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Posts Tagged ‘hindi poems’

यूनिफार्म

एक-सी वर्दी पहने हुए
सड़क पर मार्च करती भीड़ के लोगों से
मुझे डर लगता है।
चाहे वह केसरिया वाले साधु हों
चाहे आर्मी के जवान
चाहे श्‍वेत साड़ी वाली बहनें
चाहे ईद पर जा रहे नमाजी
या फिर खादी वाले गांधीवादी।
न जाने कब जुनून सवार हो जाए
औरों की शामत आ जाए।

यूनिफार्म व्‍यक्तित्‍व का हनन है
और इंसान की नुमाईश
बस यह स्‍कूली बच्‍चों के लोक नृत्‍य में ही अच्‍छी लगती है।
अभी रंग-बिरंगे गंदे और मटमैले कपड़े वाले
लोग दिखे हैं
जो रिक्‍शे चला रहे हैं
जो चाय बना रहे हैं
और गुब्‍बारे बेच रहे हैं
तभी तो हौंसला बना है मुझमें
भीड़ की विपरीत दिशा में चलने का।

अबे मुन्‍ना !

छीलते रहो तुम घास खुरपी से
ताकि हमारे लॉन सुंदर बने रहें
देते रहो सब्जियों में पानी

ताकि हम उनका स्‍वाद उठा सकें
फूल उगाते रहो तुम
ताकि हम ” फ्लावर शो ” में इनाम पा सकें,
छत पर चढ़ जाया करो तुम
जब बच्‍चे हमारे क्रिकेट खेलें
ताकि गेंद वापिस लाने में देर न लगे,
हम गोल्‍फ की डंडी घुमायेंगे चहलकदमी में
गेंद उठाने तुम दौड़ते हुए जाना
तभी तो हमारी बिटिया रानी ‘ सानिया ‘ बनेगी
तुम बाल-ब्‍वाय की प्रेक्टिस करो।
ढोते रहो तुम फाइलों का बोझा सिर पर
हुसैनपुर से तिलक‍ब्रिज तक
और तिलकब्रिज से हुसैनपुर तक

ताकि हम उन पर चिडिया-बैठाते रहे
और काटते छॉंटते रहें अपनी ही लिखावट
और रेल उड़ाते रहे आकाश में।
तुम्‍हें नौकरी हमने दी है
हम तुम्‍हारे मालिक हैं
हम अपने भी मालिक हैं

तुम तो भोग रहे हो अपने कर्म
हमें तो राज करने का वर्सा मिला है
गुलामी तुम्‍हारा जन्‍म-सिद्ध फर्ज है
और अफसरी हमारा स्‍थायी हक ।

मुन्‍ना भाई-

लगे रहो
तुम हो गांधी की जमात के गंवार स्‍वदेशी
हम बढ़ते जायेंगे आगे-

नेहरू की जमात के शहरी अंग्रेज
तुम चुपचाप खाना बनाते रहो
परोसते रहो
डॉंट खाते रहो।

