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Posts Tagged ‘विनोबा’

सन 1952 में मैं ‘साम्ययोगी विनोबा’ नामक पुस्तक की तैयारी कर रहा था। उसी सिलसिले में मैं एक सूची बना रहा था – विनोबा कितनी भाषाएं जानते हैं, कितने धर्मों का अभ्यास,उन धर्मों के मूल ग्रंथों के  मार्फत उन्होंने किया है,उन्होंने किस-किस प्रकार के शारीरिक परिश्रम के काम किए हैं आदि। इस सूची में कहीं कोई गलती न रह जाए,इसलिए वह सारी जानकारी जांच के लिए विनोबा को दे दी।शरीर-परिश्रम के कामों की सूची खासी लंबी थी।किसान,बुनकर,रंगरेज,धोबी,बढ़ई,लुहार,पत्थर तोड़ने वाले आदि अनेक प्रकार के श्रमजीवियों के साथ विनोबा अपने जीवन का तार मिला चुके थे।

इस सूची को देखकर विनोबा ने कहा”इसमें एक मजदूरी का उल्लेख नहीं आता।”भाषा ज्ञान की सूची में मैंने ऐसी भाषाएं शामिल की थीं,जिनको विनोबा को थोड़ा परिचय था,लेकिन पूरा ज्ञान नहीं था,इसलिए उस सूची को संक्षिप्त करने का उन्होंने प्रयत्न किया था। लेकिन वही विनोबा शरीर परिश्रम की सूची बढ़ाने के लिए कह रहे हैं,इससे मुझे आश्चर्य हुआ।मैंने पूछा-कौन-सी मजदूरी बाकी रह गई?

विनोबा ने बड़ी गंभीरता से कहाः मैंने लिखने की मजदूरी की है,उसे तुमने सूची में नहीं लिखा है।मुझे लगा कि विनोबा विनोद कर रहे हैं।पर विनोद करते समय उनके चेहरे पर जिस प्रकार की रेखाएं उभरती हैं,वे इस समय नहीं थीं।

मैंने पूछा कि लिखना क्या मजदूरी कही जा सकती है?

” जिससे हाथ में आंटन (गांठ),भट्ट पड़ जाए,वह काम शरीर परिश्रम का गिना जाएगा या नहीं?” विनोबा ने पूछा।मैंने कहा,”जी हां,वह तो जरूर गिना जाएगा।”

“तो देखो,मेरी ये उंगलियां!इसमें आंटन पड़ गए हैं।उंगलियों की पोर थोडी सख्त हो गई है।आज से 38 वर्ष पहले मैंने जो लिखा,उसके कारण ऐसा हुआहै।”

“आज से 38 वर्ष पहले।” विनोबा की जीवनी लिखने वाले की हैसियत से मुझे इस बात में ज्यादा दिलचस्पी थी।उस समय आपको ऐसा क्या लिखना पडा था?”

“उस समय मैं कविता लिखता था।कविता लिख-लिख करके ही मेरे आंटन पड़े हैं” विनोबा हंस कर बोले।

इतनी सारी कविताएं।मिल जाएं तो एक बहुत बडा काम हो जाए। मैंने पूछा- “ये कविताएं आज कहां होंगी?”

“ये काव्य मैंने काशी में गंगा के किनारे लिखे थे।इनमें से जिनके बारे में मुझे समाधान नहीं था,जो मुझे ठीक जंचे नहीं,वे तो मैंने अग्नि को समर्पित किए और जिनके बारे में समाधान था,वे मैंने गंगाजी में बहा दिए थे।”

मैं चकित होकर सुनता रहा।ये काव्य प्रसिद्धि के लिए नहीं लिखे गए थे,प्रशस्ति के लिए भी नहीं लिखे गए थे।पाठ के लिए भी नहीं लिखे गए थे।गीता का अनुवाद करने के लिए मां रुक्मिणीबाई ने कहा था।बस उसके अभ्यास के तौर पर एक ओर गीता को जीवन में उतारने का प्रयास शुरु किया और दूसरी ओर व्याकरण,काव्य शास्त्र इत्यादि का अभ्यास।ये काव्य तो स्वान्तः सुखाय लिखे गये थे।विनोबा के लिए साहित्य मनोरंजन या शोक का विषय नहीं है,जीवन साधना का एक साधन है।

विनोबा की संपूर्ण साहित्य साधना एक वांगमय तप ही बनी है।मां की इच्छा थी कि उनका बेटा श्रीमदभगवद्गीता का मराठी अनुवाद करे।मां की यह इच्छा मां की मृत्यु के बाद पूरी हुई।इस अनुवाद को विनोबा ने नाम दिया गीताई और उसकी प्रस्तावना एक अनुष्टुप में कीः गीताई माऊली माझी,मी तिचा बाल नेणता,पडता रडता थेई उचलून कडेवरी।

विनोबा मानते हैं कि यदि ईश्वर ने उनके पास से दूसरी कोई और सेवा नहीं कराई होती और गीताई ही लिखाई होती तो भी ये अपने कृतकृत्य मानते।मराठी और संस्कृत भाषा के विशेषज्ञ गीताई के साहित्यिक गुणों पर मुग्ध हैं।उत्तर भारत की अधिकांश भाषाओं में गीता के समश्लोकी अनुवाद सुने हैं।पर गीताई में जो ओज है,सरलता और शुद्धता का जो मेल है,वैसा दूसरे किसी भाषांतर में मन्हीं मिलता। मराठी भाषियों में विनोबा की इस पुस्तक की लोकप्रियता असाधारण है।अब तक गीताई की 40 लाख से ऊपर प्रतियां छप चुकी हैं।

नोआखली में पदयात्रा करते समय गांधीजी से किसी अमेरिकी पत्रकार ने संदेश मांगा था। 79 वर्ष की उम्र विद्यार्थी के रूप में गांधीजी उस समय बंगाली भाषा सीखते थे।उन्होंने बंगाली में लिखकर संदेश दिया’आमार जीवन इ आमार वाणी।”

विनोबा पर भी यह वाक्य अक्षरशः लागू होता है।उनका जीवन ही उनकी वाणी है,और उनकी वाणी ही उनका जीवन है।

इस वांगमयी तपास,खोज के आरंभ की तपस्या कठोर थी।दिन के हर क्षण का निश्चित हिसाब पसीने से सराबोर हो जाए,इतना परिश्रम,बुजुर्ग ज्ञानियों को भी मात करे,अभ्यास की ऐसी गहराई-ये विनोबा की आरंभिक तपस्या के क्षण थे।उनके आरंभकाल के साहित्य में यह तेजस्विता और साथ-साथ थोड़ी कठोरता की झलक मिलती हैं। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध कवि मामा वरेरकर के शब्दों में कहूं तो ‘उनकी भाषा में मिठास थी थी,लेकिन यह मिठास मिश्री जैसी सख्त थी।जीवन के प्रौढ़काल  में यह मिठास अंगूर की तरह रसीली बन गई।’

विनोबा वांगमय एक विशाल सागर जैसा है।विनोबा ने जो कुछ लिखा और आगे आगे चलकर जो कुछ बोला, वह साहित्य की एक विशिष्ट निधि बन गया है।

आज लोग यद्यपि उन्हें एक आन्दोलन के नेता और क्रांतिकारी संत के रूप में ही जानते हैं पर उनका साहित्यकार का रूप भी कम लुभावना नहीं है।

स्वयं विनोबा द्वारा लिखी गई और उनके प्रवचनों के आधार पर तैयार की गई पुस्तकों की कुल संख्या पचासों में है। उनके विचारों में हमें एक निष्पक्ष,सजीव और मौलिक दिशा मिलती है।

[नारायण भाई ने यह लेख सन 1965 में लिखा था।]

 

