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पिछली प्रविष्टि से आगे : कभी – कभी आज के जमाने में भी , राम और कृष्ण की तसवीरें , हिन्दुस्तान के बड़े लोगों को समझते हुए , आपकी आँखों के सामने नाचा करती होंगी । न नाचती हों तो अब आगे से नाचेंगी । एक बार मेरे दोस्त ने कहा था , गाँधी जी के मरने पर , कि साबरमती या काठियावाड़ की नदियों का बालक जमुना के किनारे जलाया गया , और जमुना का बालक काठियावाड़ की नदियों के किनारे जलाया गया था । फ़ासला दोनों में हजारों बरस का है । काठियावाड़ की नदियों का बालक और जमुना नदी का बालक , दोनों में , शायद , इतना सम्बन्ध न दीख पाता होगा , मुझे भी भी नहीं दीखता था कुछ अरसे पहले तक , क्योंकि गाँधीजी ने खुद राम को याद किया और हमेशा याद किया ।जब कभी गाँधी जी ने किसी का नाम लिया , तो राम का लिया ।कृष्ण का नाम भी ले सकते थे । और शिव का नाम भी ले सकते थे वे । लेकिन नहीं । उन्हें एक मर्यादित तसवीर हिन्दुस्तान के सामने रखनी थी , एक ऐसी ताक़त जो अपने ऊपर नीति , धर्म या व्यवहार की रुकावटों को रखे – मर्यादा पुरुषोत्तम का प्रतीक ।
मैंने भी सोचा था , बहुत अरसे तक , कि शायद गाँधी जी के तरीके कुछ मर्यादा के अन्दर रह कर ही हुए । ज्यादातर यह बात सही भी है लेकिन पूरी सही भी नहीं है । और यह असर दिमाग पर तब पड़ता है , जब आप गाँधी जी के लेखों और भाषणों को एक साथ पढें । अंग्रेजों और जर्मनियों की लड़ाई के दौरान में हर हफ़्ते ‘हरिजन’ में उनके लेख या भाषण छपा करते थे । हर हफ़्ते उनकी जो बोली निकलती थी , उसमें इतनी ताक़त और इतना माधुर्य होता कि मुझ जैसे आदमी को भी समझ में नहीं आता था कि बोली शायद बदल रही है, हर हफ़्ते । बोली तो खैर हमेशा बदला करती है , लेकिन उसकी बुनियादें भी बदल गयी ,ऐसा लगता था कृष्ण अपनी बोली की बुनियाद बदल दिया करते थे राम नहीं बदलते थे । कुछ महीने पहले का किस्सा है कि एकाएक मैंने , लड़ाई के दिनों में गाँधी जी ने जो कुछ लिखा था हर हफ़्ते लगातार , उसमें से ६ महीनों की बातें एक साथ जब पढ़ीं , तब पता चला कि किस तरह बोली बदल जाती थी । जिस चीज़ को आज अहिन्सा कहा , उसीको २-३ महीने बाद हिंसा कह डाला , और उसका उलट , जिसे हिंसा कहा उसे अहिंसा कह डाला । वक़्ती तौर पर अपने संगठन के नीति – नियमों के मुताबिक जाने के लिए और अपने आदमियों को मदद पहुँचाने के लिए बुनियादी सिद्धान्तों के बारे में भी बदलाव करने के लिए वे तैयार रहते थे । यह किया उन्होंने लेकिन ज्यादा नहीं किया।
