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Posts Tagged ‘kishan pattanayak’

पिछले भाग से आगे ;
तो भारतीय बुद्धिजीवी को जब पश्चिमी सभ्यता अधूरी लगती है , तब वह प्राचीनता की किसी गुफा में घुस जाता है और जब वह अपनी सभ्यता के बारे में शर्मिन्दा होता है तब पश्चिम का उपनिवेश बन कर रहना स्वीकार कर लेता है । दोनों सभ्यताओं से संघर्ष करने की प्रव्रुत्ति भारतीय बुद्धिजीवी जगत में अभी तक नहीं विकसित हुई है या जो हुई थी , वह खत्म हो गई है । गांधी के अनुयाई गुफाओं में चले गये। रवि ठाकुर के लोग अंग्रेजी और अंग्रेजियत के भक्त हो गये । गांधी के एक शिष्य राममनोहर लोहिया ने ‘इतिहास चक्र’ नामक एक किताब लिखी । एक नई सभ्यता की धारा चलाने के लिए आवश्यक अवधारणाएं प्रस्तुत करना इस किताब का लक्ष्य था । अंग्रेजी में लिखित होने के बावजूद बुद्धिजीवियों ने उसे नहीं पढ़ा । औपनिवेशिक दिमाग नवनिर्माण की तकलीफ को बर्दाश्त नहीं कर सकता । ज्यादा-से-ज्यादा वह प्रचलित और पुरानी धाराओं को साथ-साथ चलाने की कोशिश करता है और दोनों के लिए कम-से-कम प्रतिरोध की रणनीति अपनाता है । आम जनता पर दोनों प्रतिकूल सभ्यताओं का बोझ पड़ता है और वह अपनी तकलीफ के अहसास से आन्दोलित होती है । सभ्यताओं से संघर्ष की इच्छा शक्ति के अभाव में देश के सारे राजनैतिक दल अप्रासंगिक और गतिहीन हो गए हैं । जनता के आन्दोलन को दिशा देने की क्षमता उनमें नहीं रह गई है । जन-आन्दोलनों का केवल हुंकार होता है, आन्दोलन का मार्ग बन नहीं पाता । जहां क्षितिज की कल्पना नहीं है, वहां मार्ग कैसे बने ? इस कल्पना के अभाव में क्रान्ति अवरुद्ध हो जाती है ।
ऐसी स्थिति में यही कहना काफी नहीं होगा कि सभ्यता के स्तर पर समस्याओं का सामना करना पड़ेगा । मुकाबले की रणनीति भी बनानी पड़ेगी । किन बिन्दुओं पर हम सभ्यता या सभ्यताओं से टकराएंगे ? आधुनिक सभ्यता ने हमें कहां गुलाम बनाया है ? प्राचीन सभ्यता ने हमें कहां दबोच रखा है और पंगु बनाया है ? आज हम किन बिन्दुओं पर किस प्रकार का विद्रोह कर सकते हैं ? इन ठोस सवालों से जो नहीं जूझेगा , वह गांधी की प्रशंसा करेगा तो तो नेहरू का भी समर्थन करेगा । यह एक बौद्धिक बाजीगरी होगी, संघर्ष नहीं होगा,सृजन नहीं होगा । सभ्यताओं से जो तकरायेगा , उसे कुछ झेलना पड़ेगा। अपने वर्ग और तबके में उसे अप्रिय और कटु होना पड़ेगा ।
आधुनिक सभ्यता की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह दुनिया को अपने मानदंडों के अनुसार आधुनिक नहीं बना नहीं सकती । बारी – बारी से वह कुछ इलाकों को प्रलोभित करती है कि ‘ तुमको आधुनिक बना सकती हूं अमरीकी ढंग से नहीं , तो रूसी ढंग से ।’ पूरी दुनिया को एक समय के अन्दर आधुनिक बना सकने का दावा अभी तक वह कर नहीं सकी है। अतः यह सभ्यता दुनिया के बड़े हिस्से को उपनिवेश बना कर ही रख सकती है , जिसके लिए आधुनिक सभ्यता का अर्थ उपभोग का कुछ सामान मात्र है ।
प्राचीन सभ्यता का सबसे बड़ा अपराध यह है कि राष्ट्रीयता और सामाजिक समता के मूल्य उसमें नहीं हैं । जो भारतीय सभ्यता अब बची हुई है , उसकी सारी प्रवृत्ति इन मूल्यों के विरुद्ध है । मनुष्य , मनुष्य की बराबरी या आपसी प्रेम पारम्परिक भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है । ऐसे मनुष्य की संवेदनहीनता , यन्त्र की संवेदनाहीनता से कम खतरनाक नहीं है । मानव के प्रति उदासीनता प्राचीन हिन्दू संस्कृति का गुण था या नहीं , या यह वर्तमान की एक विकृति है , यह स्पष्ट नहीं है । प्राचीन भारतीय मान्यता न सिर्फ सामाजिक समता के विरुद्ध है , बल्कि वह आध्यात्मिक समता की अवधारणा को भी नकारती है । उसके अनुसार कुछ लोगों की आत्मा ही घटिया दरजे की होती है । बुद्ध ने इस मानवविरोधी प्रवृत्ति को बदलने की कोशिश की थी । लेकिन आधुनिक हिन्दू मनुष्य की विरासत में बुद्ध की धारा नहीं है । पश्चिमी सभ्यता का सबसे बड़ा गुण यह है कि उसने मानव की गरिमा और सामाजिक समानता को मूल्यों के तौर पर विकसित किया है । राष्ट्रीयता और अन्तरराष्ट्रीयता की भावना भी इन मूल्यों पर आधारित है । हिन्दू मनुष्य जब तक इन मूल्यों को आत्मसात नहीं कर लेता है , तब तक वह पश्चिम से बेहतर एक नई सभ्यता बनाने का दावा नहीं कर सकता ।
आधुनिक सभ्यता ने हमें उपनिवेश बनाया है । प्राचीन सभ्यता ने हमें समता विरोधी और मानव विरोधी बनाया है । इन बिन्दुओं पर अगर हम सभ्यता का संघर्ष नहीं चलाते हैं तो हमारी राजनीति , प्रशासन , अर्थव्यवस्था कुछ भी नहीं बदलनेवाली है । इसके बिना हमारे साहित्य , कला , विज्ञान के क्षेत्र में भी कोई उड़ान नहीं हो सकेगी । आधुनिक सभ्यता से संघर्ष की शुरुआत औपनिवेशिक मानस को झकझोरने से होगी । उपभोगवाद , बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सांस्कृतिक परनिर्भरता को निशाना बनाकर ही यह कार्यक्रम हो सकेगा । दूसरी ओर , हिन्दू मानसिकता और हिन्दू समाज को सुधारने के लिए उग्र कार्यक्रम की जरूरत है ।
किशन पटनायक और डॉ. लोहिया यह मानसिकता कितनी अपरिवर्तित है ही , इसका प्रमाण हरिजनों की प्रतिक्रिया से मिलता है । हाल की घटनाएं बतलाती हैं कि हरिजनों को धर्म-परिवर्तन के लिए बड़ी संख्या में तैयार किया जा सकता है । हरिजनों के लिए मानव का दरजा प्राप्त करने के दो ही रास्ते दीखते हैं – धर्म-परिवर्तन और आरक्षण । आरक्षण का मतलब है हिन्दू मन की उदारता । क्या इस वक्त हिन्दू मन उतनी उदारता के लिए पूरी तरह तैयार है ? जिन दिनों दयानन्द , विवेकानन्द या गांधी हिन्दू समाज के नेता थे , उनका प्रयास और प्रभाव हिन्दू मन को मानवीय बनाने का था । हिन्दू समाज को पिघलाना उनका काम था । जब हिन्दू समाज पिघलता है तब भारतीय राष्ट्र बनता है , हिन्दू समाज जहां जड़ होता है , वहां भारतीय राष्ट्र के सिकुड़ने का डर रहता है ।
दो सभ्यताओं से एक साथ टकराना सत्ता की अल्पकालीन राजनीति में संभव नहीं है । मौजूदा राजनीतिक दलों की क्षमता के अनुसार उनका एकमात्र जायज लक्ष्य हो सकता है – लोकतंत्र के ढांचे की रक्षा करना । अगर ये दल इतना भी नहीं कर सकते तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि सभ्यताओं से लड़े बिना लोकतंत्र की रक्षा सम्भव नहीं है । ऐसी स्थिति में आम जनता के विद्रोहों का राजनीतिकरण नहीं होगा । कभी – कभी विद्यार्थियों में , कभी किसानों में , कभी दलितों में , कभी उपेक्षित इलाकों में खंड-विद्रोह होते हैं । इन तबकों और इलाकों पर दोनों सभ्यताओं का बोझ पड़ता है । मौजूदा राजनैतिक दलों का जो वैचारिक ढांचा है , उसमें इन समूहों की मुक्ति हो नहीं सकती । उनकी मुक्ति के लिए एक नया वैचारिक ढांचा चाहिए । जनता के खंड – विद्रोहों और नए वैचारिक ढांचे के सम्मिश्रण से एक नई राजनीति पैदा हो सकती है ।
वैचारिक संघर्ष बुद्धिजीवी ही करेगा । बुद्धिजीवी का मतलब बुद्धिजीवी वर्ग नहीं है । भारत का बुद्धिजीवी वर्ग अभी मानसिक स्तर पर दोगला ही रहेगा । लेकिन टोलियों में या व्यक्ति के तौर पर बुद्धिजीवी एक नई सभ्यता-निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हो सकता है । सारे बुद्धिजीवियों से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वे संगठन या हड़ताल चलायें । लेकिन यह अपेक्षा जरूर रहेगी कि आचरण के स्तर पर वे अपने विचार-संघर्ष को झेलें , ताकि विचारों का सामाजिक प्रभाव बने ।
( स्रोत : सामयिक वार्ता , जनवरी ,१९८२ )

