लोगों की सुरुचि के पोषक , रसवृत्ति की उन्नति करने वाले व बुद्धि का अनुरंजन करने वाले उपायों पर एक भी अखबार जोर नहीं देता। हम वीभत्स चित्र देते हैं लेकिन मौजूदा राजनैतिक अथवा सामाजिक परिस्थिति पर प्रकाश डालने वाले ‘ कार्टून ‘ – व्यंग्य चित्र क्यों नहीं देते ? कार्टून की कला पश्चिम में खूब विकसित हुई है, ‘ हिन्दुस्तान टाइम्स ‘ में शंकर नामक कलाकार उत्तम व्यंग्य चित्र बनाता था ।यदि अखबार व्यंग्य चित्रों को तरजीह दें तो उनमें कौशल हासिल करने वाले अनेक लोग पैदा हो सकते हैं । आकर्षक अनुच्छेद लिखने की कला भी विकसित करने लायक है, इससे पाठकों की बुद्धि को खुराक मिलती है तथा विनोद वृत्ति बढ़ती है । ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के तत्कालीन सम्पादक जोसफ़ इस कला में अनूठे थे । एबिसीनिया पर अत्याचार के कारण इटली पर रोक द्वारा सजा के उपायों की बड़ी बड़ी बातें चल रही थीं । इन उपायों को अमल में लाने की कूअत किसी में नहीं थी – इस बात की व्यंग्यात्मक टीका करते हुए इस लेखक का लिखा एक पैराग्राफ़ याद आ रहा है : ” सैंकशन्स शुरु होते ही उन का कितनी कड़ाई से अमल होगा , यह काबिले गौर है । न्यू दिल्ली के भोजभात में मेकेरोनी और स्पाघेटी का बहिष्कार होगा । इटालियन शराब तो कोई छुएगा भी नहीं । पराक्रमी फ्रान्स तो सर्वप्रथम सैंकशन्स लगाएगा , इसलिए शैम्पेन की पूछ बढ़ जाएगी । अखबारों को तो लम्बी छुट्टी ले लेनी होगी क्योंकि छपाई तो पूरी रोमन टाइप में होती है, या फिर ईटालिक्स में । अंग्रेजी में शब्द भी लैटिन से आते हैं यानी अत्याचारी प्रजा इटली की भाषा से – इसलिए उसका भी बहिष्कार ! ” 
कटाक्ष द्वारा लम्बे बोधप्रद लेख लिखने वाले स्व. लल्लू काका के पुत्र भाई गगनविहारी हैं । उनका पूरा लेख तो क्या उद्धृत करूँ?हमारी कायरता , त्याग तथा उद्यम करने की अशक्ति का दोष खुद पर न ले कर औरों के मत्थे पढ़ने की वृत्ति का जो जानदार उपहास “कोई और” नामक लेख में उन्होंने किया है उसे पढ़ कर कौन अपने गिरेबान में नहीं झाँकेगा तथा आनन्द नहीं लेगा ? उस लम्बे लेख से कुछ झलकियाँ पेश कर रहा हूँ :
” आप के काम में भी क्या यह अज्ञात मनुष्य असंख्य विघ्न नहीं डाला करता है ? कोई किताब ढूँढे न मिल रही हो , कोई नोटबुक या फाइल खो गई हो , कोई कागज लापता हो – ऐसी स्थिति में दफ़्तर के सभी कारकून पूरे यकीन से यही कहते हैं कि भूल किसी दूसरे की थी ।…
” सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में इस अज्ञात व्यक्ति की विनाशकारक शक्ति को हर जगह देखा जा सकता है । सभी युद्ध अन्य देशों की दुष्टता के कारण होते हैं , यह साफ़ है । दूसरे देश ही शान्ति का उल्लंघन करते हैं ,हिंसामय माहौल बनाते हैं तथा हरेक युद्ध का आरम्भ करते हैं ।हमारा अपना देश तो हमेशा आत्मरक्षार्थ ही लड़ता है ।युद्ध के दौरान होने वाले तमाम अधम कृत्य , अत्याचार तो परदेशी ही करते हैं ।…….
” हर रोज अखबार पढ़ने का महान देश-कार्य करते वक्त असंख्य लोगों को यही लगता कि यदि भारी तादाद में दूसरे जेल गए होते , लाठी खाई होती और स्वदेशी का व्रत लिया होता तो पूर्ण स्वराज्य नहीं तो उसका सत्व या तत्व अवश्य मिल जाता । बहुतेरे देशबन्धुओं ने मुझे भरोसा दिया है कि यदि केवल एक लाख लोग मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर करने के लिए तैयार होते तो भारत जरूर आज़ादी प्राप्त कर लेता ।…..
