Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Posts Tagged ‘नारायण देसाई’

सन 1952 में मैं ‘साम्ययोगी विनोबा’ नामक पुस्तक की तैयारी कर रहा था। उसी सिलसिले में मैं एक सूची बना रहा था – विनोबा कितनी भाषाएं जानते हैं, कितने धर्मों का अभ्यास,उन धर्मों के मूल ग्रंथों के  मार्फत उन्होंने किया है,उन्होंने किस-किस प्रकार के शारीरिक परिश्रम के काम किए हैं आदि। इस सूची में कहीं कोई गलती न रह जाए,इसलिए वह सारी जानकारी जांच के लिए विनोबा को दे दी।शरीर-परिश्रम के कामों की सूची खासी लंबी थी।किसान,बुनकर,रंगरेज,धोबी,बढ़ई,लुहार,पत्थर तोड़ने वाले आदि अनेक प्रकार के श्रमजीवियों के साथ विनोबा अपने जीवन का तार मिला चुके थे।

इस सूची को देखकर विनोबा ने कहा”इसमें एक मजदूरी का उल्लेख नहीं आता।”भाषा ज्ञान की सूची में मैंने ऐसी भाषाएं शामिल की थीं,जिनको विनोबा को थोड़ा परिचय था,लेकिन पूरा ज्ञान नहीं था,इसलिए उस सूची को संक्षिप्त करने का उन्होंने प्रयत्न किया था। लेकिन वही विनोबा शरीर परिश्रम की सूची बढ़ाने के लिए कह रहे हैं,इससे मुझे आश्चर्य हुआ।मैंने पूछा-कौन-सी मजदूरी बाकी रह गई?

विनोबा ने बड़ी गंभीरता से कहाः मैंने लिखने की मजदूरी की है,उसे तुमने सूची में नहीं लिखा है।मुझे लगा कि विनोबा विनोद कर रहे हैं।पर विनोद करते समय उनके चेहरे पर जिस प्रकार की रेखाएं उभरती हैं,वे इस समय नहीं थीं।

मैंने पूछा कि लिखना क्या मजदूरी कही जा सकती है?

” जिससे हाथ में आंटन (गांठ),भट्ट पड़ जाए,वह काम शरीर परिश्रम का गिना जाएगा या नहीं?” विनोबा ने पूछा।मैंने कहा,”जी हां,वह तो जरूर गिना जाएगा।”

“तो देखो,मेरी ये उंगलियां!इसमें आंटन पड़ गए हैं।उंगलियों की पोर थोडी सख्त हो गई है।आज से 38 वर्ष पहले मैंने जो लिखा,उसके कारण ऐसा हुआहै।”

“आज से 38 वर्ष पहले।” विनोबा की जीवनी लिखने वाले की हैसियत से मुझे इस बात में ज्यादा दिलचस्पी थी।उस समय आपको ऐसा क्या लिखना पडा था?”

“उस समय मैं कविता लिखता था।कविता लिख-लिख करके ही मेरे आंटन पड़े हैं” विनोबा हंस कर बोले।

इतनी सारी कविताएं।मिल जाएं तो एक बहुत बडा काम हो जाए। मैंने पूछा- “ये कविताएं आज कहां होंगी?”

“ये काव्य मैंने काशी में गंगा के किनारे लिखे थे।इनमें से जिनके बारे में मुझे समाधान नहीं था,जो मुझे ठीक जंचे नहीं,वे तो मैंने अग्नि को समर्पित किए और जिनके बारे में समाधान था,वे मैंने गंगाजी में बहा दिए थे।”

मैं चकित होकर सुनता रहा।ये काव्य प्रसिद्धि के लिए नहीं लिखे गए थे,प्रशस्ति के लिए भी नहीं लिखे गए थे।पाठ के लिए भी नहीं लिखे गए थे।गीता का अनुवाद करने के लिए मां रुक्मिणीबाई ने कहा था।बस उसके अभ्यास के तौर पर एक ओर गीता को जीवन में उतारने का प्रयास शुरु किया और दूसरी ओर व्याकरण,काव्य शास्त्र इत्यादि का अभ्यास।ये काव्य तो स्वान्तः सुखाय लिखे गये थे।विनोबा के लिए साहित्य मनोरंजन या शोक का विषय नहीं है,जीवन साधना का एक साधन है।

विनोबा की संपूर्ण साहित्य साधना एक वांगमय तप ही बनी है।मां की इच्छा थी कि उनका बेटा श्रीमदभगवद्गीता का मराठी अनुवाद करे।मां की यह इच्छा मां की मृत्यु के बाद पूरी हुई।इस अनुवाद को विनोबा ने नाम दिया गीताई और उसकी प्रस्तावना एक अनुष्टुप में कीः गीताई माऊली माझी,मी तिचा बाल नेणता,पडता रडता थेई उचलून कडेवरी।

विनोबा मानते हैं कि यदि ईश्वर ने उनके पास से दूसरी कोई और सेवा नहीं कराई होती और गीताई ही लिखाई होती तो भी ये अपने कृतकृत्य मानते।मराठी और संस्कृत भाषा के विशेषज्ञ गीताई के साहित्यिक गुणों पर मुग्ध हैं।उत्तर भारत की अधिकांश भाषाओं में गीता के समश्लोकी अनुवाद सुने हैं।पर गीताई में जो ओज है,सरलता और शुद्धता का जो मेल है,वैसा दूसरे किसी भाषांतर में मन्हीं मिलता। मराठी भाषियों में विनोबा की इस पुस्तक की लोकप्रियता असाधारण है।अब तक गीताई की 40 लाख से ऊपर प्रतियां छप चुकी हैं।

नोआखली में पदयात्रा करते समय गांधीजी से किसी अमेरिकी पत्रकार ने संदेश मांगा था। 79 वर्ष की उम्र विद्यार्थी के रूप में गांधीजी उस समय बंगाली भाषा सीखते थे।उन्होंने बंगाली में लिखकर संदेश दिया’आमार जीवन इ आमार वाणी।”

विनोबा पर भी यह वाक्य अक्षरशः लागू होता है।उनका जीवन ही उनकी वाणी है,और उनकी वाणी ही उनका जीवन है।

इस वांगमयी तपास,खोज के आरंभ की तपस्या कठोर थी।दिन के हर क्षण का निश्चित हिसाब पसीने से सराबोर हो जाए,इतना परिश्रम,बुजुर्ग ज्ञानियों को भी मात करे,अभ्यास की ऐसी गहराई-ये विनोबा की आरंभिक तपस्या के क्षण थे।उनके आरंभकाल के साहित्य में यह तेजस्विता और साथ-साथ थोड़ी कठोरता की झलक मिलती हैं। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध कवि मामा वरेरकर के शब्दों में कहूं तो ‘उनकी भाषा में मिठास थी थी,लेकिन यह मिठास मिश्री जैसी सख्त थी।जीवन के प्रौढ़काल  में यह मिठास अंगूर की तरह रसीली बन गई।’

विनोबा वांगमय एक विशाल सागर जैसा है।विनोबा ने जो कुछ लिखा और आगे आगे चलकर जो कुछ बोला, वह साहित्य की एक विशिष्ट निधि बन गया है।

आज लोग यद्यपि उन्हें एक आन्दोलन के नेता और क्रांतिकारी संत के रूप में ही जानते हैं पर उनका साहित्यकार का रूप भी कम लुभावना नहीं है।

स्वयं विनोबा द्वारा लिखी गई और उनके प्रवचनों के आधार पर तैयार की गई पुस्तकों की कुल संख्या पचासों में है। उनके विचारों में हमें एक निष्पक्ष,सजीव और मौलिक दिशा मिलती है।

[नारायण भाई ने यह लेख सन 1965 में लिखा था।]

 

Read Full Post »

