प्रथम भाग से आगे :
भारतीयता के अलग – अलग युग हुए हैं और इनमें नारी जीवन के अलग-अलग मूल्य बने हैं । इनके अनुसार अलग – अलग प्रथायें भी प्रचलित हुईं हैं । आज का भारतीय अपने ही इतिहास से किसी एक परम्परा को बनाए रखने के लिए कुछ अन्य परम्पराओं को तथा प्रथाओं को ठुकरायेगा ही । सती – प्रथा भारतीय – समाज के कुछ ही इलाकों में , कुछ ही कालखण्डों में प्रचलित प्रथा है । इसलिए कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति की जो स्वस्थ मुख्यधारा रही है उससे इसका तार्किक मेल नहीं है । जिन दिनों हिन्दू समाज में पुरुषार्थ इतना घट गया था कि अपने मुल्क या अपने धर्म की रक्षा करने के लिए सामर्थ्य नहीं रह गया था , जिन दिनों राजपूत रमणियों के पास आत्महत्या के अलावा सम्मान – रक्षा का कोई उपाय नहीं बच गया था , सती – प्रथा को उन्हीं दिनों गौरव प्राप्त हुआ था । उसके पहले सिर्फ निकृष्ट व्यक्ति और निकृष्ट संस्कृति के सन्दर्भ में सती – प्रथा का उल्लेख है । रामायण की सती अयोध्या में नहीं लंका में है । कुन्ती सती नहीं होती है , माद्री होती है । आपने अपने ही लेख में लड़कियों के पैदा होते ही मार दिए जाने की घटना को शर्मनाक और राजपूतों की कायरता की निशानी कहा है । अपनी बेटियों के मान – सम्मान की रक्षा का आत्मविश्वास उनमें नहीं था । सती – प्रथा पर भी ठीक वही बात लागू होती है , क्योंकि कायरता के जमाने में ही पद्मिनी को आदर्श नारी माना गया है ।
भारतीय समाज में सिद्धान्त और आचरण की दूरी शायद दूसरे समाजों की तुलना में ज्यादा है । आपने ऐसे सिद्धान्तों का हवाला दिया है जिन पर अमल नहीं होता है या किसी एक जमाने में सम्भवत: उन पर अमल होता हो जबकि अधिकांश कालावधि में उनसे विपरीत व्यवहार चला है । आपने पंचकन्याओं का उल्लेख कर कहा है कि नारी के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टिकोण कितना उदार और विज्ञान सम्मत है । लेकिन क्या आपने कभी हिन्दू परिवार में किसी को कहते हुए सुना है कि अमुक स्त्री द्रौपदी जैसी या कुन्ती जैसी या अहिल्या जैसी सती-साध्वी है ? वाल्मीकि रामायण और महाभारत के बाद नारी का इस प्रकार का आदर्श न पुराणों में है , न किस्सों-कहानी में है , न कथोपकथन में है । भारतीय नारी का वह स्वर्ण युग खतम हो गया है । उसके बाद के कालों की जो भारतीयता हमारे सामने है , उसमें नारी का सामाजिक मूल्य भिन्न प्रकार का हो गया है । यह शायद सर्वसम्मत है कि उपनिषद और महाभारत के बाद भारतीय नारी का अवमूल्यन होता रहा । वाल्मीकि की सीता असभ्य कट्टर राम की आलोचना करती है । तुलसी की सीता के मुँह से ऐसी आलोचना निकल नहीं सकती है । पंचकन्या को सती माननेवाला समाज और सती की पूजा करनेवाला समाज दो अलग – अलग दृष्टिकोणों की उपज हैं । दो भिन्न संस्कृतियाँ हैं । आप जब भारतीयता के बारे में लिखते हैं तब उपनिषद , गौतम बुद्ध , महाभारत , मनुस्मृति , तुलसीदास और मुगलकालीन राजपूत समाज , इन सबको एक ही संस्कृति मान लेते हैं । एक ही सभ्यता की कुछ मौलिक धारणायें इन सबके पीछे कड़ी के तौर पर रही होंगी । लेकिन आचरण , प्रथा , पुरुषार्थ , दृष्टिकोण , मान्यताएँ अलग – अलग हैं । एक दूसरे के विपरीत भी हैं । भारतीयता के किसी एक युग या एक स्थल के सिद्धान्त को बताकर भारतीयता के किसी दूसरे युग या स्थल की मान्यताओं के पक्ष में बहस करना तर्क की बहुत बड़ी ग़लती होगी । वर्णाश्रम और जाति-प्रथा का फर्क काफ़ी सूक्ष्म है । फिर भी जाति प्रथा के पक्ष में बहस करने के लिए वर्णाश्रम के सिद्धान्त को बताना तर्क की ग़लती होगी ।
