Feeds:
पोस्ट
टिप्पणियाँ

Posts Tagged ‘rajendra rajan’

वे वर्तमान की चिंताओं में दुबले नहीं होते
वे रहते हैं अतीत के खोये हुए महल में
जहां सब कुछ है आलीशान
और महान
भारी और भव्य

नए पौधे रोपने में उनका यकीन नहीं
वे आंधी में उखड़ गए बूढ़े पेड़ को
उसकी जड़ों से जोड़ने में जुटे रहते हैं
और सोचते हैं
इस तरह वे लौट जाएंगे
आंधी से पहले के मौसम में

वे पुरखों की वीरता के किस्से सुना कर
सोचते हैं उनकी कायरता छिपी रहेगी
वे दावा करते हैं
की वे दुरुस्त कर सकते हैं बीते हुए समय को
वे दूर कर सकते हैं इस आदमी की बीमारी
अगर लोग इसकी लाश को बचा कर रखें.
– राजेन्द्र राजन
(स्रोत -शुक्रवार)

Read Full Post »

कोहरा/ विनायक सेन

कल शाम से गहरा गया है कोहरा,

कमरे से बाहर निकलते ही गायब हो गया मेरा वजूद,

सिर्फ एक जोड़ी आँखें रह गयी अनिश्चितता को आंकती हुई,

अन्दर बाहर मेरे कोहरा ही कोहरा है,

एक सफ़ेद तिलिस्म है है मेरे और दुनिया के बीच,

लेकिन मेरे अन्दर का कोहरा कहीं गहरा है इस मौसमी धुंध से

मैं सड़क पर घुमते हुए नहीं देख पा रहा कोहरे के उस पार

मेरे-तुम्हारे इस देश का भविष्य

मेरा देश कुछ टुकड़े ज़मीन का नहीं हैं जिसे लेकर

अपार क्रोध से भर जाऊं मैं और कर डालूँ खून उन सभी आवाजों का

जो मेरी पोशाक पर धब्बे दिखाने के लिए उठी हैं,

मेरा देश उन करोड़ों लोगों से बना है,

जिनकी नियति मुझ से अलग नहीं है,

जो आज फुटपाथ पर चलते-फिरते रोबोट हैं,

जो आज धनाधिपतियों के हाथ गिरवी रखे जा चुके हैं,

जो आज सत्ता के गलियारों में कालीन बनकर बिछे हैं,

जो आज जात और धर्म के बक्सों में पैक तैयार माल है जिन्हें बाजार भाव में बेचकर

भाग्य विधाता कमाते हैं ‘पुण्य’ और ‘लक्ष्मी’,

घने कोहरे के पार कुछ नहीं दिखाई देता मुझे,

शायद देखना चाहता भी नहीं मैं,

वह भयानक घिनौना यंत्रणापूर्ण दृश्य जो कोहरे के उस पार है,

वहाँ हर एक आदमी-औरत एक ज़िंदा लाश है,

वहाँ हर एक सच प्रहसन है

वहाँ हर एक सच राष्ट्रद्रोह है,

वहाँ हर उठी उंगली काट कर बनी मालाओं से खेलते हैं

राहुल -बाबा-नुमा बाल-गोपाल-अंगुलिमाल,

और समूचा सत्ता-प्रतिसत्ता परिवार खिलखिला उठता है,

इस अद्भुत बाल-लीला पर,

इस घने कोहरे से सिहर उठा हूँ मैं,

और कंपकंपी मेरी हड्डियों तक जा पहुँची है,

आज सुबह मैंने आईने में चेहरा देखा

तो सामने सलाखों में आप नज़र आये

विनायक सेन……

– इकबाल अभिमन्यु

*तुम अकेले नहीं हो विनायक सेन*

जब तुम एक बच्चे को दवा पिला रहे थे

तब वे गुलछर्रे उड़ा रहे थे

जब तुम मरीज की नब्ज टटोल रहे थे

वे तिजोरियां खोल रहे थे

जब तुम गरीब आदमी को ढांढस बंधा रहे थे

वे गरीबों को उजाड़ने की

नई योजनाएं बना रहे थे

