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Archive for the ‘Gandhi’ Category

सफाई पर गांधीः
श्रम और बुद्धि के बीच जो अलगाव हो गया है,उसके कारण अपने गांवों के प्रति हम इतने लपरवाह हो गए हैं कि वह एक गुनाह ही माना जा सकता है ।नतीजा यह हुआ है कि देश में जगह-जगह सुहावने और मनभावने छोटे-छोटे गांवों के बदले हमें घूरे जैसे गांव देखने को मिलते हैं।बहुत से या यों कहिए कि करीब-करीब सभी गांवों में घुसते समय जो अनुभव होता है, उससे दिल को खुशी नहीं होती। गांव के आसपास और बाहर इतनी गंदगी होती है और वहां इतनी बदबू आती है कि अक्सर गांव में जाने वाले को आंख मूंद कर और नाक दबा कर जाना पड़ता है। ज्यादातर कांग्रेसी गांव के बाशिन्दे होने चाहिए; अगर ऐसा हो तो उनका फर्ज हो जाता है कि वे अपने गांवों को सब तरह से सफाई के नस्मूने बनायें। लेकिन गांव वालों के हमेशा के यानी रोज-रोज के जीवन में शरीक होने या उनके साथ घुलने-मिलने को उन्होंने कभी अपना कर्तव्य माना ही नहीं। हमने राष्ट्रीय या सामाजिक सफाई को न तो जरूरी गुण माना; और न उसका विकास ही किया। यों रिवाज के कारण हम अपने ढंग से नहा-भर लेते हैं,मगर जिस नदी,तालाब या कुए के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं, और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचार से हम नहाते हैं , उनके पानी को बिगाड़ने या गन्दा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती। हमारी इस कमजोरी को मैं एक बड़ा दुर्गुण मानता हूं। जिस दुर्गुण का ही यह नतीजा है कि हमारे गांवों की और हमारी पवित्र नदियों के पवित्र तटों की लज्जाजनक दुर्दशा और गन्दगी से पैदा होने वाली बीमारियां हमें भोगनी पड़ती हैं।
(उद्धरण का स्रोत संदेश के रूप में बता सकते हैं)

खास आदमी कार्यकर्ता

खास आदमी कार्यकर्ता

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जन लोकपाल विधेयक के लिए टीम-अन्ना के साथ मंत्रीमण्डल  के पांच प्रमुख सदस्यों की फेहरिश्त को सरकारी गजट में छापने के बाद अण्णा हजारे का पिछला अनशन टूटा था । प्रस्तावित विधेयक के मसौदे पर टीम-अण्णा और टीम – सोनिया की सहमती न बन पाने के बाद जनता के समक्ष दो मसौदे हैं । हृदय-परिवर्तन , आत्मशुद्धि – यह सब उपवास के साथ चलने वाली प्रक्रियाएं हैं , अनशन के साथ की नहीं । इसलिए हृदय – परिवर्तन या आत्मशुद्धि की उम्मीद रखना अनुचित है । उपवास से अलग अनशन में कुछ मांगों के पूरा होने की उम्मीद रखी जाती है । हृदय – परिवर्तन के दर्शन में लोहिया का एक गम्भीर योगदान है । ऐसे मौके पर देश का ध्यान उस ओर दिलाना भी बहुत जरूरी है । लोहिया इस बात पर जोर देते थे कि प्रतिपक्षी के हृदय – परिवर्तन से ज्यादा महत्वपूर्ण है व्यापक जनता का लड़ने के लिए मन और हृदय का बनना । व्यापक जनता का मन जब लड़ने के लिए तैयार हो जाता है तब अनशन जैसे तरीकों की जरूरत टल जाया करती है। भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए निर्णायक संघर्ष में किसी नेता के अनशन से आन्दोलन करने के लिए व्यापक जनता का मन बना लेना कम महत्वपूर्ण नहीं होता है । अण्णा के अनशन द्वारा जनता का हृदय लड़ने के लिए अवश्य परिवर्तित होगा ।

