आज दोपहर करीब ढाई बजे प्रोफेसर जुआल की बिटिया डॉ. पाली का फोन आया ,’ नागेश्वर अंकल सुबह साढ़े नौ बजे घर से निकले हैं । कहां जा रहे हैं नहीं बताया है । आन्टीजी ने पिताजी को चिन्तित हो कर फोन किया है । आप के यहाँ आये थे क्या ? ’
प्रोफेसर नागेश्वर प्रसाद मेरे पिताजी के करीब ४८ साल पुराने मित्र , लोकनायक जयप्रकाश नारायण के निकट सहयोगी और चन्द्रशेखर के सहपाठी यानी उम्र करीब पचासी के आस-पास। उनके बेटे सुधांशु ,सितांशु और हिमांशु से मेरी कब से मित्रता है ,याद नहीं । मेरे पिता सन साठ में वडोदरा से काशी आए तब काफ़ी समय हमारे परिवार एक ही मकान के दो कमरों में रहते थे । नागेश्वर बाबू जयप्रकाश नारायण से समाजवादी आन्दोलन के जमाने से जुड़े थे और जब जेपी ने गांधी विद्या संस्थान की स्थापना की तब उसके पहले संकाय-सदस्य थे और बाद में निदेशक।
पहले मैंने स्वाति को उसके कॉलेज में फोन कर बताया कि मैं किस अभियान पर निकलने जा रहा हूँ । पता चला कि पाली ने उनसे ही मेरे घर का फोन नम्बर हासिल किया था । मैंने पहले प्रो. प्रसाद के पड़ोसी और गांधी विद्या संस्थान के उनके सहकर्मी प्रोफेसर बासवानन्द जुआल से बात की । जुआल साहब ने कहा, ” सुबह साढे नौ बजे से घर से निकलने और ढाई बजे तक न पहुँचने के कारण चिन्ता लाजमी है । कभी कभी उन्हें चक्कर आते हैं और घुटनों में भी कष्ट रहता है । मैं उनके घर पहुँच कर तुमको फिर फोन करता हूँ ।” जुआल साहब का फोन आया । ज्योति माशी (प्रो. प्रसाद की पत्नी) काशी विश्वनाथ मन्दिर मन्नत माँगने निकल चुकी हैं । सितांशु पिताजी के लिए एक मोबाइल खरीद गया था और उसे वे साथ ले कर नहीं निकले थे , वह ज्योति माशी ले कर निकली थी। जुआल साहब सभी संभावित लोगों के घर फोन कर चुके थे। मुझसे उन्होंने कहा ,’ विश्वविद्यालय के ग्रंथालय – महाराज सायाजीराव गायकवाड़ ग्रंथालय तथा मालवीय शान्ति केन्द्र में उन्हें देख लो।’
मैंने ग्रंथालय के ’पाठक-सलाहकार’ को अपनी समस्या बतायी । उन्होंने बताया कि ऐसे एक सज्जन आते तो हैं , आप जेरोक्स सेक्शन में देख लें । मैं उधर बढ़ा ही था कि उन्होंने मुझे बुलाया । नागेश्वर बाबू स्टैक से गांधी पर एक नयी किताब ले कर पढ़ने बैठने जा रहे थे । शोध पत्रिकाओं के हॉल में अपनी छड़ी टँगा कर आये थे । मैं उन्हें ढूँढ़ता हुआ आया हूँ यह जानते ही वे विह्वल हो उठे । मेरा हाथ पकड़ लिया । विशाल ग्रंथालय के दूसरे छोर से उन्हें छड़ी लेनी थी । उनकी पीढ़ी के कोई पाठक ग्रंथालय में नहीं ही थे ,बाद वाली पीढ़ी के कोई अध्यापक भी नहीं दिखे ।
उन्होंने बताया ,’ धूप तेज थी और ग्रंथालाय मुझे खींच रहा था ” मैं जब उन्हें स्कूटर पर जुआल साहब के घर ले कर पहुँचा तब उन्होंने इत्मीनान से बैठ जाने के बाद जुआल साहब से चाय बनाने को कहा । बिट्टो दीदी (शीलाजी ,जुआल साहब की पत्नी) से चाय बनाने नहीं कहा। जुआल साहब जनवादी खयालात के हैं और घर में चाय बनाने को सिर्फ महिलाओं का काम नहीं मानते । चाय पीते – पीते नागेश्वर बाबू ने कहा कि,’हम पिछड़े हैं इसलिए मोबाइल के प्रयोग की आदत नहीं है ।फिर चर्चित शेर की पंक्ति -आखिरी वक्त क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे ।’
इस लिहाज से मैं भी पिछड़ा हूँ । मुझे यह भी पता है कि आज की घटना के बाद मोबाइल रखने के लिए मुझ पर भी दबाव बन जायेगा । लेकिन इस आधुनिक यन्त्र और यन्त्र के मामले में पिछड़ा होने से ज्यादा बुनियादी समस्या को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । करीब ५५ वर्षों के साहचर्य के बावजूद ज्योति माशी को बिना बताये निकलने की आदत का क्या हो ? मैंने पिता तुल्य नागेश्वर बाबू से हिम्मत करके कह दिया ,” आप का पुरुष अहं ज्योति माशी को बता कर बाहर जाने के आड़े आता है ।”
अत्यन्त स्नेह और वात्सल्य के साथ उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहा , ’सही कह रहे हो,बेटा।’
ज्योति माशी को मोबाइल पर खबर दे दी गई कि नागेश्वर बाबू सकुशल लौट आये हैं । मैं जब घर लौट रहा था तब वे रास्ते में मिलीं । मैंने उनसे कहा ,’अंकलजी को महसूस हुआ है कि उनसे गलती हुई है।’ अत्यन्त सहजता से उन्होंने कहा,’ बेटा ,महसूस होता तो ऐसा करते ही क्यों ?’
आपने पुरुष होकर पुरुष अहम् की अहम बात की। सच में पुरुष अहम् उम्र के साथ कम चाहे होता हो किन्तु पुराने संस्कार इतनी सरलता से नहीं छूटते। यह तो उम्र अधिक थी उसपर गाँधीवादी, सो विह्वल हुए। अन्यथा, पुरुष का अहम् खोज करवाने से भी आहत हो जाता है।
मैं तो आपकी ज्योति माशी की मनःस्थिति की कल्पना करके ही सिहर गई।
घुघूती बासूती
अहं होता तो शायद नागेंश्वर बाबू स्वीकार भी नहीं करते … मुझे लगता है वे एकदम सरल व्यक्ति होंगे।
Ham sab ke bheetar ek Nageshwar babu rahate hain . saralmanaa bujurgvaar ne maan to liyaa . ham to maanane mein bhee aanaakaanee karate hain .
[…] ’आखिरी वक्त क्या ख़ाक…… […]
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