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जैसे – जैसे देश की समस्याएं गहरा रही हैं और समाधान समझ के बाहर हो रहा है , वैसे – वैसे कुछ सोचनेवालों की नजर राजनीति और प्रशासन के परे जाकर समस्याओं की जड़ ढ़ूंढ़ने की कोशिश कर रही है । वैसे तो औसत राजनेता , औसत पत्रकार , औसत पढ़ा – लिखा आदमी अब भी बातचीत और वाद – विवाद में सारा दोष राजनैतिक नेताओं , चुनाव – प्रणाली या प्रशासन के भ्रष्ताचार में ही देखता है । लेकिन , क्या वही आदमी कभी आत्मविश्लेषण के क्षणों में यह सोच पाता है कि वह भी उस भ्रष्टाचार में किस तरह जकड़ा हुआ है । वह यह सोच नहीं पाता है कि वह भी उस भ्रष्टाचार में किस तरह जकड़ा हुआ है । वह यह सोच नहीं पाता कि किस तरह वह खुद के भ्रष्टाचार को रोक सकता है ।

कुछ लोग अपने को प्रगतिशील मानते हैं । वे कहीं-न-कहीं समाजवादी या साम्यवादी राजनीति से जुड़े हुए हैं । कुछ साल पहले तक ऐसे लोग जोश और जोर के साथ बता सकते थे कि आर्थिक व्यवस्था के परिवर्तन से सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा । पिछले वर्षों में उनका यह आत्मविश्वास क्षीण हुआ है । साम्यवादी और समाजवादी कई गुटों में विभक्त हो चुके हैं । उनकी राजनीति के जरिए तीसरी दुनिया का आम आदमी एक नए भविष्य की कल्पना नहीं कर पा रहा है । बढ़ती हुई सामाजिक हिंसा , सर्वव्यापी भ्रष्टाचार , आदमी की अनास्था जैसी समस्याओं को समझने – समझाने में समाजवादी या साम्यवादियों के पुराने सूत्र और मन्त्र विश्वसनीय नहीं रह गये हैं ।