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‘मैं हार सकता हूँ , बार – बार हार सकता हूँ लेकिन हार मान कर बैठ नहीं सकता हूँ ।’ लोहिया की पत्रिका ‘जन’ के संपादक ओमप्रकाश दीपक ने कहा था। नारायण देसाई ने कोमा से निकलने के बाद के तीन महीनों में अपनी चिकित्सा के प्रति जो अनुकूल और सहयोगात्मक रवैया प्रकट किया उससे यही लगता है कि वे हार मान कर नहीं बैठे , अन्ततः हार जरूर गये। आखिरी दौर में हम जो उनकी ‘सेवा’ में थे शायद हार मान कर बैठ गये। उनकी हालत में उतार – चढ़ाव आये । अपनी शारीरिक स्थिति को भली भांति समझ लेने के बाद भी मानो किसी ताकत के बल पर उन्होंने इन उतार चढ़ावों में निराशा का भाव प्रकट नहीं किया । खुश हुए,दुखी हुए,अपनी पसंद और नापसन्दगी प्रकट की। स्वजनों को नाना प्रकार से अपने स्नेह से भिगोया। पदयात्रा,ओडीशा
विनोबा द्वारा आपातकाल के दरमियान गोवध-बन्दी के लिए उपवास शुरु किए गए तब नारायण देसाई अपनी पत्नी उत्तरा के साथ उनका दर्शन करने पवनार गए थे। दोनों हाथों से विनोबा ने उनके सिर को थाम लिया था। चूंकि नारायण देसाई आपातकाल विरोधी थे इसलिए उस वक्त विनोबा के सचिवालय के एक जिम्मेदार व्यक्ति ने नारायण देसाई को उनकी संभावित गिरफ्तारी का संकेत दिया था। विनोबा नारायण देसाई के आचार्य थे और अपनी जवानी में उन्होने उन्हें हीरो की तरह भी देखा होगा ऐसा लगता है । विनोबा की सचेत मौत से गैर सर्वोदयी किशन पटनायक तक आकर्षित हुए थे तो नारायण देसाई पर तो जरूर काफी असर पड़ा ही होगा। इस बीमारी के दौर में निराशा का उन पर हावी न हो जाना मेरी समझ से इस विनोबाई रुख से आया होगा।
तरुणाई में रूहानियत का एक जरूरी सबक भी विनोबा से उन्हें मिला था। आम तरुण की भांति बड़ों की बात आंखें मूंद कर न मान लेने का तेवर प्रदर्शित करते हुए नारायण देसाई ने विनोबा से कहा था ,’बापू द्वारा बताई गई सत्याग्रह की पहली शर्त – ईश्वर में विश्वास- मेरे गले नहीं उतरती।‘ आचार्य ने पलट कर पूछा ,’ प्रतिपक्षी के भीतर की अच्छाई में यकीन करके चल सकते हो?’
‘यह बात कुछ गले उतरती है’।
‘तब तुम पहली शर्त पूरी करते हो’ ।
अपनी समस्त पैतृक जमीन के रूप में गुजरात का पहला भूदान देने के बाद ही वे सामन्तों से भूदान मांगने निकले थे। इस मौके पर विनोबा का तार मिला था तो गदगद हो गये थे – ‘जिस व्यक्ति के बगल में खड़े-खड़े उनका ध्यान आकृष्ट हो इसकी प्रतीक्षा करनी पडती थी, उस हस्ती ने याद रख कर तार से आशीर्वाद भेजे हैं।‘
प्राकृतिक संसाधनों की मिल्कियत राजनीति द्वारा तय होती है। इस प्रकार भूदानी एक सफल राजनीति कर रहे थे। सरकारी भूमि सुधारों और समाजवादियों-वामपंथियों के कब्जों द्वारा जितनी जमीन भूमि बंटी है उससे अधिक भूदान में हासिल हुई। जो लोग इसे तेलंगाना के जन-उभार को दबाने के लिए शुरु किया गया आन्दोलन मानते हैं उन्हें इन तथ्यों को नजरन्दाज नहीं करना चाहिए। ‘दान’ मांगने के दौर में कुछ उत्साही युवा जो तेवर दिखाते थे उन्हें सर्वोदयी कैसे आत्मसात करते होंगे,सोचता हूं। नारायण भाई के मुंह से यह गीत सुना था, ‘‘भूमि देता श्रीमानो तमने शूं थाय छे? तेल चोळी,साबू चोळी खूब न्हाये छे! ने भात-भातना पकवानों करि खूब खाये छे।‘’(श्रीमानों, भूमि देने में आपका क्या जाता है? आप तो तेल-साबुन मल के खूब नहाते हैं और भांति-भांति के पकवान बना कर खूब खाते हैं।) यह बहुत लोकप्रिय भूदान-गीत भले नहीं रहा होगा लेकिन उस पर रोक भी नहीं लगाई गई थी। आज मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी की सरकारें देश का प्राकृतिक संसाधन यदि देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सौंपने पर तुली हुई हैं तो यह भी राजनीति द्वारा हो रहा है। बहरहाल, भूदान एक कार्यक्रम के बजाए एकमात्र कार्यक्रम बन गया ।
आदर्श समाज की अपनी तस्वीर गांधी ने आजादी के पहले ही प्रस्तुत कर दी थी। उनके आस-पास की जमात में उस तस्वीर का अक्स भी साफ-साफ दीखता था। उस तस्वीर को आत्मसात करने वाले नारायण देसाई जैसे गाम्धीजनों का जीवन आसान हो जाया करता होगा और इसलिए मृत्यु भी। इन लोगों की दिशा भी स्पष्ट होगी।