‘मैं हार सकता हूँ , बार – बार हार सकता हूँ लेकिन हार मान कर बैठ नहीं सकता हूँ ।’ लोहिया की पत्रिका ‘जन’ के संपादक ओमप्रकाश दीपक ने कहा था। नारायण देसाई ने कोमा से निकलने के बाद के तीन महीनों में अपनी चिकित्सा के प्रति जो अनुकूल और सहयोगात्मक रवैया प्रकट किया उससे यही लगता है कि वे हार मान कर नहीं बैठे , अन्ततः हार जरूर गये। आखिरी दौर में हम जो उनकी ‘सेवा’ में थे शायद हार मान कर बैठ गये। उनकी हालत में उतार – चढ़ाव आये । अपनी शारीरिक स्थिति को भली भांति समझ लेने के बाद भी मानो किसी ताकत के बल पर उन्होंने इन उतार चढ़ावों में निराशा का भाव प्रकट नहीं किया । खुश हुए,दुखी हुए,अपनी पसंद और नापसन्दगी प्रकट की। स्वजनों को नाना प्रकार से अपने स्नेह से भिगोया। पदयात्रा,ओडीशा
विनोबा द्वारा आपातकाल के दरमियान गोवध-बन्दी के लिए उपवास शुरु किए गए तब नारायण देसाई अपनी पत्नी उत्तरा के साथ उनका दर्शन करने पवनार गए थे। दोनों हाथों से विनोबा ने उनके सिर को थाम लिया था। चूंकि नारायण देसाई आपातकाल विरोधी थे इसलिए उस वक्त विनोबा के सचिवालय के एक जिम्मेदार व्यक्ति ने नारायण देसाई को उनकी संभावित गिरफ्तारी का संकेत दिया था। विनोबा नारायण देसाई के आचार्य थे और अपनी जवानी में उन्होने उन्हें हीरो की तरह भी देखा होगा ऐसा लगता है । विनोबा की सचेत मौत से गैर सर्वोदयी किशन पटनायक तक आकर्षित हुए थे तो नारायण देसाई पर तो जरूर काफी असर पड़ा ही होगा। इस बीमारी के दौर में निराशा का उन पर हावी न हो जाना मेरी समझ से इस विनोबाई रुख से आया होगा।
तरुणाई में रूहानियत का एक जरूरी सबक भी विनोबा से उन्हें मिला था। आम तरुण की भांति बड़ों की बात आंखें मूंद कर न मान लेने का तेवर प्रदर्शित करते हुए नारायण देसाई ने विनोबा से कहा था ,’बापू द्वारा बताई गई सत्याग्रह की पहली शर्त – ईश्वर में विश्वास- मेरे गले नहीं उतरती।‘ आचार्य ने पलट कर पूछा ,’ प्रतिपक्षी के भीतर की अच्छाई में यकीन करके चल सकते हो?’
‘यह बात कुछ गले उतरती है’।
‘तब तुम पहली शर्त पूरी करते हो’ ।
अपनी समस्त पैतृक जमीन के रूप में गुजरात का पहला भूदान देने के बाद ही वे सामन्तों से भूदान मांगने निकले थे। इस मौके पर विनोबा का तार मिला था तो गदगद हो गये थे – ‘जिस व्यक्ति के बगल में खड़े-खड़े उनका ध्यान आकृष्ट हो इसकी प्रतीक्षा करनी पडती थी, उस हस्ती ने याद रख कर तार से आशीर्वाद भेजे हैं।‘
प्राकृतिक संसाधनों की मिल्कियत राजनीति द्वारा तय होती है। इस प्रकार भूदानी एक सफल राजनीति कर रहे थे। सरकारी भूमि सुधारों और समाजवादियों-वामपंथियों के कब्जों द्वारा जितनी जमीन भूमि बंटी है उससे अधिक भूदान में हासिल हुई। जो लोग इसे तेलंगाना के जन-उभार को दबाने के लिए शुरु किया गया आन्दोलन मानते हैं उन्हें इन तथ्यों को नजरन्दाज नहीं करना चाहिए। ‘दान’ मांगने के दौर में कुछ उत्साही युवा जो तेवर दिखाते थे उन्हें सर्वोदयी कैसे आत्मसात करते होंगे,सोचता हूं। नारायण भाई के मुंह से यह गीत सुना था, ‘‘भूमि देता श्रीमानो तमने शूं थाय छे? तेल चोळी,साबू चोळी खूब न्हाये छे! ने भात-भातना पकवानों करि खूब खाये छे।‘’(श्रीमानों, भूमि देने में आपका क्या जाता है? आप तो तेल-साबुन मल के खूब नहाते हैं और भांति-भांति के पकवान बना कर खूब खाते हैं।) यह बहुत लोकप्रिय भूदान-गीत भले नहीं रहा होगा लेकिन उस पर रोक भी नहीं लगाई गई थी। आज मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी की सरकारें देश का प्राकृतिक संसाधन यदि देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सौंपने पर तुली हुई हैं तो यह भी राजनीति द्वारा हो रहा है। बहरहाल, भूदान एक कार्यक्रम के बजाए एकमात्र कार्यक्रम बन गया ।
आदर्श समाज की अपनी तस्वीर गांधी ने आजादी के पहले ही प्रस्तुत कर दी थी। उनके आस-पास की जमात में उस तस्वीर का अक्स भी साफ-साफ दीखता था। उस तस्वीर को आत्मसात करने वाले नारायण देसाई जैसे गाम्धीजनों का जीवन आसान हो जाया करता होगा और इसलिए मृत्यु भी। इन लोगों की दिशा भी स्पष्ट होगी।