ऐसी स्थिति में कुछ संवेदनशील दिमागों को यह लगने लगा है कि समस्याओं की जड़ में राजनैतिक अनैतिकता नहीं , अथवा नैतिक गलतियां नहीं , बल्कि सभ्यता का संकट है । चर्चाओं में यह बात बार – बार आने लगी है । प्रसिद्ध विचारक डॉ. जयदेव सेठी ने भी ऐसी ही बात कही है । देश के अंग्रेजी में लिखनेवाले विचारकों में उनका प्रमुख स्थान है । पिछले दिनों उन्होंने गांधी का अध्ययन किया है और वर्तमान के लिए गांधी की प्रासंगिकता को सिद्ध किया है । कारण , गांधी ने समस्याओं की चुनौती को सभ्यता के स्तर पर लिया । गांधी ने सभ्यता के स्तर पर एक टकराव की रणनीति भी बनाई थी ।

प्रशासन और सत्ता-राजनीति से परे , अर्थव्यवस्था और उत्पादन-व्यवस्था के परे जा कर सभ्यता के परिवर्तन द्वारा समस्याओं का समाधान ढ़ूंढ़ना ही गहराई में जाना और दीर्घकालिक सोच और रणनीति बनाना है । सोचने के इस ढंग को गम्भीरता से लेने के पहले कुछ सावधानी बरतनी पड़ेगी , क्योंकि भारतीय संस्कृति और समाज में रहनेवाला जब गहराई में जाता है , तब वह इतना डूब जाता है कि उसको ऊपर की दुनिया नहीं दिखाई देती । उसके लिए राजनीति , व्यवस्था , संघर्ष , आन्दोलन सब कुछ अप्रासंगिक हो जाते हैं । वह खुद इस सभ्यता के जंजाल से हट जाता है । महर्षि अरविन्द , सन्त विनोबा , अच्युत पटवर्धन , पंडित रामनन्दन मिश्र जैसे लोग संघर्ष की राजनीति से , समस्याओं से दूर चले गए क्योंकि समस्याओं की जड़ बहुत गहराई में जाकर दीखने लगी । भारतीय संस्कृति में यह एक जबरदस्त अवगुण है कि आदमी को गहराई में ले जाने की प्रक्रिया में वह उसे समाज से ही अलग कर देती है । गांधीजी के साथ ऐसा नहीं हुआ । सभ्यता से टकराने के लिए गांधीजी को सारी तात्कालिक समस्याओं से राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर लड़ना पड़ा । लेकिन , गांधीजी की पचास फीसदी बातें ऐसी हैं , जो एक भारतीय को जड़ और उदासीन बना सकती हैं । खुद गांधीजी व्यवहार में आधुनिक और भारतीय दोनों सभ्यताओं से लड़ रहे थे । लेकिन प्रतिपादन में , लेखन तथा प्रचार में , उनका एक ही निशाना रहा – आधुनिक पश्चिमी सभ्यता । भारतीय सभ्यता और हिन्दू व्यवस्था से उनको हर कदम टकराना पड़ा । मृत्यु भी उसी टकराहट से हुई । लेकिन , हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ बताना उन्होंने कभी नहीं छोड़ा । यह या तो एक प्रकार का छद्म था , या फिर सन्तुलित विचार की कमी थी । इसी कारण अभी तक एक सन्तुलित गांधी-विचार नहीं बन सका है ।

गांधी का व्यवहार सन्तुलित था , किन्तु उनमें वैचारिक सन्तुलन नहीं था । दूसरे लोग जब आधुनिक सभ्यता से टकराते हैं , अक्सर दोनों स्तर पर सन्तुलन खोते हैं । प्राचीन सभ्यता के कुछ प्रतीकों को ढ़ूंढ़ कर वे एक गुफा बना लेते हैं और उसमें समाहित हो जाते हैं । उनके लिए समस्या नहीं रह जाती है , संघर्ष की जरूरत नहीं रह जाती है । अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवी यह नहीं जानते कि हमारी ‘सभ्यता का संकट’ क्या है ? उनका एक वर्ग आधुनिक पश्चिमी सभ्यता को नकार कर या उससे घबराकर प्राचीन सभ्यता के गर्भ में चला जाता है । योग , गो-सेवा या कुटीर उद्योग उनके लिए कोई नवनिर्माण की दिशा नहीं है बल्कि एक सुरंग है , जिससे वे प्राचीन सभ्यता की गोदमें पहुंचकर शान्ति की नींद लेने लगते हैं । बुद्धिजीवियों का दूसरा वर्ग पश्चिमी सभ्यता से आक्रांत रहता है , या घोषित तौर पर उसे अपनाता है । उसको अपनाने के क्रम में पश्चिमी सभ्यता का उपनिवेश बनने के लिए वह अपनी स्वीकृति दे देता है । लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है । हम सब कमोबेश आधुनिक सभ्यता से आक्रांत हैं । उसको आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से स्वीकारने की कोशिश करते हैं । लेकिन हमारी रगों में प्राचीन भारतीय सभ्यता का भूत भी बैठा हुआ है । उसके सामने हम बच्चे जैसे भीत या शिथिल हो जाते हैं । वह हमें व्यक्ति या समूह के तौर पर निष्क्रिय , तटस्थ और अप्रयत्नशील बना देता है । जो लोग पश्चिमी सभ्यता को बेहिचक ढ़ंग से अपनाते हैं, वे भी साईं बाबा के चरण-स्पर्श से ही अपनी सार्थकता महसूस करते हैं । सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश वी. आर. कृष्ण अय्यर मार्क्सवादी रहे हैं और महेश योगी के भक्त भी हैं । नाम लेना अपवाद का उल्लेख करना नहीं है । यह अपवाद नहीं , नियम है । यह विविधता का समन्वय नहीं है , यह केवल वैचारिक दोगलापन है । दोगली मानसिकता की यह प्रवृत्ति होती है कि वह किसी पद्धति की होती नहीं और खुद भी कोई पद्धति नहीं बना सकती । दूसरी विशेषता यह होती है कि वह केवल बने बनाये पिंडों को जोड़ सकती है , उनमें से किसी को बदल नहीं सकती , उनमें से किसी को बदल नहीं सकती । तीसरी विशेषता यह है कि वह आत्मसमीक्षा नहीं कर सकती । आत्मसमीक्षा करेगी , तो बने-बनाए पिंडों से संघर्ष करना पड़ेगा । इसलिए बाहर की तारीफ से गदगद हो जाती है और आलोचना को अनसुना कर देती है । इसकी चौथी विशेषता यह है कि वह मौलिकता से डरती है । एक दोगले व्यक्तित्व का उदाहरण होगा ,’श्री आरक्षण-विरोधी जनेऊधारी कम्प्यूटर विशेषज्ञ’ !  इस तरह के व्यक्तित्व को हम क्या कहेंगे – ‘विविधता का समन्वय ?’

