आज अपराह्न में भदैनी, वाराणसी स्थित तुलसी पुस्तकालय में चर्चित और प्रखर कवि राजेन्द्र राजन ने अपनी लगभग बीस कविताओं का पाठ करके यह स्पष्ट कर दिया कि सरल सहज भाषा में सभी कुछ इतनी तीव्रता के साथ व्यंजित किया जा सकता है कि फ़िर और किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं पड़ती। निश्चय ही कुछ कविताएं एक-दो दशक पहले से हमारे सामने आ रही हैं, पर वे वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक संदर्भों और राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में इतनी ताजगी लिए हुए हैं, मानों उन्हें अभी-अभी कहा गया हो।
इस एकल काव्य कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति ने कहा कि कवि ने विद्रूपता के किसी भी कोने को छोड़ा नहीं है। सत्ता और ताकत से सम्पन्न शासक-वर्ग के मन की कुरूपता को यदि नग्न किया है तो उस जनता को भी नहीं छोड़ा है, जो विजेता के पक्ष में होने के सुखद अहसास को महसूस करना चाहती है। कवि ने स्वयं को भी नहीं छोड़ा है, जो अपनी ज़िन्दगी को चलाने के लिए दूसरों के द्वारा दिए गए विषय पर सोचता है और दूसरों के द्वारा निर्धारित भाषा में सुर में सुर मिलाकर बोलता है; और कवि ऐसा पेड़ हो गया है, जो छाया फ़ल और वसंत की अनुभूति देने में सक्षम नहीं रहा। कवि शब्दों को भी नहीं छोड़ता है क्योंकि फूल, पहाड़, नदियों का सौन्दर्य और बाकी सब कुछ शब्दों से ढंका हुआ है और वह वास्तविक सौन्दर्य को नहीं देख पाता है।
श्रेय पाने की लिप्सा में पहले के लोगों की कोशिशों को नकार दिया जाए और नया इतिहास लिखने की कोशिश हो, इससे कवि सहमत नहीं है। इतिहास में जगह बनाने के लिए आतुर लोग जानते हैं कि इतिहास में कितनी जगह है, अत: वे अपनी जगह बनाने के लिए एक-दूसरे को धकियाते हैं। मज़े की बात है कि कुछ लोग अपनी छोटी-सी जगह पर इस कारण चुप रहते हैं कि उनसे वह जगह भी न छिन जाए। ‘विकास’ में विकास के नाम पर सभी प्राकृतिक अवदानों के कम होते जाने पर और ‘नया युग’ असहमत लोगों को हटाने मात्र से विकास का अहसास कराए जाने की कुत्सित चेष्टा को सामने लाती है। ‘प्रतिमाओं के पीछे’ में स्वयं के वास्तविक रूप को छिपाने की चेष्टा करने वालों पर तीखी टिप्पणी है। ‘ताकत बनाम आज़ादी’ में निस्सार सत्ता-सुख में डूबे लोगों को आज़ादी के सुख को याद दिलाया गया। ‘छूटा हुआ रास्ता’ और ‘लौटना’ कविताओं में कवि अपने वास्तविक व्यक्तित्व के क्षय से पीड़ित होता है और लौटना चाहता है।
तालिबान द्वारा ‘बामियान में बुद्ध’ की विशालकाय मूर्तियों को तोड़ा जाना कवि को आहत करता है और उसे खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान याद आते हैं, जो बुद्ध की तलाश में बामियान में भटक रहे हैं। ‘बाजार में कबीर’ कबीर अपनी चादर इसलिए नहीं बेच पाते हैं क्योंकि वह किसी कंपनी का नहीं है। उस चादर का खरीदार नौकरशाहों द्वारा संचालित कंपनी-अधिनियम और राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चमक में कबीर को भला कैसे खोज पाएगा। ‘मनुष्यता के मोर्चे पर’ इस विडंबना को सामने लाती है कि आदमी ज़िन्दगी में उठने के लिए गिरता है और ऐसी स्थिति में कवि आत्मकेन्द्रित होता चला जाता है। ‘हत्यारों का गिरोह’ कविता उस षड्यंत्र को नग्न करती है जो संवेदनशून्य-तंत्र नित्य हमारे आस-आस रच रहा है। ‘तुम थे हमारे समय के राडार” कविता में कवि ने समाजवाद के पुरोधा और अपने गुरु किशन पटनायक जी को शिष्य के रूप में तथा अहोभाव से याद किया है।
