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Posts Tagged ‘कविता’

गौरैया

विकास

कम हो रही हैं चिड़ियां
गुम हो रही हैं गिलहरियां
अब दिखती नहीं हैं तितलियां
लुप्त हो रही हैं जाने कितनी
जीवन की प्रजातियां

कम हो रहा है
धरती के घड़े में जल
पौधों में रस
अन्न में स्वाद
कम हो रही है फलों में मिठास
फूलों में खुशबू
शरीर में सेहत

कम हो रहा है
जमीन में उपजाऊपन
हवा में आक्सीजन

सब कुछ कम हो रहा है
जो जरूरी है जीने के लिए
मगर चुप रहो
विकास हो रहा है इसलिए ।

– राजेन्द्र राजन.

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भालू की आँखें तुझे देख रही हैं
तूने उसे जो पानी का सोता दिखाया था
वह ऊपर गुफा तक जाता है
भालू की आँखें कहती हैं
तुझे गुफा तक ले जाऊँ
वहाँ तू भालू को सीने से लगा सोएगी
बीच रात उठ पेड़ों से डर मेरा कंधा माँगेगी
भालू पड़ा होगा जहाँ तू सोई थी
कीट पतंगों की आवाज के बीच बोलेगी चिड़िया
तुझे प्यार करने के लिए
भालू को पुचकारुँगा
तू ले लेगी भालू को फिर देगी अपना नन्हा सीना
बहुत कोशिश कर पूछेगी
बापू भालू 
मैं सुनूँगा भालू भालू 
गाऊँगा सो जा भालू सो जा भालू 
नहीं कह पाऊँगा उस वक्त दिमाग में होगी सुधा
छत्तीसगढ़ में मजदूर औरत की बाँहों से तुझे लेती
तब तक कहता रहूँगा  सो जा भालू सो जा 
जब तक तेरी आँखों में फिर से आ जाएगा जंगल
जहाँ वह सोता है
जो ऊपर गुफा तक जाता है..........

किस डर से आया हूँ यहाँ
डरों की लड़ाई में कहाँ रहेगा हमारा डर
तेरा भविष्य बोस्निया से भागते अंतिम क्षण
हे यीशुः कितनी बार क्षमा


क्या अयोध्या में आए सभी निर्दोषों को करेगा ईश्वर मुआफ
तू क्या जाने ईश्वर बड़ा पाखंडी
वह देगा और ताकत उन्हें जो हमें डराते
भालू को थामे रख
यह पानी का सोता जंगल में बह निकल जहाँ जाता है
वहाँ पानी नहीं खून बहता है
तब चाँद नहीं दिखता भालू डर जाएगा.........

भालू को थामे रख
वह नहीं हिंदू मुसलमान
खेल और गा भालू खा ले आलू
कोई मसीहा नहीं जो भालू को बचा पाएगा
कोई नहीं माता पिता बंधुश्चसखा
इस जंगल से बाहर ...

भालू को थामे रख।

(रविवारी जनसत्ता  १९९२)
 

 

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हत्यारे ने उस औरत को मारने में दो मिनट लगाए

उस पर दो शताब्दियों तक चलता है मुकदमा

जिसने सार्वजनिक कोष से साफ़-साफ़ उड़ा लिए सैकड़ों करोड़ रुपये

उसकी सत्तर साल तक जांच करता है जांच आयोग

कोई किसी से पूछता है, क्यों यह समय इतना निरपेक्ष और किसी

अक्षम्य पाप जैसा है

जब नहीं सुनता कोई किसी की बात तो एक उपेक्षित कवि

अपने कान समूची पृथ्वी पर लगाता है

हर अँधेरे में सुलगती हैं उसकी पीड़ित आत्मा की खुफिया आँखें

अप्रासंगिकताएं क्यों हावी हैं इस कदर तमाम अच्छी और ज़रूरी चीज़ों पर

जो ठीक-ठाक हैं और जो चाहिए तमाम लोगों को

उनका विज्ञापन क्यों नहीं दिखाई देता कहीं ?

उनकी कोई कीमत क्यों नहीं बची, कुछ बताएंगे आप ?