शेष भाग

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राजनैतिक दल और भ्रष्टाचार

राजनैतिक और आर्थिक दोनों क्षेत्रों में अवरोध पैदा करनेवाले इस सामाजिक रोग का निदान और प्रतिकार ढूँढ़ने का कोई गम्भीर प्रयास न होना मौजूदा भारतीय स्थिति का एक स्वाभाविक पहलू है । बुद्धिजीवी और राजनेता , दोनों एक सर्वग्रासी जड़ता के शिकार हैं । भ्रष्टाचार का मुद्दा पिछले कई महीनों से भारतीय राजनीति का सबसे गरम मुद्दा बना हुआ है । राजीव गांधी की गद्दी हिल गई है । इस मुद्दे को हथियार बनाकर सारा विपक्ष चुनाव लड़ेगा । लेकिन किसी दल की ओर से यह नहीं बताया जाता है कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए उसके पास क्या कार्यक्रम है ? कम्युनिस्ट राजनेता और बुद्धिजीवी यह कहकर छुटकारा पा लेते हैं कि क्रांति के द्वारा भ्रष्टाचार का उन्मूलन हो जायेगा ।यह उस तरह की बात है जैसे कुछ लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए तानाशाही चाहिए ।

जब कम्युनिस्ट चीन को भी भ्रष्टाचार बढ़ने की चिन्ता होने लगी और भारत में क्रांति होने के पहले ही कम्युनिस्टों ने राज्यों की सरकार सँभालने के लिए रणनीति बनाई है तो कम्युनिस्ट प्रवक्ताओं को भी क्रांति की सपाट बात न कहकर अधिक ब्यौरे में जाकर इस प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा ।

जब तक भ्रष्टाचार के सामाजिक – आर्थिक कारणों के बारे में समझ पैदा नहीं होगी , तब तक यह सिद्धान्त प्रचलित रहेगा कि शासकों के व्यक्तिगत चरित्र को उन्नत करना ही भ्रष्टाचार निरोध का निर्णायक उपाय है । यही वजह है कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए जाँच और छापे मारने की कार्रवाइयों के अलावा दूसरे उपाय भी हो सकते हैं , यह बात लोगों के दिमाग में नहीं आती ।

सबसे पहले यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार का कारण न व्यक्ति है , न विकास है । अगर विकास के ढाँचे में भ्रष्टाचार का बढ़ना अनिवार्य है तो तो वह फिर विकास ही नहीं है । मनुष्य स्वभाव की विचित्रता में बुराइयाँ भी हैं , कमजोरियाँ भी हैं । मनुष्य स्वभाव में जिस मात्रा में बुराई होती है वह तो मनुष्य समाज में रहेंगी ही । उस पर नियंत्रण रखने के लिए सभ्यता में धर्म , संस्कृति , राज्यव्यवस्था आदि की उत्पत्ति हुई है । अगर उन पर नियंत्रण नहीं रह पाया तो धर्म , संस्कृति , राज्य, अर्थव्यवस्था – हरेक पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा । अगर प्रशासन और अर्थव्यवस्था सही है तो समाज में भ्रष्ट आचरण की मात्रा नियंत्रित रहेगी । उससे राज्य को कोई खतरा नहीं होगा । उतना भ्रष्टाचार प्रत्येक समाज में स्वाभाविक रूप से रहेगा । परंतु जब प्रशासन और अर्थव्यवस्था असंतुलित है और सांस्कृतिक परिवेश भी प्रतिकूल है तब भ्रष्टाचार की मात्रा इतनी अधिक हो जाएगी  कि वह नियंत्रण के बाहर होगा , उससे जनजीवन और राज्य दोनों के लिए खतरा पैदा हो जाएगा । इसी अर्थ में हम कहते हैं कि विकसित देशों में भ्रष्टाचार की समस्या नगण्य है। इसका मतलब यह नहीं है कि वहाँ भ्रष्टाचार की घटनायें नहीं होती हैं । उन देशों में भ्रष्टाचार राज्य और समाज के इतने नियंत्रण में है कि उसकी मात्रा खतरे की सीमा से ऊपर नहीं जाती ।

