समाजवादी आन्दोलन से प्रभावित काशी विश्वविद्यालय छात्रसंघ के नेतृत्व में १९६७ में ‘ अंग्रेजी हटाओ , भारतीय भाषा लाओ ‘ चला । एक बुनियादी सवाल पर व्यापक जन जागृति के साथ -साथ इसी आन्दोलन के दौर में पूर्वी उत्तर प्रदेश के महाविद्यालयों में छात्रसंघों की स्थापना भी हो गयी । सातवें दशक में छात्रसंघों और छात्र संगठनों के प्रतिनिधियों के निमंत्रण पर ही जयप्रकाश नारायण ने बिहार आन्दोलन को अपनी शर्तों पर नेतृत्व देना स्वीकार किया । आंतरिक आपातकाल के दौरान सभी मौलिक अधिकारों के निलम्बन के क्रम में छात्रसंघों पर भी राष्ट्रव्यापी प्रतिबन्ध रहा । असम के समस्त महाविद्यालयों के छात्रसंघों के महासंघ ‘ अखिल असम छात्रसंघ ‘ द्वारा छेड़ा गया आन्दोलन बुनियादी प्रश्नों से जुड़ा अंतिम सकारात्मक जन आन्दोलन था । इसके बाद की युवा पीढ़ी के नसीब में मंडल विरोधी तथा बाबरी मस्जिद ध्वंस जैसी संविधान विरोधी विकृतियाँ ही रहीं हैं ।
छात्रसंघों की सकारात्मक भूमिकाओं के साथ यह भी गौरतलब है कि व्यापक राजनीति में जाति , पैसे और अपराध का वर्चस्व बढ़ने के साथ – साथ छात्र राजनीति भी इन व्याधियों से ग्रस्त हुइ है । प्रतिबद्धताविहीन राजनीति का बढ़ना छात्र हितों के भी प्रतिकूल है । छात्र राजनीति के भ्रष्ट नेतृत्व वर्ग की आड़ में शिक्षा जगत के व्यवस्थापकों को निरंकुश और अलोकतांत्रिक कदम उठाने का मौका मिल गया । १९८३ में माधुरी बेन शाह की अध्यक्षता में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की जाँच हेतु बनी समिति ने यहाँ तक संस्तुति कर दी विश्वविद्यालय की व्यवस्था में छात्रसंघों का कोई स्थान नहीं है । छात्रसंघ पदाधिकारियों के प्रति ‘ घूस दो , बदनाम करो , निकाल फेंको ‘ की नीति अपना कर काशी विश्वविद्यालय में छात्रसंघ १९८५ से चार वर्षों तक निलंबित रखा गया । प्रशासन द्वारा छात्रसंघ पदाधिकारियों को दिए गए भारी भरकम अनुदानों का विवरण विञापन के रूप में राष्त्रीय समाचार पत्रों में छपवाया गया । सच्चाई यह थी कि इन आरोपों का जिम्मेदार और भागीदार भ्रष्ट प्रशासन भी था ।
छात्रसंघों की कार्यप्रणाली में जहां छात्र संसद और छात्रों की साधारण सभा ( जनरल बॉडी ) की भूमिका गौण रखकर पदाधिकारियों के हाथों में अधिकार केन्द्रित कर दिये जाते हैं वहीं यह भ्रष्टाचार संभव होता है । दरअसल , विश्विद्यालय प्रशासन के भ्रष्ट तत्व भी चाहते हैं हैं कि छात्रसंघ के अधिकार विकेन्द्रीकृत न हों क्योंकि छात्र संसद अथवा साधारण सभा के साथ सौदेबाजी मुमकिन नहीं होती । प्रशासन के लिए सिर्फ दो तीन पदाधिकारियों के साथ सौदेबाजी आसान होती है । काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ निर्वाचन में १९९७ के पूर्व कभी भी पुलिस हस्तक्षेप की नौबत नहीं आई थी । चुनाव घोषित करके न कराने की स्थिति बनाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने जिला प्रशासन और निजी सुरक्षातंत्र के सहयोग से दमन की पराकाष्ठा कर दी । विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार प्रशासनिक दमन के फलस्वरूप दो छात्रों की हत्या हुई । राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और अपराध अनुसन्धान विभाग की जाम्च के पश्चात विश्वविद्यालय के तत्कालीन चीफ प्रॉक्टर तथा एक पुलिस उपाधीक्षक समेत कई पुलिस तथा सुरक्षाकर्मियों पर हत्या का आरोप पत्र दाखिल हो चुका है । तत्कालीन कुलपति ने अपने कार्यकाल के अन्तिम दिन आरोपी चीफ़ प्रॉक्टर को विधिक सहायता हेतु एक बड़ी धनराशि देने का आदेश दे दिया ।
जगतीकरण के इस दौर में उच्च शिक्षा के अवसरों को संकुचित करने तथा ववसायीकरण की दिशा में पहल करने के उद्देश्य से भारी फीस वृद्धि और ‘पेड सीट’ शुरु करने के निर्णय बिना प्रतिवाद लागू हो जाने में छात्रसंघ का निलंबन मददगार साबित हुआ है । परिसर में छात्र संगठनों द्वारा चर्चा-गोष्ठियाँ तक प्रतिबन्धित हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा संघ परिवार द्वारा आयोजित गोष्ठियाँ इसका अपवाद हैं । यह भी उल्लेखनीय है कि इस धारा के छात्र संगठन द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा किए गए छात्र संघ संविधान संशोधन का उच्च न्यायालय में सिर्फ इस लिए समर्थन किया गया ताकि चुनाव में हारा हुआ उसका उम्मीदवार कुर्सी पा सके । ( आइसा के आनन्द प्रधान चुनाव में जीते थे और विद्यार्थी परिषद के हारे हुए प्रत्याशी देवानंद सिंह ने उच्च न्यायालय में प्रशासन के पक्ष का समर्थन किया था। )
छात्रों को अपनी लोकतांत्रिक भावनाओं व आकांक्षाओं को प्रकट करने का छात्रसंघ जैसा मंच जब नहीं मिल पाता है तब अपराधिक एवं जातिगत गिरोह प्रभावी हो जाते हैं । जन राजनीति में अपराधीकरण का समाधान विधान सभा , लोकसभा निलंबित करके संभव है क्या ? छात्रों के व्यापक हस्तक्षेप से ही जाति , पैसे और गुण्डागर्दी का इलाज संभव है । डॉ. लोहिया के शब्दों में जब विद्यार्थी राजनीति नहीं करते तब वे सरकारी राजनीति को चलने देते हैं और इस तरह परोक्ष में राजनीति करते हैं ।
– अफ़लातून.
अध्यक्ष , समाजवादी जनपरिषद , उत्तर प्रदेश .