एक छोटी-सी जेब में समा जाने वाली कंघी,

खैनी, राई, अरहर और गुड के लिए

अपने कपडे क्यों नहीं उतारतीं मधु सप्रे और अंजलि कपूर

बीडी के बण्डल का रैपर क्यों नहीं बनाते अलेक पदमसी

वो कौन हैं जिनके लिए है इतना सारा उद्योग

रात भर कई सालों से गिरती हैं आकाश से सिसकियाँ और खून

स्वप्न चुभतेहैं उसके तलवों में जो भी इस समाज से गुज़रता है

एक गरीब धोबी जो टैगोर हो सकता था

सारे शहर के कपडे धोता है आधी रात अपने आंसुओं से

एक स्त्री जोर-जोर से हंसती है अपनी ह्त्या के ठीक एक पल पहले

कोई विश्वास
होता है हर बार, जिस पर घात होता है हर बार

सबलोग यह जानते हैं पर खामोशी ही लाजिमी है

जो व्यक्त करता है यथार्थ को

वह मार दिया जाता है अफवाहों से |

(‘रात में हारमोनियम’, १९९८, वाणी प्रकाशन)

उदय प्रकाश

कवि की पीड़ित खुफिया आंखे

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यह तो कुमार विकल को भी ठीक ठीक नहीं पता था

कि वह पीता क्यों था

हम नाहक़ दोस्तों को कोसते रहे

पीने के वजहें सबसे अधिक तब मिलती हैं

जब पास कोई न हो

अनजान किसी ग्रह से वायलिन की आवाज़ आती है

आँखों में छलकने लगता है जाम

उदास कविताएँ लिखी जाती हैं

जिन्हें बाद में सजा धजा हम भेज देते हैं

पत्रिकाओं में

कोई नहीं जान पाता

कि शब्दों ने मुखौटे पहने होते हैं

मुखौटों के अंदर

रो रहे होते हैं शब्द ईसा की तरह

सारी दुनिया की यातनाएँ समेटे।

लिख डालो, लिख डालो

बहुत देर तक अकेलापन नहीं मिलेगा

नहीं मिलेगी बहुत देर तक व्यथा

जल्दी उंडेलो सारी कल्पनाएँ, सारी यादें

टीस की दो बूँदें सही, टपकने दो इस संकरी नली से

लिख डालो, लिख डालो।

बहुत देर तक बादल बादल न होंगे

नहीं सुनेगी सरसराहट हवा में बहुत देर तक

जल्दी बहो, निचोड़ लो सभी व्यथाएँ, सभी आहें

अभ्यास ही सही, झरने दो जो भी झरता स्मृति से

लिख डालो, लिख डालो।

लाल्टू

[ कवि-मित्र लाल्टू के जन्म दिन पर उन्हीकी कविता सप्रेम पेश ]

लाल्टू की कुछ और कवितायें : वह प्यार

लाल्टू से सुनो ,

लाल्टू की अभिव्यक्ति

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तुम तरुण हो या नहीं

तुम तरुण हो या नहीं यह संघर्ष बतायेगा ,

जनता के साथ हो या और कहीं यह संघर्ष बतायेगा ।

तुम संघर्ष में कितनी देर टिकते हो ,

सत्ता के हाथ कबतक नहीं बिकते हो ?

इससे ही फैसला होगा –

कि तुम तरुण हो या नहीं –

जनता के साथ हो या और कहीं ।

 

तरुणाई का रिश्ता उम्र से नहीं, हिम्मत से है,

आजादी के लिए बहाये गये खून की कीमत से है ,

जो न्याय-युद्ध में अधिक से अधिक बलिदान करेंगे,

आखिरी साँस तक संघर्ष में ठहरेंगे ,

वे सौ साल के बू्ढ़े हों या दस साल के बच्चे –

सब जवान हैं ।

और सौ से दस के बीच के वे तमाम लोग ,

जो अपने लक्ष्य से अनजान हैं ,

जिनका मांस नोच – नोच कर

खा रहे सत्ता के शोषक गिद्ध ,

फिर भी चुप सहते हैं, वो हैं वृद्ध ।

 

ऐसे वृद्धों का चूसा हुआ खून

सत्ता की ताकत बढ़ाता है ,

और सड़कों पर बहा युवा-लहू

रंग लाता है , हमें मुक्ति का रास्ता दिखाता है ।

 

इसलिए फैसला कर लो

कि तुम्हारा खून सत्ता के शोषकों के पीने के लिए है,

या आजादी की खुली हवा में,

नई पीढ़ी के जीने के लिए है ।

तुम्हारा यह फैसला बतायेगा

कि तुम वृद्ध हो या जवान हो,

चुल्लू भर पानी में डूब मरने लायक निकम्मे हो

या बर्बर अत्याचारों की जड़

उखाड़ देने वाले तूफान हो ।

 

इसलिए फैसले में देर मत करो,

चाहो तो तरुणाई का अमृत पी कर जीयो ,

या वृद्ध बन कर मरो ।

 

तुम तरुण हो या नहीं यह संघर्ष बतायेगा ,

जनता के साथ हो या और कहीं यह संघर्ष बतायेगा ।

तुम संघर्ष में कितनी देर टिकते हो ,

सत्ता के हाथ कबतक नहीं बिकते हो ?