सरकार ने अपना विधेयक संसद में पेश किया है तथा इसी आधार पर टीम सोनिया के मुखर सदस्य टीम अण्णा द्वारा जन-लोकपाल बिल के लिए अनशन-प्रदर्शन को भी संसद की अवमानना कह रहे हैं । आजाद भारत के संसदीय इतिहास में कई बार अलोकतांत्रिक और जन विरोधी विधेयकों का विरोध हुआ है और फलस्वरूप विधेयक अथवा अध्यादेश कानून नहीं बन पाये हैं । बिहार प्रेस विधेयक और ५९वां संविधान संशोधन विधेयक की यही परिणति हुई थी।  मानवाधिकारों के बरक्स पोटा जैसे कानूनों के खरा न उतरने की वजह से संसद ने ही उसे रद्द भी किया । वैसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में जनता के सर्वोपरि होने का एक बड़ा उदाहरण टीम सोनिया को याद दिलाना जरूरी है । देश के संविधानमें आन्तरिक आपातकाल लागू किए जाने के प्राविधान को १९७७ की जनता पार्टी की सरकार द्वारा संशोधित किया जाना जनता की इच्छा की श्रेष्टता का सबसे उचित उदाहरण माना जाना चाहिए । केन्द्र की विधायिका के अलावा संघीय ढांचे को महत्व देते हुए अब दो-तिहाई राज्यों की विधान सभाओं में दो-तिहाई बहुमत के बिना आन्तरिक आपातकाल नहीं लगाया जा सकता । देश के लोकतंत्र पर कांग्रेस सरकार द्वारा लादे गए एक मात्र आन्तरिक आपातकाल का जवाब देश की जनता ने उक्त संविधान संशोधन करने वाली जनता पार्टी को जिता कर किया था। जनता पार्टी की तमाम कमजोरियों के बावजूद इस एक  ऐतिहासिक संविधान संशोधन को याद किया जाएगा जिसके लिए जनता द्वारा दिए गए जनादेश को लोकतंत्र की तानाशाही पर जीत की संज्ञा दी गई । अण्णा हजारे के आन्दोलन के पूर्व इस परिवर्तन को ही ’दूसरी आजादी’ कहा जाता था ।

 जनता और संसद की औकात को गांधीजी ने ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ नामक पुस्तिका में स्पष्ट किया है । उम्मीद है इन बुनियादी बातों को हम इतिहास के इस मोड़ पर याद रखेंगे ।

” हम अरसे से इस बात को मानने के आदी बन गये हैं कि आम जनता को सत्ता या हुकूमत सिर्फ धारा सभा (विधायिका) के जरिये मिलती है। इस खयाल को मैं अपने लोगों की एक गंभीर भूल मानता रहा हूं। इस भ्रम या भूल की वजह या तो हमारी जड़ता है या वह मोहिनी है, जो अंग्रेजों को रीति रिवाजों ने हम पर डाल रखी है। अंग्रेज जाति के इतिहास के छिछले या ऊपर-ऊपर के अध्ययन से हमने यह समझ लिया है कि सत्ता शासन-तंत्र की सबसे बड़ी संस्था पार्लमेण्ट से छनकर जनता तक पहुंचती है। सच बात यह है कि हुकूमत या सत्ता जनता के बीच रहती है, जनता की होती है और जनता समय-समय पर अपने प्रतिनिधियों की हैसियत से जिनको पसंद करती है, उनको उतने समय के लिए उसे सौंप देती है। यही क्यों, जनता के बिना स्वतंत्र पार्लमेण्ट की सत्ता तो ठीक, हस्ती तक नहीं होती। पिछले इक्कीस बरसों से भी ज्यादा अरसे से मैं यह इतनी सीधी-सादी बात लोगों के गले उतरने की कोशिश करता रहा हूं। सत्ता का असली भण्डार या खजाना तो सत्याग्रह की या सिविल नाफरमानी की शक्ति में है। एक सूमचा राष्ट्र अपनी धारा सभा के कानूनों के अनुसार चलने से इनकार कर दे, और इस सिविल नाफरमानी के नतीजों को बरदाश्त करने के लिए तैयार हो जाए तो सोचिये कि क्या होगा ! ऐसी जनता धारा सभा को और उसके शासन-प्रबंधन को जहां का तहां, पूरी तरह, रोक देगी। सरकार की, पुलिस की या फौज की ताकत, फिर वह इतनी जबरदस्त क्यों नहीं हो, थोड़े लोगों को ही दबाने में कारगर होती है। लेकिन जब कोई समूचा राष्ट्र सब कुछ सहने को तैयार हो जाता है, तो उसके दृढ़ संकल्प को डिगाने में किसी पुलिस की या फौज की कोई जबरदस्ती काम नहीं देती। “

गांधी जितनी व्यापक जन सहभागिता वाली सिविल नाफ़रमानी की बात यहां कर रहे हैं उसके लिए भ्रष्टाचार के अलावा उन तमाम जन आन्दोलनों को जोड़ना होगा जो देश भर में आर्थिक नीतियों से उत्पन्न दुष्परिणामों के विरुद्ध चल रहे हैं ।