जब तुम जुल्म के खिलाफ आवाज उठा रहे थे

वे संविधान में सेंध लगा रहे थे

वे देशभक्त हैं

क्योंकि वे व्यवस्था के हथियारों से लैस हैं

और तुम देशद्रोही करार दिए गए

जिन्होंने उन्नीस सौ चौरासी किया

और जिन्होंने उसे गुजरात में दोहराया

जिन्होंने भोपाल गैस कांड किया

और जो लाखों टन अनाज

गोदामों में सड़ाते रहे

उनका कुछ नहीं बिगड़ा

और तुम गुनहगार ठहरा दिए गए

लेकिन उदास मत हो

तुम अकेले नहीं हो विनायक सेन

तुम हो हमारे आंग सान सू की

हमारे लिउ श्याओबो

तुम्हारी जय हो।

-राजेंद्र राजन



Read Full Post »

काशी विश्वविद्यालय

यही है वह जगह

जहां नामालूम तरीके से नहीं आता है वसंतोत्सव

हमउमर की तरह आता है

आंखों में आंखे मिलाते हुए

मगर चला जाता है चुपचाप

जैसे बाज़ार से गुज़र जाता है बेरोजगार

एक दुकानदार की तरह

मुस्कराता रह जाता है

फूलों लदा सिंहद्वार

इस बार वसंत आए तो जरा रोकना उसे

मुझे उसे सौंपने हैं

लाल फीते का बढ़ता कारोबार

नीले फीते का नशा

काले फीते का अम्बार

कुछ लोगों के सुभीते के लिए

डाली गई दरार

दरार में फंसी हमारी जीत – हार

किताबों की अनिश्चितकालीन बन्दियां

कलेजे पर कवायद करतीं भारी बूटों की आवाजें

भविष्य के फटे हुए पन्ने

इस बार वसंत आए तो जरा रोकना उसे

बेतरह गिरते पत्तों की तरह

ये सब भी तो उसे देने हैं .

अरे , लो

वसंत आया

ठिठका

चला गया

और पथराव में उलझ गए हमारे हांथ

फिर उनहत्तरवीं बार !

किसने सोचा था

कि हमारे फेंके गये पत्थरों से

देखते – देखते

खडी हो जाएगी एक दीवार

और फिर

मंच की तरह चौडी .

इस पर खडे लोग

मुंह फेर कर इधर भी हो सकते हैं

और पीठ फेर कर उधर भी

इस दीवार का ढहना

उतना ही जरूरी है

जितना कि एक बेहद तंग सुरंग से निकलना

जिसमें फंस कर एक जमात

दिन – रात बौनी हो रही है .

किताबों के अंधेरे में

लालीपॉप चूसने में मगन

हमें यह बौनापन

दिखाई नहीं देगा .

मगर एक अविराम चुनौती की तरह

एक पीछा करती हुई पुकार की तरह

हमारी उम्र का स्वर

बार-बार सुनाई यही देगा

कि इस अंधेरे से लडो

इस सुरंग से निकलो

इस दीवार को तोडो

इस दरार को पाटो.

और इसके लिए

फिलहाल सबसे ज्यादा मुनासिब

यही है वह जगह .

— राजेन्द्र राजन

राजन की कविता

राजन की कविता पहले पहल तो पर्चे में छपी थी.’किताबों की एक अनिश्चितकालीन बन्दी’ के दौरान.पर्चे की सहयोग राशि थी २० पैसे.मेरे झोले में करीब बत्तीस रुपए सिक्कों में थे जब उस पर्चे को बेचते हुए मैं गिरफ़्तार हुआ था.चूंकि विश्वविद्यालय के तत्कालीन संकट के लिहाज से यह ‘समाचार’ था इसलिए समाचार – पत्रिका ‘माया’ ने इसे एक अलग बॉक्स में,सन्दर्भ सहित छापा.’माया’ में वैसे कविता नहीं छपती थी.