” हिन्दू और मुसलमान कौमों के नेता एकता की आवश्यकता के बारे में एकमत हैं । बावजूद इसके एकता क्यों नहीं सधती है ? कौन इन नासमझियों और विद्वेष को उत्पन्न करता है ? दूसरी कौम के दूसरे मनुष्य ! इसलिए नेता अन्य मनुष्यों से ( अथवा नेताओं से ) एकता साधने की निरंतर विनती करते रहते हैं ।…….
” इस प्रकार यह अनजान मनुष्य हमारी राष्ट्रीय प्रगति को अटका देता है , हमारे सामाजिक जीवन को अव्यवस्थित कर देता है तथा आर्थिक उन्नति हासिल करने नहीं देता । इसके बावजूद उससे हमारी भेंट नहीं होती ! कोई शर्लॉक हॉम्स जैसा कुशल डिटेक्टिव या सरकार की खूफिया पुलिस या गुप्त जासूस भी उसे पकड़ नहीं पाते , वैसे ही कोई योगी प्रबल समाधि द्वारा उस सर्वव्यापी , अगाध एवं गहन व्यक्ति के अस्तित्व के रहस्य का भेद नहीं जान पाता है ।….”
” क्या पता यह रहस्य जो इतना कठिन लग रहा है, वह बिलकुल सरल हो ? यह दूसरा आदमी जो हर जगह बसता है और कहीं नहीं बसता – वह शायद आप में , मुझ में तथा हम सब में ही तो नहीं बसता होगा ?…..”
इसी दिशा में ; परन्तु कुछ अलग प्रकार और अलग लहजे का आभास देने वाले मीठे कटाक्ष ‘स्वैरविहारी’ रामनारायण पाठक के होते हैं । हम सब की गंदगी जुटाने की वृत्ति पर उनकी कटार देखें :
” यहाँ , मुम्बई आया हूँ इसके बावजूद यह नहीं लगा कि मुल्क छोड़ कर आया हूँ । उसका कारण अपनी भाषा , अपने मित्र , जाने-पहचाने रीति रिवाज आदि सब कुछ है परन्तु सब से विशेष है यहाँ का कूड़ा । जब नजर के सामने कूड़े के अम्बार को बढ़ते देखता हूँ तब लगता है, ‘ नहीं,नहीं, मैं अभी गुजरात में ही हूँ ।’ गीत फूट पड़ता है :
‘ जहँ – जहँ बसा एक गुजराती , तँह – तँह सदा काल गुजरात ! ‘ 
” लोग बेवजह बढ़ते हुए कूड़े की फरियाद करते हैं । कूड़ा तो बढ़ेगा ही , और कर ही क्या सकता है ? मुम्बई का विकास चाहने वालों ने बड़े बड़े पीपे रख छोड़े हैं – कूड़ा इकट्ठा करने के लिए । वैसे तो हमारे गाँव में भी कूड़ा एकत्र करने के लिए स्थान निर्धारित है। पर यह कूड़ा है कि बिना फैले रह नहीं पाता । समुद्र में तूफान भले न आये लेकिन वो कूड़ा जरूर छोडता है । कूड़े की फरियाद करने वाले समझ नहीं पाते । यदि उसका कारण समझ लेते तब शायद फरियाद न करते । कूड़ा यानी गन्दगी की जगह – यह बात सही है , न ? अब हम ठहरे साफ-सुथरे लोग , इतनी ज्यादा गन्दगी वाली जगह से सम्पर्क की सरहद तक कैसे जा सकते हैं ? इसलिए कचरा दूर से फेंकने का चलन है । दूर से फेंकने पर फेंकने वाले तक उसका थोड़ा भाग जरूर बिखरता है । टेनिस खिलाड़ी गेंद मारता है तब हर बार निर्धारित चौखटे में ही गेंद टप्पा खाये यह जरूरी नहीं होता है । फिर कूड़ा एक गेंद जैसा तो होता नहीं । कूड़े में कई चीजें गेंद से बड़ी – छोटी होती हैं । कचरे का पीपा या हाते भी टेनिस के चौखटों जितने बड़े कहाँ होते हैं ? इसलिए दूर से कचरा फेंकने पर उसका थोड़ा भाग फेंकने वाले व्यक्ति तक बिखरेगा । उस के बाद कचरा फेंकने आने वाले व्यक्ति को इस नई सरहद के बाहर खड़े हो कर कचरा फेंकना पड़ता है , इस प्रक्रिया में कूड़े की सीमा का विस्तार होता है,तो उसमें बेचारा व्यक्ति क्या कर सकता है ? “
यह सुन्दर रुचिकर सामग्री मासिकों में ही क्यों छपे , इसका लाभ दैनिक और साप्ताहिक क्यों नहीं उठा सकते ? दैनिकों और साप्ताहिकों को अपने पाठकों की रसतृप्ति पथ्य के रूप में करना नहीं सूझा है ।
इस भाषण के अन्य भाग :
पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य
पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव देसाई
[ जारी , अगली कड़ी– सम्पादक ]
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