किशोर नारायण देसाई गांधीजी के साथ

किशोर नारायण देसाई गांधीजी के साथ

१९४६ में गांधीजी से नारायण देसाई ने कहा था ,’आपके दो किस्म के अनुयाई हैं। कुछ राजनीति में हैं और कुछ रचनात्मक कामों में। मैं इन दोनों तरह के कामों के बीच सेतु का काम करना चाहता हूं।‘ १९४७ में विवाह के बाद अपनी पत्नी उत्तरा और मित्र मोहन पारीख के साथ उन्होंने दक्षिण गुजरात के आदिवासी गांव में ग्रामशाला की शुरुआत की। प्रतिष्ठित साहित्यकार उमाशंकर जोशी ने इसका उद्घाटन किया और अपनी पत्रिका ’संस्कृति’ में इसका विवरण लिखा। आजादी के काफी पहले से महात्मा गांधी के सहयोगी जुगतराम दवे का यह कार्यक्षेत्र था। जुगतराम दवे कहते थे कि वे द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा कटवाने का प्रायश्चित कर रहे हैं ।
१९४५ से ही नेहरू और गांधी के बीच का गांव बनाम शहर केन्द्रित विकास का दृष्टिभेद सामने आ चुका था । सर्वोदय की मुख्यधारा ने इस ओर बहुत लम्बे समय तक आंखें मूंदे रक्खीं । १९६७ में नवकृष्ण चौधरी द्वारा ‘गैर-कांग्रेसवाद’ के अभियान को समर्थन और ओड़ीशा में इसके लिए पहल एक स्वस्थ अपवाद था । नेहरू के औद्योगिक विकास के मॉडल के प्रति सर्वोदय आन्दोलन द्वारा आंखों के मूंदा होने के फलस्वरूप जे.सी. कुमारप्पा जैसे प्रखर गांधीवादी अर्थशास्त्री माओ-त्से-तुंग के ‘घर के पिछवाड़े इस्पात भट्टी’ (बैकयार्ड स्टील फरनेस) जैसे प्रयोगों से आकर्षित हुए। जमशेदपुर ,राउरकेला,भिवण्डी और अहमदाबाद जैसे औद्योगिक केन्द्रों में आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में हुए दंगों में ‘शान्ति सेना’ पूरी निष्ठा और लगन से काम करती थी लेकिन नेहरू द्वारा चुनी गई विकास की दिशा से इन दंगों के अन्तर्संबंध पर कोई प्रभावी आवाज नहीं उठाती थी। हाल के दशकों का उदाहरण देखें तो विकास की प्रचलित अवधारणा से प्रभावित होने के कारण गुजरात के सर्वोदय नेता कांग्रेस-भाजपा नेताओं के सुर में सुर मिलाते हुए नर्मदा पर बने बड़े बांधों के समर्थन में थे। नारायण देसाई इसका अपवाद थे। वे बडे बांधों और परमाणु बिजली के खिलाफ थे। अपने गांव के निकट स्थित काकरापार परमाणु बिजली घर के खिलाफ उन्होंने आन्दोलन का नेतृत्व किया और परमाणु बिजली के खिलाफ उन्होंने नुक्कड नाटक भी लिखा ।
जयप्रकाश नारायण ने नागालैण्ड, तिब्बत और काश्मीर जैसे मसलों पर अपना रुख साफ़-साफ़ तय किया था और बेबाक तरीके से जनता के समक्ष उसे वे पेश करते थे। शेख अब्दुल्लाह और उनका दल नैशनल कॉन्फरेन्स राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थक था लेकिन नेहरू ने उन्हें लम्बे समय तक गिरफ्तार करके रखा था। नेहरू के गुजरने के बाद जेपी ने उनकी रिहाई के लिए पहल की। जेपी ने नारायण देसाई तथा राधाकृष्ण को शेख अब्दुलाह से मिलने भेजा और इन दोनों ने उनसे बातचीत की रपट तत्कालीन प्रधान मन्त्री लालबहादुर शास्त्री को पेश की जिसके बाद शेख साहब की रिहाई हुई। नागालैण्ड में जेपी द्वारा स्थापित नागालैण्ड पीस मिशन की पहल पर ही पहली बार युद्ध विराम हो पाया। तिब्बत की मुक्ति के जेपी प्रमुख समर्थक थे। हाल ही में धर्मशाला में गांधी कथा के मौके पर नारायण भाई की दलाई लामा और सामदोन्ग रेन्पोचे से तिब्बत मुक्ति पर महत्वपूर्ण बातचीत हुई । नारायण देसाई का आकलन था कि चीन के अन्य भागों में उठने वाले जन उभारों से तिब्बत मुक्ति की संभावना बनेगी। दलाई लामा,रेम्पोचे,नारायण देसाईतिब्बत की निर्वासित सरकार की संसद ने नारायण देसाई की मृत्यु पर शोक प्रस्ताव पारित किया है। जब पूरे विश्व की जनता बांग्लादेश की मुक्ति चाहती थी परंतु सरकारों को उसे मान्यता देने में हिचकिचाहट थी तब जेपी और प्रभावती देवी का विदेश दौरा हुआ। बांग्लादेश के शरणार्थियों के बीच राहत शिविर चलाने के अलावा बांग्लादेश के मुक्त होने के पहले उसके राष्ट्र-गान को युवा शरणार्थियों को सिखाने तक का काम शान्ति सेना ने किया था। २४ परगना के बनगांव जैसे सीमावर्ती कस्बे में शरणार्थियों के लिए स्थानीय आबादी से भी अन्न-चन्दा मांगा जाता था –‘ओपार थेके आश्चे कारा? आमादेरी भाई बोनेरा’ (उस पार से आ रहे हैं, कौन? आपके-मेरे भाई-बहन) जैसे नारे लगा कर। बांग्लादेश की मौजूदा सरकार ने मुक्ति-संग्राम का मित्र होने के नाते नारायण देसाई का सम्मान किया।
इन राहत कार्यों के लिए विदेशी स्वयंसेवी संस्थाओं से मदद ली गई। सूखा राहत के लिए भी विदेशी मदद लेने में संकोच नहीं किया। इन अनुभवों से सबक लेकर मनमोहन चौधरी जैसे सर्वोदय नेताओं ने विदेशी धन लेकर सामाजिक काम करने को स्वावलम्बन-विरोधी माना। ओडीशा सर्वोदय मण्डल ने विदेशी संस्थाओं से मुक्त रहने का फैसला भी किया लेकिन सर्व सेवा संघ (सर्वोदय मण्डलों का अखिल भारत संगठन) के स्तर पर कोई निर्णय नहीं लिया गया। नारायण देसाई ने भी ऐसी संस्था वाले सर्वोदइयों को बहुत स्नेहपूर्वक ‘तंत्र’ कम करते जाने तथा ‘तत्व’ को कमजोर न होने देने की सलाह जरूर दी थी। गांधीजनों के रचनात्मक कार्यक्रमों के अपनी संस्था तक कुंठित या आबद्ध हो जाने के प्रति उन्होंने चेतावनी दी । नारायण देसाई ने कहा कि रचना के साथ लोकजागरण लाने का काम नहीं हो रहा है ।
सर्वोदय आन्दोलन की एक विशेषता है। ‘सर्वसम्मति’ से फैसले लेने के बावजूद अपने मनपसंद फैसलों को ही मानने और बाकी फैसलों की उपेक्षा करने का चलन रूढ़ हो चुका है। गोवध बन्दी, शान्ति सेना, लोक समिति, खादी,विदेशी धन पर आश्रित रचनात्मक काम – इनमें से जिसे जो पसंद हो, कर सकता था। मसलन, गोवध-बन्दी आन्दोलन में जुटा व्यक्ति शान्ति सेना के काम में बिल्कुल रुचि न ले तो भी कोई दिक्कत नहीं थी। इस प्रकार ताकत बंटी रहती थी। नारायण देसाई सर्व सेवा संघ से स्थापना से जुड़े रहे तथा इसके अध्यक्ष भी हुए। कुछ समय पहले उन्होंने सर्व सेवा संघ को विघटित करने का सुझाव दिया।