मैं यह नहीं कहना चाहूँगा कि गाँधी जी ने कृष्ण का काम बहुत ज़्यादा किया , लेकिन काफ़ी किया । इससे कहीं यह न समझना कि गाँधी जी मेरी नज़रों में गिर गये , कृष्ण मेरी नज़रों में कहाँ गिर गये ? ये तो ऐसी चीजें हैं जिनका सिर्फ़ सामना करना पड़ता है । गिरने – गिराने का तो कोई सवाल है नहीं । लेकिन यह कि आदमी को अपनी कसौटियाँ हमेशा पैनी और साफ़ रखनी चाहिए कि जिससे पता चल सके कि जिस किसी चीज को उसने आदर्श बनाया है या जिन सिद्धान्तों को अपनाया है , उन्हें वह सचमुच लागू किया करता है या नहीं । जैसे , साधनों की शुचिता या जिस तरह के मक़सद हों उसी तरह के तरीके हों , इस सिद्धान्त को गाँधी जी ने न सिर्फ़ अपनाया बल्कि बार – बार दुहराया । शायद को इसीको उन्होंने अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा मक़सद समझा कि अगर मक़सद अच्छे बनाने हैं तो तरीके भी अच्छे बनाने पडेंगे । लेकिन आपको याद होगा कि किस तरह बिहार के भूकम्प को अछूत-प्रथा का नतीजा बता कर उन्होंने एक अच्छा मक़सद हासिल करना चाहा था कि हिन्दुस्तान से अछूत – प्रथा ख़तम हो । बहुत बढ़िया मक़सद था , इसमें कोई शक नहीं । उन दिनों जब रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गाँधी में बहस हुई थी , तो मुझे एकाएक लगा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर क्यों यह तीन – पाँच कर रहे हैं ।आखिर गाँधीजी कितना बड़ा मक़सद हासिल कर रहे हैं । जाति – प्रथा मिटाना , हरिजन और अछूत-प्रथा मिटाना , इससे बड़ा और क्या मक़सद हो सकता है । लेकिन उस मक़सद को हासिल करने के लिए कितनी बड़ी झूठ बोल गये कि बिहार का भूकम्प हुआ इसलिए कि हिन्दुस्तानी लोग आपस में अछूत-प्रथा चलाते हैं । भला भूकम्प और तारे और आसमान , पानी और सूरज वगैरह को भी इससे क्या पड़ा है कि हिन्दुस्तान में अछूत-प्रथा चलती है या नहीं ।
मैं इस समय बुनियादी तौर से राम और कृष्ण के बीच के इस फ़र्क को सामने रखना चाहता हूँ कि एक तो मर्यादा पुरुषोत्तम है , एक की ताक़तों के ऊपर रोक है , और दूसरा बिना रोक का , स्वयंभू है । यह सही है कि वह राग से परे है , राग से परे रह कर सब कुछ कर सकता है और उसके लिए नियम और उपनियम नहीं ।
शिव एक निराली अदा वाला है । दुनिया भर में ऐसी कोई किंवदन्ती नहीं जिसकी न लम्बाई है , न चौड़ाई है और न मोटाई । एक फ्रांसीसी लेखक ने ने शिव के के बारे में एक बार कहा था कि वह तो ‘ नॉन डाईमेंशनल मिथ ‘ है , ( अंग्रेजी शब्द है ,फ्रांसीसी नहीं यानी ऐसी किंवदन्ती जिसकी कोई सीमा नहीं है , जिसकी कोइ हदें नहीं हैं – न लम्बाई , न चौड़ाई , न मोटाई ।) किंवदन्तियाँ दुनिया में और जगह भी हैं , खास तौर से पुराने मुल्कों में , जैसे ग्रीस आदि में बहुत हैं । कहाँ नहीं हैं ? बिना किंवदन्तियों के कोई देश रहा ही नहीं , और जितने पुराने देश हैं उनमें किंवदन्तियाँ ज्यादा हैं ।मैंने शुरु में कहा था कि एक तरफ ‘ हितोपदेश ‘ और ‘ पंचतंत्र ‘ की गंगदत्त और प्रियदर्शन जैसी बच्चों की कहानियाँ हैं, तो दूसरी तरफ , हजारों बरस के काम के नतीजे के स्वरूप कुछ लोगों में कौम की हँसी और सपने भरे हुए हैं , ऐसी किंवदन्तियाँ हैं ।
