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Posts Tagged ‘शिल्प’

[ वरिष्ट कला समीक्षक एवं ’आर्यकल्प ’ के सम्पादक डॉ. लोलार्क द्विवेदी ने मृगेन्द्र प्रताप सिंह की इस शिल्प कृति पर लिखी  जीवन्त समीक्षा को छापने की अनुमति सस्नेह दी है । आभार । ]

… और अभी मीलों चलना है

मृगेन्द्र प्रताप सिंह ( प्राध्यापक , मूर्तिकला विभाग , बी.एच.यू ) के मूर्तिशिल्पों के दृश्य – विधान में जीवन – जगत का अंतरंग बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में विन्यस्त होता है । उनका शिल्प – विन्यास जीवन के उन पक्षों को सामने लाता है जो अब तक उपेक्षित हैं या जिन्हें अनदेखा कर दिया जाता है । वे छोटे – छोटे सन्दर्भों को कान्तिमान और इंद्रिय – संवेद्य बनाते हैं और उनसे संवाद करते हैं । वे ऐसे समय में अत्यन्त प्राचीन माध्यम ( प्रस्तर ) और पारम्परिक प्रविधि में काम करते हैं जबकि आधुनिक सामग्रियों को माध्यम बनाने की होड़ मची है और अपार तकनीकी सुविधायें मौजूद हैं । इतना ही नहीं , जहाँ मूर्तिकार संस्थापनों (इंस्टालेशन ) और स्थानीय-शिल्पों ( साइट-स्पेसिफिक ) को लेकर बेतरह उत्साहित हैं , मृगेन्द्र सैंडस्टोन में ही सम्पूर्ण सम्भावनाओं को परिपक्व होते देखते हैं । उनके मूर्तिशिल्पों में काया का बहुत महत्व है । काया की सादगी में उनके भावों और विचारों के बिम्ब गुँथे हुए हैं ।

मृगेन्द्र प्रताप : एक

मृगेन्द्र की बड़ी विशेषता है , उनके शिल्पों की क्षैतिज काया । प्रकृति के वे रूप जो अपने पूरे आयतन में जमीनी हैं , उन्हीं में से किसी एक का चुनाव उनकी शिल्प – काया का आधार होता है , जैसे नदी । यह नदी कहाँ से आती है , कहाँ तक इसका विस्तार है , यह प्रश्न मृगेन्द्र के लिए महत्वपूर्ण नहीं है । उनके लिए महत्वपूर्ण होता है , उसका प्रवाह , उसके रास्ते के अवरोध , पर्वत श्रेणियाँ , चट्टानें , पठार , वन ….। वे दिखाते हैं , नदी के प्रवाह के अवरोध , अवरोध के साथ लहरों का संघर्ष , संघर्ष के बीच नदी का धाराओं में बटना और फिर उछाल के साथ अवरोध को पार कर आगे बढ़ जाना । उनके दृश्य – विधान में अवरोध और प्रवाह दोनों महत्वपूर्ण हैं । अवरोध असंख्य बार आते हैं और नदी की लहरें उनसे लड़ती हैं । कहीं वे युद्धरत घोड़ों की तरह उछाल भरती हैं तो कहीं गोली की तरह अवरोधों को भेदकर आगे निकल जाती हैं । नदी की यह काया अपने विस्तार के साथ मनुष्य की देह भी हो सकती है और समूचा प्रवाह जीवन – उर्जा का रूपक । शोक – दुख , सामाजिक विडम्बनाएँ , भोग – विक्षिप्त वर्ग के षड़यंत्र , बाजरवाद और ऐसे ही बहुतेरे अवरोधों से टकराती मनुष्य की चेतना उनके प्रकल्पन में शामिल होती है । वे एक साथ कई स्तरों पर जूझते हैं । उन्हें मनुष्य और प्रकृति को एक साथ गूँथना अनिवार्य लगता है । वे पारम्परिक मूर्तिकला में व्याप्त प्रकृति के रूपों को समकालीन कला से जोड़ने के लिए संघर्ष करते हैं । इसलिए उनके शिल्प में अतीत की स्मृतियाँ लुप्त नहीं होतीं ।

मृगेन्द्र प्रताप दो

मृगेन्द्र की कोई भी कृति दर्शक को बौना नहीं बनाती । वह बहुत आत्मीयता के साथ उसे अपने से जोड़ लेती है । जब आप उनकी इस नदी की परिक्रमा करेंगे , आपको शिल्प के नए – नए अर्थ खुलेंगे । कभी लगेगा कि यह शिल्प मुक्तिबोध की उस कविता की तरह है जो कभी खत्म नहीं होती । कभी लगेगा कि अँगुलियाँ पकड़कर कोई फ्रास्ट की तरह कह रहा है … और अभी मीलों चलना है …..।

