छनकर बचा हुआ तबका उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठानों तक पहुंच पाता हो भले ही लेकिन शिक्षा के बजट का बड़ा हिस्सा इसी मद में खर्च होता है । इसके बावजूद यह अपेक्षा की जा रही है कि उच्च शिक्षा के संस्थान और विश्वविद्यालय अपने स्तर पर संसाधन जुटायें ।
देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय (काशी विश्वविद्यालय) में संसाधन जुटाने के तरीकों में जो फर्क आया है उस पर इस पोस्ट में ध्यान आकर्षित किया गया है ।
यह विश्वविद्यालय इंजीनियरिंग की पढ़ाई देश में सबसे पहले शुरु करने वाले केन्द्रों में से एक है । इसके फलस्वरूप आई.आई.टियों के निर्माण के पहले अधिकांश बड़े इंजीनियरिंग के पदों पर यहीं के स्नातक पाए जाते थे । बनारस के दो प्रमुख उद्योगों के विकास में इस विश्वविद्यालय का हाथ रहा । संस्थापक महामना मालवीय के आग्रह पर एक चेकोस्लोवाकियन दम्पति यहां के सेरामिक विभाग से जुड़े़ । इन लोगों ने विश्वविद्यालय के आस पास के लोगों को मानव निर्मित मोती बनाने का प्रशिक्षण दिया । आज यह बनारस का प्रमुख कुटीर उद्योग है । इसी विभाग द्वारा उत्पादित चीनी मिट्टी के कप – प्लेट भी काफ़ी पसन्द किए जाते थे । बनारस का एक अन्य प्रमुख लघु उद्योग छोटा काला पंखा रहा है। इसके निर्माताओं ने भी पहले पहल काशी विश्वविद्यालय से ही प्रशिक्षण पाया । इंजीनियरिंग कॉलेज के औद्योगिक रसायन विभाग द्वारा टूथ पेस्ट भी बनाया और बेचा जाता था ।
इस प्रकार इन उत्पादों द्वारा न सिर्फ़ विश्विद्यालय संसाधन अर्जित करता था अपितु बनारस वासियों के लिए रोजगार के नये अवसर भी मुहैय्या कराता था ।
ग्लोबीकरण के दौर को किशन पटनायक ने एक प्रतिक्रान्ति के तौर पर देखा था । जैसे क्रान्ति जीवन के हर क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन लाती है वैसे ही प्रतिक्रान्ति हर क्षेत्र में नकारात्मक दिशा में ले जाने वाली तब्दीलियाँ लाती है । काशी विश्वविद्यालय के संसाधन अर्जन के मौजूदा तरीकों पर गौर करने से यह प्रतिक्रान्ति समझी जा सकती है ।
हमारे छात्र जीवन में किसान -घर के लड़के विश्वविद्यालय परिसर के हॉ्स्टेल में कमरा पाना चाहते थे क्योंकि उसका भाड़ा १० रुपये प्रति माह होता तथा घर से आये अनाज से कमरे के हीटर पर भोजन बन जाता । ऐसे ही दाल बनाते हुए कवि गोरख पांडे ने लिखा था ,’देश गल रहा है,या दाल गल रही है’ । बहरहाल ,बढ़ी हुई फीस तथा मेस में खाने की अनिवार्यता से बचने के लिए अब किसान घर के बच्चे परिसर के बाहर रहने के लिए बाध्य हैं । जैसे सूती कपड़े पहनने वाले सिंथेटिक पहनने के लिए बाध्य हो गये हैं ।
संसाधन कमाने के नाम पर देश के संसाधनों की लूट को पोख्ता करने के उपाय अब विश्वविद्यालय की शोध परियोजनायें कर रही हैं । भूभौतिकी विभाग ने कोका कोला से समझौता किया है । इस प्रोजेक्ट द्वारा कम्पनी इन ’विद्वानों’ से कहलवाना चाहती है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस दानवाकार बहुराष्ट्रीय कम्पनी द्वारा भूगर्भ जल दोहन से कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ने वाला । विभाग में इस प्रोजेक्ट को चलाने वाला विश्विद्यालय प्रशासन का पसन्दीदा व्यक्ति है चूंकि वह रैंगिंग विरोधी समिति का अधिकारी भी बनाया गया है ।
भारत की खेती को पराश्रित बनाने में विशाल बीज कम्पनियाँ प्रमुख भूमिका अदा कर रही हैं । कई विकासशील देशों की राष्ट्रीय आय से ज्यादा का सालाना व्यवसाय करने वाली यह कम्पनियां लूट के साधन के तौर पर विकसित नई किस्मों पर शोध के लिए करोड़ों रुपये दे रही हैं । लाजिम है कि मोन्सैन्टों जैसी इन कम्पनियों के प्रवक्ताओं को ही सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जा रहा है ।
काशी में हजारी प्रसाद द्विवेदी और अनेक दिग्गजों की पीड़ा के बारे में सुन रखा था क्योंकि विश्वविद्यालय के पास फंडिंग नहीं थी लेकिन अब तो करोड़ों की फंडिंग है और विश्वविद्यालय तो कई बार यूं ही व्यर्थ की तुगलकी नीतियों में पैसे पानी की तरह बहा देते हैं ऐसे में गरीब बच्चों के लिए अगर अब भी कुछ नहीं बदला है तो हमारी आजादी के लिए शर्म की बात है।
Achchhe upay bataye aapne.
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अदभुत है मानव शरीर।
गोमुख नहीं रहेगा, तो गंगा कहाँ बचेगी ?
कितना अजीब है यह सब ..व्यवस्था के पतन की परकाष्ठा
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