? ” दूसरा प्रश्न । मैंने कहा : ” नहीं ।”

” तो मेरे साथ चल सकते हैं ? ”

मैं तो उसके साथ पैदल चलने को भी तैयार खड़ा था ।

एक स्टेशन वैगन के पीछे की सीट को बदलकर सोने लायक बनाया गया था । यही थी सीजर की प्रवास की गाड़ी । मुझसे क्षमा माँग कर सीजर उस सीट पर लेट गये । सीजर की कमर का दर्द धीरेनदा (वरिष्ट सर्वोदय नेता धीरेन्द्र मजुमदार , तब जीवित थे) की याद दिलानेवाला । दो सभा के बीच समय रहता है तो उस समय में उनकी नर्स मेरिया मोजिज उनको मालिश कर देती है ।

” कहीं खाने के लिए जाने का कार्यक्रम बना है ? ”

” नहीं तो । ”

” तब मेरे साथ ही रूखा – सूखा खा लीजिए । मुझे भी इस समय फुर्सत है । ”

गाड़ी के अन्दर ही बातचीत का आरम्भ हो गया । नर्स मेरिया को भी गांधी में दिलचस्पी थी । और एक फोटोग्राफर बाब फिचर भी जाने कहाँ से इस गाड़ी में घुसा हुआ था । चलती गाड़ी में उसने कितनी ही तस्वीरें खींच लीं । बाद में पता चला कि बाब की हॉबी ही विश्व के शांतिवादियों की तस्वीरें लेने की थी ।

फिलाडेलफिया के एक बाग में सियुलकिल नदी के किनारे हरी दूब पर बातें चलती रहीं । शाम का भोजन भी वहीं बैठकर किया : सेंडविच और काफी । फिर अपने कैमेरे से सीजर ने मेरी तस्वीर ली । फिर बातें चलती रहीं । अन्त में मैंने चार्ली वाकर के निमन्त्रण की बात निकाली । सीजर ने कहा : ” गांधी-शताब्दी के सिलसिले में मुझे इस देश से ३० और विदेशों से ७ निमंत्रण मिले थे । कहाँ जाना और कहाँ नहीं ? अतएव मैंने सभी जगह न जाने का फैसला किया ।” मैंने कहा: “लेकिन चार्ली जो क्वोलोक्वियम बुला रहा है , वह दूसरे निमंत्रणों जैसा नहीं है । यह सरकारी गाँधी शताब्दी नहीं है , जिसकी कमेटी के अध्यक्ष वेयेटनाम युद्ध के समर्थक ह्यूबर्ट हम्फ्री हैं । इसमें न आडम्बर है , जैसा कि मेथर देली की अध्यक्षतावाली शिकागो की कमेटी में आप पायेंगे । यह जनता के अभिक्रम से होने वाला कार्यक्रम है और इस गोष्ठी का विषय भी गांधीजी : रेलेवन्स टु अमरीका टुडे ( आज के अमरीका में गांधी की आवश्यकता एवं उपयोगिता) है ।” सीजर ने जवाब दिया कि ” तुम कहते हो इसलिए मैं इस पर विचार करता हूँ । मेरे मन में भी खटकता था कि कि गांधी-शताब्दी में पूरे कार्यक्रम में मैं कहीं शामिल न होऊँ यह ठीक नहीं है । इसलिए सोचता हूँ कि क्या इसमें जा सकता हूँ ? ” सेक्रेटरी लोगों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि सीजर के पास समय नहीं है , उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है , कल उनको न्यूयॉर्क तक गाड़ी से जाना है । लेकिन मैं भी गांधी के सेक्रेटरी का लड़का था । इसलिए उनकी किसी बात का इनकार न करते हुए और आवश्यकता से अधिक आग्रह न करते हुए भी मैं यह कहता रहा कि ऐसे लोगों के मानसिक सन्तोष का विचार पहले करना चाहिए । मुझे लगता है कि हेवरफोर्ड कॉलेज के कार्यक्रम में आने से सीजर को स्वयं संतोष होगा । मैं जानता था कि सीजर की अनुमति मैं पहले ही पा चुका था । इसलिए मंत्रिमण्डल को नाखुश करने की मुझे जरूरत ही क्या थी ?

सीजर ने हेवरफोर्ड आने का कबूल किया है , यह समाचार रात को ग्यारह बजे टेलीफोन से चार्ली वाकर को बताया , तब वह खुशी के मारे पागल -सा हो उठा । उससे से बात करने के पहले ही मैं सभा भवन की व्यवस्था कर चुका था और भाषण की सूचना देनेवाले पोस्टर्स बना चुका था। मेरे विद्यार्थी मित्रों से कहकर हर कॉलेज और हर छात्रावास में ये ये पोस्टर्स लगवाने की व्यवस्था भी कर ली गयी थी ।

दूसरे दिन सुबह सीजर के लिए हेवरफोर्ड कॉलेज में जो सभा हुई ,वह शायद गांधी क्वोलोक्वियम की सबसे बड़ी सभा थी । उसमें भी वही जेब से कार्ड निकाल कर भाषण के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए , बिना किसी आडंबर के बोलना । वही श्रोताओं के दिल तक पहुंच जाने वाली शैली । भाषण की बीच ही किसीने श्रोताओं में हैट घुमाई । बिना किसी सूचना के आयोजित की हुई इस सभा में सीजर शावेज के ‘ला कॉज़ा’ (उद्देश्य) के लिए १७५ डॉलर का दान प्राप्त हुआ । फिलाडेलफिया की आमसभा की तुलना में यह रकम खराब नहीं थी , ऐसा मुझे बाद में वाली नेल्सन ने बताया । फिलाडेलफिया में श्रोता वर्ग प्रौढ़ों का था । हेवरफोर्ड कालेज में श्रोता-वर्ग तरुणों का था , जिन्हें गांधी आज के अमरीका के लिए उपयोगी मालूम होता था ।

[ जारी, आगे – ‘सीजर शावेज का व्यक्तित्व’https://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2009/03/28/cesar_chavez_gandhi_narayan_desai/ ]

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