शिव ही एक ऐसी किंवदन्ती है जिसका न आगा है न पीछा । यहाँ तक कि वह किस्सा मशहूर है कि जब ब्रह्मा और विष्णु आपस में लड़ गये – ये देवी – देवता खूब लड़ा करते हैं , कभी-कभी आपस में – तो शिव ने उनसे कहा लड़ो मत । जाओ , तुममें से एक मेरे सिर का पता लगाए और दूसरा मेरे पैर का पता लगाए और फिर लौट कर आ कर मुझसे कहो ! जो पहले पता लगा लेगा , उसकी जीत हो जाएगी । दोनों पता लगाने निकले । शायद अब तक पता लगा रहे हों ! जो ऐसे किस्से कहानियाँ गढ़ा करते हैं , उनके लिए वक़्त का कोई मतलब नहीं रहता । उसके लिए १ मिनट के मानी १ करोड़ बरस । कोई हिसाब और गणित वगैरह क सवाल नहीं उठता उनके सामने । खैर , किस्सा यह है कि बहुत अरसे के बाद , न जाने कितने लाखों बरसों के बाद ब्रह्मा और विष्णु दोनों लौट कर आये और शिव से बोले कि भई , पता तो नहीं लगा । तब उन्होंने कहा कि फिर क्यों लड़ते हो ? फ़िजूल है ।
यह असीमित किंवदन्ती है । इसके बारे में , बार – बार मेरे दिमाग में एक ख़याल उठ आता है कि दुनिया में जितने भी लोग हैं , चाहे ऐतिहासिक और चाहे किंवदन्ती के , उन सबके कर्मों को समझने के लिए कर्म और फल , कारण और फल देखना पड़ता है । उनके जीवन में ऐसी घटनाएँ हैं कि जिन्हें एकाएक नहीं समझा जा सकता । वे अजीब-सी मालूम पड़ती हैं । उन घटनाओं को समझने के लिए पहले का कारण ढूँढ़ना पड़ता है और बाद का फल ढूँढ़ना पड़ता है । तब जा करके वे सही मालूम पड़ती हैं । आप भी अपनी आपस की घटनाओं को सोच लेना । आपके आपस में रिश्ते होंगे – बड़े लोगों से मतलब यह नहीं कि आप छोटे लोग हैं , बड़े लोगों के मानी सिर्फ़ यह हैं कि जिनका नाम हो जाया करता है , और कोई मतलब नहीं है , चाहे वे बदमाश ही लोग क्यों न हों , और आमतौर से , बदमाश लोगों का ही नाम हुआ करता है । ख़ैर , बड़े लोग हों , छोटे लोग हों,कोई हों ,उनके आपसी रिश्ते होते हैं । उन आपसी रिश्तों के प्रकाश की एक श्रृंखला होती है – एक कड़ी के बाद एक कड़ी,एक कड़ी के बाद एक कड़ी ।अगर कोई चाहे कि उनमें से एक ही कड़ी को पकड़ कर पता लगाये कि आदमी अच्छा है या बुरा , तो ग़लती कर जायेगा , क्योंकि क्योंकि उस कड़ी के पहले वाली कड़ी कारण के रूप में है और उसके बाद वाली कड़ी फल के रूप में है । क्यों किया ? कई बार ऐसे काम मालूम होते हैं जो बज़ाते खुद बुरे हैं , गंदे हैं या झूठे हैं ।उदाहरण , मैंने कृष्ण के के लिए कहा । वह सबके लिए हैं । लेकिन वह काम क्यों हुआ , उसका कारण क्या था और उसको करने के बाद परिणाम क्या निकला , वह सब देखना पड़ता है ।कारण और परिणाम देखना , हर आदमी और हर किस्से और सीमित किंवदन्ती को समझने के लिए जरूरी होता है ।