किशोर नारायण देसाई गांधीजी के साथ

किशोर नारायण देसाई गांधीजी के साथ

१९४६ में गांधीजी से नारायण देसाई ने कहा था ,’आपके दो किस्म के अनुयाई हैं। कुछ राजनीति में हैं और कुछ रचनात्मक कामों में। मैं इन दोनों तरह के कामों के बीच सेतु का काम करना चाहता हूं।‘ १९४७ में विवाह के बाद अपनी पत्नी उत्तरा और मित्र मोहन पारीख के साथ उन्होंने दक्षिण गुजरात के आदिवासी गांव में ग्रामशाला की शुरुआत की। प्रतिष्ठित साहित्यकार उमाशंकर जोशी ने इसका उद्घाटन किया और अपनी पत्रिका ’संस्कृति’ में इसका विवरण लिखा। आजादी के काफी पहले से महात्मा गांधी के सहयोगी जुगतराम दवे का यह कार्यक्षेत्र था। जुगतराम दवे कहते थे कि वे द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा कटवाने का प्रायश्चित कर रहे हैं ।
१९४५ से ही नेहरू और गांधी के बीच का गांव बनाम शहर केन्द्रित विकास का दृष्टिभेद सामने आ चुका था । सर्वोदय की मुख्यधारा ने इस ओर बहुत लम्बे समय तक आंखें मूंदे रक्खीं । १९६७ में नवकृष्ण चौधरी द्वारा ‘गैर-कांग्रेसवाद’ के अभियान को समर्थन और ओड़ीशा में इसके लिए पहल एक स्वस्थ अपवाद था । नेहरू के औद्योगिक विकास के मॉडल के प्रति सर्वोदय आन्दोलन द्वारा आंखों के मूंदा होने के फलस्वरूप जे.सी. कुमारप्पा जैसे प्रखर गांधीवादी अर्थशास्त्री माओ-त्से-तुंग के ‘घर के पिछवाड़े इस्पात भट्टी’ (बैकयार्ड स्टील फरनेस) जैसे प्रयोगों से आकर्षित हुए। जमशेदपुर ,राउरकेला,भिवण्डी और अहमदाबाद जैसे औद्योगिक केन्द्रों में आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में हुए दंगों में ‘शान्ति सेना’ पूरी निष्ठा और लगन से काम करती थी लेकिन नेहरू द्वारा चुनी गई विकास की दिशा से इन दंगों के अन्तर्संबंध पर कोई प्रभावी आवाज नहीं उठाती थी। हाल के दशकों का उदाहरण देखें तो विकास की प्रचलित अवधारणा से प्रभावित होने के कारण गुजरात के सर्वोदय नेता कांग्रेस-भाजपा नेताओं के सुर में सुर मिलाते हुए नर्मदा पर बने बड़े बांधों के समर्थन में थे। नारायण देसाई इसका अपवाद थे। वे बडे बांधों और परमाणु बिजली के खिलाफ थे। अपने गांव के निकट स्थित काकरापार परमाणु बिजली घर के खिलाफ उन्होंने आन्दोलन का नेतृत्व किया और परमाणु बिजली के खिलाफ उन्होंने नुक्कड नाटक भी लिखा ।
जयप्रकाश नारायण ने नागालैण्ड, तिब्बत और काश्मीर जैसे मसलों पर अपना रुख साफ़-साफ़ तय किया था और बेबाक तरीके से जनता के समक्ष उसे वे पेश करते थे। शेख अब्दुल्लाह और उनका दल नैशनल कॉन्फरेन्स राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थक था लेकिन नेहरू ने उन्हें लम्बे समय तक गिरफ्तार करके रखा था। नेहरू के गुजरने के बाद जेपी ने उनकी रिहाई के लिए पहल की। जेपी ने नारायण देसाई तथा राधाकृष्ण को शेख अब्दुलाह से मिलने भेजा और इन दोनों ने उनसे बातचीत की रपट तत्कालीन प्रधान मन्त्री लालबहादुर शास्त्री को पेश की जिसके बाद शेख साहब की रिहाई हुई। नागालैण्ड में जेपी द्वारा स्थापित नागालैण्ड पीस मिशन की पहल पर ही पहली बार युद्ध विराम हो पाया। तिब्बत की मुक्ति के जेपी प्रमुख समर्थक थे। हाल ही में धर्मशाला में गांधी कथा के मौके पर नारायण भाई की दलाई लामा और सामदोन्ग रेन्पोचे से तिब्बत मुक्ति पर महत्वपूर्ण बातचीत हुई । नारायण देसाई का आकलन था कि चीन के अन्य भागों में उठने वाले जन उभारों से तिब्बत मुक्ति की संभावना बनेगी। दलाई लामा,रेम्पोचे,नारायण देसाईतिब्बत की निर्वासित सरकार की संसद ने नारायण देसाई की मृत्यु पर शोक प्रस्ताव पारित किया है। जब पूरे विश्व की जनता बांग्लादेश की मुक्ति चाहती थी परंतु सरकारों को उसे मान्यता देने में हिचकिचाहट थी तब जेपी और प्रभावती देवी का विदेश दौरा हुआ। बांग्लादेश के शरणार्थियों के बीच राहत शिविर चलाने के अलावा बांग्लादेश के मुक्त होने के पहले उसके राष्ट्र-गान को युवा शरणार्थियों को सिखाने तक का काम शान्ति सेना ने किया था। २४ परगना के बनगांव जैसे सीमावर्ती कस्बे में शरणार्थियों के लिए स्थानीय आबादी से भी अन्न-चन्दा मांगा जाता था –‘ओपार थेके आश्चे कारा? आमादेरी भाई बोनेरा’ (उस पार से आ रहे हैं, कौन? आपके-मेरे भाई-बहन) जैसे नारे लगा कर। बांग्लादेश की मौजूदा सरकार ने मुक्ति-संग्राम का मित्र होने के नाते नारायण देसाई का सम्मान किया।
इन राहत कार्यों के लिए विदेशी स्वयंसेवी संस्थाओं से मदद ली गई। सूखा राहत के लिए भी विदेशी मदद लेने में संकोच नहीं किया। इन अनुभवों से सबक लेकर मनमोहन चौधरी जैसे सर्वोदय नेताओं ने विदेशी धन लेकर सामाजिक काम करने को स्वावलम्बन-विरोधी माना। ओडीशा सर्वोदय मण्डल ने विदेशी संस्थाओं से मुक्त रहने का फैसला भी किया लेकिन सर्व सेवा संघ (सर्वोदय मण्डलों का अखिल भारत संगठन) के स्तर पर कोई निर्णय नहीं लिया गया। नारायण देसाई ने भी ऐसी संस्था वाले सर्वोदइयों को बहुत स्नेहपूर्वक ‘तंत्र’ कम करते जाने तथा ‘तत्व’ को कमजोर न होने देने की सलाह जरूर दी थी। गांधीजनों के रचनात्मक कार्यक्रमों के अपनी संस्था तक कुंठित या आबद्ध हो जाने के प्रति उन्होंने चेतावनी दी । नारायण देसाई ने कहा कि रचना के साथ लोकजागरण लाने का काम नहीं हो रहा है ।
सर्वोदय आन्दोलन की एक विशेषता है। ‘सर्वसम्मति’ से फैसले लेने के बावजूद अपने मनपसंद फैसलों को ही मानने और बाकी फैसलों की उपेक्षा करने का चलन रूढ़ हो चुका है। गोवध बन्दी, शान्ति सेना, लोक समिति, खादी,विदेशी धन पर आश्रित रचनात्मक काम – इनमें से जिसे जो पसंद हो, कर सकता था। मसलन, गोवध-बन्दी आन्दोलन में जुटा व्यक्ति शान्ति सेना के काम में बिल्कुल रुचि न ले तो भी कोई दिक्कत नहीं थी। इस प्रकार ताकत बंटी रहती थी। नारायण देसाई सर्व सेवा संघ से स्थापना से जुड़े रहे तथा इसके अध्यक्ष भी हुए। कुछ समय पहले उन्होंने सर्व सेवा संघ को विघटित करने का सुझाव दिया।
ईरोम शर्मीला चानू के आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट विरोधी अनशन के बावजूद देश भर में उनके समर्थन में माहौल नहीं बन पा रहा है। देश के कुछ भागों में ऐसे दमनकारी कानून का विकल्प क्या हो सकता है यह विचारणीय है। साठ और सत्तर के दशक में ऊर्वशी अंचल (तब का नेफा और अब अरुणाचल प्रदेश। नारायण देसाई इसे उर्वशी अंचल कहते हैं और लोहिया ने उर्वशीयम कहा।) में शान्ति सेना के काम को भुलाया नहीं जाना चाहिए। वह इलाका जहां चीनी फौज ग्रामीणों को एक हाथ में आइना और दूसरे में माओ की तस्वीर दिखा कर पूछती हो,’तुम किसके करीबी हुए?’ जहां की सड़कों पर कदम-कदम पर भारतीय सेना के ’६२ के चीनी आक्रमण में पराजय के स्मारक बने हों वहां बिना सड़क वाले सुदूर गांवों में भी शान्ति केन्द्र चलते थे। तरुण शान्ति सेना के राष्ट्रीय शिबिरों में अरुणाचल के युवा भी हिस्सा लेते थे। आज यदि इस राज्य में पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तरह अलगाववादी असर प्रभावी नहीं है और हिन्दी का प्रसार है तो इसमें शान्ति सेना और नारायण भाई के हरि सिंह जैसे साथियों के योगदान को गौण नहीं किया जा सकता है। आपातकाल में इन केन्द्रों को सरकार ने बन्द कराया। १९७७ में जनता सरकार के गठन के बाद रोके गये काम को फिर से शुरु करने के लिहाज से मोरारजी देसाई ने नारायण देसाई को अपने साथ अरुणाचल प्रदेश के दौरे में बुलाया था। इसी यात्रा में वायुसेना का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। मोरारजी देसाई और नारायण देसाई समेत सभी यात्री बच गये थे किंतु तीनों चालकों की मृत्यु हो गई थी। नारायण भाई को लगा था कि महत्वपूर्ण यात्रियों की जान बचाने के लिए वायु सेना के उस जहाज के चालकों ने अपना बलिदान दिया था।
हितेन्द्र देसाई के मुख्य मन्त्रीत्व में हुए साम्प्रदायिक दंगों में शान्ति सेना के काम की मुझे याद है। तब ही नारायण देसाई के आत्मीय साथी नानू मजुमदार की कर्मठता के किस्से सुने और मस्जिदों में बने राहत शिबिरों को देखा था। इन दंगों के बाद जब नारायण भाई द्वारा काबुल में मिल कर दिए गए निमन्त्रण पर सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान भारत आए तो सर्वोदय मण्डल ने गुजरात में उनका दौरा कराया। उनका आना निश्चित हो जाने के बाद प्रधान मन्त्री ने उन्हें ‘सरकार का अतिथि’ घोषित किया। मुंबई के निकट भिवण्डी में बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद भी जब दंगे नहीं हुए तो लोगों को सुखद अचरज हुआ। उन गैर सरकारी शान्ति समितियों को इसका श्रेय दिया गया जो इसके कई वर्ष पूर्व गठित हुई थीं और सामान्य परिस्थितियों में भी जिनकी बैठकें नियमित तौर पर हुआ करती हैं। भिवण्डी में इन ‘अ-सरकारी और असरकारी’ शान्ति समितियों के गठन में नारायण देसाई और भगवान बजाज जैसे उनके साथियों की अहम भूमिका थी। गांधी का सन्देश गुजरात के गांव-गांव तक नहीं फैला इसलिए इतना बड़ा नर-संहार संभव हुआ – अपनी इस विवेचना के कारण खुद को भी उन्होंने जिम्मेदार माना और रचनात्मक प्रायश्चित के रूप में गांधी-कथाएं की। गुजरात भर में कथाएं हो जाने के बाद ही अन्य प्रान्तों और विदेश गए।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक छात्रावास के कॉमन रूम में एक छोटी-सी गोष्ठी में जेपी ने ‘लोकतंत्र के लिए युवा’ (यूथ फॉर डेमोक्रेसी) का आवाहन किया। सिर्फ २५-३० छात्र उस गोष्ठी में रहे होंगे।अगली बार जब काशी विश्वविद्यालय के सिंहद्वार पर जेपी आए तब वे लोकनायक थे और सिंहद्वार के समक्ष हजारों छात्रों का उत्साह देखते ही बनता था। इन दोनों कार्यक्रमों के बीच क्या-क्या हुआ होगा,यह गौरतलब है।