इससे ही फैसला होगा –

कि तुम तरुण हो या नहीं –

जनता के साथ हो या और कहीं ।

 

श्याम बहादुर नम्र

अंकुर फार्म , जमुड़ी , अनूपपुर , मप्र – ४८४२२४

namrajee@gmail.com

 

 

 

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गंगा मस्जिद

यह बचपन की बात है, पटना की।

गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,

खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था।

गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,

कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”।

और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती।

मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती।

परिन्दे ख़ूब कलरव करते।

इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,

और झट से मस्जिद किनारे आ लगती।

गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती।

परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते।

मीनार से बाल्टी लटका,

मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल।

वुज़ू करता।

आज़ान देता।

लोग भी आते,

खींचते गंगा जल,

वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते,

और चले जाते।

आज अट्ठारह साल बाद,

मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर।

गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते।

सरकार ने अब वुज़ू के लिए

साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है।

मुअज़्ज़िन की दोपहर,

अब करवटों में गुज़रती है।

गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,

मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है।

गंगा मुझे देखती है,

और मैं गंगा को।

मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है।

– फ़रीद ख़ान

………………………………………06/12/2010

*मुअज़्ज़िन – आज़ान देने वाला।

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[ वरिष्ट कवि ज्ञानेन्द्रपति से कल सैमसुंग-साहित्य अकादमी पुरस्कार की बाबत चर्चा हुई तो उन्होंने कला संकाय के चौराहे पर यह कविता सुनाई तथा इसे छापने की इजाजत दी । कवि के प्रति आभार ।]

निकलने को है राजाज्ञा

(एक तारकशाली साहित्यिक संगोष्ठी में कविता की प्रामाणिकता के लिए एक अखिलदेशीय आयोग बनाने के ’आधिकारिक’ प्रस्ताव की खबर सुन कर )

अधिकारी – कवि

ही हो सकते अब अधिकारी कवि

निकलने को है राजाज्ञा – शाही फ़रमान

साथ कड़ी ताक़ीद

कि कोई भी अनधिकार चेष्टा

दण्डनीय ठहरायी गयी है अब आगे

यह हुआ बहुत कि जिनको

बमुश्किल जुटती दो वक्त की रोटी

वे भी कविता टाँकें

जिनकी न परम्परा में गति , न जो आधुनिकता के हमक़दम

जनेऊ की लपेटन के घट्टे के बग़ैर जिनके कान

और उन पर चढ़ी भी नहीं रे – बॉन के चश्मे की डंडी

उनकी आँखें खुली रहें , यही बहुत

नाहक ना वे ताके-झाँकें

देश-दशा को आँकें

बात यह कि जब तक मुफ़लिसी को गौरव से मढ़ा जायेगा

देश से समृद्धि की दिशा में न बढ़ा जायेगा

दरअस्ल वैसे खरबोले कवि

लोकतंत्र का बेज़ा इस्तेमाल कर रहे हैं

ख़राब कर रहे हैं देश की छवि

लोगों को बहका रहे हैं

असंतोष लहका रहे हैं

बल्कि देश की सुरक्षा को ख़तरे में डाल रहे हैं

सो, राजाज्ञा का -निषेधाज्ञा का-प्रारूप तय्यार हो रहा है

जुटी है वर्ल्ड बैंक के विशेषज्ञों की देख-रेख में

एक सक्षम समिति इस काम पर

काम तमाम तक

इसलिए भी , क्योंकि

इस क्षेत्र में पूँजी-निवेश की संभावनाएँ अपार हैं

अनुदान कहे जाने वाले ऋण की भी

अन्तरराष्ट्रीय धनकुबेरों से वार्ता जारी है

आख़िर तो यह

अनुकूलन के उनके बृहत्तर प्रोजेक्ट का हिस्सा है !

-ज्ञानेन्द्रपति

ज्ञानेन्द्रपति

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अन्त कायर का

कायरों को वार नहीं झेलने पड़ते

और इसलिए घाव

न उनकी छाती पर होते हैं

न पीठ पर

उनका खून बाहर नहीं गिरता

नसों में दौड़ता रहता है

 

अलबत्ता मरते वक्त

उन्हें खून की कै होती है ।

– भवानीप्रसाद मिश्र .