शिव ही एक ऐसी किंवदन्ती है जिसका हरेक काम,बजाते,खुद,अपने औचित्य को अपने-आप में रखता है । कोई भी काम आप शिव का ढूँढ़ लो, वह उचित काम होगा ।उनके लिए पहले की कोई कड़ी नहीं ढूँढ़नी पड़ेगी और न बाद की कोई कड़ी ।क्यों शिव ने ऐसा किया , उसका क्या नतीजा निकला , यह सब देखने की कोई जरूरत नहीं होगी । औरों के लिए इसकी जरूरत पड़ जाएगी । राम के लिए जरूरत पड़ेगी , कृष्ण के लिए जरूरत पड़ेगी,दुनिया में हरेक आदमी के लिए इसकी जरूरत पड़ेगी,और जो दुनिया भर के किस्से हैं उनके लिए जरूरत पड़ेगी । क्यों उसने ऐसा किया ? पहले की बात याद करनी होगी कि क्या बात हुई,क्या कारण था,किस लिए उसका यह काम हुआ और फिर उसके क्या नतीजे निकले। हमेशा दूसरे लोगों के बारे में कर्म और फल की एक पूरी कड़ी बँधती है। लेकिन मुझे तो,ढूँढ़ने पर भी,शिव का ऐसा कोई काम नहीं मालूम पड़ा कि मैं कह सकूँ कि उन्होंने क्यों ऐसा किया , उसका कारण क्या था , ढूँढ़ो,बाद में उसका क्या परिणाम निकला । यह चीज़ बहुत बड़ी है ।
आज की दुनिया में प्राय: सभी लोग अपने मौजूदा तरीके को , गंदे कामों को उचित बताते हैं,यह कह कर कि आगे चल कर उसके परिणाम अच्छे निकलेंगे । वे एक कड़ी बाँधते हैं ।आज चाहे वे गंदे काम हों, लेकिन हमेशा उसकी कड़ी जोड़ेंगे कि भविष्य में कुछ ऐसे नतीजे उसके निकलेंगे कि वह काम अच्छे हो जाएँगे । कारण और फल की खुद ऐसी श्रृंखला अपने दिमाग में बाँधते हैं,और दुनिया के दिमाग में बाँधते हैं कि किसी भी काम के लिए कोई कसौटी नहीं बना सकती मानवता ।आखिर कसौटियाँ होनी चाहिए । काम अच्छा है या बुरा,इसका कैसे पता लगाएँगे ।कोई कसौटी होनी ही चाहिए ।अगर एक बाद एक कड़ी बाँध देते हो तो कोई कसौटी नहीं रह जाती । फिर तो मनमानी होने लग जाती है ,क्योंकि जितनी लम्बी जंजीर हो जायेगी, उतना ही ज्यादा मौका मिलेगा लोगों को अपनी मनमानी बात उसके अन्दर रखने का । ऐसा दर्शन बनाओ,ऐसा सिद्धान्त बनाओ कि जिसमें मौजूदा घतनाओं को जोद़्अ दिया जाये किसी बद़्ई, दूर भविष्य की घटना से,तो फिर, मौजूदा घटनाओं में कितना ही गंदापन रहे, लेकिन उस दूर के भविष्य की घटना , जो होने वाली है,जिसके बारे में कोई कसौटी नहीं बन सकती कि वह होगी या नहीं होगी इसके बारे में बहुत हद तक आदमी को मान कर चलना पड़ता है कि वह शायद होगी,उसको ले कर मौजूदा घटनाओं का औचित्य या अनौचित्य ढूँढ़ा जाता है । और यह हमेशा हुआ है।मैं यहाँ मौजूदा दुनिया के किस्से तो बताऊँगा नहीं,लेकिन इतना आपसे कह दूँ कि प्राय:,यह जरा अति बोली है,लेकिन प्राय: हरेक राजनीति की,समाज की,अर्थशास्त्र की घटना ऐसी ही है कि जिसका औचित्य या तो कोई पुरानी बड़ी या कोई आगे आने वाली किसी जंजीर के सथ बाँध दिया जाता है ।