कार्यक्रम के आरंभ में संजय गौतम ने बताया कि किस प्रकार राजेन्द्र राजन ने स्वयं को विचारधाराओं और संगठनों की सीमाओं से बचाए रखा और शब्दों के अर्थ को सुनिश्चित करते हुए आज के समय की प्रत्येक मूर्त और अमूर्त घटना और समस्या को पैनी निगाह से देखा है। इसीलिए उनकी कविताएं उद्वेलित करती हैं। कवि एवं आलोचक राम प्रकाश कुशवाहा ने राजेन्द्र राजन की कविताओं पर विशद टिप्पणी की। कार्यक्रम के संचालक अफ़लातून ने छात्र-जीवन मे राजेन्द्र राजन द्वारा लिखी गयी कविताओं का उल्लेख करते हुए बताया कि किस प्रकार उनकी कविताएं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र-आंदोलनों में अपनी भूमिकाएं निभाती रहीं। धन्यवाद ज्ञापन करते हुए चंचल मुखर्जी ने कहा कि राजन की कविताओं से उन्हें अपने सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यों में सदैव सहयोग मिला है। – राजेश प्रसाद
रामप्रकाश कुशवाहा :
वरिष्ठ कवि ज्ञानेंद्रपति की अध्यक्षता में सम्पन्न सामाजिक परिवर्तन के लिए लिखने वाले अति-महत्वपूर्ण और अपरिहार्य कवि राजेंद्र राजन की कविताओं का एकल पाठ अस्सी(भदैनी)स्थित तुलसी पुस्तकालय के सभागार में दो अक्टूबर को गाँधी जयंती के दिन संपन्न हुआ..नगर में तीन कार्यक्रमों में बंटे होने के बावजूद पर्याप्त संख्या में साहित्यप्रेमी स्रोतागण राजेन्द्र राजन की कविताएँ सुनने तुलसी पुस्तकालय पहुंचे .इस अवसर पर राजेंद्र राजन नें
अपनी चुनीहुई श्रेष्ठ कविताएँ -‘इतिहास में जगह’, ‘बामियान में बुद्ध’ ,’श्रेय ‘,’हत्यारे ‘ ‘पेड़’,’ विजेता की प्रतीक्षा.’,’इतिहासका नक्शा;,’नयायुग’,’बाजार’ ,’प्रतिमाओं के पीछे’,’लौटना तथा ,’छूटा हुआ रास्ता ‘ आदि का पाठ किया.
श्रोताओं नें राजन की नए ज़माने के कबीर रूप को खूब पसंद किया .उनकी बाजार में खड़े कबीरऔर शेयर बाजार के प्रतीक सांड को आधार बनाकर लिखी गयी कविता बहुत पसंद की गयी..काव्यपाठ के बाद विशेषज्ञ वक्तव्य देते हुए मैंने उन्हें इतिहस के निर्णायक मोड़ों और क्षणों की शिनाख्त करने वाला कवि बताया.उनकी बाजार कविता बाजार की नैतिकता की पड़ताल करती है.शेयर बाजार का प्रतीक-चिन्ह सांड बाजार के अस्थिर चरित्र पर प्रकाश डालता है. बामियान में बुद्ध कविता सौन्दर्य,सम्मान एवं करुणा कीभाषाको मिटाकर हिंसा की लिखी जा रही नयी इबारत को अंकित करती है .अंततःमहत्त्व धर्म के सम्मान का नहीं मनुष्य के सम्मान का है.यह कविता ऐतिहासिक चरित्रों को मानवता के पक्ष में नैतिक मूल्यों के प्रतिमान के रूप में प्रस्तुत करती है.
. राजेंद्र राजन की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति नें कहा कि –
‘राजेन्द्र राजन कविता की कबीरी परंपरा में हैं.वे किसी को भी नहीं छोड़ते हैं-विजेताओं और जनता को भी नहीं छोड़ते -स्वयं को भी नहीं.राजेंद्र राजन के यहाँ कविता आत्मा के रूप में बची हुई है .पेड़ नहीं बन पाने की पीड़ा या अहसास इन की काव्यालोचना को आत्मिक आधार देता है. उनका कवि उस मनुष्य से अलग नहीं है.वह सबसे जुड़ने की आकांक्षा का नाम है.कवि को अपने अंतर्वस्तु पर भरोसा है.. उसे भाषा-बद्धकर पाना उसकी चुनौती है.