ईरोम शर्मीला चानू के आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट विरोधी अनशन के बावजूद देश भर में उनके समर्थन में माहौल नहीं बन पा रहा है। देश के कुछ भागों में ऐसे दमनकारी कानून का विकल्प क्या हो सकता है यह विचारणीय है। साठ और सत्तर के दशक में ऊर्वशी अंचल (तब का नेफा और अब अरुणाचल प्रदेश। नारायण देसाई इसे उर्वशी अंचल कहते हैं और लोहिया ने उर्वशीयम कहा।) में शान्ति सेना के काम को भुलाया नहीं जाना चाहिए। वह इलाका जहां चीनी फौज ग्रामीणों को एक हाथ में आइना और दूसरे में माओ की तस्वीर दिखा कर पूछती हो,’तुम किसके करीबी हुए?’ जहां की सड़कों पर कदम-कदम पर भारतीय सेना के ’६२ के चीनी आक्रमण में पराजय के स्मारक बने हों वहां बिना सड़क वाले सुदूर गांवों में भी शान्ति केन्द्र चलते थे। तरुण शान्ति सेना के राष्ट्रीय शिबिरों में अरुणाचल के युवा भी हिस्सा लेते थे। आज यदि इस राज्य में पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तरह अलगाववादी असर प्रभावी नहीं है और हिन्दी का प्रसार है तो इसमें शान्ति सेना और नारायण भाई के हरि सिंह जैसे साथियों के योगदान को गौण नहीं किया जा सकता है। आपातकाल में इन केन्द्रों को सरकार ने बन्द कराया। १९७७ में जनता सरकार के गठन के बाद रोके गये काम को फिर से शुरु करने के लिहाज से मोरारजी देसाई ने नारायण देसाई को अपने साथ अरुणाचल प्रदेश के दौरे में बुलाया था। इसी यात्रा में वायुसेना का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। मोरारजी देसाई और नारायण देसाई समेत सभी यात्री बच गये थे किंतु तीनों चालकों की मृत्यु हो गई थी। नारायण भाई को लगा था कि महत्वपूर्ण यात्रियों की जान बचाने के लिए वायु सेना के उस जहाज के चालकों ने अपना बलिदान दिया था।
हितेन्द्र देसाई के मुख्य मन्त्रीत्व में हुए साम्प्रदायिक दंगों में शान्ति सेना के काम की मुझे याद है। तब ही नारायण देसाई के आत्मीय साथी नानू मजुमदार की कर्मठता के किस्से सुने और मस्जिदों में बने राहत शिबिरों को देखा था। इन दंगों के बाद जब नारायण भाई द्वारा काबुल में मिल कर दिए गए निमन्त्रण पर सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान भारत आए तो सर्वोदय मण्डल ने गुजरात में उनका दौरा कराया। उनका आना निश्चित हो जाने के बाद प्रधान मन्त्री ने उन्हें ‘सरकार का अतिथि’ घोषित किया। मुंबई के निकट भिवण्डी में बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद भी जब दंगे नहीं हुए तो लोगों को सुखद अचरज हुआ। उन गैर सरकारी शान्ति समितियों को इसका श्रेय दिया गया जो इसके कई वर्ष पूर्व गठित हुई थीं और सामान्य परिस्थितियों में भी जिनकी बैठकें नियमित तौर पर हुआ करती हैं। भिवण्डी में इन ‘अ-सरकारी और असरकारी’ शान्ति समितियों के गठन में नारायण देसाई और भगवान बजाज जैसे उनके साथियों की अहम भूमिका थी। गांधी का सन्देश गुजरात के गांव-गांव तक नहीं फैला इसलिए इतना बड़ा नर-संहार संभव हुआ – अपनी इस विवेचना के कारण खुद को भी उन्होंने जिम्मेदार माना और रचनात्मक प्रायश्चित के रूप में गांधी-कथाएं की। गुजरात भर में कथाएं हो जाने के बाद ही अन्य प्रान्तों और विदेश गए।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक छात्रावास के कॉमन रूम में एक छोटी-सी गोष्ठी में जेपी ने ‘लोकतंत्र के लिए युवा’ (यूथ फॉर डेमोक्रेसी) का आवाहन किया। सिर्फ २५-३० छात्र उस गोष्ठी में रहे होंगे।अगली बार जब काशी विश्वविद्यालय के सिंहद्वार पर जेपी आए तब वे लोकनायक थे और सिंहद्वार के समक्ष हजारों छात्रों का उत्साह देखते ही बनता था। इन दोनों कार्यक्रमों के बीच क्या-क्या हुआ होगा,यह गौरतलब है।जेपी के साथ नारायण देसाई गुजरात में छात्रों ने अपनी सामान्य सी दिखने वाली मांगों के लिए नाना प्रकार के शांतिमय उपायों के कार्यक्रम शुरु किए थे जिनमें अद्भुत सृजनशीलता प्रकट होती थी। मसलन छात्रों द्वारा चलाई गई जन-अदालतों में मुख्यमन्त्री को राशन की लाइन में एक बरस तक खड़े रहने की सजा सुनाई जाती थी। नारायण देसाई ने नवनिर्माण आन्दोलन के सृजनात्मक कार्यक्रमों की रपट जेपी को दी जिसके बाद आन्दोलन के नेताओं के साथ जेपी का संवाद हुआ । जेपी ने गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन को समर्थन दिया। चिमनभाई पटेल सरकार की अन्ततः विदाई हुई और पहली बार बाबूभाई पटेल के नेतृत्व में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। बिहार के युवाओं के जरिए देश को अपना लोकनायक तो मिलना ही था। जेपी ने अपने आन्दोलन को ‘शांतिमय और शुद्ध उपायों’ से चलाया । इसे अहिंसक नहीं कहा। उन्हें लगता था कि अहिंसा श्रेष्ठतर मूल्य था । जो लोग सिर्फ रणनीति के तौर पर शान्तिमय उपायों को अपनाने को तैयार हुए थे,यानी जिनकी इसमें निष्ठा होना जरूरी न था वे भी आन्दोलन में शरीक थे। लाखों की सभाओं में जेपी ‘बन्दूक की नाल से निकलने वाली राजनैतिक शक्ति’ की अवधारण पर सवाल उठाते थे। ‘कितनी प्यार से जेपी इन सभाओं में पूछते थे,’कितनों को मुहैया कराई जा सकती हैं,बन्दूकें?’ ‘छिटपुट-छिटपुट हिंसा बड़ी हिंसा (सरकारी) से दबा दी जाएगी’ अथवा नहीं?’ , हिंसा न हो इसके लिए उनके साथी सजग थे।जेपी की सभा में आ रही जन सैलाब पर ‘इंदिरा ब्रिगेड’ के दफ्तर से गोलीबारी की प्रतिक्रिया न हो यह सुनिश्चित करके आचार्य राममूर्ति ने गांधी मैदान में जेपी को सूचना दी थी। बिहार बन्द के दरमियान रेल की पटरी पर जुटी नौजवानों की टोली को देख कर असहाय हुए जिलाधिकारी हिंसा और पटरी उखाड़े जाने की संभावना से आक्रांत थे। भीड़ यदि तोड़-फोड़ पर उतारू होती तो गोली-चालन की भी उनकी तैयारी थी। तब उन्ही से मेगाफोन लेकर नारायण देसाई ने उन युवाओं से संवाद किया और ‘हमला हम पर जैसा होगा,हाथ हमारा नहीं उठेगा’,’संपूर्ण क्रांति अब नारा है,भावी इतिहास हमारा है’ जैसे नारे लगवाये । जिलाधिकारी की जान में जान आई। बिहार की तत्कालीन सरकार द्वारा नारायण देसाई को बिहार-निकाला दिया गया था।
आपातकाल के दौरान जॉर्ज फर्नांडीस ने नारायण भाई के समक्ष अपनी योजना (जिसे बाद में सरकार ने ‘बडौदा डाइनामाइट केस’ का नाम दिया) रखी थी । नारायण भाई ने ऐसे मामलों में तानाशाह सरकारों द्वारा घटना – क्षेत्र की जनता पर जुर्माना ठोकने की नजीर दी और कहा कि इससे आन्दोलन के प्रति जनता की सहानुभूति नहीं रह जाएगी। आपातकाल के दौरान गुजरात से ‘यकीन’ नामक पत्रिका का संपादन शुरु करने के अलावा ‘तानाशाही को कैसे समझें?’, ‘अहिंसक प्रतिकार पद्धतियां’ जैसी पुस्तिकाएं नारायण देसाई ने तैयार कीं और छापीं। भवानी प्रसाद मिश्र की जो रचनायें आपातकाल के बाद ‘त्रिकाल संध्या’ नामक संग्रह में छपीं उनमें से कई आपातकाल के दौरान ही ‘यकीन’ में छपीं। प्रेसों में ताले लगे,अदालतों के आदेश पर खोले गए। रामनाथ गोयन्का ने ‘भूमिपुत्र’ को अपने गुजराती अखबार ‘लोकसत्ता’ के प्रेस में छापने का जोखिम भी उठाया।
१९७७ के चुनाव में कई सर्वोदइयों ने पहली बार वोट दिया। ये लोग वोट न देने की बात गर्व से बताते थे। कंधे पर हल लिए किसान वाला झन्डा (जनता पार्टी का) मेरे हाथ से कुछ कदम थाम कर तक मतदाता केन्द्र की ओर चलते हुए नारायण देसाई ने मुझे यह बताया था । यह ‘तानाशाही बनाम लोकतंत्र’ वाला चुनाव था लेकिन जनता से वे यह उम्मीद भी रखते थे – ‘जनता पार्टी को वोट जरूर दो लेकिन वोट देकर सो मत जाओ’। नारायण भाई ने जन-निगरानी के लिए बनी लोक समिति के गठन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर काम किया। बिहार के चनपटिया के कामेश्वर प्रसाद इन्दु जैसे लोक समिति के नेता ‘बेशक सरकार हमारी है ,दस्तूर पुराना जारी है’ के जज्बे के साथ गन्ना किसानों के हक में लड़ते हुए जेल भी गये।