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सक्रिय निष्ठा और और सक्रिय द्रोह के मध्य कोई बीच का रास्ता नहीं हुआ करता है । ‘ यदि किसी व्यक्ति को खुद को मनमुटाव का दोषी न होना साबित करना है तो उसे अपने को सक्रिय रूप से स्नेही साबित करना होगा ।’-मरहूम न्यायमूर्ति स्टीफन की इस टिप्पणी में काफ़ी सच्चाई है । लोकतंत्र के इस जमाने में किसी व्यक्ति के प्रति निष्ठा का प्रश्न नहीं उठता। इसके बजाए अब आप संस्थाओं के प्रति निष्ठावान या द्रोही होते हैं । इस प्रकार जब आप आज के जमाने में द्रोह करते हैं तब किसी व्यक्ति का नहीं संस्था का नाश चाह रहे होते हैं । जो मौजूदा राज्य-व्यवस्था को समझ सके हैं  वह जानते हैं कि यह कत्तई निष्ठा उत्पन्न करने वाली संस्था नहीं है । वह भ्रष्ट है । लोगों के व्यवहार को निर्धारित करने के लिए उसके द्वारा बनाए गए कई कानून निश्चित तौर पर अमानवीय हैं । राज्य व्यवस्था के प्रशासन की स्थिति बदतर है । अक्सर एक व्यक्ति की इच्छा कानून बन जाया करती है । यह आराम से कहा जा सकता है कि हमारे देश में जितने जिले हैं उतने शासक हैं। ये शासक कलक्टर कहे जाते हैं तथा इन्हें कार्यपालिका और न्यायिक कार्य करने के अधिकार एक साथ मिले हुए हैं । यूँ तो यह माना जाता है कि इनके कार्य कानूनों से संचालित होते हैं जो अपने आप में अत्यधिक दोषपूर्ण होते हैं । अक्सर ये शासक स्वेच्छाचारी होते हैं तथा अपनी सनक के अलावा इन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता । अपने परदेशी आकाओं अथवा मालिकों के सिवा वे किसी के हित का प्रतिनिधित्व नहीं करते । इन करीब तीन सौ लोगों ने लगभग गुप्त-सा एक संघ बना लिया है जो दुनिया में सबसे ताकतवर है । यह अपेक्षा की जाती है कि एक न्यूनतम राजस्व वे हासिल करें , इसीलिए जनता से व्यवहार में अक्सर वे अनैतिक हो जाते हैं । सरकार की यह व्यवस्था ऐलानिया असंख्य भारतवासियों के निर्दय शोषण पर आधारित है । गाँवों के मुखिया से लगायत इन क्षत्रपों के निजी सहायकों तक इन्होंने मातहतों का एक वर्ग तैयार कर रखा है , जो अपने विदेशी मालिकों के समक्ष घिघियाता है जबकि जनता के प्रति उनका रोजमर्रा का व्यवहार इतना गैर जिम्मेदाराना और कठोर होता है कि उनका मनोबल गिर जाए तथा एक आतंकी व्यवस्था द्वारा जनता भ्रष्टाचार का प्रतिकार करने के काबिल न रह जाए । भारत सरकार की इस भयानक बुराई की जिन्होंने शिनाख्त कर ली है उनका यह दायित्व है कि वे इसके प्रति द्रोह करने का जोर-शोर से प्रचार करें । ऐसे भ्रष्ट राज्यतंत्र के प्रति भक्ति प्रकट करना एक पाप है , द्रोह एक सद्गुण है ।

इन तीन सौ लोगों के आतंक के साये में संत्रस्त तीस करोड़ लोगों का तमाशा  निरंकुश शासकों तथा उनके शिकार दोनों के प्रति समान तौर पर मनोबल गिराने वाली बात है । इस व्यवस्था की बुराई को जो समझ चुके हैं उन्हें इसे बिना देर नष्ट करने में लग जाना चाहिए भले ही बिना सन्दर्भ देखने पर इसकी कुछ विशिष्टतायें आकर्षक प्रतीत हों । ऐसे लोगों का यह स्पष्ट दायित्व है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे हर जोखिम उठायें ।

