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[ १९३६ में गुजरात साहित्य परिषद के समक्ष परिषद के पत्रकारिता प्रभाग की अध्यक्षीय रपट महादेव देसाई ने प्रस्तुत की थी । उक्त रपट से कुछ हिस्से यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं। अनुवाद मेरा है । अफ़लातून ]
यह पत्रकारों की परिषद नहीं है , पत्रकारों को आश्रय देने के इच्छुक साहित्यकारों की परिषद है । इसके पहले पत्रकारिता की जो परिषद हुईं वे साहित्य परिषद से स्वतंत्र थीं। इस बार स्थिति में फर्क है और मेरा काम कुछ हद तक सुगम बन जाता है । पत्रकारिता को साहित्य परिषद का अंग मानने का यह प्रथम प्रसंग है । इसका यह अर्थ हुआ कि पत्रकारिता साहित्य है अथवा साहित्य के अनेक अंगों में से एक है , यह मान लिया गया है । एक अंग्रेज लेखक ने पत्रकारीय लेखन को ‘जल्दबाजी में लिखा साहित्य’ कहा है ; कई लोग यह कहने वाले भी हैं कि पत्रकारीय लेखन को साहित्य में न गिना जाए । प्रसिद्ध अंग्रेज पत्रकार नेविनसन की एक पुस्तक की समीक्षा करने वाले लेखक इन सब से उलटा कहते हैं ।वे कहते हैं कि वृत्त अथवा घटनाओं के अध्ययन के बाद, स्पष्ट तथा स्वतंत्र रूप से विचारपूर्वक , मुद्देवार ,त्वरित गति से लिखा गया लेखन साहित्य नहीं तो और क्या होगा ? अतिविलम्बित गति से, कसा कसा सा,अस्पष्ट रूप से लिखा हुआ तथा लेखक हवा में है अथवा जमीन पर इसका मुश्किल से भास कराने वाला लेखन किसी पुस्तक में शोभायमान भले ही हो जाए, उसे साहित्य कौन कहेगा ?
मुझे लगता है यह झगड़ा बेमानी है, इसकी वजह साहित्य की अस्पष्ट व्याख्या है । रस्किन ने चिरंजीव साहित्य की जो व्याख्या की है , उस पर गौर करें ।पुस्तकों का, अथवा दैनिक या साप्ताहिक पत्रों का लेखन इस व्याख्या में किस हद तक बैठता है , यह देखें । यह है रस्किन की व्याख्या :” जो मैं लिख रहा हूँ वह सत्य है , जनहितकारी है , सुन्दर है – इस भाव से लिखा हुआ साहित्य है।लेखक को इस बात का ख्याल होता है कि किसी और ने यह बात नहीं कही और उसे यह भी लगता है कि उससे बेहतर तरीके से यह बात अन्य कोई नहीं कह सकता । जीवन में खुद के अनुभवमें उसे इस वस्तु का स्पष्ट दर्शन हुआ है,प्रभु द्वारा उसे सुपुर्द स्थूल एवं सूक्ष्म संपत्ति में से यह अमूल्य ज्ञान अथवा दर्शन उसने पाया है।इसे हमेशा के लिए सहेज कर रखने , मुमकिन हो तो शिला पर खोद कर रखने की उसे अभिलाशा रहती है,कारण वह यह मानता है कि : ‘ इसमें मेरा हीरा और नूर निचोड़कर समाया है , बाकी तो दूसरों की तरह जीया,खाया – पीया,लड़ा- डपटा और पृथ्वी से अलोप हुए वैसे मैं भी अलोप होऊँगा: परन्तु मेरा यह जो अनमोल ज्ञान और दर्शन है,वह आपकी स्मृति में भी टिका रहे।” यह उसका लेखन है ; अल्प रीति से ही सही परन्तु ईश्वर ने जिस हद तक दर्शन कराया है , उस हद यह ही उसका शिलालेख है , शास्त्र है । यह पुस्तक है। चिरन्जीव साहित्य है।” इस उद्धरण में मैंने ‘साहित्य’ शब्द का इस्तेमाल किया है।रस्किन ने ‘पुस्तक’ और ‘समाचार पत्रों’ अथवा चिरंजीव- साहित्य तथा क्षणजीवी-लेखन का भेद करते हुए चिरंजीव-पुस्तकों की यह व्याख्या – परिभाषा की है । रस्किन ने ‘क्षणजीवी लेखन’ की परिभाषा यूँ की है, ‘किसी घटना अथवा स्थिति का सुवाच्य वर्णन,अथवा कुछ मित्रों की सुवाच्य चर्चा या भाषण, जिसे आप सुबह नाश्ते के साथ पढ़ना चाहें – जिसे पढ़ना चाहिए, न पढ़ना या उसका उपयोग न करना शरमाने वाली बात कही जाएगी- यह क्षणजीवी लेखन की कोटि में गिना जाएगा ।