तरुणमन के एक लेख में नारायण देसाई ने कहा था कि महापुरुषों के योग्य शिष्य सिर्फ उनके बताये मार्ग पर ही नहीं चलते है, नई पगडंडियां भी बनाते हैं। इस लिहाज से नारायण देसाई अपने अभिभावक जैसे गांधीजी, अपने आचार्य विनोबा और नेता जेपी की बताई लकीरों के फकीर नहीं बने रहे,उन्होंने अपनी नई पगडंडियां भी बनाई। आन्दोलनों में गीत, संगीत व नाटक का नारायण भाई ने जम कर प्रयोग किया। सांस्कृतिक चेतना के मामले में वे खुद को गांधीजी की बनिस्बत गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर से अधिक प्रभावित मानते थे। वे सधी हुई लय के साथ रवीन्द्र संगीत गाते भी थे। रवीन्द्रनाथ के कई गीतों और कविताओं का उन्होंने गुजराती में अनुवाद किया जो ‘रवि-छबि’ नाम से प्रकाशित हुआ। हकु शाह ,वासुदेव स्मार्त ,गुलाम मुहम्मद शेख और आबिद सूरती जैसे मूर्धन्य चित्रकारों से उनका निकट का सरोकार और मैत्री थी। हकु शाह ने तरुण शान्ति सेना के लिए अपने रेखांकन के साथ फोल्डर बनाया था । शान्ति केन्द्रों के प्रवास से लौट कर वासुदेव स्मार्त ने अपनी विशिष्ट शैली में अरुणाचल प्रदेश पर पेन्टिंग्स की एक सिरीज बनाई थी तथा ‘रवि-छबि’ का जैकेट भी बनाया था। गुलाम मुहम्मद शेख बडौदा शान्ति अभियान का हिस्सा थे और गांधी और विभाजन पर लिखी नारायण देसाई की किताब ‘जिगर ना चीरा’ का जैकेट बनाया था। रवीन्द्रनाथ के शिक्षा विषयक नाटक ‘अचलायतन’ का नारायण देसाई ने अनुवाद किया था। गुजराती साहित्य परिषद गुजराती भाषा की पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था है। साबरमती आश्रम में संगीतज्ञ पंडित खरे और विष्णु दिगंबर पलुस्कर आते थे । पं. ओंकारनाथ ठाकुर भी गांधीजी और राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित थे। अस्पताल के बिस्तर पर भी अपने पसंदीदा कलाकार दिलीप कुमार रॉय, जूथिका रॉय ,सुब्बलक्ष्मी और पलुस्कर के भजन सुन कर तथा स्वजनों से पसंदीदा रवीन्द्र संगीत या कबीर के निर्गुण सुनकर कर नारायण देसाई भाव विभोर हो जाते थे। मृत्यु से नौ दिन पहले होली के मौके पर वेडछी गांव के बच्चे बाजा बजाते हुए उनके आवास पर पहुंचे तब उनके बाजों के साथ नारायण भाई ताल दे रहे थे। दक्षिण गुजरात के इस आदिवासी इलाके का होली प्रमुख त्योहार है। नारायण देसाई साहित्य परिषद के अध्यक्ष बने तब इस संस्था की गतिविधियों को अहमदाबाद के दफ्तर से निकाल कर पूरे गुजरात की यात्राएं की, युवा लेखकों को प्रोत्साहित किया। अपने सामाजिक काम के लिए मिले सार्वजनिक धन को उन्होंने ‘अनुवाद प्रतिष्ठान’ की स्थापना में लगाया है। भारतीय भाषाओं में बजरिए अंग्रेजी से अनुवाद न होकर सीधे अनुवाद हों यह इस प्रतिष्ठान का एक प्रमुख उद्देश्य है। इसके अलावा वैकल्पिक उर्जा तथा मानवीय टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में काम शुरु करने की उनकी योजना थी, जो अपूर्ण रह गई। अंग्रेजी की एक स्तंभकार ने आशंका व्यक्त की है कि २००२ के दंगे न होते तो नारायण देसाई उसी वक्त अवकाश-प्राप्ति कर बैठ जाते। मुझे यह मुमकिन नहीं लगता है। वैसे में वे मानवीय टेक्नॉलॉजी, पानी का प्रश्न,परमाणु बिजली का विरोध तथा भारतीय भाषाओं के हक में लगे हुए होते।
संस्थागत तालीम न हासिल करने वाले नारायण देसाई ने जो तालीम गांधी के आश्रमों में हासिल की थी उसमें कलम और कुदाल का फासला बहुत कम था। बनारस के साधना केन्द्र परिसर के विष्ठा से भरे सेप्टिक टैंक में उतर कर उसकी सफाई करते हुए उन्हें देखा जा सकता था। प्रदूषण फैलाने और पर्यावरण नष्ट करने वाले उद्योगों को इजाजत देने के सूत्रधार जब स्वच्छता अभियान का पाखंड रचते हैं तब उस पाखंड को हम नारायण देसाई जैसे गांधीजन की जीवन-शैली से समझ सकते हैं।
सांगठनिक दौरों से लौट कर अपने मुख्यालय बनारस आने पर वे दौरे की पूरी रपट अपनी पत्नी को देते थे और घर के कपड़े भी धोते थे। १० दिसम्बर को कोमा में जाने के पहले तक उन्होंने गत ७६ वर्षों से लिखते आ रही डायरी की उस दिन की प्रविष्टि लिखने के अलावा तुकाराम के अभंगों को गुजराती में अनुदित करने का काम तो किया ही ,डेढ़ घण्टा चरखा भी चलाया था। चिकित्सकों को अचरज में डालते हुए कोमा से निकल आने के बाद भी उन्होंने अस्पताल में कुल २०० मीटर सुन्दर सूत काता। १९४७ में अपनी पत्नी के साथ मिलकर जिस ग्रामशाला को चलाया था उसके प्रांगण में हुई प्रार्थना सभा में उनके पढ़ाए छात्र और साथी शिक्षकों के अलावा जयपुर से वस्त्र-विद्या के गुरु पापा शाह पटेल और ओडीशा से चरखा, कृषि औजार और बढ़ईगिरी के आचार्य चक्रधर साहू मौजूद थे। नारायण भाई की श्मशान यात्रा में गुजराती के वरिष्ट साहित्यकार राजेन्द्र पटेल व गुजरात विद्यापीठ के पूर्व उपकुलपति सुदर्शन आयंगर भी उपस्थित थे। नई तालीम के इस विद्यार्थी के जीवन में कलम और कुदाल दोनों से जो निकटता थी वह उनकी मृत्यु में भी इन दोनों प्रकार की उपस्थितियों से प्रकट हो रही थी।
वेडछी गांव से गुजरने वाली वाल्मीकी नदी के तट पर नारायण भाई की अन्त्येष्ठी हुई।गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि १९४८ में उनकी मां दुर्गा देसाई ने गांधीजी तथा १९४२ से रखी हुई महादेव देसाई की अस्थियों को एक साथ यहीं विसर्जित किया था। रानीपरज के चौधरी-आदिवासियों के रीति-रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया गया। गंगा जल और मुखाग्नि देने वाले स्वजनों में उनकी पुत्री डॉ संघमित्रा के अलावा इमरान और मोहिसिन नामक दो युवा भाई भी थे जो २००२ के दंगों में मां-बाप से बिछुड़ने के बाद नारायण भाई के साथ संपूर्ण क्रांति विद्यालय परिवार का हिस्सा थे। करीब दस साल बाद उनके माता-पिता का पता तो चल गया लेकिन ‘दादाजी’ की बीमारी की खबर मिली तो तुरंत उनकी सेवा करने के लिए वेडछी आ गये थे।
गांधी ने स्वयं नारायण देसाई का यज्ञोपवीत करवाया था। नारायण भाई ने गांधी के जिन्दा रहते ही जनेऊ से मुक्ति पा ली थी। जेपी आन्दोलन के क्रम में जब हजारों युवजन जनेऊ तोड़ रहे थे तब इस प्रसंग का उन्होंने स्मरण किया था। गांधी ने भी ‘सत्य के प्रयोग’ के क्रम में खुद को इतना विकसित कर लिया था कि १९४७ में नारायण-उत्तरा के विवाह में किसी एक पक्ष के अस्पृश्य न होने के कारण वे उपस्थित नहीं हुए थे। अलबत्ता ऐन शादी के दिन उनका आशीर्वाद का खत पहुंच गया था ।
(अफलातून)
५ , रीडर आवास,
जोधपुर कॉलोनी, काशी विश्वविद्यालय,
वाराणसी – २२१००५.
aflatoon@gmail.com