जेपी के साथ नारायण देसाई गुजरात में छात्रों ने अपनी सामान्य सी दिखने वाली मांगों के लिए नाना प्रकार के शांतिमय उपायों के कार्यक्रम शुरु किए थे जिनमें अद्भुत सृजनशीलता प्रकट होती थी। मसलन छात्रों द्वारा चलाई गई जन-अदालतों में मुख्यमन्त्री को राशन की लाइन में एक बरस तक खड़े रहने की सजा सुनाई जाती थी। नारायण देसाई ने नवनिर्माण आन्दोलन के सृजनात्मक कार्यक्रमों की रपट जेपी को दी जिसके बाद आन्दोलन के नेताओं के साथ जेपी का संवाद हुआ । जेपी ने गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन को समर्थन दिया। चिमनभाई पटेल सरकार की अन्ततः विदाई हुई और पहली बार बाबूभाई पटेल के नेतृत्व में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। बिहार के युवाओं के जरिए देश को अपना लोकनायक तो मिलना ही था। जेपी ने अपने आन्दोलन को ‘शांतिमय और शुद्ध उपायों’ से चलाया । इसे अहिंसक नहीं कहा। उन्हें लगता था कि अहिंसा श्रेष्ठतर मूल्य था । जो लोग सिर्फ रणनीति के तौर पर शान्तिमय उपायों को अपनाने को तैयार हुए थे,यानी जिनकी इसमें निष्ठा होना जरूरी न था वे भी आन्दोलन में शरीक थे। लाखों की सभाओं में जेपी ‘बन्दूक की नाल से निकलने वाली राजनैतिक शक्ति’ की अवधारण पर सवाल उठाते थे। ‘कितनी प्यार से जेपी इन सभाओं में पूछते थे,’कितनों को मुहैया कराई जा सकती हैं,बन्दूकें?’ ‘छिटपुट-छिटपुट हिंसा बड़ी हिंसा (सरकारी) से दबा दी जाएगी’ अथवा नहीं?’ , हिंसा न हो इसके लिए उनके साथी सजग थे।जेपी की सभा में आ रही जन सैलाब पर ‘इंदिरा ब्रिगेड’ के दफ्तर से गोलीबारी की प्रतिक्रिया न हो यह सुनिश्चित करके आचार्य राममूर्ति ने गांधी मैदान में जेपी को सूचना दी थी। बिहार बन्द के दरमियान रेल की पटरी पर जुटी नौजवानों की टोली को देख कर असहाय हुए जिलाधिकारी हिंसा और पटरी उखाड़े जाने की संभावना से आक्रांत थे। भीड़ यदि तोड़-फोड़ पर उतारू होती तो गोली-चालन की भी उनकी तैयारी थी। तब उन्ही से मेगाफोन लेकर नारायण देसाई ने उन युवाओं से संवाद किया और ‘हमला हम पर जैसा होगा,हाथ हमारा नहीं उठेगा’,’संपूर्ण क्रांति अब नारा है,भावी इतिहास हमारा है’ जैसे नारे लगवाये । जिलाधिकारी की जान में जान आई। बिहार की तत्कालीन सरकार द्वारा नारायण देसाई को बिहार-निकाला दिया गया था।
आपातकाल के दौरान जॉर्ज फर्नांडीस ने नारायण भाई के समक्ष अपनी योजना (जिसे बाद में सरकार ने ‘बडौदा डाइनामाइट केस’ का नाम दिया) रखी थी । नारायण भाई ने ऐसे मामलों में तानाशाह सरकारों द्वारा घटना – क्षेत्र की जनता पर जुर्माना ठोकने की नजीर दी और कहा कि इससे आन्दोलन के प्रति जनता की सहानुभूति नहीं रह जाएगी। आपातकाल के दौरान गुजरात से ‘यकीन’ नामक पत्रिका का संपादन शुरु करने के अलावा ‘तानाशाही को कैसे समझें?’, ‘अहिंसक प्रतिकार पद्धतियां’ जैसी पुस्तिकाएं नारायण देसाई ने तैयार कीं और छापीं। भवानी प्रसाद मिश्र की जो रचनायें आपातकाल के बाद ‘त्रिकाल संध्या’ नामक संग्रह में छपीं उनमें से कई आपातकाल के दौरान ही ‘यकीन’ में छपीं। प्रेसों में ताले लगे,अदालतों के आदेश पर खोले गए। रामनाथ गोयन्का ने ‘भूमिपुत्र’ को अपने गुजराती अखबार ‘लोकसत्ता’ के प्रेस में छापने का जोखिम भी उठाया।
१९७७ के चुनाव में कई सर्वोदइयों ने पहली बार वोट दिया। ये लोग वोट न देने की बात गर्व से बताते थे। कंधे पर हल लिए किसान वाला झन्डा (जनता पार्टी का) मेरे हाथ से कुछ कदम थाम कर तक मतदाता केन्द्र की ओर चलते हुए नारायण देसाई ने मुझे यह बताया था । यह ‘तानाशाही बनाम लोकतंत्र’ वाला चुनाव था लेकिन जनता से वे यह उम्मीद भी रखते थे – ‘जनता पार्टी को वोट जरूर दो लेकिन वोट देकर सो मत जाओ’। नारायण भाई ने जन-निगरानी के लिए बनी लोक समिति के गठन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर काम किया। बिहार के चनपटिया के कामेश्वर प्रसाद इन्दु जैसे लोक समिति के नेता ‘बेशक सरकार हमारी है ,दस्तूर पुराना जारी है’ के जज्बे के साथ गन्ना किसानों के हक में लड़ते हुए जेल भी गये।
तरुणमन के एक लेख में नारायण देसाई ने कहा था कि महापुरुषों के योग्य शिष्य सिर्फ उनके बताये मार्ग पर ही नहीं चलते है, नई पगडंडियां भी बनाते हैं। इस लिहाज से नारायण देसाई अपने अभिभावक जैसे गांधीजी, अपने आचार्य विनोबा और नेता जेपी की बताई लकीरों के फकीर नहीं बने रहे,उन्होंने अपनी नई पगडंडियां भी बनाई। आन्दोलनों में गीत, संगीत व नाटक का नारायण भाई ने जम कर प्रयोग किया। सांस्कृतिक चेतना के मामले में वे खुद को गांधीजी की बनिस्बत गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर से अधिक प्रभावित मानते थे। वे सधी हुई लय के साथ रवीन्द्र संगीत गाते भी थे। रवीन्द्रनाथ के कई गीतों और कविताओं का उन्होंने गुजराती में अनुवाद किया जो ‘रवि-छबि’ नाम से प्रकाशित हुआ। हकु शाह ,वासुदेव स्मार्त ,गुलाम मुहम्मद शेख और आबिद सूरती जैसे मूर्धन्य चित्रकारों से उनका निकट का सरोकार और मैत्री थी। हकु शाह ने तरुण शान्ति सेना के लिए अपने रेखांकन के साथ फोल्डर बनाया था । शान्ति केन्द्रों के प्रवास से लौट कर वासुदेव स्मार्त ने अपनी विशिष्ट शैली में अरुणाचल प्रदेश पर पेन्टिंग्स की एक सिरीज बनाई थी तथा ‘रवि-छबि’ का जैकेट भी बनाया था। गुलाम मुहम्मद शेख बडौदा शान्ति अभियान का हिस्सा थे और गांधी और विभाजन पर लिखी नारायण देसाई की किताब ‘जिगर ना चीरा’ का जैकेट बनाया था। रवीन्द्रनाथ के शिक्षा विषयक नाटक ‘अचलायतन’ का नारायण देसाई ने अनुवाद किया था। गुजराती साहित्य परिषद गुजराती भाषा की पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था है। साबरमती आश्रम में संगीतज्ञ पंडित खरे और विष्णु दिगंबर पलुस्कर आते थे । पं. ओंकारनाथ ठाकुर भी गांधीजी और राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित थे। अस्पताल के बिस्तर पर भी अपने पसंदीदा कलाकार दिलीप कुमार रॉय, जूथिका रॉय ,सुब्बलक्ष्मी और पलुस्कर के भजन सुन कर तथा स्वजनों से पसंदीदा रवीन्द्र संगीत या कबीर के निर्गुण सुनकर कर नारायण देसाई भाव विभोर हो जाते थे। मृत्यु से नौ दिन पहले होली के मौके पर वेडछी गांव के बच्चे बाजा बजाते हुए उनके आवास पर पहुंचे तब उनके बाजों के साथ नारायण भाई ताल दे रहे थे। दक्षिण गुजरात के इस आदिवासी इलाके का होली प्रमुख त्योहार है। नारायण देसाई साहित्य परिषद के अध्यक्ष बने तब इस संस्था की गतिविधियों को अहमदाबाद के दफ्तर से निकाल कर पूरे गुजरात की यात्राएं की, युवा लेखकों को प्रोत्साहित किया। अपने सामाजिक काम के लिए मिले सार्वजनिक धन को उन्होंने ‘अनुवाद प्रतिष्ठान’ की स्थापना में लगाया है। भारतीय भाषाओं में बजरिए अंग्रेजी से अनुवाद न होकर सीधे अनुवाद हों यह इस प्रतिष्ठान का एक प्रमुख उद्देश्य है। इसके अलावा वैकल्पिक उर्जा तथा मानवीय टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में काम शुरु करने की उनकी योजना थी, जो अपूर्ण रह गई। अंग्रेजी की एक स्तंभकार ने आशंका व्यक्त की है कि २००२ के दंगे न होते तो नारायण देसाई उसी वक्त अवकाश-प्राप्ति कर बैठ जाते। मुझे यह मुमकिन नहीं लगता है। वैसे में वे मानवीय टेक्नॉलॉजी, पानी का प्रश्न,परमाणु बिजली का विरोध तथा भारतीय भाषाओं के हक में लगे हुए होते।
संस्थागत तालीम न हासिल करने वाले नारायण देसाई ने जो तालीम गांधी के आश्रमों में हासिल की थी उसमें कलम और कुदाल का फासला बहुत कम था। बनारस के साधना केन्द्र परिसर के विष्ठा से भरे सेप्टिक टैंक में उतर कर उसकी सफाई करते हुए उन्हें देखा जा सकता था। प्रदूषण फैलाने और पर्यावरण नष्ट करने वाले उद्योगों को इजाजत देने के सूत्रधार जब स्वच्छता अभियान का पाखंड रचते हैं तब उस पाखंड को हम नारायण देसाई जैसे गांधीजन की जीवन-शैली से समझ सकते हैं।
सांगठनिक दौरों से लौट कर अपने मुख्यालय बनारस आने पर वे दौरे की पूरी रपट अपनी पत्नी को देते थे और घर के कपड़े भी धोते थे। १० दिसम्बर को कोमा में जाने के पहले तक उन्होंने गत ७६ वर्षों से लिखते आ रही डायरी की उस दिन की प्रविष्टि लिखने के अलावा तुकाराम के अभंगों को गुजराती में अनुदित करने का काम तो किया ही ,डेढ़ घण्टा चरखा भी चलाया था। चिकित्सकों को अचरज में डालते हुए कोमा से निकल आने के बाद भी उन्होंने अस्पताल में कुल २०० मीटर सुन्दर सूत काता। १९४७ में अपनी पत्नी के साथ मिलकर जिस ग्रामशाला को चलाया था उसके प्रांगण में हुई प्रार्थना सभा में उनके पढ़ाए छात्र और साथी शिक्षकों के अलावा जयपुर से वस्त्र-विद्या के गुरु पापा शाह पटेल और ओडीशा से चरखा, कृषि औजार और बढ़ईगिरी के आचार्य चक्रधर साहू मौजूद थे। नारायण भाई की श्मशान यात्रा में गुजराती के वरिष्ट साहित्यकार राजेन्द्र पटेल व गुजरात विद्यापीठ के पूर्व उपकुलपति सुदर्शन आयंगर भी उपस्थित थे। नई तालीम के इस विद्यार्थी के जीवन में कलम और कुदाल दोनों से जो निकटता थी वह उनकी मृत्यु में भी इन दोनों प्रकार की उपस्थितियों से प्रकट हो रही थी।
वेडछी गांव से गुजरने वाली वाल्मीकी नदी के तट पर नारायण भाई की अन्त्येष्ठी हुई।गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि १९४८ में उनकी मां दुर्गा देसाई ने गांधीजी तथा १९४२ से रखी हुई महादेव देसाई की अस्थियों को एक साथ यहीं विसर्जित किया था। रानीपरज के चौधरी-आदिवासियों के रीति-रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया गया। गंगा जल और मुखाग्नि देने वाले स्वजनों में उनकी पुत्री डॉ संघमित्रा के अलावा इमरान और मोहिसिन नामक दो युवा भाई भी थे जो २००२ के दंगों में मां-बाप से बिछुड़ने के बाद नारायण भाई के साथ संपूर्ण क्रांति विद्यालय परिवार का हिस्सा थे। करीब दस साल बाद उनके माता-पिता का पता तो चल गया लेकिन ‘दादाजी’ की बीमारी की खबर मिली तो तुरंत उनकी सेवा करने के लिए वेडछी आ गये थे।
गांधी ने स्वयं नारायण देसाई का यज्ञोपवीत करवाया था। नारायण भाई ने गांधी के जिन्दा रहते ही जनेऊ से मुक्ति पा ली थी। जेपी आन्दोलन के क्रम में जब हजारों युवजन जनेऊ तोड़ रहे थे तब इस प्रसंग का उन्होंने स्मरण किया था। गांधी ने भी ‘सत्य के प्रयोग’ के क्रम में खुद को इतना विकसित कर लिया था कि १९४७ में नारायण-उत्तरा के विवाह में किसी एक पक्ष के अस्पृश्य न होने के कारण वे उपस्थित नहीं हुए थे। अलबत्ता ऐन शादी के दिन उनका आशीर्वाद का खत पहुंच गया था ।
(अफलातून)
५ , रीडर आवास,
जोधपुर कॉलोनी, काशी विश्वविद्यालय,
वाराणसी – २२१००५.
aflatoon@gmail.com