–  लोलार्क द्विवेदी

कवि एवं कला समीक्षक,

कार्यकारी सम्पादक ’ आर्यकल्प ’

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भाग : एक

    मुझे इस प्रसंग में अमरीका के राष्ट्रीय नेताओं की चार मूर्तियों की याद आती है । वे प्रचंड हैं । एक दफ़ा अमरीका में हवाई जहाज से जाते समय उन पुतलों पर से मेरा हवाई जहाज उड़ा । मैंने मेरे हवाई जहाज चालक को फिर से उन मूर्तियों पर से हवाई जहाज लेने को कहा। इच्छा थी कि हो सका तो उन अखंड मूर्तियों की कला का सार जान लूँ । यह कहना संभव Dean_Franklin_-_06.04.03_Mount_Rushmore_Monument_(by-sa) है कि वास्तविक दृष्टि से वे मूर्तियाँ भारतीय मूर्तियों की अपेक्षा ज्यादा अच्छी हैं । वे मूर्तियाँ ग्रीक और रोमन शिल्प परम्परा को सम्मान पूर्वक आगे चला रही हैं । लेकिन मैं नहीं कह सकता कि उन मूर्तियों से कुछ संदेश मिलता है या नहीं । हालाँकि उन मूर्तियों की पृष्टभूमि की कथाएं ज्यादा वेधक पद्धति से चित्रांकित करने में उस शिल्प ने सफलता हासिल की है । और वे कथाएं ही एक महान संदेश हैं ।  मूर्तियाँ केवल चेहरों की हैं । मान लीजिए कि शरीर  का उर्वटित हिस्सा यदि बनाया जाता तो ज्यादा से ज्यादा लिंकन और वाशिंग्टन के आगे की ओर उठाए हुए पैरों में अविष्कृत जादू केवल प्रेक्षकों को महसूस होता । ऐसा भी कहना संभव है कि मुझे ही मूर्तियों का मतलब पूरी तरह से मालूम नहीं हुआ । जो कि जल्दी में देखने वालों को महान कृतियाँ अपना रहस्य कभी भी बता नहीं सकतीं । लेकिन मुझे वे अमरीकी मूर्तियाँ प्यारी लगीं । खूबसूरती रेखांकित करने में में व्यक्त हुई प्रतिभा और कारीगरी के कारण वे पुतले भारतीय कलाकृतियों से ज्यादा पसंद आये । भारतीय पुतलों में ऐसी सुन्दरता और ऐसी कारीगरी प्रतीत नहीं होती ।

    यद्यपि भारतीय मूर्तिकरण की एक अलग विशेषता है । मूर्ति में मानव की केवल शरीराकृति चित्रित करने पर भारतीय शिल्पाकृति चित्रित करने पर भारतीय शिल्प ज्यादा जोर नहीं देता । भारतीय शिल्प में तो उस व्यक्ति के जीवन और आशय को ज्यादा महत्व दिया गया है । उस व्यक्ति का एकाध भाव  अथवा सारे के सारे के भाव शिल्पांकित करने में भारतीय कलाकारों को समाधान नहीं मिलता तो जिस अमूर्त जीवन शक्ति के आधार से उस व्यक्ति को , उसकी पाषाण मूर्ति को या हम सभी को अस्तित्व उपलब्ध होता है वह जिंदापन , वह जीवन शक्ति भारतीय शिल्पों में संक्षिप्त रूप में चित्रित होने का अहसास होता है जिसको देखकर आदमी (मोहित) पागल होता है । शायद ऐसा लगेगा कि सभी भारतीय कलाकार बौद्ध व जैन पंथ के प्रभाव में चले गये और उन्हें हिंदू धर्म के बारे में आस्था नहीं रही । लेकिन ऐसा नहीं हुआ ।

