पहले भाग से आगे :
कुटज के नीचे खुले बाल , खुली आँखों और चमकीली हँसी के साथ जैसे उस ने खुद अपना आविष्कार किया हो । फन फैलाये काले सर्प की तरह बालों की लटें , लहरा – लहरा कर मंजरी भरी कुटज की शाखाओं पर लिपट गईं । बारिश की तरह बरसते फूलों की गन्ध में तर रहते हुए भी कुटज की छाया वाली भूमि बालों की सुगंध से भर गई । सुगंध में भरे हुओं के बीच से गोविन्द ने धीमी आवाज़ में , इस प्रकार कि कोई और न सुन पाए , पुकारा – ’भगवती ।’
उसके ध्यान में लाये बिना गोविन्द ने कई बार उस को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया – ’ भगवती , भगवती । ’
भरे हुए बालों की वेणी बना , साड़ी के पल्ले से उसे छिपाए , पैरों के नखों पर दृष्टि डाल कर सकुचाती हुई चलने वाली लड़कियों ने गोविन्द की पुकार सुन ली । बिजली जैसे चमकते हुए उस के जुड़े हुए हाथों को देख , कुटज वृक्ष के छाया तल में देखने से वे डरीं । लेकिन दूर खड़ी , आराधनापूर्ण किन्तु असूया से भरी बड़ी – बड़ी आँखों से वे ललिता की आरती उतारती रहीं ।
फूटती हँसी होठों में दबा ,आँखों में चमक लिए , पायल की झंकार फैलाती ललिता बरामदे ,कॉरीडोर और सीढ़ियों से थिरकती हुई चली । ललिता ने लाल दुकूल पहना हुआ था । आभूषण भी लाल ही थे । माथे पर काले रंग की बिन्दी लगाई हुई थी ।
ललिता की ललाई देख पिताजी और भाई गु़स्से में पागल हो गये । उन्होंने फ़रमान जारी किया – आज से ललिता आगे पढ़ने नहीं जायेगी ।
जब सनातन ने उससे शादी की तो ललिता ने चाहा कि बिना किसी आवरण या दुराव के अपना हृदय पति के सामने खोल कर रख दे । उसके मन ने चाहा कि मुस्कान होठों में दबा , आँखें झुकाये, बालों को खोल कर सनातन के सामने नाचती रहे ।
लेकिन पहली ही रात , बालों से कुंदमाला उतार कर रखने से पहले ही सेज पर धक्का दे कर सनातन ने उससे सहवास किया ।
पलंग पर , मुँह पर , छाती पर , फ़र्श पर , दीवार पर रेंगने वाले बालों के सर्प ! हटाने पर भी न हटते देख , परिभ्रांत हो हाँफते हुए , बत्ती जला कर सनातन बोला : बालों को बाँध लो ।’
ललिता का लाल रत्न जड़ा नाक का बेसर चमक उठा । हाथों और कानों के लाल रत्नजड़ित आभूषण चमक उठे । सोने के किनारे वाली लाल रेशमी साड़ी भी चमक उठी । तेल में तर बालों को रोएँ मुख पर दाएँ – बाएँ फैले थे। माँग का सिन्दूर पसीने के साथ बह कर नाक तक आ गया था । ललिता के सभी अंग चमचमाते देख सनातन भय से एक क़दम पीछे हट गया ।
दूसरे दिन देवी के मन्दिर में पूजा करते समय रोज़ की तरह ’भगवती’ जैसी पुकार सुनने का चाव लिए ललिता हिचक के साथ खड़ी थी ।
देवी का भी लाल रंग का नाक का बेसर…लाल तिलक… लाल रत्नों के आभूषण , जलता सिन्दूर… लहलहाते बालों की उठती – गिरती लहरों के फन । बह कर आने वाली कमल की गंध । ’तो भी योनि ले कर अवतार !’
