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Posts Tagged ‘लाल्टू’

1

 

कहना दोधी से कम न दे दूध नहीं जा सकती इंदौर

 

कर दूँगा फोन दफ्तर से मीरा को अनु को

 

तुम नहीं जा सकती इंदौर अब

 

मैसेज भेजा लक्ष्मी को मत करो चिंता

 

नहीं आएगी स्टेशन मरे हैं चार दिल्ली में कर्फ्यू भी है

 

एक पत्थर और समय अक्ष पर पत्थर गिरे गुम्बदों से

 

समय अक्ष बन रहा अविराम समूह पत्थरों का

 

 

 

2

 

सभी हिंदुओं को बधाई

 

सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों, दुनिया के

 

तमाम मजहबियों को बधाई

 

बधाई दे रहा विलुप्त होती जाति का बचा फूल

 

हँस रहा रो रहा अनपढ़ भूखा जंगली गँवार

 

 

 

3

 

पहली बार पतिता शादी जब की अब्राह्मण से

 

अब तो रही कहीं की नहीं तू तो राम विरोधी

 

कहेगी क्या फिर विसर्जन हो गंगा में ही

 

निकाल फ्रेम से उसे जो चिपकाई लेनिन की तस्वीर

 

मैंने

 

मैं कहता झूठा सूरज झूठा सूरज झूठा सूरज रोती तू

 

अब तू तो कहती रही गलत है झगड़ा लिखा दीवारों पर

 

निश्चित तू धर्मभ्रष्टा

 

ओ माँ !

 

 

 

4

 

परुषोत्तम !

 

सभी नहीं हिंदू यहाँ रो रही मेरी माँ आ बाहर आ

 

कुत्ता मरा पड़ा घर के बाहर पाँच दिनों से

 

ओवरसीयर नहीं देता शिकायत पुस्तिका

 

ला तू ही ला लिख दूँ सड़ती लाशें गलीगली

 

कुछ कर हे ईश्वर !

 

 

 

5

 

सड़ती लाशें गलीगली

 

नहीं यहाँ नहीं कहीं और

 

फिलहाल दुनिया की सबसे शांत धड़कन है यहाँ

 

फिलहाल

 

 

 

1992

 

जनसत्ता 1992, परिवेश 1993

 

 

(‘डायरी में तेईस अक्तूबर’ संग्रह में संकलित)

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यह कविता नहीं है। यह गर्दन दबाकर करवाई गई बहस का नतीज़ा है। हो सकता है कि साल दो साल काम करने के बाद कभी इसमें कविता जैसा भी कुछ आ जाए।

मैं पहले भी ‘कविता नहीं’ शीर्षक से एक कविता लिख चुका हूँ, इसलिए इसे क्या शीर्षक दूँ। जैसा है वैसा ही।

ला.

टोनी मॉरिसन इंग्लिशवालों के खिलाफ लिखती है

चाहो तो मुझे हिंदीवाला कह लो

पर उस वक्त मैं इंग्लिशवाला होता हूँ जब जातिसंघर्ष की बात करते हुए मैं बड़े कवियोंकी ही कविताएँ पढ़ता हूँ;

अंग्रेज़ी बोलना और इंग्लिशवाला होना दो अलग बातें होती हैं

इंग्लिशवाले चिल्लाते हैं कि टोनी मॉरिसन अंग्रेज़ी में लिखती है, पर सचमुच वह इंग्लिशवालों के खिलाफ लिखती है

मसलन दुनिया के तमाम मुल्कों में इंग्लिशवालों के खिलाफ जिहाद छिड़ा हुआ है

इंग्लिशवाले हिंदी, स्वाहिली, कोंकणी या इस्पानी ही नहीं, अंग्रेज़ी में भी

बेताबी से इस कोशिश में हैं कि हम उनकी इंग्लिशवाला होने की पहचान कर लें

वे दुनिया की हर भाषा में हमें सीख देते हैं कि हमारी भाषा में हम कुछ पढ़े न पढ़ें

पर उनकी अंग्रेज़ी हम ज़रूर पढ़ें, क्योंकि उनकी और उनकी ही भाषा में ज्ञान उपलब्ध है

 

अगर तुम ग़लती से कह बैठो कि तुम अंग्रेज़ी पढ़ लेते हो और जानते हो कि वे बकवास कर रहे हैं

वे तुम्हें सलाह देंगे कि तुम अंग्रेज़ी पढ़ना बोलना छोड़ दो हालाँकि ऐसा कहने की योग्यता प्राप्त करने के लिए उनको दोचार ज़िंदगियाँ और जीनी होंगी

 

क्या कीजे कि हम पुनर्जन्म में यकीन नहीं करते और उनके प्रति दया की भावना रखते हुए उन्हें अनसुना कर देते हैं