यह भी समझना चाहिए कि बड़ा’ और ’छोटा’ भ्रष्टाचार एक जैसा नहीं होता है ।जनसाधारण को यह सिखाया गया है कि छोटा चोर और बड़ा चोर दोनों एक हैं । कानून में भी वे दोनों एक नहीं हैं । भ्रष्टाचार की जिस घटना से राज्य और मानव समाज को अधिक हानि पहुँचती है उसे अक्षम्य अपराध माना जाना चाहिए । सत्ता में प्रतिष्ठित व्यक्तियों का भ्रष्टाचार अधिक हानिकारक होता है । रक्षक का भक्षक होना अधिक जघन्य है । सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित व्यक्तियों के गलत तौर- तरीकों को नीचेवाले लोग सहज ढंग से अपनाते हैं । इसीलिए नीचे के स्तर का भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत कम दोषवाला होगा । इस आपेक्षिक दृष्टि को बगैर अपनाये हम भ्रष्टाचार की जड़ तक नहीं पहुँच पाएँगे । १९६२ में राममनोहर लोहिया ने जब यह सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री पर इतना अधिक तामझाम , फिजूल खर्च क्यों होता है ? तब देश के राजनेताओं ने और बुद्धिजीवियों ने इस सवाल को अप्रासंगिक मानकर या तो मखौल उड़ाया या चुप्पी साध ली ।मंत्रियों का खर्च और उनकी नकल करने वालों का खर्च इस दरमियान बढ़ गया । वर्तमान प्रधा्नमंत्री का फिजूल खर्च तो इतना बढ़ गया है कि अखबारवाले भी ताना कस रहे हैं । जो लोग लोहिया के आरोपों को बकवास या द्वेषपूर्ण कहते थे इस वर्ग के लोग भी प्रधामंत्री , मंत्रियों और सांसदों की फिजूलखर्ची से चिन्तित हैं । लोहिया ने उन्हीं दिनों कहा था कि सर्वोच्च पद पर बैठे हुए आदमी का फिजू्ल खर्च तथा भोग-विलास पूरे समाज को भ्रष्ट बनाता है । अगर उसको हटाया नहीं गया तो उसके सहयोगियों में , नौकरशाहों में भोगवृत्ति बढ़ जाएगी ।

( जारी ,अगला भाग – फिजूलखर्ची और विलास) पिछला भाग (१) , सम्बन्धित आलेख (राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक )

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आजादी के बाद से सबसे अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है । गरीबी , बेरोजगारी , महँगाई , सीमा सुरक्षा या क्रिकेट से भी अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है । देश का कोई भी वर्ग नहीं है जो इससे विचलित नहीं है। फिर भी हमारे बुद्धिजीवियों ने इसको एक खोज का विषय , सामाजिक चिन्तन का विषय नहीं बनाया। जानकार व्यक्तियों से हमने पूछा कि इस विषय पर लिखी गई किसी किताब का नाम बताएँ । उन्होंने कहा कि ऐसी कोई किताब नहीं है जो भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसके कारण तथा प्रतिकार से सम्बन्धित हो। एक-दो किताबें हैं ( ज्यादा भी हो सकती है ) जिनमें भ्रष्टाचार की घटनाओं का विवरण है ; विभिन्न जाँच आयोगों की रपटों पर यह किताबें आधारित हैं । प्रशासनिक सुधार के उद्देश्य से एक संथानम आयोग नियुक्त हुआ था । प्रशासनिक दायरे में लिखी गई यह रिपोर्ट अभी तक भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में सर्वाधिक प्रसिद्ध दस्तावेज है । इसी तरह बाद के दिनों की बोहरा कमेटी की रिपोर्ट है ।

भारत पर लिखने वाले विदेशी बुद्धिजीवियों को हमने ढूँढ़ा तो एक दशक पहले लिखा गया स्वीडेन के अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल (अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता) का विशाल ग्रंथ एशियन ड्रामा मिला । दक्षिण एशिया के राष्ट्रों की गरीबी और उसके कारणों को समझने के लिए ग्रंथ लिखा गया था । मिर्डल को हम यह श्रेय देते हैं कि भ्रष्टाचार की समस्या पर उन्होंने एक स्वतंत्र अध्याय लिखा है ( अध्याय २० , भाग – २)। मिर्डल ने भी यह टिप्पणी की है कि भारत पर लिखनेवाले देशी-विदेशी बुद्धिजीवियों ने इस समस्या पर चिन्तन या विश्लेषण की कोई किताब नहीं लिखी है ।

इस कमी का का जो भी कारण मिर्डल की समझ में आया हो , हमारे लिए इसका एक कारण बहुत स्पष्ट है । भारतीय बुद्धिजीवियों ने नहीं लिखा है तो उसकी एक वजह यह है कि पश्चिमी बुधिजीवियों ने अभी तक भ्रष्टाचार की समस्या को एक विषय नहीं बनाया है और इस विषय पर सोचने का कोई तरीका पेश नहीं किया है। न ही किसी विदेशी संस्था ने इस विषय पर अनुसंधान के लिए अनुदान दिया है । इन दिनों भारतीय अनुसंधान का विषय काफ़ी हद तक अनुदान देनेवाली विदेशी संस्थाओं द्वारा निर्धारित होता है । जहाँ तक विदेशी बुधिजीवियों द्वारा किताब न लिखने का सवाल है , आजकल विदेशी बुद्धिजीवियों का जो हिस्सा एशिया के देशों पर किताब लिखता है , वह उच्च कोटि का नहीं होता । इन विदेशी बुद्धिजीवियों की दृष्टि में एशिया के लोग पश्चिम के लोगों से घटिया होते हैं , इसलिए भ्रष्टाचार जैसी चीजें उनके लिए स्वाभाविक हैं, पारम्परिक हैं । ये लोग ’विकास’ को एक विशेष अर्थ में समझते हैं ,और इस विकास के चलते अगर महँगाई , बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसी समस्याएँ बढ़ने लगती हैं तो उन्हें विकास के लिए आवश्यक भी मानते हैं । (मनमोहन सिंह द्वारा हाल ही में लोक सभा में ’विकास’ बनाम मंहगाई और भ्रष्टाचार की बाबत  ऐसी बकवास किए जाने को सुनकर किशनजी के इन शब्दों को मैंने बोल्ड किया है – अफ़लातून। )