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” गांधी – एक सख़्त पिता । जेपी – एक असहाय मां । विनोबा – एक पुण्यात्मा बड़ी बहन ।
लोहिया – गांव-दर-गांव भटकने वाला यायावर । अम्बेडकर – पक्षपाती हालात से नाराज होकर घर से बाहर रहने वाला बेटा ।
यह है हमारा हमारा कुटुंब । हम हैं इस परिवार की संतान। इसे और किस नजरिए से देखा जा सकता है ?”
– देवनूर महादेव , (प्रख्यात कन्नड़ साहित्यकार और अध्यक्ष , सर्वोदय कर्नाटक पक्ष)

देवनूर महादेव

अध्यक्ष ,सर्वोदय कर्नाटक पक्ष

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मित्र गोपाल राठी ने सूचित किया है की आज मैथिलीशरण गुप्त की जन्म तिथि है । अपने नाना के संग्रह से उनकी लिखी एक छोटी सी पुस्तिका लाया हूं – ‘भूमि-भाग ‘। विनोबा के भूदान के दौर में लिखी गई कविताओं का संग्रह है ।

एक खेत

रहते हम यों जीवित-मृत क्यों ? ज्यों मरघट के भूत-प्रेत ,

कहीं हमारा भी होता हां ! छोटा-मोटा एक खेत ,

बैल न होते , हम तो होते ,

श्रम-जल सींच जोतते बोते ,

उगते आशा के-से अंकुर रहता फिर क्यों रक्त श्वेत ?

कहीं हमारा भी होता यदि छोटा-मोटा एक खेत !

बांध मचान रखाते गाते  ,

हम कितना आनंद मनाते ,

जग में हरा खेत हैं जिनका भरा उन्हींका है निकेत ।

कहीं हमारा भी होता यदि छोटा-मोटा एक खेत !

आती फिर गोमाता मोटी ,

बच्चे खाते  माखन – रोटी ,

देती उन्हें गर्व से गृहिणी घर के तिल गुड़ के समेत ।

कहीं हमारा भी होता यदि छोटा-मोटा एक खेत !

क्या-क्या फूल फूलते-फलते ,

रंहट और रंहटे सब चलते ,

मोती बरसाती तब मिट्टी मणि-कणिकाएं धुल रेत ।

कहीं हमारा भी होता यदि छोटा-मोटा एक खेत !

स्वप्न देखते हैं हम झूठे ,

देश काल दोनों हैं रूठे ,

दुर्लभ हुई धुल भी हमको , व्यर्थ कल्पना , चित्त ,चेत ।

कहीं हमारा भी होता यदि छोटा-मोटा एक खेत !

– मैथिलीशरण गुप्त

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सारांश यह है कि इस्लाम का यह सच्चा स्वरूप है । इसे ठीक – ठीक पहचानना चाहिए और उसका सार ग्रहण कर लेना चाहिए । इन्हीं सब के आधार पर इस्लाम टिका हुआ है ,किसी जोर जबरदस्ती के आधार पर नहीं ।  कुरान में साफ़ तौर पर कहा गया है , ला इकराह फ़िद्दीन ’ – धर्म की बाबत कत्तई जोर जबरदस्ती नहीं हो सकती । इस बात का कथित मुसलमानों द्वारा कई बार भंग हुआ है , परंतु यह मूलत: इस्लाम के विरुद्ध है । इस्लाम तो यह ही कहता है कि धर्म- प्रचार में जबरदस्ती हो ही नहीं सकती । बस , आप धर्म के विचार लोगों के समक्ष रख दीजिए ।

बरसों पहले इस्लाम के एक अध्येता मोहम्मद अली ने मुम्बई में कहा था कि कुरान के उपदेशों की बाबत हिंदुओं या ईसाइयों के मन में उपजी विपरीत भावनाओं के लिए ऐसे थोड़े से मुसलमानों की जिम्मेदारी  है, जिन्होंने कुरान के उपदेश के विरुद्ध आचरण किया ।

अलबत्ता , यह पाया जाता है कि कि मुसलमानों ने अपनी संस्कृति के विकास के लिए दो मार्ग अपनाये – एक हिंसा का तथा दूसरा प्रेम का । दोनों मार्ग दो धाराओं की तरह एक साथ चले । हिंसा के साथ हम गजनी , औरंगजेब का नाम ले सकते हैं , तो दूसरी तरफ़ प्रेम मार्ग के साथ अक़बर और फ़कीरों के नाम ले सकते हैं । इसलिए यह मान्यता रूढ़ हो गई है कि मुसलमानों ने तलवार के बल पर धर्म – प्रचार किया , यह संपूर्ण सत्य नहीं है, बल्कि अत्यल्प सत्य है , केवल तलवार के बल पर दुनिया में कुछ संभव नहीं है।

एक बात समझने लायक है । तलवार के बल पर सब कुछ संभव है यह मानना वैसा ही है मानो रेत की बुनियाद पर बड़ा मकान खड़ा कर लेना । यह असंभव है । हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उन्हीं बीजों में से अंकुर फूटता है , जिनमें सत्व होता है । हम जब कचरे को धूल के ढेर में डालते हैं तब उसके साथ एकाध जौ का दाना भी चला जाता है । कचरा तो फिर कचरा है , वह सड़ जाता है। परन्तु वह दाना है जिसमें से अंकुर फूटता है। हमारे ध्यान में यह बात नहीं आती । यदि दाना सजीव न हुआ तो अंकुर नहीं फूटता । यह बात संस्कृतियों पर भी लागू होती है । किसी आंतरिक सत्व के बिना संस्कृतियां प्रस्फुटित नहीं होतीं ।

कई बार पश्चिम की संस्कृति की बाबत भी हम कह देते कि वह पशुबल के आधार पर विजयी हुई है। यह बिलकुल स्थूल दृष्टि है । उन्हें जो सफलता मिली है वह उनकी उद्यमशीलता,सहकार्य की वृत्ति ,कष्ट तथा संकट सहन कर लेने की हिम्मत , एक-एक विषय के पीछे पागल बन पूरी जिन्दगी उसके लिए न्योछावर कर देने की तैयारी आदि गुणों के कारण मिली है । हमें झट तलवार या पशुबल दीखता है,परंतु तलवार लंगड़ी होती है, बुनियाद में तो गुणों की राशि ही होती है ।

फकीर आम जनता में हिल-मिल गए

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इस्लाम का प्रचार तलवार के जोर पर नहीं हुआ है । मुसलमानों में सैंकड़ों संत हो गए , औलिया हो गए , फकीर हो गए । इस वजह से ही इस धर्म का ज्ञान दुनिया भर में फैला । जैसे बुद्ध के अनुयाई दुनिया के चारों ओर गए , वैसे ही इस्लाम के संत और फकीर भी गए । इस्लाम का प्रचार मुसलमान राजाओं ने नहीं , फकीरों ने किया । उस वक्त हिन्दुस्तान की आम जनता पर फकीरों का कितना अधिक प्रभाव था,उसका अनुमान आप छत्रपति शिवाजी के इस कथन से लगा सकते हैं,जिसमें उन्होंने कहा कि हिन्दु धर्म की रक्षा के लिए मैंने फकीरी अपनाई है । यानि ’फकीरी’ शब्द सामान्य बोलचाल की भाषा में दाखिल हो गया था । जनता के दिल में फकीरी के लिए इतना आदर था । फकीर आम जनता में हिल-मिल गए थे । हिंदु अपनी संतान का नाम भी इस्लामी संतों के नाम पर रखते थे ! अरे,शिवाजी के पिता का नाम शाहजी था, जो एक मुसलमान संत का नाम है !