यहाँ मैं सिर्फ कृष्ण का ही किस्सा बता देता हूँ कि अश्वत्थामा के बारे में धीमे बोलना या ज़ोर से बोलने के औचित्य और अनौचित्य को,कौरव-पांडव की लड़ाई से बहुत पुराना किस्सा,बहुत आगे आने वाली घटना के साथ जोड़ दिया जाता है। यह बुरा खुद काम है,मान कर चलना पड़ता है । लेकिन उस बुरे काम का ऐसा चित्य साबित हो जाता है पुराने कारन से और भविष्य में आने वाले परिणाम से। आप शिव का ऐसा कोई किस्सा नहीं पाओगे । शिव का हरेक किस्सा अपने-आप उचित है।उसीके अन्दर सब कारण और सब फल भरे हुए हैं,जिससे मालूम पड़ता है कि वह सही है,ठीक है,उसमें कोई ग़लती हो नहीं सकती ।
मुझे शिव के किस्से यहाँ नहीं सुनाने हैं । मशहूर तो बहुत हैं । शायद पार्वती को अपने कंधे पर लादे फिरने वाला किस्सा,इतनी तफ़सील में कि पार्वती के शरीर का कौन-सा अंग कहाँ गिरा और कौन-सा मन्दिर कहाँ बना,सबको मालूम है। गौतम बुद्ध और अशोक के बारे में या अकबर के बारे में ऐसे किस्से नहीं मशहूर हैं । शिव के वे सब किस्से बहुत मशहूर हैं और अच्छी तरह से लोगों को मालूम हैं । अगर नहीं मालूम हों तो जरा ये किस्सा सुन लिया करो,अभी आपकी दादी जिन्दा होती तो उससे। दादी जिन्दा न हो तो नानी जिन्दा होगी,कोई न कोई होंगी,और अगर वह भी न हो,तो अपनी बीबी से सुन लिया करो ।
शिव का कोई भी किस्सा अपने आप उचित है । ऐसा लगता है कि जैसे किसी आदमी की जिन्दगी में चाहें हजारों घटनाएँ हुई हों और उनमें से एक – एक घटना खुद एक जिन्दगी है । उसके लिए पहले की दूसरी घटना और आगे की दूसरी घटना की कोई जरूरत नहीं रहती । शिव बिना सीमा की किंवदन्ती हैं और बहुत से मामलों में छाती को बहुत चौड़ा करने वाली , और उसके साथ-साथ आदमी को एक उँगली की तरह रास्ता दिखाने वाली कि जहाँ तक बन पड़े , तुम अपने हरेक काम को बिना पहले के कारण और बिना आगे के फल को देखे हुए भी उचित बनाओ ।
हो सकता है , राम और कृष्ण और शिव , इन तीनों को लेकर कइयों के दिमाग में अलगाव की बातें भी उठती हों। मैं आपके सामने अभी एक विचार रख रहा हूँ । जरूरी नहीं है कि इसको आप मान ही लें । हरेक चीज को मान लेने से ही दिमाग नहीं बढ़ा करता। उसको सुनना, उसको समझने की कोशिश करना और फिर उसको छोड़ देने से भी कई दफ़े , दिमाग आगे बढ़ा करता है ।मैं खुद भी इस बात को पूरी तरह से अपनाता हूँ सो नहीं । एकाएक एक बार मैंने जब १९५१-५२ के आम चुनावों के नतीजे पर सोचना शुरु किया तो मेरे दिमाग में एक अजीब-सी बात आई । आपको याद होगा कि १९५१-५२ में हिन्दुस्तान में आम चुनावों में एक ऐसा इलाका ऐसा था कि जहाँ कम्युनिस्ट जीते थे , दूसरा इलाका ऐसा था जहाँ सोशलिस्ट जीते थे,तीसरा इलाका ऐसा था जहाँ धर्म के नाम पर कोई न कोइ संस्था जीती थी । यों,सब जगह कांग्रेस जीती थी और सरकार उसीकी रही। मैं इस वक्त सबसे ब्ड़ी पार्टी की बात नहीं कर रहा हूँ- नम्बर दो पार्टी की बात कर रहा हूँ । सारे दे्श में नम्बर १ पार्टी तो कांग्रेस पार्टी रही लेकिन हिन्दुस्तान के इलाके कुछ ऐसे साफ-से थे जहाँ पर ये तीनों पार्टियाँ जीतीं,अलग -अलग, यानी कहीं पर कम्युनिस्ट नम्बर २ पर रहे,कहीं पर सोशलिस्ट नम्बर २ पर रहे और कहीं पर ये जनसंघ,रामराज्य परिषद वगैरह मिल-मिला कर इन सबको तो एक ही समझना चाहिए- नम्बर २ रहे। मैं यह नहीं कहता कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह सही है । मुमकिन है,इसके ऊपर अगर हिन्दुस्तान के कॉलेज और विश्वविद्यालय जरा दिमाग कुछ चौड़ा करके देखते- कुछ तफ़रीही दिमाग से क्योंकि तफ़रीह में भी चीजें की जाती हैं,चाहे वे सही निकलें,न निकलें- तो हिन्दुस्तान के नक्शे के ३ हिस्से बनाते । एक नक्शा वह , जहाँ राम सबसे ज्यादा चला हुआ है , दूसरा वह, जहाँ कृष्ण सबसे ज्यादा चला हुआ है,तीसरा वह,जहाँ शिव सबसे ज्याद चला हुआ है। मैं जब राम,कृष्ण , और शिव कहता हूँ तो जाहिर है,उनकी बीबियों को शामिल कर लेता हूँ । उनके नौकरों को भी शामिल कर लेना चाहिए, क्योंकि ऐसे इलाके हैं जहाँ हनुमान चलता है जिसके साफ़ मानी हैं कि वहाँ राम चलता है,ऐसे इलाके हैं जहाँ काली और दुर्गा चलती हैं,इसके साफ़ मानी हैं कि वहाँ शिव चलता है । हिन्दुस्तान के इलाके हैं जहाँ पर इन तीनों ने अपना-अपना दिमागी साम्राज्य बना रखा है । दिमागी साम्राज्य भी रहा करता है, विचारों का, किंवदन्तियों का ।
मोटी तौर पर शिव का इलाका वह इलाका था जहाँ कम्युनिस्ट नम्बर २ हुए थे , मोटी तौर पर । उसी तरह ,कृष्ण का इलाका वह था जहाँ संघ और रामराज्य परिषद वाले नम्बर २ हुए थे । मोटी तौर पर राम का इलाका वह था जहाँ सोशलिस्ट नमबर २ हुए थे । मैं मानता हूँ कि मैं खुद चाहूँ तो इस विचार को एक मिनट में तोड़ सकता हूँ,क्योंकि ऐसे बहुत से इलाके मिलेंगे जो जरा दुविधा के रहते हैं। किसी बड़े खयाल को तोड़ने के लिए छोटे-छोटे अपवाद निकाल देना कौन बड़ी बात है । खैर,मोटी तौर पर मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान की किंवदन्तियों के इन तीन साम्राज्यों के मुताबिक ही हिन्दुस्तान की जनता ने अपनी विरोधी शक्तियों को चुनने की कोशिश की । आप कह सकते हैं अभी तो तुमने शिव की बड़ी तारीफ़ की थी। तुम्हारा यह शिव कैसा निकला। जहाँ पर शिव की किंवदन्ती का साम्राज्य है, वहाँ तो कम्युनिस्ट जीत गये। तो,फिर,मुझे यह भी कहना पड़ता है कि जरूरी नहीं कि इन किं किंवदन्तियों के अच्छे ही असर पड़ते हैं,सब तरह के असर पड़ सकते हैं ।
शिव अगर नीलकंठ हैं और दुनिया के लिए अकेले जहर को अपने गले में बाँध सकते हैं,तो उसके साथ-साथ धतुरा खाने और पीने वाले भी हैं। शिव की दोनों तसवीरें साथ-साथ जुड़ी हुई हैं। मान लो , थोड़ी देर के लिए,, वे धतूरा न भी खाते रहे हों,फिर से बता दूँ कि ये सवाल सच्चाई और झुठाई के नहीं हैं । यह तो सिर्फ किसी आदमी के दिमाग का एक नक्शा है । हिन्दुस्तान में करोड़ों लोग समझते हैं कि शिव धतूरा पीते हैं,शिव की पलटन में लूले-लँगड़े हैं, उसमें तो जानवर भी हैं,भूत-प्रेत भी हैं,और सब तरह की बातें जुड़ी हुई हैं। लूले-लँगड़े,भूखे के मानी क्या हुए? गरीबों का आदमी ।