राजन ने यह कविता समता युवजन सभा के अपने साथियों को समर्पित की थी . राजेन्द्र राजन किशन पटनायक के सम्पादकत्व मे छपने वाली ‘सामयिक वार्ता’ के सम्पादन से लम्बे समय तक जुडे रहे.आजकल ‘जनसत्ता’ के सम्पादकीय विभाग में हैं. ‘समकालीन साहित्य ‘ , ‘हंस’ आदि में राजन की कवितांए छपी हैं . छात्र राजनीति से जुड़ी एक जमात ने यह कविता  पर्चे और पोस्टर (हाथ से बने ,छपे नहीं ) द्वारा प्रसारित की.उस जमात का छात्र -राजनीति की मुख्यधारा से कैसा नाता होगा,इसका अंदाज लगाया जा सकता है .

बहरहाल, पिछली प्रविष्टि में स्थापना दिवस पर गांधी जी के भाषण का जिक्र किया था.गांधी जी के चुनिन्दा भाषणों मे गिनती होती है ,उस भाषण की  .वाइसरॉय लॉर्ड हार्डिंग के आगमन की तैय्यारी में शहर के चप्पे – चप्पे में खूफ़िया तंत्र के बिछाये गये जाल ,विश्वनाथ मन्दिर की गली की गन्दगी से आदि का भी गांधी जी ने उल्लेख किया था .यहां उच्च शिक्षण की बाबत जो उल्लेख आया था,उसे दे रहा हूं :

“मैं आशा करता हूं कि यह विश्वविद्यालय इस बात का प्रबन्ध करेगा कि जो युवक – युवतियां यहां पढने आवें , उन्हें उनकी मतृभाषाओं के जरिए शिक्षा मिले.हमारी भाषा हमारा अपना प्रतिबिम्ब होती है . और अगर आप कहें कि भाषांए उत्तम विचारों को प्रकट करने में असमर्थ हैं ,तो मैं कहूंगा कि जितनी जल्दी इस दुनिया से हमारा अस्तित्व मिट जाए उतना ही अच्छा होगा . क्या यहां एक भी ऐसा आदमी है ,जो यह सपना देखता हो कि अंग्रेजी कभी हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा बन सकती है? (’कभी नहीं’ की आवाजें ) राष्ट्र पर यह विदेशी माध्यम का बोझ किस लिए ? एक क्षण के लिए तो सोचिए कि हमारे लडकों को हर अंग्रेज लडके के साथ कैसी असमान दौड दौड़नी पडती है . “

वसंतोत्सव यहां नामालूम तरीके से नहीं आता . वसंत पंचमी (१९१६ ) इस विश्वविद्यालय का स्थापना दिवस है.स्थापना दिवस के दिन छात्र – छात्रांए अलग -अलग विषय चुन कर झांकियां जुलूस की शक्ल में निकालते थे. जैसे १९८६ के स्थापना दिवस की झांकी में आचार्य नरेन्द्रदेव छात्रावास (सामाजिक विग्यान संकाय के स्नातक छात्रों का ) के बच्चों ने स्नातक प्रवेश के लिए परीक्षा को ही विषय चुना था .एक ट्रक पर विश्वविद्यालय का सिंहद्वार बना.द्वार के दो हिस्से थे.ग्रामीण पृष्ट्भूमि के छात्रों को भगा दिया जा रहा था और शहरी पृष्टभूमि के कोचिंग ,क्विज़  के अभ्यस्त बच्चों का स्वागत किया जा रहा था.सचमुच केन्द्रीय बोर्ड के पाठ्यक्रम पर आधारित प्रवेश परीक्षा के जरिए दाखिले शुरु होने के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के अपने अपने बोर्ड की परीक्षा में अच्छा करने वाले छात्र भी छंटने लगे और औद्योगिक शहरों के केन्द्रीय बोर्ड के पाठ्यक्रम पढे बच्चे बढ गये.स्थापना दिवस की झांकी पर उस वर्ष बर्बर पुलिस दमन हुआ.अब झांकिया नहीं निकलतीं स्थापना दिवस पर.