राजेंद्र राजन की कविताएँ-
कविता : पेड़ : राजेन्द्र राजन
छुटपन में ऐसा होता था अक्सर
कि कोई टोके
कि फल के साथ ही तुमने खा लिया है बीज
इसलिए पेड़ उगेगा तुम्हारे भीतर
मेरे भीतर पेड़ उगा या नहीं
पता नहीं
क्योंकि मैंने किसी को कभी
न छाया दी न फल न वसंत की आहट
लेकिन आज जब मैंने
एक जवान पेड़ को कटते हुए देखा
तो मैंने सुनी अपने भीतर
एक हरी – भरी चीख
एक डरी – डरी चीख
मेरे भीतर से निकली
मेरी चीख लोगों ने सुनी या नहीं
पता नहीं
क्योंकि लोगों के भीतर
मैं पेड़ की तरह उगा नहीं
क्योंकि मैंने किसी को कभी
न छाया दी न फल न वसंत की आहट.
। । इतिहास पुरुष अब आयें। ।
काफ़ी दिनों से रोज़-रोज़ की बेचैनियां इकट्ठा हैं हमारे भीतर
सीने में धधक रही है भाप
आंखों में सुलग रही हैं चिनगारियां हड्डियों में छिपा है ज्वर
पैरों में घूम रहा है कोई विक्षिप्त वेग
चीज़ों को उलटने के लिये छटपटा रहे हैं हाथ
मगर हम नहीं जानते किधर जायें क्या करें
किस पर यकीन करें किस पर संदेह
किससे क्या कहें किसकी बांह गहें
किसके साथ चलें किसे आवाज़ लगाएं
हम नहीं जानते क्या है सार्थक क्या है व्यर्थ
कैसे लिखी जाती है आशाओं की लिपि
हम इतना भर जानते हैं
एक भट्ठी जैसा हो गया है समय
मगर इस आंच में हम क्या पकायें
ठीक यही वक्त है जब अपनी चौपड़ से उठ कर
इतिहास-पुरुष आयें
और अपनी खिचड़ी पका लें-
राजेन्द्र राजन .
संतोष कुमार ,फेसबुक परः
तुलसी पुस्तकालय भदैनी के हाल मे एकाकी पंखा अपनी गति से बल्ब की पीली रोशनी मे राजेन्द्र राजन के शब्दों को इतिहास से लेकर वर्तमान तक बिखेर रहा था। बमियान मे घायल बुद्ध से एक बुर्जग पख्तून से संवाद के बहाने वर्तमान की निर्ममता को उकेरते राजेन्द्र राजन बाजार मे बिकने के लिए विवश कबीर को हाल मे बैठे श्रोतागण के समक्ष दो-चार कर रहे थे । अफलातून ने सुधी श्रोताओ के लिए राजेन्द्र राजन की कविता का एकल पाठ और ज्ञानेन्द्रपति के सभापतित्व का सुनहरा अवसर दिया था । बहुत सारी त्रासदियां और उनके बीच से निकलती उम्मीद की किरणों को टटोलते कवि ने श्रोतागण को इस कदर बांधे रखा कि समय कम पड़ गया । प्रस्तुत है राजेन्द्र राजन की दो कविताएं-
विकास
कम हो रहीं है चिड़ियां
गुम हो रही है गिलहरियां
अब दिखती नही है तितलियां
लुप्त हो रही हैं जाने कितनी प्रजातियां
कम हो रहा है
धरती के घड़े म ेजल
पौधों मे रस
अन्न मे स्वाद
कम हो रही है फलो मे मिठास
फूलों मे खुशबू
शरीर मे सेहत
कम हो रहा है
जमीन मे उपजाऊपन
हवा मे आक्सीजन
सब कुछ कम हो रहा है
जो जरुरी है जीने के लिए
मगर चुप रहो
विकास हो रहा है इसलिए। राजेन्द्र राजन
पेंड़
छुटपन मे ऐसा होता था अक्सर
कि कोई टोके
कि फल के साथ ही तुमने खा लिया है बीज
इसलिए पेंड़ उगेगा तुम्हारे भीतर
मेरे भीतर पेड़ उगा या नहीं
पता नही
क्योंकि मैने किसी को कभी
न छाया दी न फल न वसंत की आहट
लेकिन आज जब मैने
एक जवान पेड़ को कटते हुए देखा
ते मैने सुनी अपने भीतर
एक हरी भरी चीख
मेरी चीख लोगो ने सुनी या नही
पता नही
क्योेंकि लोगो के भीतर
मैं पेड़ की तरह उगा नही
क्योंकि मैने किसी को कभी
न छाया दी न फल न वसंत की आहट ।
राजेन्द्र राजन