इस प्रकार के विदेशी बुद्धिजीवियों के मुकाबले में काफ़ी ऊँचे दरजे का विचारक होने के बावजूद मिर्डल की दृष्टि बहुत साफ़ नहीं है , एक स्थान पर वह कहता है कि एशिया के देशों में भ्रष्टाचार की एक परम्परा है, इसी अध्याय के दूसरे स्थान पर कहता है कि यूरोप के देशों में काफ़ी पहले इस पर काबू पा लिया गया है । ऐसी मान्यता के कारण मिर्डल कोई समाधान नहीं सुझा पाता । लेकिन उसने भ्रष्टाचार को एक मौलिक समस्या का दरजा दिया है क्योंकि एशिया के देशों में रजनैतिक हलचल का और गद्दी पलटने का सबसे बड़ा मुद्दा यही है । यह तानाशाही के मार्ग को भी प्रशस्त करता है , आर्थिक क्षेत्र में भी इसका दुष्परिणाम निर्णायक होता है , विकास की योजनाओं का कार्यान्वयन सम्भव नहीं हो पाता है। ( जारी , अगला हिस्सा- राजनैतिक दल और भ्रष्टाचार ).( यह भी देखें : राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक )

 

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इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ बाबरी मस्जिद – रामजन्मभूमि प्रकरण में मिल्कियत सम्बन्धी मुकदमें में इसी माह फैसला सुनाने जा रही है । एक पक्ष द्वारा उत्तर प्रदेश में घूम – घूम कर ’फैसला चाहे जो हो ’ , ’मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जाएगा’ तथा ’विधायिका को निर्णय लेना होगा ’ जैसी मंशा प्रकट की जा रही है । कुछ ही दिन पूर्व न्यायालय ने दोनों पक्षों के बीच सुलह के निष्फल प्रयास भी किए थे । एक लंबे समय तक बाबरी मस्जिद ने प्रकृति के खेलों और तूफ़ानों को बरदाश्त किया , लेकिन मनुष्यों की हिमाकतों और वहशतों को सहना उससे भी कठिन था । फिलहाल , एक ऐसी प्रक्रिया को तरजीह मिली है और एक शुरुआत हुई है जिससे , ’ तीन नहीं अब तीस हजार , बचे न एक कब्र मजार’ इस नारे में छुपी बुनियादी विकृति को बल मिलता है । ’ ताजमहल मंदिर भवन है’ तथा ’ कुतुब मीनार हिन्दू स्थापत्य की विरासत है ’ माननेवाले इतिहासकारों का एक छोटा-सा समूह देश में मौजूद है । बाबरी मस्जिद को तोड़ने के फौजदारी मामले के आरोपी गिरोह को सिर्फ़ ऐसे इतिहासकारों से ही बल मिलता है । इस मामले के दीवानी प्रकरण में भी वे एक पक्ष हैं । इनके दर्शन के तर्क को मान लेने पर अधिकांश ऐतिहासिक इमारतों को तोड़कर उनकी भूमि विभिन्न समुदायों को सौंप देनी होगी । समाजवादी विचारक किशन पटनायक ने १९९० में इस सन्दर्भ में इतिहास का एक सिद्धान्त बतौर सबक पेश किया था । इस सबक के मुताबिक तीन सौ साल पुरानी घटना के साथ आप सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सकते । उन दिनों के योद्धाओं से प्रेरणा ले सकते हैं लेकिन उनकी वीरता की वाहवाही आप नही ले सकते । उन दिनों की ग़लतियों को आप सुधार नहीं सकते , सिर्फ़ आगे के लिए सतर्क हो सकते हैं । ’ इसी तरह उस युग के अपमानों का आप बदला नहीं ले सकते । होठों पर मुस्कान लिए आप थोड़ी देर मनन कर सकते हैं । बीते युग के असंख्य युद्धों और संधियों , जय – पराजय और मान – अपमान की घटनाओं को इतिहास के खेल के रूप में देखकर आपको अनुभव होगा कि आपकी छाती चौड़ी हो रही है , धमनियों में रक्त का प्रवाह तीव्र हो रहा है । हर युद्ध के बाद रक्त का मिश्रण होता है और हमारी कौम तो दुनिया की सबसे अधिक हारी हुई कौम है । ’ किशन पटनायक इस सबक को समझाते हुए कहते हैं , ’ तीन सौ साल बाद किसी की कोई संतान भी नहीं रह जाती , सिर्फ़ वंशधर रह जाते हैं । किसी भी भाषा में परदादा और प्रपौत्र के आगे का संबंध जोड़ने वाला शब्द नहीं है । नाती ,पोते , प्रपौत्र के आगे की स्मृति नष्ट हो जाती है । इसीलिए कबीलाई संस्कृति में भी बदला लेने का अधिकार नाती – पोते तक रहता है । युग बदलने से कर्म विचार और भावनाओं का संदर्भ भी बदल जाता है । हमारे युग में मस्जिद के स्थान पर मंदिर बनाने का लक्ष्य हो नहीं सकता क्योंकि हमारे युग का संदर्भ भिन्न है । ’ इतिहास और बदले के इस सिद्धांत को पाठ्य – पुस्तकों में नहीं लिखा गया है नतीजतन पढ़े – लिखे लोग भी भ्रमित हो जाते हैं । इस सिद्धांत को मौजूदा न्याय व्यवस्था द्वारा नजरअंदाज किया जाना भी सांघातिक होगा । सामान्य दीवानी मामले से ऊपर उठकर इस प्रकरण को संवैधानिक मूल्यों की कसौटी पर कसना वक्त का तकाजा है । बाबरी मस्जिद का निर्माण यदि १५२८ ईसवी में हुआ था तब वह भारत में मुगलों के आने के बाद की पहली इमारतों में रही होगी । इसके पहले तुर्क – अफ़गान काल के स्थापत्य के नमूने उपलब्ध हैं और फिर बाद के मुगल काल के भी । इस खास तरह की वास्तुकला के विकास को समझने में यह मस्जिद एक महत्वपूर्ण कड़ी जिसे तालिबानी मानसिकता ने नष्ट कर दिया । यहाँ कुस्तुन्तुनिया की ’ आया सूफ़िया ’ मस्जिद का उल्लेख प्रासंगिक है । ७ अगस्त , १९३५ को जवाहरलाल नेहरू ने एक संदर लेख में इस विशिष्ट मस्जिद का इतिहास लिखा है । इस इमारत ने नौ सौ वर्ष तक ग्रीक धार्मिक गाने सुने । फिर चार सौ अस्सी वर्ष तक अरबी अजान की आवाज उसके कानों में आई और नमाज पढ़ने वालों की कतारें उसके पत्थरों पर खड़ी हुईं । १९३५ में गाजी मुस्तफ़ा कमालपाशा ने अपने हुक्म सेयह मस्जिद बाइजेन्टाइन कलाओं का संग्रहालय बना दी। बाइज्न्टाइन जमाना तुर्कों के आने के पहले का ईसाई जमाना था और यह समझा जाता था कि बाइजेन्टाइन कला खत्म हो गई है । जवाहरलाल नेहरू ने इस लेख के अंत में लिखा है – ’ फाटक पर संग्रहालय की तख़्ती लटकती है और दरबान बैठा है । उसको आप अपना छाता – छड़ी दीजिए , उनका टिकट लीजिए और अंदर जाकर इस प्रसिद्ध पुरानी कला के नमूने देखिए और देखते – देखते इस संसार के विचित्र इतिहास पर विचार कीजिए , अपने दिमाग को हजारों वर्ष आगे – पीछे दौड़ाइए । क्य – क्या तस्वीरें , क्या – क्या तमाशे . क्या – क्या जुल्म,क्या – क्या अत्याचार आपके सामने आते हैं । उन दीवारों से कहिए कि आपको कहानी सुनावें , अपने तजुरबे आपको दे दें । शायद कल और परसों जो गुजर गए , उन पर गौर करने से हम आज को समझें , शायद भविष्य के परदे को भी हटाकर हम झाँक सकें । ’ लेकिन वे पत्थर और दीवारें खामोश हैं । जिन्होंने इतवार की ईसाई पूजा बहुत देखी और बहुत देखीं जुमे की नमाजें । अब हर दिन की नुमाइश है उनके साए में । दुनिया बदलती रही,लेकिन वे कायम हैं । उनके घिसे हुए चेहरे पर कुछ हल्की मुस्कराहट-सी मालूम होती है और धीमी आवाज-सी कानों में आती है – ’ इंसान भी कितना बेवकूफ़ और जाहिल है कि वह हजारों वर्ष के तजुरबे से नहीं सीखता और बार – बार वही हिमाकतें करता है । ’