    शिवशंकर पर अन्य किसी भी देवता की अपेक्षा भारतीय शिल्पकारों को ज्यादा प्रेम है । शिव के शांत , स्तब्ध व्यक्तित्व ने तत्ववेत्तओं को अधिक सर्वांगीण विचार करने की प्रेरणा दी । उसी तरह शिव के व्यक्तित्व ने शिल्पकारों को शिल्पकला का सम्पन्न रूप ज्यादा पैमाने पर दुनिया के सामने रखा । सातवीं सदी के और उसके बाद काल  के शिल्पों में अथवा बारहवीं सदी के और उसके बाद के काल में खजुराहो के शिल्प में शंकर पार्वती के शरीर को लपेटकर और वक्ष:स्थल के नीचे हाथ घेरकर बैठा हुआ है और पार्वती उसके बायीं गोदमें बैठी है । निहायत संतुष्ट अवस्था में वे दोनों बैठे दिखाई देते हैं । काल निश्चल खड़ा है । कालगति पर नियंत्रण रखनी की चाह कहीं भी दिखाई नहीं देती । क्षय अनन्त है । भविष्यकाल अपने पीछे दौड़े ऐसी उत्कंठा वर्तमान काल में नहीं दिखायी देती । भूतकाल को भी चिंता नहीं है ।  तत्काल स्वयंपूर्ण होती है और अपने अस्तित्व का औचित्य स्वयं ही बताती है । तत्काल कृति एक निस्तब्ध कृति है । अचर का चर कर्म । क्या आदमी अपने व्यवहार में तात्कालिकता का यह तत्व अमल में ला सकता है ? कहना मुश्किल है । शिल्पकार द्वारा खोदा गया शिव का सनातन व्यक्तित्व मात्र आदमी को उस दिशा की ओर गति दिखाता है । अगले क्षण के बारे में आदमी की उत्सुकता शायद पूरी तरह से कभी भी खत्म नहीं होगी । लेकिन वर्तमान काल में स्वयं को काफ़ी उलझाकर , उससे ज्यादा से ज्यादा फल प्राप्त करना उससे संभव हो सकता है।

    शिव के असीम व्यक्तित्व के कारण भारतीय शिल्पकारों को हिंदुओं का धर्म सम्बन्धी चिन्तन श्रेष्ठ और संपन्न रूप में और संक्षिप्त रीति से व्यक्त करना संभव हुआ । धारापुरी के आठवीं सदी के और नौवीं व सोलहवीं सदी के चितुर की गुफाओं में शिव की तीन विभिन्न रूप की मोहक मूर्तियाँ हैं । एक ध्यानमग्न दूसरी रौद्र और तीसरी लारयुक्त ।  शिल्पकारों ने शिव का एक भी रूप चित्रित करने से बहीं छोड़ा । तन्हाई में महान और प्रसिद्ध तांडवनृत्य शिव करता है ।   उस शिल्प में शिव की निश्चलता में चलता , और चलता में निश्चलता प्रत्यक्षकारक है । सिंह और भेड़ को एक जगह रखने जैसा बुद्धि का अगम्य चमत्कार उस मूर्ति में शिल्पित 3026465933_f75b1b8bd4किया है । आधे हिस्से में स्त्री और आधे हिस्से में पुरुष ,अर्धाँग शंकर वह अर्ध नारी नटेश्वर का रूप सर्वोच्च और सजीव जैसे सभी भेद मिटाने वाला सृजन लगता है ।

  

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तिहास के ग्रन्थों का कभी ना कभी नाश होना अटल है । यह जान कर ही शायद भारतीय जनता ने अनंत काल तक प्रचलन में रहने वाली  कथा कहानियों के माध्यम से इतिहास बनाया है। इतिहास को क्रोध आया । उसने बदला लिया और सबसे ज्यादा समय तक अभंग रहने वाले पाषाणों पर उसने अपनी आत्मा खोदकर रखी । भारतीय धर्म ने भी अपनी कथा पाषाणों पर ही चित्रित की है ।

भारतीयों का धर्म जैसे जैसे उत्कर्ष तक पहुंचने लगा वैसे वैसे उसका रूप अधिकाधिक सत्वहीन और चिंतनहीन बनता गया । पाषाण जैसी सबसे भारी चीज पर जब भारत का धर्म ज्यादा पैमाने पर खोदा जा रहा था , उसी समय चिंतन में खोखलापन बढ़ रहा था । दुनिया के किसी भी अन्य देश ने अपनी आत्मा के इतिहास को  और अपने इतिहास की आत्मा को भारत के समान पत्थर पर खोदकर लुभावनी शकल नहीं दी होगी । एक तरफ इतिहास और धर्म विषयक चिंतन में स्मिता और वहीं दूसरी तरफ धार्मिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं के काल्पनिक चित्रों में श्वास रोकने वाली लगभग चिरंतन सुन्दरता ।

