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Posts Tagged ‘shabd’

[ कल अजित वडनेरकर के ‘ शब्दों का सफ़र ‘ की सालगिरह थी । यह चिट्ठा पढ़ते वक्त मुझे अक्सर विनोबा की याद आती है । विनोबा कई देशी – विदेशी भाषाओं के जानकार थे। उन्हें शब्दों से खेलना भी भाता था । अ सरकारी = असरकारी जैसे उनके समीकरण लोकप्रिय हो जाते थे । या फिर यह , ‘ Homeopathy , Allopathy , Naturopathy – सब में Sympathy रहना जरूरी है ।’

    गुजराती पाक्षिक भूमिपुत्र में सर्वोदयी चिन्तक कांति शाह द्वारा संकलित , विनोबा द्वारा व्यक्त ‘ सूर्य उपासना ‘ तथा ‘ गांधी :जैसा देखा-समझा’ धारावाहिक रूप से प्रकाशित हो रहा है । दोनों ही श्रृंखलाएं पुस्तक-रूप में भी प्रकाशित होंगी , उम्मीद है । नीचे लिखे उद्धरण इन से लिए गए हैं । चयन और अनुवाद मेरा है । – अफ़लातून ]

    संस्कृत में सूर्य का एक नाम ‘ आदित्य ‘ है । संस्कृत में ‘दा’ यानी देना । इससे उलटे ‘आ- दा’ यानी लेना । इससे ‘आदित्य’ शब्द बना है । श्रृति में कहा गया है उसके मुताबिक आदित्य मतलब आप से ‘ले जाने वाला’ । क्या ले जाता है , आदित्य ? कवि कहता है कि आपके आयुष्य का एक टुकड़ा । रोज अस्त होने वाला सूर्य हमारे आयुष्य का एक टुकड़ा ले जाता है ।

    आदित्य शब्द ‘अद’ धातु से बना है । अद माने खाना । जिसे खाया जाता है , वह है ‘अन्न’ । सूर्य आदित्य है , चूँकि प्रतिक्षण वह हमारे आयुष्य का एक टुकड़ा खा लेता है । हमें इसका ध्यान रखना चाहिए कि आज मैंने क्या भला किया ?

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    सूर्य से हम कितना कुछ सीख सकते हैं ! सूर्य हमारा गुरु है । गौर कीजिए ,सूरज कैसे काम करता है । सूर्य उगता है तब उसका प्रकाश सबसे पहले उस झोंपड़ी में जाता है जिसमें दरवाजे नहीं होते । इसके बाद दरवाजे वाले झोंपड़ों में , तब शहरों में तथा महलों में । सूरज जितना नग्न व्यक्ति की सेवा करता है उतनी कपड़े – लत्ते वाले की नहीं । परन्तु आज स्वराज में इससे उलटा हो रहा है । सब-कुछ पहले साधन सम्पन्नों के पास पहुँचता है , फिर धीरे – धीरे नीचे के स्तर तक पहुंचता है । जैसे बिजली आती है तो पहले बड़े-बड़े शहरों में जाती है ,तब देहात में जाती है । गांव में भी पहले उसे मिलती है जिसके पास पैसा होता है और जो उसे खरीद सकता है । इसके फलस्वरूप यह कुछ लोगों का धन्धा बन जाता है । जो दूर – दराज के गांव हैं , वहां तो बिजली पहुंचती ही नहीं । गरीबोम के पास पहुंचती भी है तो प्रकाश के रूप में , काम – धन्धे और उत्पादन के लिए नहीं । सूर्यनारायण इससे ठीक उलटा करते हैं और स्वराज में वैसा ही होना चाहिए ।

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  सूर्यनारायण सब से बड़े भंगी हैं , भंगियों के राजा हैं । वे अनथक अविरत रूप से दुनिया की सफाई करते रहते हैं । इसमें एक दिन की छुट्टी नहीं लेते । सूर्यनारायण की ऐसी कृपा जो हिंदुस्तान पर न होती , तो हिंदुस्तान के देहात नरक बन जाते और यहां जीना मुश्किल हो जाता । हिंदुस्तान में हम इतनी गन्दगी करते हैं , खुले में मल – विसर्जन करते हैं । यदि सूर्य न होता तो लोग रोग से बरबाद हो जाते । सूर्य एक दिन भी गैर हाजिर नहीं रहता यह उसकी बड़ी कृपा है ।

    इसलिए मैंने उसे भंगियों का राजा कहा है । वह सभी मेहतरों से ‘महत्तर’ है । महान से महान भंगी है , महत्तर मेहतर है । मेहतर शब्द संस्कृत के महत्तर शब्द से बना है। उसका अर्थ है जो महान से महान होता है अर्थात जो महान से महान काम करता हो । कितने दुख की बात है यह जो सब से बड़ा काम है , उसे आज नीचे से नीचा काम माना जाता है । ऐसा समाज कभी सच्ची प्रगति नहीं कर सकता ।