यह हमारी क्रूरता है कि हम मानते हैं कि इस ज़माने में इंग्लिशवाले असली ब्राह्मण हैं। कितनी ग़लत बात कि हम जानते हैं कि ब्राह्मण कौन और डोम कौन – अपनी कीरत अपनी कीमत।

——-लाल्टू

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भालू की आँखें तुझे देख रही हैं
तूने उसे जो पानी का सोता दिखाया था
वह ऊपर गुफा तक जाता है
भालू की आँखें कहती हैं
तुझे गुफा तक ले जाऊँ
वहाँ तू भालू को सीने से लगा सोएगी
बीच रात उठ पेड़ों से डर मेरा कंधा माँगेगी
भालू पड़ा होगा जहाँ तू सोई थी
कीट पतंगों की आवाज के बीच बोलेगी चिड़िया
तुझे प्यार करने के लिए
भालू को पुचकारुँगा
तू ले लेगी भालू को फिर देगी अपना नन्हा सीना
बहुत कोशिश कर पूछेगी
बापू भालू 
मैं सुनूँगा भालू भालू 
गाऊँगा सो जा भालू सो जा भालू 
नहीं कह पाऊँगा उस वक्त दिमाग में होगी सुधा
छत्तीसगढ़ में मजदूर औरत की बाँहों से तुझे लेती
तब तक कहता रहूँगा  सो जा भालू सो जा 
जब तक तेरी आँखों में फिर से आ जाएगा जंगल
जहाँ वह सोता है
जो ऊपर गुफा तक जाता है..........

किस डर से आया हूँ यहाँ
डरों की लड़ाई में कहाँ रहेगा हमारा डर
तेरा भविष्य बोस्निया से भागते अंतिम क्षण
हे यीशुः कितनी बार क्षमा


क्या अयोध्या में आए सभी निर्दोषों को करेगा ईश्वर मुआफ
तू क्या जाने ईश्वर बड़ा पाखंडी
वह देगा और ताकत उन्हें जो हमें डराते
भालू को थामे रख
यह पानी का सोता जंगल में बह निकल जहाँ जाता है
वहाँ पानी नहीं खून बहता है
तब चाँद नहीं दिखता भालू डर जाएगा.........

भालू को थामे रख
वह नहीं हिंदू मुसलमान
खेल और गा भालू खा ले आलू
कोई मसीहा नहीं जो भालू को बचा पाएगा
कोई नहीं माता पिता बंधुश्चसखा
इस जंगल से बाहर ...

भालू को थामे रख।

(रविवारी जनसत्ता  १९९२)
 

 

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यह तो कुमार विकल को भी ठीक ठीक नहीं पता था

कि वह पीता क्यों था

हम नाहक़ दोस्तों को कोसते रहे

पीने के वजहें सबसे अधिक तब मिलती हैं

जब पास कोई न हो

अनजान किसी ग्रह से वायलिन की आवाज़ आती है

आँखों में छलकने लगता है जाम

उदास कविताएँ लिखी जाती हैं

जिन्हें बाद में सजा धजा हम भेज देते हैं

पत्रिकाओं में

कोई नहीं जान पाता

कि शब्दों ने मुखौटे पहने होते हैं

मुखौटों के अंदर

रो रहे होते हैं शब्द ईसा की तरह

सारी दुनिया की यातनाएँ समेटे।

लिख डालो, लिख डालो

बहुत देर तक अकेलापन नहीं मिलेगा

नहीं मिलेगी बहुत देर तक व्यथा

जल्दी उंडेलो सारी कल्पनाएँ, सारी यादें

टीस की दो बूँदें सही, टपकने दो इस संकरी नली से

लिख डालो, लिख डालो।

बहुत देर तक बादल बादल न होंगे

नहीं सुनेगी सरसराहट हवा में बहुत देर तक

जल्दी बहो, निचोड़ लो सभी व्यथाएँ, सभी आहें

अभ्यास ही सही, झरने दो जो भी झरता स्मृति से

लिख डालो, लिख डालो।

लाल्टू

[ कवि-मित्र लाल्टू के जन्म दिन पर उन्हीकी कविता सप्रेम पेश ]

लाल्टू की कुछ और कवितायें : वह प्यार

लाल्टू से सुनो ,

लाल्टू की अभिव्यक्ति

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रुको

कविता रुको
समाज, सामाजिकता रुको
रुको जन, रुको मन।

रुको सोच
सौंदर्य रुको
ठीक इस क्षण इस पल
इस वक्त उठना है
हाथ में लेना है झाड़ू
करनी है सफाई
दराजों की दीवारों की
रसोई गुसल आँगन की
दरवाजों की