इसलिए हमें इस्लाम के विषय में अपनी कई गैर-समझ और ग्रंथियों को दूर कर लेना चाहिए , तथा इस्लाम की असली पहचान हासिल करनी चाहिए व विकसित करनी चाहिए ।

(संकलित)

इस्लाम का पैगाम / ब्याजखोरी का तीव्र निषेध / विनोबा

इस्लाम का पैगाम / एकेश्वरवाद का बहुमूल्य संदेश और जकात/ विनोबा

इस्लाम की असली पहचान : मानव – मानव का नाता बराबरी का है / विनोबा

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इस्लाम ने ब्याजखोरी का भी तीव्र निषध किया है । सिर्फ़ चोरी न करना इतना ही नहीं , आपकी आजीविका भी शुद्ध होनी चाहिए । गलत रास्ते से की गई कमाई को शैतान की कमाई कहा गया है । इसीलिए ब्याज लेने की भी मनाही की गई है । कहा गया है कि सूद पर धन मत दो , दान में दो ।

मोहम्मद साहब को दर्शन हुआ कि ब्याज लेना आत्मा के विरुद्ध काम है । कुरान में यह वाक्य पाँच-सात बार आया है – ” आप अपनी दौलत बढ़ाने के लिए ब्याज क्यों लेते हैं ? संपत्ति ब्याज से नहीं दान से बढ़ती है । ” बारंबार लिखा है कि ब्याज लेना पाप है , हराम है । इस्लाम ने इसके ऊपर ऐसा प्रहार किया है , जैसा हम व्यभिचार या ख़ून की बाबत करते हैं । परंतु हम तो ब्याज को जायज आर्थिक व्यवहार मानते हैं ! वास्तव में देखिए तो ब्याजखोरी, रिश्वतखोरी वगैरह पाप है । ब्याज लेने का अर्थ है , लोगों की कठिनाई का फायदा उठाते हुए पैसे कमाना । इसकी गिनती हम लोग कत्तई पाप में नहीं करते ।

वास्तव में देखा जाए तो अपने पास आए पैसे को हमें तुरंत दूसरे की तरफ़ धकेल देना चाहिए । फ़ुटबॉल के खेल में अपने पास आई गेंद हम अपने ही पास रक्खे रहेंगे , तो खेल चलेगा कैसे ? गेंद को खुद के पास से दूसरे को फिर तीसरे को भेजते रहना पड़ता है , उसीसे खेल चलता है । पैसा और ज्ञान , इन्हें दूसरे को देते रहेंगे तब ही उनमें वृद्धि होगी ।

मेरा मानना है कि ब्याज पर जितना प्रहार इस्लाम ने किया है किसीने नहीं किया है । ब्याज पर इस्लाम ने यह जो आत्यंतिक निषेध किया है , उसको समाज को कभी न कभी स्वीकार करना ही पड़ेगा । वह दिन जल्दी आना चाहिए , हमें उस दिन को जल्दी लाना चाहिए । एक बार ब्याज का निषेध हो गया , तो संग्रह की मात्रा बहुत घट जाएगी । इस्लाम ने ब्याज न लेने का यह जो आदेश दिया है , उसका यदि अमल किया जाए तो पूँजीवाद का ख़ातमा ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाएगा । जिसे हम सच्चा अर्थशास्त्र कहते हैं उसके बहुत निकट का यह विचार है । मुझे लगता है कि साम्यवाद की जड़ का बीज मोहम्मद पैगम्बर के उपदेश में है । वे एक ऐसे महापुरुष हो गये जिन्होंने ब्याज का निषेध किया तथा समता का प्रचार किया । इस उसूल को उन्होंने न सिर्फ़ जोर देकर प्रतिपादित किया बल्कि उसकी बुनियाद पर संपूर्ण इस्लाम की रचना उन्होंने इस प्रकार की , जैसी और किसी ने नहीं की ।

वैसे तो ब्याज लेने की बात पर सभी धर्मों ने प्रहार किया है । हिंदु धर्म ने ब्याज को ’ कुसीद ’ नाम दिया है , यानि खराब हालत बनाने वाला, मनुष्य की अवनति करने वाला । उसके नाम मात्र में पाप भरा है । ब्याज न लेना यह चित्तशुद्धि का काम है , पापमोचन है । ब्याज लेना छोड़ना ही चाहिए । वैसे, ब्याज के विरुद्ध तो सभी धर्मों ने कहा है परन्तु इस्लाम जितनी स्पष्टता और प्रखरता से अन्य किसी ने भी नहीं कहा है ।

जारी

[ अगला : धर्म के मामले में कदापि जबरदस्ती नहीं की जा सकती ।

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इस्लाम का एकेश्वर का संदेश भी बहुमूल्य है । सूफ़ी संत और फ़कीर महाराष्ट्र में भी गाँव – गाँव घूमते हुए, ’ईश्वर एक है ’ कहते रहे । उसी दौर में महाराष्ट्र का एक व्यक्ति पैदल ही निकला और ठेठ पंजाब तक घूम आया । वह पंजाब में बीस साल रहा । वे थे , नामदेव । नामदेव ने भी कहा कि हम भी एक ईश्वर में ही मानते हैं ; परंतु विविध देवताओं की पूजा करते – करते ईश्वर के एकत्व का यह विचार लगभग भुला चुके हैं । इसलिए नामदेव ईश्वर के एकत्व का पुन: प्रतिपादन करने लगे । उन्होंने कहा कि एक बार जब राजा से मुलाकात हो जाती है तब सेवकों को कौन पूछता है ? गणेश ,शारदा आदि तो ईश्वर के सेवक हैं । स्वामी के साक्षात दर्शन हो जाने के बाद चाकरों की क्या जरूरत ? नामदेव ने एक भजन में यह भी कहा कि मन्दिर – मस्जिद दोनों की पूजा छोड़ो तथा जो अंतर्यामी ईश्वर है उसकी तरफ़ रुख़ करो ।

बंगाल में भी इस्लाम और ईसाइयत का बहुत असर था । तब वहां राजा राममोहन राय और देवेन्द्रनाथ टैगोर जैसे लोग खड़े हुए । उन्होंने कहा कि अपने यहाँ भी एकेश्वर की बात कही गई है । श्वेताश्वर उपनिषद में एकेश्वर का प्रतिपादन करने वाले अनेक वचन मिलते हैं । श्वेताश्वर कहता है – ’ एको हि रुद्र: ’। इन लोगों ने श्वेताश्वर उपनिषद का अध्ययन किया । ब्रह्मोसमाज की प्राथना में श्वेताश्वर उपनिषद के कुछ श्लोक भी गाये जाते हैं । ईश्वर ’ एकमेवाद्वितीयम ’ है । ईश्वर एक और अद्वितीय है , उसकी कौन सी उपमा दी जा सकती है? ईश्वर एक ही है। उसके जैसा अन्य कुछ नहीं ।

यह भी पता चलता है कि चैतन्य महाप्रभु हों,कबीर दास हों या गुरु नानक हों सभी के जीवन और चिंतन पर जितना असर वैष्णव धर्म का पड़ा है, उतना ही कुरान का भी पड़ा है ।  नानक ने तो ’जपुजी’ में क़ुरान का उल्लेख भी किया है । सिखों के गुरुग्रंथसाहब में भी गुरुओं की वाणी के साथ ही साथ मुसलमान संत बाबा फ़रीद की वाणी भी है । सभी संतों के हृदय एक होते हैं । गुरु ग्रंथसाहब में ऐसे विचार जगह-जगह देखने को मिल जायेंगे , ’ भले वेद हो या कुरान ,जो सार है तो वह है भगवान का नाम,और उसे हमने लिया है । “

नियमित जकात दो !

इसी प्रकार इस्लाम का एक अन्य संदेश है,जकात का तथा ब्याज के निषेध का । कुरान में आता है,’… व आत ज़ जकात ’ – जकात (नियमित दान ) देना चाहिए । खैरात तथा जकात । खैरात यानि ईश्वर के प्रति प्रेम से प्रेरित हो अनाथ , याचकों आदि को धन देना । जकात यानि नियमित दान । ’ …व मिम्मा रजाक्नाहुम युन्फ़िकून ’ – जो  कुछ भी तेरे पास है , उसमें से दूसरे को देना चाहिए । देना धर्म है तथा यह सब पर लागू होता है , इसलिए गरीब भी दें । देने का धर्म हर व्यक्ति को निभाना है । जो कुछ थोड़ा सा भी मिलता हो उसमें से पेट काट कर देना चाहिए । किसान क्या करता है ? जब फसल आती है तब उसमें से सर्वोत्तम बीज अलग से रख लेता है । अस्गले साल बोने के लिए । खुद के लिए खाने भर का न हो तब यह  बियारण निकाल लेता है,उसे नहीं खाता । देखा जाए तो यह उसकी क़ुरबानी है । इस पर अल्लाह खुश होता है तथा उसे बियारण का दस गुना करके देता है । इसी वजह से हर व्यक्ति को अपना फ़र्ज अदा करना चाहिए ।