आप पश्चिमी संस्कृति और भारतीय संस्कृति की तुलना करते हैं , इस प्रकार की गलतियाँ बार – बार होती हैं । भारतीय संस्कृति की कुछ अवधारणायें जरूर ऐसी हैं जो दुनिया में श्रेष्ठ हैं और मानव संस्कृति के नवनिर्माण के लिए आधार बन सकती हैं । लेकिन आपकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति में सब कुछ अच्छा है , युरोपीय संस्कृति में सब कुछ तुच्छ है । भारतीय नारी के बारे में आप चुन चुन कर ऐसी बातें निकालते हैं जो श्रेष्ठ हैं और वे ज्यादातर तो सिद्धान्तरूप में हैं , व्यवहार में नहीं हैं ( जैसी पंचसती का श्लोक ) । नारी के सम्बन्ध में जो प्रतिकूल बाते हैं , श्लोकों से लेकर कहावत तक , उसका आप उल्ले नहीं करते । जिन श्लोकों में और कहावतों में कामुकता का स्रोत नारी को ही माना गया है , पराधीनता नारी की स्वाभाविक स्थिति मानी गयी है , उनको आपने छोड़ दिया है । दूसरी ओर युरोपीय समाज की जो खास उपलब्धियाँ हैं उनको आप छोड़ देते हैं और वहाँ की निकृष्ट बातों का जिक्र करते हैं । कैथलिक संन्यासिनियों की परम्परा को आपने बिलकुल नजरअन्दाज कर दिया है । संयुक्त परिवार को आपने भारतीय विशेषता मान ली है , जब कि यह यूरोप तथा सारी दुनिया में प्रचलित था ।
आधुनिकतावाद और युरोपीय संस्कृति दो अलग – अलग चीजें हैं । आप दोनों को एक मान रहे हैं । युरोपीय संस्कृति की अपनी जड़ें हैं जबकि आधुनिकतावाद जड़विहीन है । पश्चिम की प्रभुता और समृद्धि से प्रभावित होकर गैरयूरोपीय बुद्धिजीवियों ने उसका अनुकरण किया है । हीन – भावनाग्रस्त होकर , अपनी भाषाओं को छोड़कर , अपने इतिहास को बाजू में रखकर उन्होंने एक नकली संस्कृति का निर्माण किया है । यही आधुनिकतावाद है । यूरोपीय संस्कृति में फ्रांस या जरमनी में आप कल्पना कर नहीं सकते कि किसी विदेशी भाषा को राष्ट्रीय कार्यकलाप , अनुसन्धान और शिक्षा का माध्यम बनाया जाए । पश्चिमी समाज अभी भी नये नये सत्यों और तथ्यों का अनुसंधान करता है । नए सत्यों का उद्घाटन , नए प्रतिपादनों की स्थापना , मौलिक यन्त्रों का निर्माण आधुनिकतावाद की क्षमता के बाहर है । आधुनिकतावाद विकासशील देशों की संस्कृति है , यूरोप की नहीं । यूरोपीय समाज और आधुनिकतावादी समाज में काफ़ी सामंजस्य है , कारण आधुनिकतावादी समाज उस सारे सामान , तरीकों और धारणाओं का इस्तेमाल करता है जिनकी उत्पत्ति पश्चिम में हुई है । इस बाह्य सामंजस्य के तले जो आधुनिकतावाद की असलियत है , वह एक नकलची और गुलामों की संस्कृति है ।
यूरोपीय संस्कृति का विकास भारत जैसा लम्बा या पुराना नहीं है , इसका पतन भी शुरु हो चुका है । प्रभुता और यान्त्रिक सम्रुद्धि को छोड़कर उसमें और कोई प्रभावशाली गुण नहीं रह गया है । लेकिन उसके पूरे इतिहास को देखें तो मानव समाज के लिए उसके कई महत्वपूर्ण योगदान हैं । जिन मुद्दों पर उसका योगदान है उन बातों में भारतीय संस्कृति में कमियाँ पाई जाती हैं । व्यक्ति की गरिमा , जिसका आपने कई बार जिक्र किया है , एक यूरोपीय अवधारणा थी ,अब सारी दुनिया की अवधारण है । फ्रांसीसी क्रान्ति के तीन शब्द ’स्वतंत्रता , समता और भातृभाव ’ आधुनिक मनुष्य के सपने के पर्यायवाची बन गये हैं । जब किसी समाज में पुरुषार्थ होता है और कुछ मूल्य होते हैं तब उन मूल्यों की दिशा में सत्य का अनुसंधान चलता है । जब भारतीय समाज में पुरुषार्थ था तब एक खास दिशा में सत्य का अनुसंधान था । इसको हम ’आध्यात्मिक दिशा’ कह सकते हैं । यूरोपीय समाज में भौतिक मूल्यों को अग्राधिकार मिला । भौतिक सुख को सर्वोच्च मानकर पश्चिम में जो अभूतपूर्व अनुसंधान चला , वह अभी भी भी जारी है लेकिन मौजूदा भारतीय समाज में आध्यात्मिक या भौतिक किसी प्रकार के सत्य का अनुसन्धान नहीं है । उसमें जड़ता आ गई है । यूरोप के सत्य से जो भौतिक सम्रुद्धि बनी वह राक्षसी हो गई क्योंकि पश्चिम की प्रभुता और समृद्धि को बनाये रखने के लिए बाकी मानव समाज को कंगाली और गुलामी में रखना पड़ता है । यूरोप का अपना लक्ष्य (स्वतंत्रता , समता और भ्रातृत्व ) अब मौजूदा यूरोपीय संस्कृति के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है । मानव समाज को एक नई संस्कृति चाहिए ।
( अगली किश्त में समाप्य )
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