कथन रुको
विवेचन रुको
कविता से जीवन बेहतर
जीना ही कविता
फतवों रुको हुंकारों रुको।

इस क्षण
धोने हैं बर्त्तन
उफ्, शीतल जल,
नहीं ठंडा पानी कहो
कहो हताशा तकलीफ
वक्त गुजरना
थकान बोरियत कहो
रुको प्रयोग
प्रयोगवादिता रुको

इस वक्त
ठीक इस वक्त
बनना है
आदमी जैसा आदमी।
(इतवारी पत्रिकाः ३ मार्च १९९७)
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स्केच

एक इंसान रो रहा है

औरत है

लेटर बाक्स पर

दोनों हाथों पर सिर टिकाए

बिलख रही है

टेढ़ी काया की निचली ओर

दिखता है स्तनों का उभार

औरत है

औरत है

दिखता है स्तनों का उभार

टेढ़ी काया की निचली ओर

बिलख रही है

दोनों हाथों पर सिर टिकाए

लेटर बाक्स पर

औरत है

एक इंसान रो रहा है

(पश्यंती १९९५)
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खबर

जाड़े की शाम

कमरा ठंडा   ठ  न्  डा

इस वक्त यही खबर है

– हालाँकि समाचार का टाइम हो गया है

कुछेक खबरें पढ़ी जा चुकी हैं

और नीली आँखों वाली ऐश्वर्य का ब्रेक हुआ है
है खबर अँधेरे की भी

काँच के पार जो और भी ठंडा

थोड़ी देर पहले अँधेरे से लौटा हूँ

डर के साथ छोड़ आया उसे दरवाजे पर
यहाँ खबर प्रकाश की जिसमें शून्य है

जिसमें हैं चिंताएं, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ

अकेलेपन का कायर सुख
और बेचैनी……..

……..इसी वक्त प्यार की खबर सुनने की

सुनने की खबर साँस, प्यास और आस की
कितनी देर से हम अपनी

खबर सुनने को बेचैन हैं।
(इतवारी पत्रिका – ३ मार्च १९९७)
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बकवास

कुछ पन्ने बकवास के लिए होते हैं

जो कुछ भी उन पर लिखा बकवास है
वैसे कुछ भी लिखा बकवास हो सकता है

बकवास करते हुए आदमी

बकवास पर सोच रहा हो सकता है

क्या पाकिस्तान में जो हो रहा है

वह बकवास है

हिंदुस्तान में क्या उससे कम बकवास है
क्या यह बकवास है

कि मैं बीच मैदान हिंदुस्तान और पाकिस्तान की

धोतियाँ खोलना चाहता हूँ
निहायत ही अगंभीर मुद्रा में

मेरा गंभीर मित्र हँस कर कहता है

सब बकवास है
बकवास ही सही

मुझे लिखना है कि

लोगों ने बहुत बकवास सुना है
युद्ध सरदारों ध्यान से सुनो

हम लोगों ने बहुत बकवास सुना है
और यह बकवास नहीं कि

हम और बकवास नहीं सुनेंगे।
(पश्यंतीः अक्तूबर-दिसंबर २०००)
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दिखना

आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं?

अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो?

बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में

कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?
कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है

जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है

बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है

इंसान खाते हुए दिखता है

आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ

वैसे आदम किस को दिखता है !
देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है

मुझे कहना है दिखने के बारे में

यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं

जब आप सबसे कम दिख रहे हों।

–पहल-७६ (२००४)
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एक और रात

दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है

उसे रातें गुजारने की आदत हो गई है
रात की मक्खियाँ रात की धूल

नाक कान में से घुस जिस्म की सैर करती हैं
पास से गुजरते अनजान पथिक

सदियों से उनके पैरों की आवाज गूँजती है

मस्तिष्क की शिराओं में।
उससे भी पहले जब रातें बनीं थीं

गूँजती होंगीं ये आवाजें।

उससे भी पहले से आदत पड़ी होगी

भूखी रातों की।
(पश्यंतीः – अक्तूबर-दिसंबर २०००; पाठ २००९)
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सखीकथा

हर रोज बतियाती सलोनी सखी

हर रोज समझाती दीवानी सखी

गीतों में मनके पिरोती सखी

सपनों में पलकें भिगोती सखी

नाचती है गाती इठलाती सखी

सुबह सुबह आग में जल जाती सखी
पानी की आग है

या तेल की है आग

झुलसी है चमड़ी

या फंदा या झाग
देखती हूँ आइने में खड़ी है सखी

सखी बन जाऊँ तो पूरी है सखी
न बतियाना समझाना, न मनके पिरोना

न गाना, इठलाना, न पलकें भिगोना
सखी मेरी सखी हाड़ मास मूर्त्त

निगल गई दुनिया

निष्ठुर और धूर्त्त।

(पश्यंती; अप्रैल-जून २००१)
———————– लाल्टू .

लाल्टू की अभिव्यक्ति

लाल्टू की अभिव्यक्ति


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