गत दिनों हुए विधान सभा चुनावों तथा उसके पहले लोक सभा के लिए हुए आम चुनाव में अख़बारों द्वारा प्रत्याशियों द्वारा ‘ पैसे लेकर खबरें छापने’ का मुद्दा ठंडा नहीं पड़ा है | लोक सभा चुनाव के दौरान समाजवादी जनपरिषद की तरफ से मैंने चुनाव आयोग और प्रेस परिषद् को इसकी शिकायत दर्ज कराई थी | अखबार के उन पृष्टों को अपने चिट्ठे पर छापा था – पूरे पेज पर एक ही उम्मीदवार से जुडी सिर्फ ‘पेड़ न्यूज ‘ ही थी | अगले दिन ,जो मतदान का दिन था, उस अखबार की तत्कालीन सम्पादक मृणाल पांडे ने एक नन्हा -सा स्पष्टीकरण भी छापा था | मृणाल पांडे बरसों से एडिटर्स गिल्ड के जिम्मेदार पदों पर रही हैं | ‘हिन्दुस्तान’ से मुक्त किए जाने के बाद मृणाल पांडे ने ‘पेड खबरों’ के खिलाफ ‘द हिन्दू ‘ में एक लेख भी लिख दिया | ‘हिन्दुस्तान’ में अपने संपादकत्व में इस बाबत चली नीति का उल्लेख किए बगैर | बनारस में एक बहुराष्ट्रीय शीतल पेय कंपनी द्वारा भूगर्भ जल-दोहन के खिलाफ चले आन्दोलन के बाद उस कंपनी का एक राष्ट्रीय स्तर का अधिकारी बनारस आया था | पांच सितारा होटल में प्रमुख अखबारों के स्थानीय सम्पादक बुलाये गए थे उसके द्वारा | उस कंपनी ने अखबारों से कहा था कि आप हमारा साथ दीजिए क्योंकि आपकी तरह हम भी ‘व्यावसायिक प्रतिष्ठान’ हैं | ‘हिन्दुस्तान’ से राष्ट्रीय स्तर पर (अन्य शहरों के संस्करण तथा ग्रुप के अन्य अखबारों के लिए) करोड़ों के विज्ञापन की ‘डील’ हो गई थी | तब भी सम्पादक मृणाल पांडे ही थीं |
बहरहाल,
हाल ही में हुई एडिटर्स गिल्ड की बैठक में बी. जी. वर्गीज और मधु कीश्वर जैसों की एक समिति बनाई गयी है | इन नामों से उम्मीद तो बनती है | वर्गीज साहब वरिष्ट पत्रकार होने के अलावा मानवाधिकार के मसलों जैसे ओडिशा में फर्जी मुठभेड़ में नक्सलवादियों (जनता पार्टी की सरकार में गठित समिति ) की हत्या, संघी संगठनों द्वारा काश्मीर में मंदिर जलाए जाने की झूठी खबरों को बेनकाब करने के लिए प्रसिद्ध रहे हैं | मधु कीश्वर भारत की महिला आन्दोलन की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं,भले ही बाद में महिला आन्दोलनों से उनकी दूरी बन गयी हो | एडिटर्स गिल्ड इसका ठीकरा चुनाव आयोग के सर पर फोड़ना चाहता है जबकि चुनाव आयोग पहले ही अखबारों से ‘पेड न्यूज’ की परिभाषा पूछ कर ‘सूक्ष्म में प्रवेश’ ( विनोबा इस जुमले का प्रयोग करते थे और इस क्रिया का भी | तब वे बड़े मसलों पर नहीं बोलते थे | ) कर चुका है | गिल्ड की बैठक में यह कहा गया कि समस्या कुछ अखबारों ने पैदा की है और सब अखबार और मीडिया उनके कारण बदनाम हो रहे हैं | क्या बदनाम करने वाले अखबारों के सम्पादक गिल्ड , इन्डियन न्यूजपेपर एसोशियेशन अथवा प्रेस परिषद् जैसे निकायों के सदस्य नहीं हैं | मेरी इस मसले पर लोक सभा चुनाव के दौरान प्रेस परिषद् के दो सदस्यों से बात हुई थी – दोनों व्यक्ति आई एन ए से भी जुड़े रहे हैं | यह थे ‘जनमोर्चा’ के शीतला सिंह तथा गांडीव के राजीव अरोड़ा | इस मुलाक़ात के तुरंत बाद प्रेस परिषद् के अध्यक्ष का एक कार्यक्रम इन्हीं सम्पादक द्वय द्वारा आयोजित था, लखनऊ में | उस मौके पर परिषद् के अध्यक्ष ने पेड न्यूज छापने वाले अखबारों की जमकर खबर ली थी |