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जनम दिन

१.
जीर्ण कपड़ा उतार कर
नया पहनना
पुनर्जीवन है –
मेरे गले यह बात
अब तक नहीं उतरी |

कुशन पर धुले खोल
चढ़ाते वक्त
कल जरूर याद आया –
मेरा जनम दिन था |

२.
बा से पूछा था –
क्या होता है
वर्षगांठ पर ?
‘बड़े हो जाते हो
उस दिन ‘
बताया था उसने |

फिर रजाई के अंदर
पांव हिला कर
अंदाज लगाया
छठे जन्मदिन पर ।
और बिस्तर से निकलने के
पहले ही पूछा ,
‘काका जितना बड़ा हो गया ?’

लम्बा होना ही

तब बड़ा होने का समानार्थी था ।

अब बूढ़ा होना है ?

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जल्दी में

प्रियजन

मैं बहुत जल्दी में लिख रहा हूं

क्योंकि मैं बहुत जल्दी में हूं लिखने की

जिसे आप भी अगर

समझने की उतनी ही बड़ी जल्दी में नहीं हैं

तो जल्दी समझ नहीं पायेंगे

कि मैं क्यों जल्दी में हूं ।

जल्दी का जमाना है

सब जल्दी में हैं

कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में

तो कोई कहीं लौटने की …

हर बड़ी जल्दी को

और बड़ी जल्दी में बदलने की

लाखों जल्दबाज मशीनों का

हम रोज आविष्कार कर रहे हैं

ताकि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई

हमारी जल्दियां हमें जल्दी से जल्दी

किसी ऐसी जगह पर पहुंचा दें

जहां हम हर घड़ी

जल्दी से जल्दी पहुंचने की जल्दी में हैं ।

मगर….कहां ?

यह सवाल हमें चौंकाता है

यह अचानक सवाल इस जल्दी के जमाने में

हमें पुराने जमाने की याद दिलाता है ।

किसी जल्दबाज आदमी की सोचिए

जब वह बहुत तेजी से चला जा रहा हो

-एक व्यापार की तरह-

उसे बीच में ही रोक कर पूछिए,

‘क्या होगा अगर तुम

रोक दिये गये इसी तरह

बीच ही में एक दिन

अचानक….?’

वह रुकना नहीं चाहेगा

इस अचानक बाधा पर उसकी झुंझलाहट

आपको चकित कर देगी ।

उसे जब भी धैर्य से सोचने पर बाध्य किया जायेगा

वह अधैर्य से बड़बड़ायेगा ।

‘अचानक’ को ‘जल्दी’ का दुश्मान मान

रोके जाने से घबड़ायेगा । यद्यपि

आपको आश्चर्य होगा

कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ

उसके पास कोई तैयारी नहीं….

क्या वह नहीं होगा

क्या फिर वही होगा
जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?

क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?

क्या वे खरीद ले जायेंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?

क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जायेंगे हमारा सोना
हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?

और हम क्या इसी तरह
पीढी-दर-पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?

अजीब वक्त है

अजीब वक्त है –

बिना लड़े ही एक देश-का देश

स्वीकार करता चला जाता

अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता !

कुछ तो फर्क बचता

धर्मयुद्ध और कीटयुद्ध में –

कोई तो हार जीत के नियमों में

स्वाभिमान के अर्थ को

फिर से ईजाद करता ।

– कुंवर नारायण

[ वरिष्ट कवि कुंवर नारायण की राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘कोई दूसरा नहीं’ तथा ‘सामयिक वार्ता’ (अगस्त-सितंबर १९९३) से साभार ]

अयोध्या , १९९२

हे राम ,

जीवन एक कटु यथार्थ है

और तुम एक महाकव्य !

तुम्हारे बस की नहीं

उस अविवेक पर विजय

जिसके दस बीस नहीं

अब लाखों सिर – लाखों हाथ हैं

और विवेक भी अब

न जाने किसके साथ है ।

इससे बड़ा क्या हो सकता है

हमारा दुर्भाग्य

एक विवादित स्थल में सिमट कर

रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं

योद्धाओं की लंका है ,

‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं

चुनाव का डंका है !

हे राम , कहाँ यह समय

कहाँ तुम्हारा त्रेता युग ,

कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम

और कहाँ यह नेता – युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ

किसी पुराण – किसी धर्मग्रंथ में

सकुशल सपत्नीक….

अब के जंगल वो जंगल नहीं

जिनमें घूमा करते थे बाल्मीक !

– कुँवरनारायण

( फरवरी ,१९९३ में राजेन्द्र राजन द्वार सम्पादित तथा समकालीन सहित्य मंच , वाराणसी द्वारा प्रकाशित ’उन्माद के खिलाफ’ से )

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