साहित्य की परिभाषा और परिधि में आने लायक पत्रकारीय लेखन को हासिल करने के लिए हमें क्या करना होगा ? चिरंजीवी साहित्य लिखने का अधिकार तो गिने-चुने लोगों को है । रस्किन जिसे कुछ कमतर आँकते हुए ‘सुवाच्य लेखन’ की कोटि के रूप में परिभाषित करते हैं उसके अन्तर्गत हमारा पत्रकारीय लेखन कैसे आ सकता है ? -मैं इसकी चर्चा करना चाहता हूँ । सुवाच्य लेखन की कोटि में आने की जरूरी शर्त है कि वह लेखन बोधप्रद हो , आनन्दप्रद हो तथा सामान्य तौर पर लोकहितकारी हो : उसके अंग तथा उपांग लोकहितकी परम दृष्टि से तैयार किए गये हों । आधुनिक समाचारपत्र औद्योगिक कारखानों की भाँति पश्चिम की पैदाइश हैं । हमारे देश के कारखाने जैसे पश्चिम के कारखानों के प्रारम्भिक काल का अनुकरण कर रहे हैं , उसी प्रकार हमारे देशी भाषाओं के अखबार देशी अंग्रेजी अखबारों के ब्लॉटिंग पेपर ( सोख़्ता ) जैसे हैं तथा हमारे अंग्रेजी अखबार ज्यादातर पश्चात्य पत्रों का अनुकरण हैं । अनुकरण अच्छे और सबल हों तब कोई अड़चन नहीं होती, क्योंकि जिस कला को सीखा ही है दूसरों से , उसमें अनुकरण तो अनिवार्य होगा । हमारे अखबारों में मौलिकता हो अथवा अनुकरण, यदि वे जनहितसाधक हो जाँएं तो भी काफ़ी है, ऐसा मुझे लगता है । जैसे यन्त्रों का सदुपयोग और दुरपयोग दोनो है , वैसे ही अखबारों के भी सदुपयोग और दुरपयोग हैं ,कारण अखबार यन्त्र की भाँति एक महाशक्ति हैं । लॉर्ड रोज़बरी ने अखबारों की उपमा नियाग्रा के प्रपात से की है तथा इस उपमा की जानकारी के बिना गांधीजीने स्वतंत्र रूप से कहा था : ” अखबार में भारी ताकत है । परन्तु जैसे निरंकुश जल-प्रपात गाँव के गाँव डुबो देता है,फसलें नष्ट कर देता है , वैसे ही निरंकुश कलम का प्रपात भी नाश करता है । यह अंकुश यदि बाहर से थोपा गया हो तब वह निरंकुशता से भी जहरीला हो जाता है ।भीतरी अंकुश ही लाभदायी हो सकता है । यदि यह विचार-क्रम सच होता तब दुनिया के कितने अख़बार इस कसौटी पर खरे उतरते ? और जो बेकार हैं ,उन्हें बन्द कौन करेगा ? कौन किसे बेकार मानेगा ? काम के और बेकाम दोनों तरह के अखबार साथ साथ चलते रहेंगे । मनुष्य उनमें से खुद की पसन्दगी कर ले । “
इस प्रकार समाचारपत्र दुधारी तलवार जैसे हो सकते हैं क्योंकि उनके दो पक्ष हैं । अख़बार धन्धा बन सकते हैं ,ऐसा हुआ भी है,यह हम जानते हैं । दूसरी तरफ़ अख़बार नगर पालिका की तरह, जल -कल विभाग की तरह, डाक विभाग की तरह लोकसेवा का अमूल्य साधन बन सकते हैं ।जब अख़बार कमाई का साधनमात्र बनता है तब बन्टाधार हो जाता है,जब अपना खर्च किसी तरह निकालने के पश्चात पत्रकार अखबार को सेवा का साधन बना लेता है तब वह लोकजीवन का आवश्यक अंग बन जाता है ।
पत्रकारीय लेखन किस हद तक साहित्य
पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव देसाई
पत्रकारिता (३) : खबरों की शुद्धता , ले. महादेव देसाई
पत्रकारिता (४) : ” क्या गांधीजी को बिल्लियाँ पसन्द हैं ? ”
पत्रकारिता (५) :ले. महादेव देसाई : ‘ उस नर्तकी से विवाह हेतु ५०० लोग तैयार ‘
पत्रकारिता (६) : हक़ीक़त भी अपमानजनक हो, तब ? , ले. महादेव देसाई
समाचारपत्रों में गन्दगी : ले. महादेव देसाई
क्या पाठक का लाभ अखबारों की चिन्ता है ?
समाचार : व्यापक दृष्टि में , ले. महादेव देसाई
रिपोर्टिंग : ले. महादेव देसाई
तिलक महाराज का ‘ केसरी ‘ और मैंचेस्टर गार्डियन : ले. महादेव देसाई
विशिष्ट विषयों पर लेखन : ले. महादेव देसाई
अखबारों में विज्ञापन , सिनेमा : ले. महादेव देसाई
अखबारों में सुरुचिपोषक तत्त्व : ले. महादेव देसाई
अखबारों के सूत्रधार : सम्पादक , ले. महादेव देसाई
कुछ प्रसिद्ध विदेशी पत्रकार (१९३८) : महादेव देसाई
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महोदय आपकी बात कुछ ठीक है परन्तु समय परिवर्तनशील है अतः चीजों का बदलना भी जरूरी है। अगर हम अपनी जडों से रहें तो दूसरी सभ्यताऒं से सीखना गलत नहीं है। उदाहरण के तौर पर अगर हम नहीं बदलते या दूसरों से कुछ ना सीखते तो संभवतः आज भ अपने पूर्वजों की तरह पेडों पर ही रहते।
बाबा तुलसी दास का कथन है….
कीरति भनिति भूति भलि सोई
सुरसरि सम सब कह हित होई।
अगली कड़ी की राह देख रहा हूँ….
हमारे देशी भाषाओं के अखबार देशी अंग्रेजी अखबारों के ब्लॉटिंग पेपर ( सोख़्ता ) जैसे हैं तथा हमारे अंग्रेजी अखबार ज्यादातर पश्चात्य पत्रों का अनुकरण हैं ।
आज के संदर्भ में यह वाक्य और भी प्रासंगिक है
जालिम भाई आपकी बात समझ में नही आई. मनुष्य ने अपना विकास किससे सीख कर किया और किससे सीखकर पेड़ से उतरा. दूसरो का कचरा अपने सिर ढोना सीखना नही है. सीखने का यह मतलब भी नही कि मुर्दे की तरह धारा में बहते चलें.
काफी दिनों बाद आपको पढ़ा काफी अच्छा लगा, 🙂
[…] है , इस जगह « न लिखने के बहाने पत्रकारिता : दुधारी तलवार : महादेव दे… […]
[…] हिस्सा : एक , दो , तीन , चार […]
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why we write in such a difficult form of hindi that a commen man looses his or her interest in reading some one good and intersting people like u