यह किसी भी कोण से चिरकालीन साहित्य नहीं है । पत्र-पत्रिकाओं का कितना लेखन चिरकालीन(या कालजयी) साहित्य की इस परिभाषा के अनुरूप है? गुजराती य अन्य देशी भाषाओं में,या अंग्रेजी दैनिक ,साप्ताहिक या मासिक में प्रकाशित कितने लेख उक्त परिभाषा पर खरे उतरेंगे? हद से हद हमें मुट्ठीभर ऐसे लेख मिलेंगे जिन्हें रस्किन ने ‘क्षणजीवी सुवाच्य लेखन’ कहा है। शेष की गिनती क्षणजीवी लेखन की कोटि में भी मुमकिन नहीं है ।
इसके बावजूद एडिसन ,डीफ़ो,हेजलिट, एड्विन आर्नॉल्ड,किपलिंग,गयटे,आनातोल फ्रांस – यह सभी पत्रकार थे और साहित्यकार भी,अथवा यूँ कहें कि पत्रकार थे इसलिए साहित्यकार बने ।
रस्किन द्वारा खींची गयी विभाजन रेखा बहुत पतली हो जाती है । यदि अमुक प्रसंगों में अमुक विषयों सम्बन्धी बातचीत साहित्य में नहीं ही गिनी जाएगी तब डॉ. जॉन्सन की अनेक बातों और संवादों के संग्रह वाली बॉसवेल रचित जीवनी हम आज भी क्यों पढ़ते हैं ,और उसे साहित्य मानते है? गेयटे और एकरमन के संवादों को हम आज भी क्यों पढ़ते हैं और साहित्य मानते हैं? प्लेटो के संवाद – भली ही वे काल्पनिक क्यों न हों- क्यों सैंकड़ों साल से पढ़े जा रहे हैं और भविष्य में भी सैंकड़ों साल तक पढ़े जाएंगे? इनमें से कई संवादों के विषय क्षणिक नहीं शाश्वत थे तथा उन्हें कहने और लिखने वालों की शैली उसे कालजयी बनाने वाली थी । घटनाओं के उदाहरण लें।सॉक्रेटिस के मुकदमे और मृत्यु की घटना का वर्णन भी आज तक पढ़ा जा रहा है।वह आज तक संग्रहित है चूँकि वह उत्तम साहित्य है । आगरा जेल में बैठ कर १९२२ में गांधीजी पर अहमदाबाद में चले मुकदमे का जो वर्णन मैंने ‘मैन्चेस्टर गार्डियन’ में पढ़ा था,उसका स्मरण अब तक है,उसे बार बार पढ़ने में मुझे थकान नहीं होगी ।उसे मैं साहित्य ही कहूँगा।
अपने यहाँ स्व. मणिलाल नभुभाई और नवलराम के ,तिलक महाराज और गांधीजी के कुछ लेख ऐसे हैं जिन्हें शुद्ध साहित्य मानना ही होगा। उन लेखों के विचार पाठक आज तक पढ़ते हैं,भविष्य में भी पढ़ेंगे। काकासाहब के लेखों का पुस्तकाकार संग्रह बन रहा है।वे सभी लेख अखबारों में छप चुके हैं, इससे उनका साहित्यिक मूल्य कम नहीं हो जाता ।
इस भाषण के शेष भाग :
पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य
पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव देसाई
“अखबारों में छप चुके हैं, इससे उनका साहित्यिक मूल्य कम नहीं हो जाता ।”
सत्यवचन.
अच्छा सिरीज शुरू किया जारी रहनी चाहिए.
अभी गाँधी जी महादेव देसाई व
नारायण देसाई के बारे में बहुत कुछ जानना बाँकी है।अत: कोई भी दृ_ष्टिकोण बनाना कठिन है। हमें जानकारी देते रहिये ।शायद हमारी शंकाओं का निवारण हो जाये।
घुघूती बासूती
[…] May 23, 2008 by अफ़लातून १. पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य है ? : … […]
जिस दौर में महादेवभाई यह लिख रहे हैं वह दौर कुछ और रहा होगा. आज की पत्रकारिता तो साहित्य को भी कीचड़ में सान देगी.
उपयोगी,ज्ञानवर्धक और विचारणीय.
दशा और दिशा पर सोचने का अवसर मिला.
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आभार
डा.चंद्रकुमार जैन
[…] kashivishvavidyalay.wordpress.com/200… […]
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[…] हिस्सा : एक , दो , तीन , चार , […]
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