Read Full Post »

कल तक जिन्हें आप ढंग से पहचानते भी न हो और वे आपके चिरपरिचित परिवारजन बन जाएं – आप जीवन में ऐसे कितने लोगों से मिले हैं? हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र की बाबत मेरे साथ ऐसा ही हुआ था। हमेशा की अपनी भागमभाग में शहर (वाराणसी) के बाहर गया हुआ था। वाराणसी लौटा तब उत्तरा ने बताया ‘भवानी बाबू आए हैं। टिके तो मेहमान-घर में हैं लेकिन बच्चों के आग्रह पर हमारे धर भोजन करना स्वीकार किया है। अभी चाय के वक्त आ पहुंचेगे।’ तभी, ‘दीदी, मैं पहुंच गया हूँ। अरे, आज भैया भी आ गए।’ कहते हुए भवानी बाबू आ पहुंचे। हम दोनों उन से दस बरस छोटे तो होगे ही, परन्तु उन्होंने उत्तरा को ‘दीदी’ कहने का संबंध बना लिया था।
भवानी बाबू के विषय में बहुत सुन रखा था किन्तु निकट आने का संयोग ही नहीं बना था। वैसे हम दोनों ही वर्धा-परिवार के थे। परन्तु एक दूजे के परिवार के बने वाराणसी में ही। जब वे वर्धा के महिला आश्रम में थे ,तब मैं वहां न था । जब मैं वहा था, तब वे न थे। अनेक मित्रों से उनके बारे में सुना था। परन्तु उनकी स्नेहमयी दृष्टि में सरोबार होने का यह पहला मौका था। सर्व सेवा संघ के प्रकाशन के काम से वे वाराणसी आए होंगे किन्तु इस काम से इतर बतियाने के हमारे बीच पर्याप्त विषय थे। उनकी हिन्दी साहित्य की दुनिया के अलावा पहली बात तो यह थी कि उनकी और मेरी दुनिया समूची एक ही थी। उसमें भी हम दोनों के प्रिय विषय थे -बापू ।फिर प्रथम परिचय का संकोच कितनी देर टिका रहता?
एक शाम मेरे दामाद ने कहा कि भवानीबाबू को सुनना है- थकान के बावजूद हजारों की मेदिनी को मंत्रमुग्ध कर देने वाले भवानी बाबू कुटुंब के दो चार लोगों के समक्ष कविता पाठ करने के लिए तैयार हो गए। ‘भला बेटी दामाद कहे और मैं कैसे इनकार करूँ?’
भवानीबाबू एक बार शुरू करे फिर उन्हें दूसरा सुनाने का आग्रह करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। एक के बाद दूसरी कविता निकलती जाती थी,…….. पंचतंत्र की कथाओं की भांति। कई बार तो एक कविता कब पूरी हुई और दूसरी कब शुरू हुई इसका श्रोता को भान नहीं रहता। मेघाणी भाई (गुजराती के प्रख्यात कवि झवेरचंद मेघाणी) के अलावा इतनी अधिक स्वरचित रचनाओं को कंठस्थ रखने वाले किसी अन्य कवि से मैं तो कभी नहीं मिला। जब वे काव्य-पाठ करते तब मानो श्रोता उन पर उपकार कर रहे हे हों वैसे कृतज्ञ दृष्टि से उन्हें देख रहे होते थे। परन्तु ज्यों-ज्यों गीतों में वे गहरे उतरते त्यों-त्यों उनका पाठ, स्वान्तः सुखाय हो जाता। बावजूद इसके श्रोताओं को भी वे सरोबार कर देते थे। कई बार तो उनका छंद श्रोताओं को साथ गाने की प्रेरणा दे जाता था।
चलो गीत गाओ चलो गीत गाओ।
कि गा गा के दुनिया को सर पर उठाओ

अभागों की टोली अगर गा उठेगी
तो दुनिया पे दहशत बड़ी छा उठेगी
सुरा-बेसुरा कुछ न सोचेंगे गाओ
कि जैसा भी सुर पास में है चढ़ाओ ।

तथा
अगर गा न पाये तो हल्ला करेंगे
इस हल्ले में मौत आ गयी तो मरेंगे
कई बार मरने से जीना बुरा है
कि गुस्से को हर बार पीना बुरा है
बुरी जिन्दगी को न अपनी बचाओ
कि इज्जत के पैरों पे इसको चढ़ाओ ।
मुझे मालूम था कि भवानी बाबू पर एकाधिक बार हृदय रोग का आघात हो चुका था। हृदय के कार्य की सहायता हेतु ‘गतिसाधक’ (पेसमेकर) भी लगाया गया था। अतएव मैंने अधिक गाने का आग्रह न करने के लिए बच्चों को समझाया। इस पर वे ही बोले ‘‘गाने के बल पर तो मैं जी रहा हूँ। उसमें थकान का प्रश्न ही कहा?’’
एक सुगंध के बल पर
जी रहा हूं मैं
सुगंध यह कदाचित
गर्भ में समझे हुए
परिवेशों की है –
छूटे घने केशों की है……

और इतनी घनी है
कि धूल और धुएं के बीच
जैसी की तैसी बनी है
बरसों से मैं
धूल और धुएं के शहरों में हूं
लगता है मगर
कमल और पारिजात की
बहती हुई बहारों में हूं
सद्यस्नात किसी
देश के मन की तरह
स्नेहसे सहलाये हुए
किसी तन की तरह
खुश हूं और इल्म इतना
कि बोझ नहीं लगता प्राणों को
बीते हुए तमाम दिनों का
आए हुए नितांत अजाने
भीषण पल का ………

जानी अनजानी लहरों में
धुएं और धूल के भी शहरों में
मैं इस सुगंध के बल पर जी रहा हूं
और चाहता हूं कि सब इसके बल पर जीएं…
क्योंकि जानता हूं मैं
सबने अपने प्रारंभिक परिवेशों में
सांद्र और निबिड इन
गंधों को पीया है ।

और फिर भी जाने क्यों
भूल जा कर इन्हें केवल धूल
और धुएं को जीया है ।

आत्मा को
सिवा आदिम सुगंधों के
कौन बचा सकता है
धूल और धुएं में
डूबने से ।

इन आदिम सुगंधों को पीते-पीते भवानीबाबू जीये। जीये यानि जीवन का क्षण-क्षण जीए। सात-सात बार उन पर हृदय रोग का आघात हुआ। परन्तु खुद तो मानो मरणोत्तर जीवन जी रहे हों वैसी मस्ती में थे ‘ अरे भाई, मैं तो किसी दूसरी बीमारी के लिए अस्पताल में पड़ा था, तब ही मुझ पर हृदय रोग का पहला हमला हुआ। डॉक्टर भी न समझे और मैं भी।’ परन्तु फिर मानो नया जन्म लिया हो वैसी ताजगी महसूस की। हफ्ते भर के सहवास से भवानी बाबू हमारे परिवार के सदस्य ही बन गए। कुटुम्ब के हर सदस्य को लगा कि उसका उनके साथ खास संबंध है। मेंरा पौत्र सुकरात पढ़ना सीख ही रहा था, तब दिल्ली में उससे हुई पहली मुलाकात में उन्होंने उस पर मोहिनी फेर दी थी। खुद कविता सुनाते जा रहे थे। इतनी बार सुनाई कि सुकरात को बिना पढ़े ही बोलनी आ गई। हम उन्हें परिवार के नाम से – मन्ना जी कह कर संबोधित करते। परन्तु प्रथम मुलाकात में कविता सुनकर सुकरात ने पूछा, ‘आपका नाम?’ उन्होंने कहा, भवानी प्रसाद। उनके घर से निकलते वक्त सुकरात ने पूरे सम्मान के साथ कहा ‘भवानी प्रसाद तो कवि हैं ? मुझे लगता है कि जीवन में मिले, अथवा छोड़ दिए गए पुरस्कारों की तुलना में भवानी बाबू के मन में सुकरात के दिए इस प्रमाण पत्र की कीमत कम नहीं थी।
भवानी बाबू एक ओर कविहृदय थे तो दूसरी ओर दुनियादार भी। इसीलिए उनके घर पर हमेशा मेहमानों का ताता लगा रहता था। सरला भाभी और परिवार के अन्य लोगों को इससे कठिनाई होती होगी। परन्तु सरला भाभी ने कभी इसे प्रकट नहीं होने दिया। मन्नाजी के मन जो भाता था, वही उन्हें भी भाता था। भवानी बाबू परिवार में सबसे बड़े भाई न थे फिर भी परिवार के लोग किसी भी मुसीबत में उन्हीं के पास दौड़े आते। खुद से बेहतर स्थिति वालों की भी सहायता किए बिना भवानी बाबू नहीं रह पाते। कई बार तो वह यह भी जान रहे होते थे कि उन्हे ठगने की कोशिश हो रही है। जब कोई जान-बूझकर ठगा रहा हो तब उसे कौन ठग सकता है? स्वयं कभी गलत खर्च नहीं करते थे परन्तु जिसकी मदद कर दी उससे कभी हिसाब नहीं मांगते।
खुद के परिवारजनों के प्रति भवानी बाबू अत्यन्त ममत्व का भाव रखते थे। जेल में बैठे-बैठे कुटुंबीजनों के लिखी कविता का अथवा हृदय रोग के हमले के बाद भी रोज मुगदर फेरने की आदत न छोड़ने वाले पिता का स्मरण कर वे फफक-फफक कर रो पड़ते।
एक बार आर्थिक कठिनाइयों की वजह से भवानी बाबू को फिल्मों के लिए गीत लिखने पड़े थे। इसका कष्ट उन्हें ताउम्र रहा। इस वेदना को उन्होंने कविता ‘गीत फरोश’ नामक कविता में उलीचा था तथा यह कविता लाचारीवश गीत लिखने वाले कितने ही कवियों के मन की चीख की पुकार बन गई थी।
आजादी के बाद भवानी बाबू अधिकतर दिल्ली की ‘धूल और धुएं के बीच’ शहर में रहे। परन्तु देश के कल्याण की कामना ने उन्हें कभी दिल्ली की माया में फंसने नहीं दिया। यूँ बड़े लोगों के साथ जान-पहचान की कमी न थी। गांधी विनोबा, नेहरू जैसों के साथ उनका परिचय था। बजाज कुटुम्ब के साथ घरोपा था। श्रीमन्नारायण तो उनके मुक्त प्रशंसक थे परन्तु इनसे पहचान का खुद लाभ कभी नहीं लिया। विचारों से भवानी बाबू सच्चे गांधीवादी थे, मगर उनका कवि हृदय किसी वाद के खांचे में समा जाए ऐसा न था। इसीलिए वे गांधीवादी कवि बनने के बदले मानववादी कवि बने रहे। उनकी कविता घरेलू विषयों से लगायत आध्यात्मिकता के शिखरों तक का भ्रमण करती है। उन्हें ऐहिक सुख की परवाह न थी। वे कहते ‘सुख अगर मेरे धर में आ जाए तो उसे बैठायेंगे कहां? उनकी मस्ती देख ‘होगा चकित’ की अवस्था बन जाती थी।
हिन्दी में आत्मा शब्द का प्रयोग स्त्रीलिंग में होता है। आत्मा से भवानी बाबू कहते है –
सुनती हो मेरी बहन आत्मा
किसी नदी के हरहराने कैसी यह आवाज
यह रगों में दौड़ता हुआ मेरा खून है……
मेरा खून
जिसमें मेरी खुशी डूब गयी है
और मन का रक्तकमल जिसमें
दिन-भर भी खिला नहीं रह सका है