शिव का वह किस्सा भी आपको याद होगा कि शिव ने सती को मना किया था कि देखो, तुम अपने बाप के यहाँ मत जाओ,क्योंकि उसने तुमको बुलाया नहीं ।बहुत बढ़िया किस्सा है यह ।शिव ने कहा था जहाँ पर विरोध हो गया हो वहाँ बिन बुलाये मत आओ,उसमें कल्याण नहीं हुआ करता है ।पर फिर भी सती गयी ।यह सही है कि उसके बाद शिव ने अपना, वक्ती तौर पर- जैसा मैंने कहा , वह काम खुद अपने-आप में उचित है- बहुत जबरदस्त गुस्सा दिखाया था । और उसकी पलटन कैसी थी । धगधज्जलल्ल्लाट पट्टपावके किशोर चन्द्रशेखरे…. शिव की जो तसवीरें अक्सर आँख के सामने आती हैं वह किस तरह की हैं । जटा में चन्द्रमा है,लेकिन लपटें ज्वाला की निकल रही हैं, धद्धगद हो रहा है । सब तरह की, एक बिना सीमा की किंवदन्ती सामने खड़ी हो जाती है- शक्ति की,फैलाव की,सब तरह के लोगों को साथ समेटने की ।
(जारी)
मैं तो लोहिया के लेखन का पुराना प्रशंसक हूं . लगभग ‘पंखा’ किसम का . मैं देखना चाहता हूं कि और चिट्ठाकार उन्हें किस तरह ग्रहण करते हैं . पर आप हैं कि पुराने शास्त्रीय ढर्रे के शीर्षक देकर चिट्ठाकारों को आने से बिदका देते हैं. हम दोनों को ही शीर्षक लगाने की ट्रेनिंग कुछ दिन अविनाश से लेनी पड़ेगी . तब लोग दौड़े आएंगे. वरना देखिए लोहिया का लेखन और यह सुनसान . और वहां देखिए मोहल्ला पर कोई चिरकुट भी लिख देता है तो ब्लॉग मारे उत्तेजना और आवाजाही के हावड़ा स्टेशन का प्लेटफ़ॉर्म हो जाता है .
लोहिया जी की विचार-शैली का यह नमूना बहुत ही अच्छा लगा। और भी लिखियेगा…
मुझे हैरानी है कि लोहिया साला इतना घटिया लेख लिखता रहा और आप जैसे चूतिए छाप रहे हैं।
राज
लोहिया घटिया नहीं थे, पाखंडी थे। लेकिन उनके लेख आज की तारीख में प्रासंगिक एकदम नहीं हैं। लेकिन लोहिया अकेले पाखंडी नहीं थे, उस समय का दौर यही था।
प्रसून
अगर लोहिया पाखंडी थे तो आप पाखंडियों के सम्राट हैं. जरा लोहिया को फिर से पढो.
आज लोहिया जी के बारे में नेट पर खोजा तो आपके लेख के लिंक मिले। सो यहाँ पहुँच गई। आज समझ आया कि ऐसा लेखन ही दीर्घकालिक है जो सदा प्रासंगिक रहेगा व सदा लोगों को आपके ब्लॉग पर लाता रहेगा। इस लेख के लिए धन्यवाद।
घुघूती बासूती
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लोहिया पर लिखने के लिए बधाई । मैने अभी स्वयं अपनी पत्रिका ए जर्नल आफ सोशल फोकस में लोहिया स्मरण के नाम से अंक को निकाला है आैर आगे एक पुस्तक के रूप में निकालने की योजना है कृपया सम्पर्क कर अनुग्रहीत करें ।
आलोक कुमार यादव
संपादक
ए जर्नल आफ सोशल फोकस
मो0 08057144394 , 09410268039