पानी से हमे सबक लेना चाहिए । जैसे पानी हमेशा नीचे की तरफ़ दौड़ता है,वैसे ही हमे भी समाज के सबसे दु:खी,गरीब की इमदाद (सहायता ) में दौड़ पड़ना चाहिए । मुझे दो रोटियों की भूख है और मेरे पास एक ही रोटी है तो भी मुझे उसमें से एक टुकड़ा दूसरे को देकर ही ख़ुद खाना चाहिए । इसी में मानवता है । यादि आप ऊपर की तरफ़ देखते रहेंगे तब आपको लगेगा कि मुझे अधिक,और अधिक मिलता रहे । इस प्रकार लोभ लालसा बढ़ाने में मानवता नहीं है । यह मनुष्य के भेष में छुपी हैवानियत है ।

एक और बात भी कही है कि आपने जो बहुत बड़ा संग्रह किया है ,उसमें से देने की बात नहीं है । वैसा संग्रह करना तो मूल रूप में ही पाप माना गया है । आप जिसे ’रिज्क’ यानि रोजी कहते हैं , भगवान की कृपा से जो आपको प्रति दिन मिलती है , उसमें से आपको देना है । यह बात सभी के लिए कही गई है ,मात्र रईसों के लिए नहीं । तथा यह सभी धर्मों ने कही है ।

[ जारी ]

अगली कड़ी -’ब्याजखोरों का तीव्र निषेध ’

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[ गुजराती पत्रिका ’ भूमिपुत्र’ में विनोबा भावे के इस्लाम की बाबत विचार प्रकाशित हो रहे हैं । आशा है इस विषय पर समझदारी बनाने में इन से मदद मिलेगी । अफ़लातून ]

यह निर्विवाद हकीकत है कि आरंभिक जमाने में इस्लाम का प्रचार त्याग और कसौटी पर ही हुआ । प्रारंभ में इस्लाम का प्रचार तलवार से नहीं , आत्मा के बल से हुआ । कार्लाइल ने कहा है कि प्रारंभ में इस्लाम अकेले पयगंबर मोहम्मद के हृदय में ही था , न ? तब क्या वे अकेले तलवार लेकर लोगों को मुसलमान बनाने निकले थे ? इस्लाम का प्रचार-प्रसार उन्होंने आत्मा के बल से किया था । सभी प्रारंभिक खलीफ़ा भी धर्म-निष्ठ थे तथा उनकी धर्म-निष्ठा के कारण ही इस्लाम का प्रचार हुआ ।

इस्लाम का मतलब ही है शांति तथा ईश्वर-शरणता । इसके सिवा इस्लाम का कोई तीसरा अर्थ नहीं है । इस्लाम शब्द में ’सलम’ धातु है । जिसका अर्थ है शरण में जाना । इस धातु से ही ’सलाम’ शब्द बना है। सलाम का मतलब शान्ति । इस्लाम का अर्थ पर्मेश्वर की शरण में जाना । परमेश्वर की शरण में जाइएगा तो शान्ति पाइएगा ।

मानव – मानव का नाता बराबरी का है

इस्लाम में सूफ़ी हुए । सूफ़ी यानी कुरान का सूक्ष्म अर्थ करने वाले । भारत में इस्लाम का प्रथम प्रचार सूफ़ियों ने किया । इस वास्ते ही इस्लाम भारत में लोकप्रिय बना । मुस्लिम राजा या लुटेरे तो बाद में आये  , आउर वे आए और लौट गये । परंतु सूफ़ी फ़कीर यहाँ आए और देश भर में घूम कर प्रचार किया । इस्लाम में एक प्रकार का भाईचारा मान्य है । इस्लाम धर्म की यह भाईचारे की भावना हम सब को अपना लेनी चाहिए । यहाँ की ब्रह्मविद्या उससे मजबूत होगी ।

’ सब में एक ही आत्मा बसती है’ – यह कहने वाले हिंदू धर्म में अनेक जातिभेद , ऊँच-नीच के भेद तथा अन्य अनेक प्रकार के भेदभाव हैं । हमारी सामाजिक व्यवस्था में समानता की अनुभूति नहीं होती है । यह एक बहुत बड़ी विसंगति है , विडंबना है ।  जबकि इस्लाम में जैसे एकेश्वर का संदेश है , वैसे ही सामाजिक व्यवहार में संपूर्ण अभेद का भी संदेश है । इस्लाम कहता है कि  , मानव – मानव के बीच किसी प्रकार का भेद नहीं करना चाहिए , मानव – मानव का नाता बराबरी का है । इस्लाम की इस बात का असर भारत के समाज पर पड़ा है ।  हमारे यहाँ जो कमी थी उसको इस्लाम ने पूरा किया । खास तौर पर फ़कीरों और सूफ़ी संतों ने जो प्रचार किया उसका यहाँ बहुत असर पड़ा । कई संघर्ष हुए , लड़ाइयां हुईं, इसके बावजूद बाहर से आई एक अच्छी और सच्ची चीज का यहाँ के समाज पर गहरा असर पड़ा । इस्लाम का यह संदेश बहुत पवित्र संदेश है । [ जारी ]

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प्रथम भाग से आगे :

    भारतीयता के अलग – अलग युग हुए हैं और इनमें नारी जीवन के अलग-अलग मूल्य बने हैं । इनके अनुसार अलग – अलग प्रथायें भी प्रचलित हुईं हैं । आज का भारतीय अपने ही इतिहास से किसी एक परम्परा को बनाए रखने के लिए कुछ अन्य परम्पराओं को तथा प्रथाओं को ठुकरायेगा ही । सती – प्रथा भारतीय – समाज के कुछ ही इलाकों में , कुछ ही कालखण्डों में प्रचलित प्रथा है । इसलिए कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति की जो स्वस्थ मुख्यधारा रही है उससे इसका तार्किक मेल नहीं है । जिन दिनों हिन्दू समाज में पुरुषार्थ इतना घट गया था कि अपने मुल्क या अपने धर्म की रक्षा करने के लिए सामर्थ्य नहीं रह गया था , जिन दिनों राजपूत रमणियों के पास आत्महत्या के अलावा सम्मान – रक्षा का कोई उपाय नहीं बच गया था , सती – प्रथा को उन्हीं दिनों गौरव प्राप्त हुआ था । उसके पहले सिर्फ निकृष्ट व्यक्ति और निकृष्ट संस्कृति के सन्दर्भ में सती – प्रथा का उल्लेख है । रामायण की सती अयोध्या में नहीं लंका में है । कुन्ती सती नहीं होती है , माद्री होती है । आपने अपने ही लेख में लड़कियों के पैदा होते ही मार दिए जाने की घटना को शर्मनाक और राजपूतों की कायरता की निशानी कहा है । अपनी बेटियों के मान – सम्मान की रक्षा का आत्मविश्वास उनमें नहीं था । सती – प्रथा पर भी ठीक वही बात लागू होती है , क्योंकि कायरता के जमाने में ही पद्मिनी को आदर्श नारी माना गया है ।

    भारतीय समाज में  सिद्धान्त और आचरण की दूरी शायद दूसरे समाजों की तुलना में ज्यादा है । आपने ऐसे सिद्धान्तों का हवाला दिया है जिन पर अमल नहीं होता है या किसी एक जमाने में सम्भवत: उन पर अमल होता हो जबकि अधिकांश कालावधि में उनसे विपरीत व्यवहार चला है । आपने पंचकन्याओं का उल्लेख कर कहा है कि नारी के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टिकोण कितना उदार और विज्ञान सम्मत है । लेकिन क्या आपने कभी हिन्दू परिवार में किसी को कहते हुए सुना है कि अमुक स्त्री द्रौपदी जैसी या कुन्ती जैसी या अहिल्या जैसी सती-साध्वी है ? वाल्मीकि रामायण और महाभारत के बाद नारी का इस प्रकार का आदर्श न पुराणों में है , न किस्सों-कहानी में है , न कथोपकथन में है । भारतीय नारी का वह स्वर्ण युग खतम हो गया है । उसके बाद के कालों की जो भारतीयता हमारे सामने है , उसमें नारी का सामाजिक मूल्य भिन्न प्रकार का हो गया है । यह शायद सर्वसम्मत है कि उपनिषद और महाभारत के बाद भारतीय नारी का अवमूल्यन होता रहा । वाल्मीकि की सीता असभ्य कट्टर राम की आलोचना करती है । तुलसी की सीता के मुँह से ऐसी आलोचना निकल नहीं सकती है । पंचकन्या को सती माननेवाला समाज और सती की पूजा करनेवाला समाज दो अलग – अलग दृष्टिकोणों की उपज हैं । दो भिन्न संस्कृतियाँ हैं । आप जब भारतीयता के बारे में लिखते हैं तब उपनिषद , गौतम बुद्ध , महाभारत , मनुस्मृति , तुलसीदास और मुगलकालीन राजपूत समाज , इन सबको एक ही संस्कृति मान लेते हैं । एक  ही सभ्यता की कुछ मौलिक धारणायें इन सबके पीछे कड़ी के तौर पर रही होंगी । लेकिन आचरण , प्रथा , पुरुषार्थ , दृष्टिकोण , मान्यताएँ अलग – अलग हैं । एक दूसरे के विपरीत भी हैं । भारतीयता के किसी एक युग या एक स्थल के सिद्धान्त को बताकर भारतीयता के किसी दूसरे युग या स्थल की मान्यताओं के पक्ष में बहस करना तर्क की बहुत बड़ी ग़लती होगी । वर्णाश्रम और जाति-प्रथा का फर्क काफ़ी सूक्ष्म है । फिर भी जाति प्रथा के पक्ष में बहस करने के लिए वर्णाश्रम के सिद्धान्त को बताना तर्क की ग़लती होगी ।