शायद मेरी रगोंमें यह खून
इसी शर्त पर बह रहा है
कि खुशियां डुबाई जायेंगी
बिखराये जायेंगे दल रक्तकमल के
शाम आने के भी पहले ।
बता सकती हो तुम
मेरी बहन आत्मा कि कहीं
तट भी हैं इस नदी के या नहीं
तट जहां से बिना तैरे
पार जा सके मेरी खुशी
पांव – पांव जा सके जहां से मेरा रक्तकमल
किनारे के उस पार शांत जल के थमे-से सरोवर में …
स्वराज के बाद का भारत जिस तरह गांधी के दिखाए मार्ग से विचलित हुा उससे भवानी बाबू का हृदय टीस उठता। 1959 में लिखी एक कविता में उन्होंने इस टीस पहुंचाने वाली दिशा की ओर इंगित करते हुए कहा था –
पहले इतने बुरे नहीं थे तुम
याने इससे अधिक सही थे तुम
किन्तु सभी कुछ तुम्ही करोगे इस इच्छाने
अथवा और किसी इच्छाने , आसपास के लोगोंने
या रूस-चीन के चक्कर-टक्कर संयोगोंने
तुम्हें देश की प्रतिभाओंसे दूर कर दिया
तुम्हें बड़ी बातोंका ज्यादा मोह हो गया
छोटी बातों से सम्पर्क खो गया
धुनक-पींज कर , कात-बीन कर
अपनी चादर खुद न बनाई

बल्कि दूरसे कर्जे लेकर मंगाई
और नतीजा चचा-भतीजा दोनों के कल्पनातीत है
यह कर्जे की चादर जितनी ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है ।

भवानी बाबू जिस आध्यात्मिक पीठ पर आसीन थे उसने उन्हें कभी निराशा में डूबने नहीं दिया। जैसे सात-सात बार मौत से वे लड़े वैसे ही आजादी के पहले गुलामी से लड़े और आजादी के बाद, तानाशाही से भी लड़े। आपातकाल में जब मैंने ‘यकीन’ नामक हिन्दी पत्रिका शुरू की तब मेरे एक ही पत्र के जवाब में उन्होंने ढेर सारी कविताएं भेज दीं । उस समय दिल्ली में भय का साम्राज्य था। खास तौर पर बौद्धिक वर्ग भयभीत था। जीवन के आदर्शों और मूल्यों के लिए जो खुद को घिसने के लिए तैयार नहीं होते वे उन्हें भीरू ही बनना पड़ता है । उन्हीं दिनों कई बौद्धिक मित्रों ने भवानी बाबू को यह सयानी सलाह दी थी – ‘कविता भेजी ही हो तो कम से कम यह सावधानी बरतिएगा कि उसके साथ आपका नाम न छपे।’ नाम की कभी चाह न रखने वाले ऐसे प्रसंगों में नाम देने के लिए उत्साहित होते हैं।
चंडीगढ़ से बीमारी के कारण पेरोल पर छूटे जय प्रकाश जी ने उन्हें सहज ही पूछा – आज कल क्या कर रहे हैं? कवि का और क्या जबाव हो सकता था? उन्होंने कहा, ‘कविता लिखता हूँ। ’ पूरे आपातकाल रोज तीन-तीन कविताएं लिखते रहे, जो बाद में ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से प्रकाशित हुई।

तुम्हे जानना चाहिए कि हम
मिट कर फिर पैदा हो जायेंगे
हमारे गले जो घोंट दिए गए हैं
फिर से उन्हीं गीतों को गायेंगे
जिनकी भनक से
तुम्हें चक्कर आ जाता है !
तुम सोते से चौंक कर चिल्लाओगे
कौन गाता है ?
इन गीतों को तो हमने
दफना दिया था !
तुम्हें जानना चाहिए कि
लाशें दफनाई जा कर सड़ जातीं हैं
मगर गीत मिट्टी में दबाओ
तो फिर फूटते हैं
खेत में दबाये गए दाने की तरह !

बच्चों की एक पत्रिका ने आपातकाल के दौरान भवानी बाबू से उनकी रचना मांगी। उन्होंनें मुक्त अभिव्यक्ति पर एक सरल कविता लिखकर भेज दी, फिर ख्याल आया कि कदाचित संपादक महोदय, ऐसी कविता को कबूलना कठिन न हो जाए। इसलिए उस कविता के नीचे ही सम्मानपूर्वक लिख दिया ‘छापने योग्य लगे तब ही छापिएगे। अयोग्य लगे तो, लौटाने की जरूरत नहीं है घर के बच्चे लौटाई गई कविता देखेंगे तो मेरे बारे में क्या सोचेंगे? ‘गांधी पंचशती’ नामक संग्रह में गांधी विचार को केन्द्र में रख लिखी गई पांच सौ कविताएं है। दिल्ली में उनके राजघाट स्थित घर में पहलीबार गया तब प्रेमपूर्वक परोस कर भोजन कराया और जाते वक्त मेरे हाथ में उस पुस्तक की एक प्रति रख दी। पहले पन्ने पर लिखा था ‘प्रिय भाई नारायण देसाई को पहली घर आने के प्रसंग से सुख पाकर।’’ पुस्तक की ‘प्रारम्भिक कविता में आज के युग की पीड़ा, इस युग को बदलने की उनकी आशा, उस आशा को चरितार्थ करने में कविता साधक बनेगी। ऐसी उनकी आस्था तथा उस आस्था के लिए खुद से बन पड़ने लायक सब कर गुजरने की छटपटाहट प्रकट होती है। इस लम्बी कविता के कुछ भाग देखे।
कविताएं ये ज्यादातर उस भविष्य की है।
जो वर्तमान हुआ था
जिसने हमें कण-कण पोर-पोर छुआ था
मगर किसी झंझट में हमने जाना अनजाना कर दिया उसे…..
यह कोई भविष्यवाणी नहीं है न सपना है
इसे गांधी ने खुली आखों से देखा था
और एक हद तक साकार करवाया था हमसे
इस लिए तो हमारा है अपना है
बेहतर दुनिया की एक तस्वीर खिंचती है इसमें
लगभग अब तक की बंजर समूची एक दुनिया
सिंचती है इसमें ।