(साभार – सर्वोदय प्रेस सर्विस , आलेख : ८१ , २०१० – ११)

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मैं आज स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करूँगा । ’हिन्दुस्तान ’ अखबार द्वारा दिए गये २०१० के पंचाग के अनुसार ६ जनवरी , काशी से प्रकाशित ठाकुर प्रसाद के प्रसिद्ध पंचाग के हिसाब से ७ जनवरी तथा रोमां रोलां द्वारा लिखी गयी स्वामीजी की जीवनी के अनुसार १२ जनवरी को उनकी जयन्ती है । अंग्रेजी  कैलेण्डर के हिसाब से १२ जनवरी में संशय नहीं है । अन्य दो तिथियों में अन्तर अलग – अलग पंचाग के कारण हो सकता है ।

विवेकानन्द का अध्ययन कैसे करें , क्या – क्या पढ़ना जरूरी है ? यह मैंने किशन पटनायक से पूछा था । उन्होंने कहा था कि उनके साहित्य और पत्रावली से उन खण्डों को अवश्य पढ़ना जो उनके शिकागो से लौटने के बाद की भारत यात्रा के दौरान के हैं । इसके साथ ही रोमां रोलां द्वारा लिखी गयी जीवनी पढ़ने के लिए कहा था । रोमा रोलां द्वारा लिखी जीवनी के हिन्दी में दो अनुवाद उपलब्ध हैं । एक अनुवाद रामकृष्ण मिशन से जुड़े एक स्वामीजी द्वारा किया गया है और दूसरा हिन्दी साहित्य के दो दिग्गज अज्ञेय तथा रघुवीर सहाय द्वारा किया गया है । मैंने दूसरे अनुवाद को पढ़ना पसन्द किया । यह साहित्य अकादमी की ओर से लोकभारती पेपरबैक्स द्वारा प्रकाशित है ।

स्वामी विवेकानन्द की एक प्रसिद्ध उक्ति है , ’ भारत शूद्रों का होगा , शूद्र ही इसका संचालन करेगा । ’ किशन पटनायक ने इस उक्ति से लेकर ही अपने निबन्धों की पहली किताब का नाम ’भारत शूद्रों का होगा’ रखा। विवेकानन्द की उक्तियों के दो संकलन मैं पहले अपने चिट्ठों पर दे चुका हूँ । यह उक्तियाँ मैंने ’नया भारत गढ़ो ’ नामक रामकृष्ण मठ , नागपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तिका से ली थीं । ’राष्ट्र की रीढ़’ तथा ’ ईसाई और मुसलमान क्यों बनते हैं’ इन शीर्षकों से यह प्रविष्टियां प्रस्तुत की थीं ।

परमहंस -विवेकानन्द की आध्यात्मिक धारा से राष्ट्रीय आन्दोलन तथा रघुवीर सहाय और किशन पटनायक जैसे समाजवादी प्रभावित हुए । इसकी वजह किशन पटनायक के नीचे के उद्धरण तथा रोमां रोलां रचित जीवनी से लिए गये दो उद्धरणों से काफ़ी स्पष्ट हो जाता है ।