    आप पश्चिमी   संस्कृति और भारतीय संस्कृति की तुलना करते हैं , इस प्रकार की गलतियाँ बार – बार होती हैं । भारतीय संस्कृति की कुछ अवधारणायें जरूर ऐसी हैं जो दुनिया में श्रेष्ठ हैं और मानव संस्कृति के नवनिर्माण के लिए आधार बन सकती हैं । लेकिन आपकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति में सब कुछ अच्छा है , युरोपीय संस्कृति में सब कुछ तुच्छ है । भारतीय नारी के बारे में आप चुन चुन कर ऐसी बातें निकालते हैं जो श्रेष्ठ हैं और वे ज्यादातर तो सिद्धान्तरूप में हैं , व्यवहार में नहीं हैं ( जैसी पंचसती का श्लोक ) । नारी के सम्बन्ध में जो प्रतिकूल बाते हैं , श्लोकों से लेकर कहावत तक ,  उसका आप उल्ले नहीं करते । जिन श्लोकों में और कहावतों में कामुकता का स्रोत नारी को ही माना गया है  , पराधीनता नारी की स्वाभाविक स्थिति मानी गयी है ,  उनको आपने छोड़ दिया है । दूसरी ओर युरोपीय समाज की जो खास उपलब्धियाँ हैं उनको आप छोड़ देते हैं और वहाँ की निकृष्ट बातों का जिक्र करते हैं । कैथलिक संन्यासिनियों की परम्परा को आपने बिलकुल नजरअन्दाज कर दिया है । संयुक्त परिवार को आपने भारतीय विशेषता मान ली है , जब कि यह यूरोप तथा सारी दुनिया में प्रचलित था ।

    आधुनिकतावाद और युरोपीय संस्कृति दो अलग – अलग चीजें हैं । आप दोनों को एक मान रहे हैं । युरोपीय संस्कृति की अपनी जड़ें हैं जबकि आधुनिकतावाद जड़विहीन है । पश्चिम की प्रभुता और समृद्धि से प्रभावित होकर गैरयूरोपीय बुद्धिजीवियों ने उसका अनुकरण किया है । हीन – भावनाग्रस्त होकर , अपनी भाषाओं को छोड़कर , अपने इतिहास को बाजू में रखकर उन्होंने एक नकली संस्कृति का निर्माण किया है । यही आधुनिकतावाद है । यूरोपीय संस्कृति में फ्रांस या जरमनी में आप कल्पना कर नहीं सकते कि किसी विदेशी भाषा को राष्ट्रीय कार्यकलाप , अनुसन्धान और शिक्षा का माध्यम बनाया जाए । पश्चिमी समाज अभी भी नये नये सत्यों और तथ्यों का अनुसंधान करता है । नए सत्यों का उद्घाटन , नए प्रतिपादनों की स्थापना , मौलिक यन्त्रों का निर्माण आधुनिकतावाद की क्षमता के बाहर है । आधुनिकतावाद विकासशील देशों की संस्कृति है ,  यूरोप की नहीं । यूरोपीय समाज और आधुनिकतावादी समाज में काफ़ी सामंजस्य है , कारण आधुनिकतावादी समाज उस सारे सामान , तरीकों और धारणाओं का इस्तेमाल करता है जिनकी उत्पत्ति पश्चिम में हुई है । इस बाह्य सामंजस्य के तले जो आधुनिकतावाद की असलियत है , वह एक नकलची और गुलामों की संस्कृति है ।

    यूरोपीय संस्कृति का विकास भारत जैसा लम्बा या पुराना नहीं है , इसका पतन भी शुरु हो चुका है । प्रभुता और यान्त्रिक सम्रुद्धि को छोड़कर उसमें और कोई प्रभावशाली गुण नहीं रह गया है । लेकिन उसके पूरे इतिहास को देखें तो मानव समाज के लिए उसके कई महत्वपूर्ण योगदान हैं । जिन मुद्दों पर उसका योगदान है उन बातों में भारतीय संस्कृति में कमियाँ पाई जाती हैं । व्यक्ति की गरिमा , जिसका आपने कई बार जिक्र किया है , एक यूरोपीय अवधारणा थी ,अब सारी दुनिया की अवधारण है । फ्रांसीसी क्रान्ति के तीन शब्द ’स्वतंत्रता , समता और भातृभाव ’ आधुनिक मनुष्य के सपने के पर्यायवाची बन गये हैं । जब किसी समाज में पुरुषार्थ होता है और कुछ मूल्य होते हैं तब उन मूल्यों की दिशा में सत्य का अनुसंधान चलता है । जब भारतीय समाज में पुरुषार्थ था तब एक खास दिशा में सत्य का अनुसंधान था । इसको हम ’आध्यात्मिक दिशा’ कह सकते हैं । यूरोपीय समाज में भौतिक मूल्यों को अग्राधिकार मिला । भौतिक सुख को सर्वोच्च मानकर पश्चिम में जो अभूतपूर्व अनुसंधान चला , वह अभी भी भी जारी है लेकिन मौजूदा भारतीय समाज में आध्यात्मिक या भौतिक किसी प्रकार के सत्य का अनुसन्धान नहीं है । उसमें जड़ता आ गई है । यूरोप के सत्य से जो भौतिक सम्रुद्धि बनी वह राक्षसी हो गई क्योंकि पश्चिम की प्रभुता और समृद्धि को बनाये रखने के लिए बाकी मानव समाज को कंगाली और गुलामी में रखना पड़ता है । यूरोप का अपना लक्ष्य (स्वतंत्रता , समता और भ्रातृत्व ) अब मौजूदा यूरोपीय संस्कृति के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है । मानव समाज को एक नई संस्कृति चाहिए 

     ( अगली किश्त में समाप्य  ) 

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प्रकृति – लय के साथ सुसंवादी जीवन का लय

पिछला भाग ।  इस प्रकार सूर्य हमारे जीवन से गहन रूप से सम्बद्ध है । उसके लय के साथ यदि हमारे जीवन का लय मिला होगा तो इससे हमारा जीवन सुसंवादी बनेगा । अपनी आंखों के सामने हम रोज सूर्य की दो प्रक्रियाओं को देखते हैं । शाम को सूर्यनारायण अस्त होते हैं , तब पूरी दुनिया अव्यक्त में लीन हो जाती है तथा सुबह सूर्योदय होता है , तब फिर व्यक्त का विस्तार होता है । यह प्रक्रिया रोज-ब-रोज चल रही है । रात में हम कहां जाते हैं , मालूम नहीं । अवश्य कहीं जाते हैं तथा बहुत शान्ति पा कर लौटते हैं । हम जहां पहुंचते हैं वहां ‘अहं’ का होश हमे नहीं रहता । एक सिंह सोया हुआ है । निद्रावस्था में उसे इसका ख्याल नहीं है कि वह खुद ‘सिंह’ है । मनुष्य भी जब सोता है तब उसे होश नहीं रहता है कि वह खुद ‘मनुष्य’ है । अर्थात निद्रावस्था में सभी अपने मूल स्वरूप में पहुंच जाते हैं तथा सब का मूल स्वरूप एक ही है । इस बात की थोड़ी अनुभूति गाढ़ निद्रा के दौरान होती है ।इसके पश्चात हम फिर जागृत हो कर अपने – अपने स्वरूप में लौट कर भिन्न – भिन्न कामों में लग जाते हैं ।

    अर्थात हमें प्रकृति की घटनाओं के प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए , बल्कि प्रकृति के लय के साथ अपना लय मिलाए रखने की कोशिश करते रहना चाहिए । वेद में कहा गया है , ‘ श्रेष्ठै रूपै स्तन्वं स्पर्शयस्वं ‘  – सूर्य के श्रेष्ठ रूपों से शरीर का स्पर्श होने दो । इस प्रकार , सूर्य हमारा परम मित्र है । मित्र के सभी लक्षण हम सूर्य में देख सकते हैं ।

जनहित काज

जनहित काज

जीवन – दर्शन की विशेषता का द्योतक

    हिन्दुस्तान में ‘मैत्री’ शब्द का उच्चारण पहली बार वेद भगवान ने किया तथा उसका उदाहरण सूर्यनारायण का दिया । वेद में सूर्य को ‘मित्र’ कहा गया । यह हमारी संस्कृति की विशेषता है । हमारी संस्कृति का यह एक विशेष दर्शन है । जहाँ यह दर्शन नहीं है वहाँ इस बात को ढंग से समझना मुश्किल होता है । वहाँ इससे बिलकुल जुदा अभिगम देखा जा सकता है । ऋगवेद में एक मंत्र है , ‘ सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषाम्भ्येति पश्चात ‘  । ऋगवेद के अंग्रेजी अनुवादक ग्रिफिथ ने इसका अर्थ ऐसा किया है – Like a young man followeth a maiden , so doth th sun thee dawn. जैसे कोई युवक एक तरुणी के पीछे जाता है , वैसे ही सूर्य ऊषा के पीछे आता है । ग्रिफिथ ने ऐसा अर्थ किया। मैं इसका अर्थ ‘मेडन’ ( तरुणी ) करने के बजाए ‘ मदर’ ( माता ) कर रहा हूँ । ऊषा माता है और उसके उदर से सूर्य निकलता है । आगे ऊषा है , उसके पीछे सूर्य है । ऊषा माँ है , पत्नी नहीं ।’

    जीवन – दर्शन की ऐसी विशेषता के कारण ही हमने सूर्य को मित्र माना है । सूर्य हमारा परम मित्र है ।

( संकलित , संकलन – कांति शाह , मूल गुजराती ‘भूमिपुत्र’ से , अनुवाद – अफ़लातून )

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