हम सब चाहते हैं दुनिया को आज जैसी है उससे अच्छी
मगर मेरी लाचारी कहिए मेरी आंख में
हमसे-तुमसे ज्यादा झूलता है वह बच्चा
जो हमारे बच्चों से भी अगली पीढ़ी का होगा
विचित्र कोई चोगा पहन कर
वह अणु बम फेंकता फिरे जहां तहां
इस संभावना को मैं कविता लिख कर
खत्म करना चाहता हूं
मुझे जो ताकत दी गई है
वह दिन उसके बल पर अपने वश- भर
मैं हारना चाहता हूं.
ये कवितायें इस प्रतीति से लिखी जा रही हैं
कि मेरे देश में कुछ ऐसे गहरे तत्त्व थे ही नहीं हैं
जो देश के जड़ से जड़ अंशों में समाये हुए हैं
जिन्हें जरा-सा पानी मिल जाए समय पर
तो देखेंगे कि आप कि वे सूखे नहीं हरयाए हुए हैं
और उत्स तो पड़ा है लगभग खुला गांधी के विचारों का
उस पर पड़ी एक चट्टान को थोड़ी-सी शक्ति लगा कर
खिसका- भर देना है बस
कलकल छलछल हो जाएगा सब….
गांधी त्यौहार तो मनेगा तब
जब आज और आगे के माथे से
छोटी बड़ी क्रूरता का कलंक धुल जायेगा
जब धरती पर हर जीव के निर्भय समंजस
जीने का द्वार खुल जाएगा …..

मगर तब तक के लिए रुक नहीं रहा हूं मैं
शुरु कर रहा हूं
जितना बन सकता है मुझसे उतना छोटा एक काम
लेकर समूची मानवता की परम्परा में
अब तक के सबसे सीधे सादे
निर्भय और स्नेही आदमी
गांधी का नाम !

भवानी बाबू के विशाल साहित्य में मेरा सम्पर्क उनके गांधी साहित्य के साथ ही अधिक था। ऊपर दिए उदाहरण में जिसे हम देख सकते है वैसी उनकी भाषा भी गांधी जैसी चाहते है वैसी उनकी भाषा भी गांधी जैस चाहते थे, वैसी, सीधी-सादी, सरल हिन्दुस्तानी ही थी। वे उस जमाने में लिख रहे थे जब बड़े साहित्यकार हिन्दी भाषा से चुन चुन कर उर्दू शब्द निकाल देते थे। भाषा को कठिन और क्लीष्ट बनाने में मानो पांडित्य प्रकट होता हो। ऐसे वकत में भवानी बाबू ने आदर्श रखा:
जिस तरह हम बोलते है उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।
भवानी बाबू सामान्य जन के जन थे। इसलिए सामान्य जन की बात वे प्रथम पुरुष में सहजता से कहते। इसके बावजूद सामान्य जनों को असामान्य ऊँचाई तक उठा सकने की ताकत उनकी भाषा में थी।
‘‘मैं और तुम’ नामक कविता में गांधी जी को ध्यान में रख करू वे कहते हैं –
कई बार जब क्रोध उमड़ता है मैं पागल हो जाता हूँ
और फेंक कर हाथ फाड़ कर गला चीखता चिल्लाता हूँ
ऐसा लगता है कि काट कर धर दूं शत्रुगणों को अपने
और सांग कर डालूं पल में युगों युगों तक देखे सपने
किन्तु तभी स्वर शान्त तुम्हारा मुझे सुनाई पड़ जाता है
क्रोधोन्मत्त शीश लज्जा से गड़ जाता है।
जीवन के आखिरी वर्ष उन्होंने दिल्ली में बिताए ।संयोगों ने उन्हें दिल्ली लाकर बसा दिया था परन्तु उनकी आत्मा थी देहात में जहां गांधी ने असली भारत देखा था। ‘दुर्घटना’ नामक एक कविता में वे लिखते है –
मुझे अपने गांव में रहना था
वहां की धूल कीचड़ धुआं सहना था
यह ठीक नहीं हुआ कि छोड़कर वह कीचड़ धूल और धुआं
मैं यहां आ गया दीद ओ दानिश्त ; धोखा खा गया ।
फाइलों की धूल , दोस्तों का उछाला हुआ कीचड़
बसों का धुआं : ना यह ठीक नहीं हुआ
मुझे अपने गांव में रहना था
वहां का धुआं , धूल कीचड़ सहना था ।

भाग मुझ पर भले उखड़ा था
मगर मेरे पास जमीन का टुकड़ा था
घर था , घर की शाक सब्जी थी
अन्न था ;
हाय दिमाग कैसा सन्न था
कि मैं यहां आ गया
दीद ओ दानिश्त धोखा खा गया !
इस धोखे से छूटने के लिए ही मानो जीवन के अन्तिम क्षणों में मध्य प्रदेश के अपने मूल गांव नरसिंहपुर में बिता कर हमारे निमंत्रण पर वे वउछी आकर कुछ दिन रहे। दो-चार कक्षाएं ली थीं दर्जन-दो दर्जन कविताएं सुनाई थीं वेड़छी आश्रम में घटादार वृक्षों पर आकर बैठने वाले तथा सांझ-सबेरे वैतालिक गान गाते विहंगों पर वे लट्टू थे। एक दिन आश्रम का एक विद्यार्थी मुख्य मेहमान को प्रार्थना के लिए बुलाने आया तो कह दिया – ‘भाई मुझे माफ करना। मैं तो इन पंहियों की प्रार्थना सुन रहा हूं, बरसों बाद ऐसी प्रार्थना में शरीकर होने का मौका मिला है। मुझे यह प्रार्थना ही करने दो। ‘
जाते वक्त मुझे छाती से भींच कर बोले, ‘भाई, आप तो बनारस से फिर गांव में आ गए। मेरी भी यही इच्छा है कि दिल्लीर से फिर नरसिंहपुर चला जाऊ। मेरा जी वहीं लगता है। वहीं जन्मा था, वहीं मरना चाहता हूँ। सचमुच वैसा ही हुआ। गए तो थे कुटुंबीजन के विवाह में। वहीं रूक गए, संक्षिप्त बीमारी भोग कर विदा हो गए। आजीवन सहधर्मचारिणी सरला भाभी ने कहा ‘मृत देह को दिल्ली लाने की आवश्यकता नहीं है। बावजूद इसके कि पूरा कुटुम्ब दिल्ली में ही था। सब काम वहीं होगा। ज्यादा लोगों को दिल्ली से नरसिंहपुर भी जाने की जरूरत नहीं है। ‘
भवानी बाबू के परिवार में मेरा सबसे अधिक परिचय छोटे बेटे अनुपम के साथ है। गांधी शांति प्रतिष्ठान के पर्यावरण विभाग में सुन्दर काम कर रहा है। प्रतिभा और स्वभाव से मोर का अंडा, उसने लिखा ‘ हम सब हिम्मत बांधे हुए है। बस आप जैसे किसी का पत्र पढ़कर बांध टूट जाता है। पिताजी हमें बहुत बड़े परिवार में छोड़ गए।
विराम कहां ?
मन में सोचा था की यहीं अब पूर्ण विराम कर दूंगा !
किन्तु विराम कहां हुआ ? तेरी सभा में फिर लौट आया ।

अब नये गीतों , नए रागों के लिए मेरा प्रफुल्लित ह्रदय उत्सुक हो गया है !
स्वरों के विराम पर मेरी क्या दशा होती है , इसका मुझे ज्ञान ही नहीं रहता ।

संध्या की वेला में स्वर्ण-किरणों से अपनी तान मिलाकर
जब मैं अपने गीतों को पूर्ण करता हूँ तो मध्यरात्री
के गंभीर स्वर मेरे जीवन में फिर से भरने के लिए जाग उठाते हैं !
तब मेरी आँखों में तिलभर नींद नहीं रहती , मेरे गीतों को
विराम नहीं मिलता !
रवीन्द्रनाथ ठाकुर , – अनुवाद सत्यकाम विद्यालंकार

लेख का अनुवाद – अफलातून
(गुजराती अखबार ‘गुजरातमित्र’ में ‘मने केम वीसरे रे’ नामक लेखमाला और उसी नाम से बालगोविंद प्रकाशन से छपी पुस्तक (मार्च,१९८६) से मूल लेख लिया गया है।)

Read Full Post »