” रामकृष्ण परमहंस कई अर्थों में एक नवीन भारत के धार्मिक संस्थापक थे । विवेकानन्द और केशवचन्द्र सेन के माध्यम से उन्हें पश्चिम का स्पर्श मिला होगा । उनका तरीका बौद्धिक नहीं था , अलौकिक था । उनके सन्देश सांकेतिक थे । उनके जीवन प्रसंगों में ही उनका सन्देश निहित था ।उनके जीवन के चार प्रसंगों को हम लें । अपने प्रियतम शिष्य को उन्होंने मोक्ष के लिए नहीं समाज जागरण के काम में लगाया । खुद हिन्दू मन्दिर का पूजक होकर इस्लाम और ईसाई धर्म की भी साधना की । चांदालों के घरों में जाकर झाड़ू लगाई और उनका पाखाना साफ़ किया । पत्नी को संन्यासिनी किया और विधवा को सुहागिन बनाया । भारतीयता के पुनर्जागरण के लिए ये सारे संकेत थे – समाज सुधार को प्राथमिकता देना , गैर भारतीय संस्कृति के मूल्यों का आदर करना और अपनाना , मनुष्य की गरिमा को स्वीकृति देना , नारी जीवन को स्वतंत्र और सकारात्मक बनाना । शारदा देवी के प्रसंग में दोनों बातें ध्यान योग्य हैं – पति के साथ संन्यासिनी और पति के बाद सुहागिन । ” (सामयिक वार्ता, १ जनवरी , १९८८ )

सरस्वती शिशु मन्दिर में प्रारम्भिक शिक्षा पाए मेरे एक मित्र ने स्वामी विवेकानन्द के उद्धरणों की मेरी  ब्लॉग प्रविष्टी पढ़कर कहा था ,

’ दिक्‍कत ये है कि दक्षिणपंथी हों या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्‍यान देने से कतराते हैं, रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान चला रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहे । उनके लिये विवेकानंद का जिक्र ’उत्तिष्‍ठ ’ जागृत से शुरू होता है और शिकागो वाले सम्‍मेलन के जिक्र पर खत्‍म हो जाता है । बस । ’

आज शिकागो से लौटकर चेन्नै में दिए गये उनके प्रसिद्ध भाषण से उद्धरण दे रहा हूँ :

” तुम अनुभव कर रहे हो कि लाखों जन आज बुभुक्षित हैं और लाखों एक युग से बुभुक्षित रहे हैं ? अनुभव करते हो कि अज्ञान ने अन्धकार की घटा के सदृश देश को आच्छादित कर लिया है ? यह सब अनुभव करके क्या तुम अधीर नहीं होते ? यह सब जानना क्या तुम्हारी नींद नहीं हर लेता , तुम्हें क्षोभ से पागल नहीं कर देता ? क्या तुम दारिद्र्य की यातना को पहचान कर उससे संत्रस्त हुए हो ? नाम , ख्याति,पत्नी-पुत्र ,धन-सम्पत्ति ही नहीं , अपनी देह को भी भूल चुके हो ? ….वही तो देशभक्त की साधना का प्रथम सोपान है । …युगों से जनता को आत्मग्लानि का पाठ पढ़ाया गया है । उसे सिखाया गया है कि वह नगण्य है । संसार में सर्वत्र जनसाधारन को बताया गया है कि तुम मनुष्य नहीं हो । शताब्दियों तक वह इतना भीरु रहा है कि अब पशु-तुल्य हो गया है । कभी उसे अपने आत्मन का दर्शन करने नहीं दिया गया । उसे आत्मन को पहचानने दो – जानने दो कि अधमाधम जीव में भी आत्मन का निवास है – जो अनश्वर है , अजन्मा है – जिसे न शस्त्र छेद सकता है , न अग्नि जला सकती है , न वायु सुखा सकती है ; जो अमर है , अनादि है , अनन्त उसी निर्वीकार ,सर्वशक्तिमान ,सर्वव्यापी आत्मन को जानने दो…”

” हम उस धर्म के अन्वेषी हैं जो मनुष्य का उद्धार करे …. हम सर्वत्र उस शिक्षा का प्रसार चाहते हैं जो मनुष्य को मुक्त करे । मनुष्य का हित करें ,ऐसे ही शास्त्र हम चाहते हैं ।सत्य की कसौटी हाथ में लो… जो कुछ तुम्हें मन से , बुद्धि से , शरीर से निर्बल करे उसे विष के समान त्याग दो , उसमें जीवन नहीं है , वह मिथ्या है , सत्य हो ही नहीं सकता । सत्य शक्ति देता है । सत्य ही शुचि है , सत्य ही परम ज्ञान है… सत्य शक्तिकर होगा ही , कल्याणकर होगा ही , प्राणप्रद होगा ही…यह दैन्यकारक प्रमाद त्याग दो , शक्ति का वरण करो….कण-कण में ही तो सहज सत्य व्याप्त है – तुम्हारे अस्तित्व जैसा ही सहज है वह…उसे ग्रहण करो । “

” मेरी परिकल्पना है , हमारे शास्त्रों का सत्य देश – देशान्तर में प्रचारित करने की योग्यता नवयुवकों को प्रदान करनेवाले विद्यालय भारत में स्थापित हों । मुझे और कुछ नहीं चाहिए , साधन चाहिए ; समर्थ , सजीव , हृदय से सच्चे नवयुवक मुझे दो , शेष सब आप ही प्रस्तुत हो जाएगा । सौ ऐसे युवक हों तो संसार में क्रान्ति हो जाए । आत्मबल सर्वोपरि है , वह सर्वजयी है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है ….निस्संषय तेजस्वी आत्मा ही सर्वशक्तिमान है …”

[ रोमां रोलां द्वारा लिखी गयी विवेकानन्द की जीवनी से । हिन्दी अनुवाद अज्ञेय तथा रघुवीर सहाय । ]

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