जनम दिन
१.
जीर्ण कपड़ा उतार कर
नया पहनना
पुनर्जीवन है –
मेरे गले यह बात
अब तक नहीं उतरी |
कुशन पर धुले खोल
चढ़ाते वक्त
कल जरूर याद आया –
मेरा जनम दिन था |
२.
बा से पूछा था –
क्या होता है
वर्षगांठ पर ?
‘बड़े हो जाते हो
उस दिन ‘
बताया था उसने |
फिर रजाई के अंदर
पांव हिला कर
अंदाज लगाया
छठे जन्मदिन पर ।
और बिस्तर से निकलने के
पहले ही पूछा ,
‘काका जितना बड़ा हो गया ?’
लम्बा होना ही
तब बड़ा होने का समानार्थी था ।
अब बूढ़ा होना है ?
जी यही तो है जीवन का सत्य -सार ! यौवन के दिन चार !
@ कुशन पर धुले खोल
‘काका जितना बड़ा हो गया ?’
…
अद्भुत
ऐसी कवितायें भी लिखते हैं आप ! मुग्ध हुआ ।
“लम्बा होना ही
तब बड़ा होने का समानार्थी था ।
अब बूढ़ा होना है ?”
केवल इन तीन पंक्तियों को ही पोस्ट कर देते तो भी पूरी कविता कह ली जाती । कितना कुछ सिमटा है इनमें ।
आभार ।
’तब’ और ’अब’ के बीच जो बहता है वही जीवन है . अच्छी कविता . बधाई !
जीर्ण कपड़ा उतार कर
नया पहनना
पुनर्जीवन है –
उम्दा…..
satya likha hai aapne
लम्बा होना ही
तब बड़ा होने का समानार्थी था ।
अब बूढ़ा होना है ?
panktiyaan baandhteen hain..
तस्वीर बहुत उम्दा है
बेहतर कविताएं…
छूती हैं…
ओह..यह मध्याह्न का कचोटता सच..
[…] दो कविताएं / जनम दिन / अफ़लातून […]
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