यादगार और ऐतिहासिक स्थापना दिवस तो पहला ही रहा होगा.विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मालवीय ने अंग्रेज अधिकारियों के अलावा गांधीजी ,चंद्रशेखर रमण जैसे महानुभावों को भी बुलाया था.

गांधी जी का वक्तव्य हिन्दी में हुआ .मालवीयजी को दान देने वाले कई राजे -महाराजे आभूषणों से लदे विराजमान थे .गांधी ने उन पर बेबाक टिप्पणी की .उस भाषण को सुन कर विनोबा ने कहा कि ‘इस आदमी के विचारों में हिमालय की शान्ति और बन्गाल की क्रान्ति का समन्वय है’.लोहिया ने भी उस भाषण का आगे चल कर अपनी किताब में जिक्र किया.

गांधी एक वर्ष पूर्व ही दक्षिण अफ़्रीका से लौटे थे और भारत की जमीन पर पहला सत्याग्रह एक वर्ष बाद चंपारण में होना था.’मालवीयजी महाराज’ (गांधीजी उन्हें यह कह कर सम्बोधित करते थे) की दूरदृष्टि थी की भविष्य के नेता को पहचान कर उन्हें बुलाया.

गांधीजी के भाषण से राजे महराजों के अलावा डॉ. एनी बेसेण्ट भी नाराज हुई थीं.इस भाषण के कुछ अंश तो अगली प्रविष्टि मे दूंगा लेकिन पाठकों से यह अपील भी करूंगा कि ‘सम्पूर्ण गांधी वांग्मय’ हिन्दी मे संजाल पर उपलब्ध कराने की मांग करें.सभी १०० खण्ड अंग्रेजी में संजाल पर हैं.

~~~~~~~~

Read Full Post »

मैं दिए गए विषयों पर सोचता हूं
मैं दी हुई भाषा में लिखता हूं
मैं सुर में सुर मिला कर बोलता हूं
ताकि जिंदगी चलती रहे ठीकठाक
मिलती रहे पगार

घर छूटे हो गए हैं बरसों
अब मैं लौटना चाहता हूं
अपनी भाषा में अपनी आवाज में अपनी लय में

कभी कभी मैं पूछता हूं अपने आप से
अपने बचे – खुचे एकांत में
क्या मैं पा सकूंगा कभी
अपना छूटा हुआ रास्ता ?

– राजेन्द्र राजन .

Read Full Post »

एक सभा में

एक श्रोता के रूप में

बहुत-सी सभाओं ने लिया था मेरा समय

लेकिन पहली बार एक श्रोता के तौर पर

संयोग से मैं एक ऐसी सभा में मौजूद था

जिसके आयोजक एक हत्या में शामिल थे

और कार्यवाही से यह भी पता चलता था

कि सभा उस हत्या के समर्थन में बुलायी गयी थी

लेकिन वहाँ न कोई डर था न किसी बात की फिक्र

सभी की पूरी कार्यवाही के दौरान

ग़ज़ब की शालीनता थी

जी ज़रूर कहता था हर कोई हर किसी के नाम के बाद

न मंच पर बैठने को लेकर झगड़ा था न वक्ताओं में कोई मतभेद

सभापति सबको स्वीकार्य थे और आसन पर उनकी मौजूदगी से

सभा में एक धार्मिक या सांस्कृतिक रंग आ गया था

कई वक्ताओं के भाषण श्रोताओं को बड़े ओजस्वी लगे

कई वक्ताओं ने अपनी संस्कृति की महानता का बखान किया

सभापति ने जोर दिया सनातन मूल्यों की रक्षा पर

अंत में बेहद लोकतांत्रिक ढंग से यानी सर्वानुमति से

एक प्रस्ताव पारित हुआ जिसमें मारे गए आदमी के दोषों का वर्णन था

और उससे सहानुभूति रखने वालों की निन्दा की गई थी

और उससे कोई संबंध न रखने की हिदायत दी गई थी

और उन्हें सबक सिखाने का आह्वान किया गया था

जब मैं लौट रहा था तो रास्ते में कुछ लोग

सभा की शालीनता और गरिमा की चर्चा कर रहे थे

राजेन्द्र राजन.

Read Full Post »

वे कभी बहस नहीं करते

या फिर हर वक़्त बहस करते हैं

वे हमेशा एक ही बात पर बहस करते हैं

या फिर बहुत-सी बातों पर बहस करते हैं एक ही समय

वे बहस को कभी निष्कर्ष की तरफ़ नहीं ले जाते

वे निष्कर्ष लेकर आते हैं और बहस करते हैं

जब वे बहस करते हैं तब सुनते नहीं कुछ भी

कोई हरा नहीं सकता उन्हें बहस में

राजेन्द्र राजन.

Read Full Post »

चिराग़ की तरह पवित्र और जरूरी शब्दों को

अंधेरे घरों तक ले जाने के लिए

हम आततायियों से लड़ते रहे

थके-हारे होकर भी

और इस लड़त में

जब हमारी कामयाबी का रास्ता खुला

और वे शब्द

लोगों के घरों

और दिलो-दिमाग़ में जगह पा गये

तो आततायियों ने बदल दिया है अपना पैंतरा

अब वे हमारे ही शब्दों को

अपने दैत्याकार प्रचार-मुखों से

रोज – रोज

अपने पक्ष में दुहरा रहे हैं

मेरे देशवासियों ,

इसे समझो

शब्द वही हों तो भी

जरूरी नहीं कि अर्थ वही हों

फर्क करना सीखो

अपने भाइयों और आततायियों में

फर्क करना सीखो

उनके शब्द एक जैसे हों तो भी .

– राजेन्द्र राजन

    १९९५.

Read Full Post »

बामियान में बुद्ध Buddha in Bamiyan 

 

 

 

 

 

 

 

निश्चिन्त होकर वे जा चुके थे उस सुनसान जगह से

अपनी बंदूकों , तोपों , बचे हुए विस्फोटकों

और अट्टहासों के साथ

अपनी समझ और हुकूमत के बीच

कि उनके मुल्क की ज़मीन पर

उसके इतिहास में

अब कहीं नहीं हैं बुद्ध

जहाँ वे खड़े थे सबसे ज्यादा मज़बूती से

वहां से भी मिटा दिए गए उनके नामोनिशान

अब कोई नहीं था उस सुनसान जगह में

जहां पत्थर भी कुछ कहते जान पड़ते थे

वहां हर शब्द था डरा हुआ

हर चीज़ खा़मोश थी दहशत से दबी हुई

बस हवा में एक सामूहिक अट्टहास था बेखौ़फ़

जो बामियान के पहाड़ों को रह-रह कर सुनाई देता था

 

तप रही थी ज़मीन तप रहा था आसमान

पहाड़ के टूटने की आवाज़

धरती की दरारों में समा गयी थी

हवा में भर गयी बारूद की गंध

सब दिशाओं में फैल गयी थी

तीन दिन बाद जब वहां कोई नहीं था

हर तरफ़ डरावना सन्नाटा था वहां नमूदार हुआ

लंबी नाक और चौड़ी टोड़ी वाला एक पठान

वह तपती ज़मीन पर नंगे पांव बढ़ा उस तरफ़

तीन दिन पहले जहां पर्वताकार बुद्ध थे

और अब एक बड़ा-सा शून्य था

उस ख़ाली अंधेरी जगह के पास जाकर वह रुक गया

कुछ पल खामोश रह कर उसने सिर झुका कर कहा-

क्षमा करें भगवन् ! हमें क्षमा करें !

 

बुद्ध ने आवाज़ पहचानी

यह ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां होंगे

फिर वे अपनी कोमल संयत गंभीर आवाज़ में बोले-

आप अवश्य आएंगे , मैं जानता था भंते !

कृपया इधर चले आएं इधर छाया में

आपके पांव जल रहे होंगे

 