नख-दन्त विहीन होने के बावजूद प्रेस परिषद् की संस्तुतियों का एक नैतिक दबाव अखबारों पर पड़ता है | ‘९२ के दौर में पूर्वी उ.प्र के प्रमुख अखबार विहिप -बजरंग दल के परचों की तरह छप रहे थे | जैसे एक दिन ‘आज’ ने अपने सभी संस्करणों में मुख पृष्ट पर आठ कालम का बैनर दिया था ‘राम लला की मूर्ती गायब’ ! हमारे जैसे समूहों ने इन अखबारों शिकायत प्रेस परिषद् से की थी |अखबारों के दफ्तरों के सामने परचे बांटे थे | और जब परिषद् ने रघुवीर सहाय की सदारत में मसले की जांच के लिए समिति बनाई थी तब उसके समक्ष शआदत भी दी थी | सहाय जी की समिति ने अखबारों की इस भूमिका की कड़े शब्दों में निंदा की थी | हालांकि वह पूरा मसला ही काठ की हांडी किस्म का था लेकिन उस समिति की सिफारिशों का असर सकारात्मक हुआ था |
प्रख्यात पत्रकार पी.साईनाथ ने महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव में अखबारों की इस प्रकार की भूमिका पर लिखा और अभी भी लिख रहे हैं |
इस पूरे मसले पर गौर करने पर हम पाते हैं कि प्रेस परिषद् , चुनाव आयोग , एडिटर्स गिल्ड ‘पेड न्यूज’ के खतरों पर बोल चुके हैं | राजनैतिक दल भी अखबारों के ये ‘पॅकेज’ खरीदने को मजबूर हो जाते हैं इसलिए उनकी तरफ से भी यह आवाज उठ सकती है | समाजवादी जनपरिषद जैसे छोटे दलों के खिलाफ यह नीति ज्यादा जाती है इसलिए हमने तो शुरू से इसके खिलाफ बोला ही है |
आप सोचेंगे कि तब कौन सा तबका बचा जो इस प्रकार के जम्हूरियत विरोधी व्यावसायीकरण के हक़ में होगा ? यह तबका कम चर्चा में रहता है | राष्ट्रपति , प्रधान मंत्री , मुख्य न्यायाधीश और संपादकों से भी यह तबका एक माने में विशिष्ट है | अन्य सभी की तनख्वाहें वे खुद तय नहीं करते परन्तु यह तबका अपना वेतन और पॅकेज खुद तय करता है | यह तबका है मीडिया संस्थानों के मैनेजरों का | यह तबका अखबारों के लेखों के पारिश्रमिक और सम्पादकों की तनख्वाह घटवाता है और अपनी बढ़वाता है ||
इस मसले पर लिखी गयी अन्य पोस्ट :
चुनावों में अखबारों की गलीज भूमिका
( अप्रैल ४ , २००९ )
चुनाव से सम्बन्धित रिपोर्टिंग के लिए प्रेस परिषद के दिशा – निर्देश
( अप्रैल ६ , २००९ )
चुनाव में मीडिया की संदिग्ध भूमिका पर ऑनलाईन प्रतिवेदन पर हस्ताक्षर करें
( मई १२ , २००९)
[…] This post was mentioned on Twitter by afloo, Vikram Kumar. Vikram Kumar said: RT @afloo: On 'paid news' https://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2009/12/25/paid_news_press_election_commissions/ […]
पेड न्यूज़ का खेल बहुत पहले से चल रहा है. जो नंबर एक में पेड है वो विज्ञापन अथवा परिशिष्ट के डिस्क्लेमर के साथ छापा जाता है. धन्ना-सेठों से लेकर कारपोरेट सेक्टर वाले मीडिया में समाज सुधार जैसा कुछ करने की अभिलाषा लेकर चैनल और अख़बार नहीं चलाते. मेरे क्षेत्र में ऐसे कई पत्रकार (अब हैं तो यही कहेंगे) हैं जिनकी दुकानदारी मज़े से चल रही है. अलबत्ता वे इस शब्द से परिचित न होंगे कि ‘हाय हमने तो पेड न्यूज़ लिख दी.’.. कई छोटे-मंझोले अख़बार देखें हैं जिनके रिपोर्टरों को वक़्त पर वेतन नहीं मिलता. वे ऐसा जानते हुए भी कई बार पेड न्यूज़ छाप-छापकर जीवनयापन कर लेते हैं. बहुत-से ऐसे भी हैं जो परचून की दुकान चलाते हुए पत्रकार माने जाते हैं और कस्बाई रसूख के दम पर घर-बार बना लेते हैं. मैंने आपने सबने देखे हैं.