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    उस भजन में वैष्णवजन की जो व्याख्या की गई है वह एक शैव की भी है , एक इसाई की भी है, मुस्लिम की भी है और बौद्ध की भी है । दूसरे का दु:ख उससे से सहा नहीं जाता । वह निरंतर उपकार करता रहता है । यह ‘उपकार’ शब्द बहुत सुन्दर है । आज उसमें अहंकार का अंश आ गया है , परंतु मूल में तो वह अत्यन्त नम्र शब्द है । मन , वचन , कर्म से दूसरे की मदद करेंगे , मर मिटेंगे , फिर भी वह उपकार ( गौण कार्य ) ही होगा । मुख्य काम तो भगवान करेगा।

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    ऋग्वेद में एक वाक्य है : ‘ गृहे गृहे , दमे दमे ‘– घर घर साधना चल रही है । ‘दम’ शब्द ‘गृह’ का एक पर्याय था। गृह जरा व्यापक होता है । उसके अन्दर एक छोटा-सा सुरक्षित स्थान होता है , जिसे दम कहते थे , यानी अंतरगृह । गृह में बाहर के लोगों  का स्वागत होता। अम्दर एक आंतरिक विभाग होता, उसे दम कहते ; अर्थात जहां इन्द्रियों के दमन का अभ्यास होता। लोगों को अनुशासन के पाठ मिलते। मां- बाप , बेते- बेटियां सब एक साथ रहते , तन उनके बीच थोड़ा अनुशासन होना चाहिए,वह प्रेम के आधार पर ही हो सकता है । ऐसी जीवन नियमयुक्त बनाने वाली साधना जहां होती , उसे ‘दम’ कहते थे। अंग्रेजी में ‘मैडम’  शब्द है तथा फ्रेन्च में उसे ‘मदाम’ कहते हैं, वह है घर की गृहणी । यह शब्द लैटिन से उतर आया ।

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यह ‘आश्रम’ शब्द अनूठा है । सभी प्रकार के परिश्रमों का सामंजस्य जहां होता है, वह आश्रम है । श्रम शब्द से ही आश्रम शब्द बना है। ‘आ’ व्यापकतासूचक है । सर्व प्रकार के व्यापक श्रम जहां समत्वपूर्वक किए जांए , वह आश्रम है ।  

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चिराग़ की तरह पवित्र और जरूरी शब्दों को

अंधेरे घरों तक ले जाने के लिए

हम आततायियों से लड़ते रहे

थके-हारे होकर भी

और इस लड़त में

जब हमारी कामयाबी का रास्ता खुला

और वे शब्द

लोगों के घरों

और दिलो-दिमाग़ में जगह पा गये

तो आततायियों ने बदल दिया है अपना पैंतरा

अब वे हमारे ही शब्दों को

अपने दैत्याकार प्रचार-मुखों से

रोज – रोज

अपने पक्ष में दुहरा रहे हैं

मेरे देशवासियों ,

इसे समझो

शब्द वही हों तो भी

जरूरी नहीं कि अर्थ वही हों

फर्क करना सीखो

अपने भाइयों और आततायियों में

फर्क करना सीखो

उनके शब्द एक जैसे हों तो भी .

– राजेन्द्र राजन

    १९९५.

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सभ्यता के उत्तरार्ध में

शब्दश: कुछ भी नहीं होगा

जो भी होगा वह

अपने लेबलों से कम होगा

लेबलों के बाहर

कुछ भे नहीं होगा

न कोई वस्तु न व्यक्ति

सारी शक्ति लेबलों में होगी

शब्दश: कुछ भी नहीं होगा

शब्दों पर भरोसा नहीं करेगा कोई

फिर भी शब्दों पर कब्जा करने का पागलपन रहेगा

सवार

‘शांति’ शब्द का इस्तेमाल कौन करे

इसके लिए हो सकता है युद्ध

कोई शब्द नहीं बचेगा शुद्ध

कोई कहेगा प्यार

और वह एक दरार में गिर जाएगा

विपरीत अर्थ वाले शब्दों में भी

कोई फर्क नहीं रहेगा

या रहेगा भी तो बस इतना

जितना छद्म मित्रों

और प्रछन्न शत्रुओं के बीच होगा

सारे शब्द सिर्फ बाधाएं होंगे

पत्थरों की तरह पड़े रहेंगे

पूरी कठोरता के साथ

मनुष्य और मनुष्य के बीच

शब्दों के मृत पहाड़ पर

खड़ा होकर चीखेगा कवि

सुनेगा कोई नहीं

– राजेन्द्र राजन .

१९९५.

 

 

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