प्रार्थना

मन हो जिसका सच्चा

विश्‍वास हो जिसका पक्का

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता।

1. खुद भूखा रहकर भी जो

औरों की भूख मिटाता

हृदय – सागर उसका

कभी न खाली होता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

2. अर्न्तवाणी सुनकर जो

काज प्रभु का करता

मुक्त रहे चिंता से

शांत सदा वो रहता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

3.              जीवन रहते ही जो

मौत का अनुभव करता

संसार में रहकर भी

संसार से दूरी रखता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

4.              अन्याय कहीं भी हो

कैसा भी हो किसी का

खुद का दाँव लगाकर

हिम्मत से जो लड़ता

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।

5.              दु:ख और सुख में जो दिल

ध्यान प्रभु का रखता

दूर रहे दुविधा से

नहीं व्यापत उसमें जड़ता।

ईश्वर उसके साथ ही होता

हर पल उसके साथ ही होता ।
समर्पण

सौंप दो प्यारे प्रभु को

सब सरल हो जाएगा

जीना सहज हो जाएगा

मरना सफल हो जायेगा।

1. जिन्दगी की राह में

ऑंधियां तो आयेंगी

उसकी ही रहमत से

हमको हौसला मिल पायेगा।

2.              सोचता है हर कोई

अपने मन की बात हो

होगा जो मंजूर उसको

वक्त पर हो जाएगा।

3. मोड़ ले संसार वाले

नजरें तुमसे जिस घडी

हो यकीं तो आसरा

उसका तुम्हें मिल जाएगा।

4. माँगने से मिलता है

केवल वही जो माँगा था

कुछ न माँगो तो

खुदा खुद ही तुम्हें मिल जाएगा।

5. काटोगे फसलें वही

जैसी तुमने बोयी थी

कर्मो का चक्कर है

इससे कोई न बच पायेगा।

हमारे जमाने में यह होता था

केवल बूढ़ों की बातें ही नहीं

न ही अफसाने – किस्से

ये हो सकते हैं-

कभी चिडियों की चूँ-चूँ से हम जगते थे।

कभी बिना रूमाल मुँह पर रखे हम सांस ले सकते थे।

कभी सूरज बादलों की धुंध के पीछे नहीं छुपता था।

कभी पेड़ पर हरे पत्तो की छाया होती थी।

हाँ कभी –

हमारे जमाने की वो बात है

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जल्दी में

प्रियजन

मैं बहुत जल्दी में लिख रहा हूं

क्योंकि मैं बहुत जल्दी में हूं लिखने की

जिसे आप भी अगर

समझने की उतनी ही बड़ी जल्दी में नहीं हैं

तो जल्दी समझ नहीं पायेंगे

कि मैं क्यों जल्दी में हूं ।

जल्दी का जमाना है

सब जल्दी में हैं

कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में

तो कोई कहीं लौटने की …

हर बड़ी जल्दी को

और बड़ी जल्दी में बदलने की

लाखों जल्दबाज मशीनों का

हम रोज आविष्कार कर रहे हैं

ताकि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई

हमारी जल्दियां हमें जल्दी से जल्दी

किसी ऐसी जगह पर पहुंचा दें

जहां हम हर घड़ी

जल्दी से जल्दी पहुंचने की जल्दी में हैं ।

मगर….कहां ?

यह सवाल हमें चौंकाता है

यह अचानक सवाल इस जल्दी के जमाने में

हमें पुराने जमाने की याद दिलाता है ।

किसी जल्दबाज आदमी की सोचिए

जब वह बहुत तेजी से चला जा रहा हो

-एक व्यापार की तरह-

उसे बीच में ही रोक कर पूछिए,

‘क्या होगा अगर तुम

रोक दिये गये इसी तरह

बीच ही में एक दिन

अचानक….?’

वह रुकना नहीं चाहेगा

इस अचानक बाधा पर उसकी झुंझलाहट

आपको चकित कर देगी ।

उसे जब भी धैर्य से सोचने पर बाध्य किया जायेगा

वह अधैर्य से बड़बड़ायेगा ।

‘अचानक’ को ‘जल्दी’ का दुश्मान मान

रोके जाने से घबड़ायेगा । यद्यपि

आपको आश्चर्य होगा

कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ

उसके पास कोई तैयारी नहीं….

क्या वह नहीं होगा

क्या फिर वही होगा
जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?

क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?

क्या वे खरीद ले जायेंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?

क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जायेंगे हमारा सोना
हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?

और हम क्या इसी तरह
पीढी-दर-पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?

अजीब वक्त है

अजीब वक्त है –

बिना लड़े ही एक देश-का देश

स्वीकार करता चला जाता

अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता !

कुछ तो फर्क बचता

धर्मयुद्ध और कीटयुद्ध में –

कोई तो हार जीत के नियमों में

स्वाभिमान के अर्थ को

फिर से ईजाद करता ।

– कुंवर नारायण

[ वरिष्ट कवि कुंवर नारायण की राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘कोई दूसरा नहीं’ तथा ‘सामयिक वार्ता’ (अगस्त-सितंबर १९९३) से साभार ]

अयोध्या , १९९२

हे राम ,

जीवन एक कटु यथार्थ है

और तुम एक महाकव्य !

तुम्हारे बस की नहीं

उस अविवेक पर विजय

जिसके दस बीस नहीं

अब लाखों सिर – लाखों हाथ हैं

और विवेक भी अब

न जाने किसके साथ है ।

इससे बड़ा क्या हो सकता है

हमारा दुर्भाग्य

एक विवादित स्थल में सिमट कर

रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं

योद्धाओं की लंका है ,

‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं

चुनाव का डंका है !