क्या ऐसा कोई डर है कि कारपोरेटिया लोग व्यापक पैमाने पर ‘पेड न्यूज़’ जैसा कोई नया अख़बार या चैनल लेकर आ रहे हों. हां अगर कोई छाती ठोककर ‘पेड न्यूज़’ का डिस्क्लेमर लगाते हुए छापे तो ईमानदारी ही कही जाएगी. पर ऐसा नहीं होता.
कहा जाता है- हर कोई छिप छिप के बिका करता है यहां. शर्त ये है कि मोल चुपके से बताया जाए.
अब बात निर्देशों के पालन की-
निर्देश नंबर १- चुनाव आयोग चुनिंदा दलों को रेडियो और सरकारी चैनल पर प्रसारण का वक्त देता है. अन्य ने क्या बिगाड़ा है? निर्दलियों की कौन सुनेगा? या तो सभी को यथासंभव मौक़ा दें वरना किसी को नहीं.
प्रेस परिषद के निर्देश नंबर २ के बाबत – जातिगत और धार्मिक समीकरणों की रिपोर्टिंग क्यों जारी है? क्या ये ज़रूरी है कि अमुक जाति की बाहुल्यता के बीच अमुक प्रत्याशी के जीतने की संभावना जताई जाए? जातीय आधार तो विजय की पहली गारंटी बन चुका है.
नंबर ४- सरासर उल्लघन किया जाता है. दलों की दारू पार्टी में नामी पत्रकार तक आतिथ्य स्वीकार करते हैं. किंतु किसी पत्रकार की डकार सूंघकर इस निर्णय पर पहुंचा जा सकता है कि इसने अमुक दल की बांटी हुई पी रखी है?
नंबर ५- आचार संहिता लागू रहती है इसलिए छापने का प्रश्न ही नहीं होता. दोनों फंसेंगे.
आपके मुद्दे में दम है ……देखते हैं क्या होता है ?
हमारी शुभकामनाएं!
क्या क्या खेल हो रहा है ! खबरें भी बिक गयीं ।
बेहतरीन आलेख ।
पेड न्यूज, पेड न्यूज, यह हल्ला खूब मच रहा है। इस हल्ले को मचाने वाले भी पत्रकार है और इसे जन्म देने वाले भी पत्रकार। मीडिया मालिक तो कहेगा जाओ कहीं डूब मरो… तो मर जाओगे क्या। यदि मालिकों को साफ साफ सुनाने की हिम्मत नहीं है तो इस्तीफा देकर कोई और काम पकड लो। लेकिन मूल्यआधारित पत्रकारिता का अर्थ पैसे वसूलने से मत लगाओ। मोटी सेलेरी और दुनिया भर की सुविधाएं चाहिए, पैदल चल नहीं सकते, सैकंड क्लास में यात्रा कर नहीं सकते, हमेशा एसी गाडी चाहिए और हवाई यात्राओं के सुख। तो फिर पेड न्यूज तो क्या अपने आप को भी पेड ही करना होगा। ठान लो नहीं लेंगे किसी से पैसा कोई भी आ जाए और जो सच है वही लिखेंगे। मालिक ने धन लिया और खबर लिखवा रहा है तो उसका भांडा फोड़ देंगे, नहीं करेंगे ऐसी नौकरी। हम दम ऐसा किसी में, नहीं तो चुप रहो और पेड न्यूज के नाम पर ढोंग न करो कि यह बंद होना चाहिए। यदि बंद करना है तो फिर चालू किसके इशारे पर किया था। क्यों चालू किया, क्या उस समय अक्ल पर पत्थर पड गए थे कि पैसा लेकर छाप रहे थे खबरें। देश के नेताओं को भ्रष्ट बताने से पहले अपने मन में झांककर देखों कि यह बिकाऊ न्यूज क्या है। लोग भरोसा करते हैं मीडिया पर लेकिन ऐसा न हो जाए ज्योंहि किसी ने बोला मैं मीडिया में काम करता हूं और लोग लगे लतियाने।
[…] ‘कीमत अदा की गई ‘ खबरों पर एडिटर्स ग… […]
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