खड़े हो कर हिचक के साथ देखते समय , अधखिले लाल कमल की तरह एक मोटी भग जैसी बैठी (देवी) को देख कर ललिता काँप उठी । उस के चारों ओर मुँडे सिर से बरसते बालों की बदली उमड़ आई। बालों की बदली के ऊपर खड़े पिता , भाई और सनातन पूरे शरीर में तेल लगा कर मालिश करते-से लगे ।
लाल आँखें – जया पुष्प जैसी लाल आँखें लिये, बालों से उलझती-पुलझती , लाल दुकूल को फाड़े, गालों पर जलते क्रोध की ज्वाला जलाए ललिता मम्दिर से निकल कर चली गई । सनातन दुर्मान्त्रिकों को बुला लाया ।
ललिता ने विशाल तालाब का स्वप्न देखा । पानी से भरे तालाब में गले तक डूबी हुई । बालों को फैलाये । गरजते सागर के किनारे , बालों को फैला कर नाचती हुई । ऊँचे पर्वत-शिखरों पर बालों के साँप रेंगते हुए । खुद अपने आपको अभिव्यक्त करने वाला स्वप्न ललिता ने देखा ।
उस ने सनातन और दुर्मान्त्रिकों से स्वप्न की व्याख्या करने के लिए कहा । तेल की मालिश से मजबूत हुए पुट्ठे दिखा कर सनातन ने स्वप्न की व्याख्या की । दुर्मान्त्रिकों को खूब चावल नमक खिलाया गया। उन्होंने ललिता के बालों का आह्वान कर उन्हें करील के वृक्ष की डाल से बाँध दिया ।
लेकिन जिस भरी दोपहरी में सनातन और दुर्मान्त्रिक सोए पड़े थे ललिता बाहर घूम रही थी । धीरे-धीरे बालों को सहलाते हुए , पायल बजा-बजा कर नाचने लगी । माँग का सिन्दूर बह कर नासाग्र से टपकने तक , गालों पर छिटकी हल्दी-पसीने से तर स्तनों पर फैलने तक उस का नाच जारी रहा ।
फिर थकी-माँदी ,शिथिल क़दमों से , टीलों पर चढ़ उतर कर , ललिता देवी के मंदिर में कई बार देवी के सामने आ खड़ी हुई । मन्दिर के गर्भ गृह के हल्के प्रकाश में कमल रूपी भग जैसी अवतरित देवी की पूजा देखती रही ।
दुर्मान्त्रिकों ने आज्ञा दी , ’ बालों को काटना ही होगा । ’
स्नान के बाद बालों को सँवारते हुए ललिता आँगन में खड़ी थी । ललिता के लहराते बालों को सनातन शयन कक्ष की खिड़की से देख रहा था । निराशा से उस का चेहरा पीला पड़ गया था । बंधन से मुक्त दुर्मान्त्रिक चिल्ला उठे , ’ बालों को बाँध लो । हमारा कहना है बालों को बाँध लो । ’
ललिता को हँसी आई । सिर पीछे की ओर हिला कर ललिता हँस उठी । फिर हँसी को आँखों में पसारते हुए उसने कनखियों से सनातन की ओर देखा । बालों को बाँए हाथ की मुट्ठी में भर चमकती धूप की ओर बढ़ाया । कुंडली खोल नीचे की ओर घिसटते साँपों की तरह तेल में तर बालों की लटें धूप में लहराने लगीं ।
ग़ुस्से में पागल हो सनातन ने खिड़की की सलाख़ों पर मुट्ठियाँ दे मारीं ।
हाँफते- हाँफते दुर्मान्त्रिक एक-दूसरे से सिर जोड़ कर बैठ गये । ललिता बार-बार तेल लगे बालों को धूप में चमकाते हुए सहला रही थी और रसपान की तरह बालों की सुरभि पी रही थी । बालों की लहलहाती कालिमा से थिरक रही थी । गर्व से पायल झनकाते हुए नाच रही थी ।
सनातन को विश्वास आने तक ललिता आँगन की सीमाओं में नाचती रही । खुले नाग-फनों के बीच कुटज के फूल की तरह ललिता का मुख घूम रहा था । धूप , हवा और शिराओं के कंपन के साथ बालों की सुगंध गमक रही थी ।
खिड़की की सलाखों का सहारा लिए सनातन घूर कर ललिता को देख रहा था । मणि-नागों के बीच कुटज के फूल जैसी ललिता नाचते-नाचते भगवती के मंदिर की ओर दौड़ पड़ी । 
पद्म गंध देने वाली अधखिली लाल कमल कलिका समान एक बड़ी ’योनि’ जैसी वह देवी खड़ी थी । चमकते लाल प्रकाश में उलझे सनातन और दुर्मान्त्रिक खड़े हुए देख रहे थे । बालों के बादल फैलाये नाचते-नाचते ललिता ने उसे अधखिली लाल कमल कलिका का आह्वान किया । फिर…
त्रिशूल उठा कर , आँखों में खून झलकाती , रक्त को कुचलती , घुँघरुओं को तोड़ कर , बालों को फैलाये ,छाती उठा कर ललिता मंदिर से निकल भागी ।
मंदिर के अंदर , महादेवी के पत्थर से बने स्तनों से दूध की बूँदें निकलीं और रक्त की तरह टपकती रहीं ।
अनुवाद: डॉ. चेन्नित्तला कृ्णन नायर
25.269112
82.996162
Like this:
पसंद करें लोड हो रहा है...
Read Full Post »