हे राम , कहाँ यह समय

कहाँ तुम्हारा त्रेता युग ,

कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम

और कहाँ यह नेता – युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ

किसी पुराण – किसी धर्मग्रंथ में

सकुशल सपत्नीक….

अब के जंगल वो जंगल नहीं

जिनमें घूमा करते थे बाल्मीक !

– कुँवरनारायण

( फरवरी ,१९९३ में राजेन्द्र राजन द्वार सम्पादित तथा समकालीन सहित्य मंच , वाराणसी द्वारा प्रकाशित ’उन्माद के खिलाफ’ से )

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रुको

कविता रुको
समाज, सामाजिकता रुको
रुको जन, रुको मन।

रुको सोच
सौंदर्य रुको
ठीक इस क्षण इस पल
इस वक्त उठना है
हाथ में लेना है झाड़ू
करनी है सफाई
दराजों की दीवारों की
रसोई गुसल आँगन की
दरवाजों की

कथन रुको
विवेचन रुको
कविता से जीवन बेहतर
जीना ही कविता
फतवों रुको हुंकारों रुको।

इस क्षण
धोने हैं बर्त्तन
उफ्, शीतल जल,
नहीं ठंडा पानी कहो
कहो हताशा तकलीफ
वक्त गुजरना
थकान बोरियत कहो
रुको प्रयोग
प्रयोगवादिता रुको

इस वक्त
ठीक इस वक्त
बनना है
आदमी जैसा आदमी।
(इतवारी पत्रिकाः ३ मार्च १९९७)
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स्केच

एक इंसान रो रहा है

औरत है

लेटर बाक्स पर

दोनों हाथों पर सिर टिकाए

बिलख रही है

टेढ़ी काया की निचली ओर

दिखता है स्तनों का उभार

औरत है

औरत है

दिखता है स्तनों का उभार

टेढ़ी काया की निचली ओर

बिलख रही है

दोनों हाथों पर सिर टिकाए

लेटर बाक्स पर

औरत है

एक इंसान रो रहा है

(पश्यंती १९९५)
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खबर

जाड़े की शाम

कमरा ठंडा   ठ  न्  डा

इस वक्त यही खबर है

– हालाँकि समाचार का टाइम हो गया है

कुछेक खबरें पढ़ी जा चुकी हैं

और नीली आँखों वाली ऐश्वर्य का ब्रेक हुआ है
है खबर अँधेरे की भी

काँच के पार जो और भी ठंडा

थोड़ी देर पहले अँधेरे से लौटा हूँ

डर के साथ छोड़ आया उसे दरवाजे पर
यहाँ खबर प्रकाश की जिसमें शून्य है

जिसमें हैं चिंताएं, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ

अकेलेपन का कायर सुख
और बेचैनी……..

……..इसी वक्त प्यार की खबर सुनने की

सुनने की खबर साँस, प्यास और आस की
कितनी देर से हम अपनी

खबर सुनने को बेचैन हैं।
(इतवारी पत्रिका – ३ मार्च १९९७)
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बकवास

कुछ पन्ने बकवास के लिए होते हैं

जो कुछ भी उन पर लिखा बकवास है
वैसे कुछ भी लिखा बकवास हो सकता है

बकवास करते हुए आदमी

बकवास पर सोच रहा हो सकता है

क्या पाकिस्तान में जो हो रहा है

वह बकवास है

हिंदुस्तान में क्या उससे कम बकवास है
क्या यह बकवास है

कि मैं बीच मैदान हिंदुस्तान और पाकिस्तान की

धोतियाँ खोलना चाहता हूँ
निहायत ही अगंभीर मुद्रा में

मेरा गंभीर मित्र हँस कर कहता है

सब बकवास है
बकवास ही सही

मुझे लिखना है कि

लोगों ने बहुत बकवास सुना है
युद्ध सरदारों ध्यान से सुनो

हम लोगों ने बहुत बकवास सुना है
और यह बकवास नहीं कि

हम और बकवास नहीं सुनेंगे।
(पश्यंतीः अक्तूबर-दिसंबर २०००)
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दिखना

आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं?

अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो?

बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में

कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?
कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है

जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है

बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है

इंसान खाते हुए दिखता है

आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ

वैसे आदम किस को दिखता है !
देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है

मुझे कहना है दिखने के बारे में

यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं

जब आप सबसे कम दिख रहे हों।

–पहल-७६ (२००४)
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एक और रात

दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है

उसे रातें गुजारने की आदत हो गई है
रात की मक्खियाँ रात की धूल

नाक कान में से घुस जिस्म की सैर करती हैं
पास से गुजरते अनजान पथिक

सदियों से उनके पैरों की आवाज गूँजती है

मस्तिष्क की शिराओं में।
उससे भी पहले जब रातें बनीं थीं

गूँजती होंगीं ये आवाजें।

उससे भी पहले से आदत पड़ी होगी

भूखी रातों की।
(पश्यंतीः – अक्तूबर-दिसंबर २०००; पाठ २००९)
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सखीकथा

हर रोज बतियाती सलोनी सखी

हर रोज समझाती दीवानी सखी

गीतों में मनके पिरोती सखी

सपनों में पलकें भिगोती सखी

नाचती है गाती इठलाती सखी

सुबह सुबह आग में जल जाती सखी
पानी की आग है

या तेल की है आग

झुलसी है चमड़ी

या फंदा या झाग
देखती हूँ आइने में खड़ी है सखी

सखी बन जाऊँ तो पूरी है सखी
न बतियाना समझाना, न मनके पिरोना

न गाना, इठलाना, न पलकें भिगोना
सखी मेरी सखी हाड़ मास मूर्त्त

निगल गई दुनिया

निष्ठुर और धूर्त्त।

(पश्यंती; अप्रैल-जून २००१)
———————– लाल्टू .

लाल्टू की अभिव्यक्ति

लाल्टू की अभिव्यक्ति


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दिल्ली

कच्चे रंगों में नफ़ीस

चित्रकारी की हुई , कागज की एक डिबिया

जिसमें नकली हीरे की अंगूठी

असली दामों के कैश्मेम्प में लिपटी हुई रखी है ।

लखनऊ

श्रृंगारदान में पड़ी

एक पुरानी खाली इत्र की शीशी

जिसमें अब महज उसकी कार्क पड़ी सड़ रही है ।

बनारस

बहुत पुराने तागे में बंधी एक ताबीज़ ,

जो एक तरफ़ से खोलकर

भांग रखने की डिबिया बना ली गयी है ।

इलाहाबाद

एक छूछी गंगाजली

जो दिन-भर दोस्तों के नाम पर

और रात में कला के नाम पर

उठायी जाती है ।

बस्ती

गांव के मेले में किसी

पनवाड़ी की दुकान का शीशा

जिस पर अब इतनी धूल जम गयी है

कि अब कोई भी अक्स दिखाई नहीं देता ।

( बस्ती सर्वेश्वर का जन्म स्थान है । )

                 सर्वेश्वर की प्रतिनिधि कविताओं से

 

 

 

 

 

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सभ्यता के उत्तरार्ध में

शब्दश: कुछ भी नहीं होगा

जो भी होगा वह

अपने लेबलों से कम होगा

लेबलों के बाहर

कुछ भे नहीं होगा

न कोई वस्तु न व्यक्ति

सारी शक्ति लेबलों में होगी

शब्दश: कुछ भी नहीं होगा

शब्दों पर भरोसा नहीं करेगा कोई

फिर भी शब्दों पर कब्जा करने का पागलपन रहेगा

सवार

‘शांति’ शब्द का इस्तेमाल कौन करे

इसके लिए हो सकता है युद्ध

कोई शब्द नहीं बचेगा शुद्ध

कोई कहेगा प्यार

और वह एक दरार में गिर जाएगा

विपरीत अर्थ वाले शब्दों में भी

कोई फर्क नहीं रहेगा

या रहेगा भी तो बस इतना

जितना छद्म मित्रों

और प्रछन्न शत्रुओं के बीच होगा

सारे शब्द सिर्फ बाधाएं होंगे

पत्थरों की तरह पड़े रहेंगे

पूरी कठोरता के साथ

मनुष्य और मनुष्य के बीच

शब्दों के मृत पहाड़ पर

खड़ा होकर चीखेगा कवि

सुनेगा कोई नहीं

– राजेन्द्र राजन .

१९९५.

 

 

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