सकुचाए लज्जित-से ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां

बुद्ध के और निकट गए

फिर सुना

किसी क्षमा करने का अधिकारी मैं नहीं

जो क्षमा कर सकते थे अब नहीं हैं

वे विलुप्त पथिक अक्षय शांति के खोजी

जिनकी खोज और साधना के स्मारक नष्ट किए गए

 

ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां की आवाज़ अब भी नम थी :

यहां जो हुआ उससे पीड़ा हुई होगी भगवन !

 

पीड़ा नहीं

दुख हुआ है भंते

जब कोई सृजन विध्वंस के उन्माद का शिकार होता है

दुख होता है

पर पीड़ा का प्रश्न नहीं

जब मैं शरीर में था एक दिन अंगुलिमाल गरजा था :

रुक जाओ भिक्षुक

वहीं रुक जाओ

पर मैं रुका नहीं

जैसे कुछ हुआ न हो मेरे कदम आगे बढ़े निष्कंप

जो कंप सकता था वह मेरे भीतर से विदा हो चुका था

अब तो वह शरीर भी नहीं

 

ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां थोड़ा सहज हुए

बुद्ध ने उनकी आंखों में झांका :

यह क्या, आपकी आंखें गीली क्यों हैं भंते ?

मुल्क की हालत ठीक नहीं है भगवन्

बरसों से हर तरफ़

ख़ून से सने हाथ दिखाई देते हैं

मारकाट जैसे रोज़ का धन्धा है

सब किसी न किसी नशे में डूबे हैं

होश का एक क़तरा भी खोजना मुश्किल है

डर का ऐसा पहरा है कि कि कोई कुछ बोलता नहीं

कोई कुछ सुनता नहीं

जो बोलते हैं मारे जाते हैं

अभी तीन रोज़ पहले यहां जो हुआ उससे

इत्तिफ़ाक़ न रखने वाले चार युवक पकड़ लिए गए

सुना है उन्हें सरेआम फांसी पर लटकाया जाएगा

 

कुछ पल के लिए एक स्तब्ध मौन मे डूब गए बुद्ध

जैसे ढाई हजार साल बाद

नए सिरे से हो रहा हो दुख से सामना

फिर सोच में डूबा उनका प्रश्न उभरा –

और , स्त्रियों की क्या दशा है भंते

 

उनका हाल बयान नहीं किया जा सकता भगवन्

वे पशुओं से भी बदतर हालत में जीती हैं

डर और गुलामी और सज़ा की नकेल से बंधी हैं वे

 

बुद्ध असमंजस में डूबे रहे कुछ पल

कि आगे कुछ पूछें या न पूछें

फिर उन्होंने पूछा :

और किसान किस हालत में हैं भंते

 

ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां की अनुभव पकी आंखों में

गांवों के रोजमर्रा चित्र तैर गए :

फसलें सूख रही हैं भगवन्

किसानों की कोई नहीं सुनता

फ़ाक़ाकशी की छाया लोटती है मेहनतकश घरों में

हुक्मरान हथियार खरीदने के अलावा और कुछ नहीं करते

 

बुद्ध और ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ा के बीच एक सन्नाटा

खिंच गया

बुद्ध को चिंतित देख शर्म की ज़मीन पर खड़े बूढ़े पठान ने कहा :

भारत आपके लिए ठीक जगह है भगवन्

 

नहीं भंते

हथियारों के पीछे पागल हैं वहां के शासक भी

बहुत छद्म और पाखंड है वहां

मानवता के संहार का उपाय कर

वे कहते हैं : मैं मुस्करा रहा हूं

 

इसके बाद ख़ामोश रहे दो दुख

सहसा ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां का ध्यान हटा