भगवान बुद्ध व महावीर न जाने वास्तव में कैसे दिखाई देते थे । मगर उनकी मृत्यु के के करीबन ३ सौ साल बीत जाने के बाद जिन शिल्पकारों ने उनकी मूर्तियाँ खोदीं , उन्होंने उन मूर्तियों में महापुरुषों की शिक्षा का मर्म  इस तरह साकार किया है कि वे गोया सजीव प्रतीत होती हैं । कई तरह के रूपों में बुद्ध  और महावीर को मूर्तियों में चित्रित किया गया है । कहीं चिंतन मग्न तो कहीं करुणा निधि , कहीं अभय मुद्रा में तो कहीं विकारों पर विजय प्राप्त किये हुए । जिस तरह  हाथों और पैरों पर ठोंकी हुई कीलों की एक ही शकल में ईसा मसीह का स्वरूप दिखाई देता है वैसे बुद्ध और महावीर की मूर्तियों का नहीं । भारतीय शिल्पकारों ने उनका एक ही एक रूप  चित्रित करने का बन्धन नहीं स्वीकारा। अपनी इच्छा के अनुसार अपने आराध्य देवता का चित्र रेखांकित करने की आजादी युरोपीय चित्रकारों को होगी । लेकिन शिल्पकारों को नहीं होगी भारतीय शिल्पकार ही इस सम्बन्ध में पूर्णतया स्वतंत्र मालूम होते हैं ।

महावीरबुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ अनेक रूपों में होने पर भी उन सभी की आस्था व शिल्पशैली एक जैसी है । सभी मूर्तियाँ किसी एक्च ही शिल्पकार ने नहीं खोदीं हैं । कितने भी महान शिल्पकार के लिए यह असंभव था । पीढ़ी पीढियों के अथक परिश्रमों का वह फल है । तो भी बुद्ध और महावीर की मूर्तियाँ एक जैसी दिखती हैं ऐसा शायद ही कोई कह सकता है ।

बुद्ध की प्रतिमा में बुद्ध निश्चिंत दिखाई देते हैं तो महावीर की मुद्रा एक तरह से तंग दिखाई देती है ।  दोनों की मूर्तियाँ देखने पर लगता है कि मानव को उपलब्ध होने वाली श्रेष्ठ विजय दोनों को प्राप्त हुई है । मगर विजीत बुद्ध मुद्रा पर निश्चिंतता है तो विजयी महावीर का चेहरा जो तंग है । इन धर्म प्रवर्तकों की सीख समझाने का जो काम बड़े बड़े ग्रन्थ और धर्म प्रबन्ध कर नहीं पाये , वह काम इन शिल्पकारों ने अपने धर्म पुरुषों की प्रतिमाएं खोदकर अत्यधिक संक्षिप्त लेकिन साफ साफ तय किया है ।

सारनाथ उसी तरह मथुरा , नालंदा , अजंता , वेरूळ के महान बुद्ध की मूर्ति के चेहरे पर सब जगह प्रसन्न विजेता का भाव मालूम होता है । श्रवण बेळगोळा में महावीर परम्परा के बाहुबली की एक बहुत ही प्रचंड मूर्ति है । जो कि दुनिया की सबसे प्रचंड मूर्ति है । विजयी बाहुबली की मुद्रा पर अन्यत्र के समान यहां भी आत्मनिग्रह प्रतीत होता है ।उस मुद्रा की तरह ही लगता है कि यह मुद्रा गोया हमें कहती है कि आदमी कभी भी स्वयं पर अति विजय नहीं पा सकता । मन के बैल को पकड़ने में सफलता मिल जाने के बाद भी उसे अनिर्बंध नहीं छोड़ना चाहिए । जैन धर्म और उसके अनुयायिओं की , विशेष रूप से जैन मुनियों कीकठोर व्रत साधना उस धर्म के कट्टर पंथ की एवं निरंतर दक्षता वृत्ति की साख है । बुद्ध का ऐसा नहीं है । बुद्ध मूर्ति देखने पर ऐसा लगता है कि विजय प्राप्ति के बाद भी विजय के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लगेगा ऐसी मनोदशा प्राप्त करना संभव है । यहाँ यह सवाल ही नहीं उपस्थित होता कि दोनों में से कौन सी प्रवृत्ति ठीक है । जो कि दोनों धर्म पंथों का आगे चलकर अध:पतन ही हुआ है । कौन अधिक अच्छा था यह सवाल भी अप्रस्तुत है । चूंकि कहा जा सकता है कि मानवीय दृष्टि से बुद्ध ज्यादा योग्य था  तो ऐसा भी कहना संभव है कि तार्किक दृष्टि से महावीर ज्यादा ठीक थे । मैं यहाँ केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि शिल्पकारों ने उन दोनों की विचार प्रणाली को उनकी शरीराकृतियों के और मुद्राओं के माध्यम के द्वारा उत्तम रीति से पाषाणांकित की है । 

बुद्ध

( जारी )

जारी( भाग २ )

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