उन्होंने सूखे आसमान की तरफ़ नज़र फ़िराई

लगा जैसे किसी बाज के फड़फड़ाने की आवाज़ आई हो

मगर चुँधियाती धूप में कुछ दिखाई नहीं पड़ा

फिर उनका ध्यान लौटा उस जगह

जो तीन दिन पहले हमेशा के लिए ख़ाली हो गई थी

वहां न बुद्ध के होने का स्वप्न था न उनके शब्दों का अर्थ

ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ां खड़े थे अकेले

बामियान के पथरीले सन्नाटे में ।

 

– राजेन्द्र राजन.

Read Full Post »

फूल को छिपा लिया

शब्दों से ढका हुआ है सब कुछ

मैंने कहा फूल

एक शब्द ने फूल को छिपा लिया

मैंने कहा पहाड़

एक शब्द आ खड़ा हुआ पहाड़ के आगे

मैंने कहा नदी

एक शब्द ने ढक लिया नदी को

शब्दों से अबाधित नहीं है कुछ भी

पता नहीं कब से

शब्दों से ढका हुआ है सब कुछ

ओह , पता नहीं कब से

मैं खोज रहा हूँ

शब्दों से निरावृत सौन्दर्य ।

राजेन्द्र राजन

बस यही एक अच्छी बात है

मेरे मन में

नफरत और गुस्से की आग

कुंठाओं के किस्से

और ईर्ष्या का नंगा नाच है

मेरे मन में

अंधी ,महत्त्वाकांक्षाएं

और दुष्ट कल्पनाएं हैं

मेरे मन में

बहुत-से पाप

और भयानक वासना है

ईश्वर की कृपा से

बस यही एक अच्छी बात है

कि यह सब मेरी सामर्थ्य से परे है ।

– राजेन्द्र राजन

मेरा अंधकार

थोड़ी सी रोशनी जो मिली थी मुझे

शब्दों में बिखेर दिया मैंने उसे

मगर शब्दों से परे था मेरा अंधकार

मैं कैसे बताता कि कितना घना था मेरा अंधकार

जो कि मुझसे ही बना था

वह मेरे शब्दों से परे था

बहुत सी अंधेरी जगहों में मैं गया

पर खुद के अंधकार में

जाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी

शायद यही था मेरा अंधकार

जो मेरे शब्दों से परे था

शब्दों से इतना परे

कुछ भी नहीं था मेरे लिए

जितना कि मेरा अंधकार ।

राजेन्द्र राजन

राजेन्द्र राजन

Read Full Post »

उन्हें कभी नहीं सताता पराजय का बोध

वे हमेशा विजेताओं की जय बोलते हैं

अखंड होता है उनका विश्वास

कि विजेता आएंगे जरूर

विजेताओं की प्रतीक्षा में

वे करते रहते हैं प्रशस्तियां गाने का अभ्यास

उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं

कि विजेता कौन हैं

कहां से आ रहे हैं वे जाएंगे किधर

उन्होंने जिनको जीता

क्या बीता उन पर

वे कभी नहीं देखेंगे

विजेताओं का इतिहास

उनके इरादे उनकी योजनाएँ

उनके विचार

वे बस देखेंगे विजेताओं के

चमकते हथियार

बढ़ते हुए काफिले

उन्माद की पताकाएं

और जय जयकार में शामिल हो जाएंगे

विजेता भले ही उनके घर लूटने आ रहे हों

वे खड़े हो जाएंगे स्वागत में

पूरे उत्साह से लगाएंगे

विजेताओं के पक्ष में नारे

उन्हें बस चाहिए

जीतने वाले के पक्ष में होने का सुखद

अहसास !

– राजेन्द्र राजन

स्रोत : सामयिक वार्ता / जनवरी २००८

Read Full Post »