परन्तु यह भी साथ-साथ स्पष्ट रहे कि इस व्यवस्था के इन तीन सौ संचालकों और प्रशासकों को नष्ट करने की मंशा यदि यह तीस करोड़ लोग पाल लेते हैं तो वह कायरता होगी । इन प्रशासकों तथा उनके भाड़े के टट्टूओं को खत्म करने की युक्ति निकालना घोर अज्ञान का द्योतक होगा । इसके अलावा यह भी जान लेना चाहिए कि प्रशासकों का यह तबका परिस्थितिजन्य कठपुतलियां हैं । इस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला सर्वाधिक निष्कलुष व्यक्ति भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता तथा इस बुराई के  दुष्प्रचार का औजार बन जाता है । इसलिए  स्वभावत: इस व्याधि का इलाज प्रशासकों के प्रति क्रुद्ध होकर उन्हें  चोट पहुंचाकर नहीं होगा अपितु व्यवस्था से समस्त -संभव ऐच्छिक सहयोग वापस लेकर एवं कथित लाभ लेने से इनकार द्वारा अहिंसक असहयोग से होगा । तनिक विचार द्वारा हम पायेंगे कि सिविल नाफ़रमानी असहयोग का अनिवार्य हिस्सा है । आदेशों और फ़रमानों का पालन कर हम किसी भी प्रशासन का सर्वाधिक कारगर ढंग  से सहयोग करते हैं । कोई भी अनिष्टकर प्रशासन ऐसी साझेदारी का कत्तई पात्र नहीं होता । इससे वफ़ादारी का मतलब पाप का भागी होना होता है । इसीलिए हर अच्छा व्यक्ति ऐसी बुरी व्यवस्था या प्रशासन का अपनी पूरी आत्मा से प्रतिकार करेगा । किसी बुरे राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों की नाफ़रमानी इसलिए दायित्व बन जाता है । हिंसक नाफ़रमानी का साबका उन लोगों से होता है जिनका स्थान अन्य कोई ले सकता है । हिंसक नाफ़रमानी द्वारा पाप अछूता रह जाता है तथा अक्सर उसे बल मिलता है । जो खुद को इस बुराई से जुदा रखना चाहते हैं उनके लिए अहिंसक यानी सिविल नाफ़रमानी एक मात्र तथा सबसे कारगर इलाज है तथा यह करना उनका फर्ज है ।

बतौर इलाज सिविल नाफ़रमानी अब तक आंशिक तौर पर आजमाया हुआ उपाय ही है , यह ही इसका खतरा भी है चूंकि हिंसाग्रस्त वातावरण में ही इसका प्रयोग किया जाना चाहिए ।  जब अबाध तानाशाही फैली हुई होती है तब उससे पीडित जनता में क्रोध पैदा होता है। पीडितों की कमजोरी के कारण यह क्रोध अव्यक्त रहता है किन्तु मामूली बहाने से ही इसका विस्फोट पूर्ण उन्माद के साथ होता है । सिविल नाफ़रमानी इस गैर-अनुशासित , जीवन-नाशक छिपी उर्जा को अचूक सफलता वाली अनुशासित ,जीवन-रक्षक उर्जा में रूपान्तरित करने का राम-बाण उपाय  है । सफलता के वादे के कारण इस प्रक्रिया में निहित जोखिम उठाना कुछ भी नुकसानदेह नहीं है । उड्डयन के विज्ञान का विकास एक ऊंचा स्तर हासिल कर चुकने के बावजूद जब दुनिया सिविल नाफ़रमानी के इस्तेमाल की आदी हो जाएगी तथा जब इसके सफल प्रयोगों की शृंखला बन चुकी होगी तब इसमें उड्डयन से भी कम जोखिम रह जाएगा ।

यंग इंडिया , २७-३-’३० , पृ. १०८

( मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अफ़लातून )

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गांधी जी के सचिव प्यारेलाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक पूर्णाहुति में सितम्बर , १९४७ में संघ के अधिनायक गोलवलकर से गांधीजी की मुलाकात , विभाजन के बाद हुए दंगों में तथा गांधी – हत्या में संघ की भूमिका का विस्तार से वर्णन किया है । गोलवलकर से गांधी जी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे – ‘ संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है । उन्होंने अनुशासन , साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है ।’ गांधी जी ने उत्तर दिया – ‘ परन्तु यह न भूलिये कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था ।’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘ तानाशाही दृष्टिकोण रखनेवाली सांप्रदायिक संस्था बताया । ( पूर्णाहुति , चतुर्थ खंड, पृष्ठ : १७)

अपने एक सम्मेलन में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता ने उन्हें ‘ हिन्दू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष ‘ बताया । उत्तर में गांधी जी बोले –  ‘मुझे हिन्दू होने का गर्व अवश्य है । परन्तु मेरा हिन्दू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी है । हिन्दू धर्म की विशिष्टता जैसा मैंने समझा है , यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है । यदि हिन्दू यह मानते हों कि भारत में अहिन्दुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दरजे से संतोष करना होगा… तो इसका परिणाम यह होगा कि हिन्दू धर्म श्रीहीन हो जायेगा.. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा ।’

इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उसमें गांधी जी से पूछा गया – ‘ क्या हिन्दू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता ? यदि नहीं देता , तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है , उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है ?’

गांधी जी ने कहा – ‘ पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है । मारने का प्रश्न खड़ा होने से पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है ?दूसरे शब्दों में , हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जायें । एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने अथवा फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है ? रही बात दूसरे प्रश्न की । यह मान भी लिया जाये कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है , तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भलीभांति कर सकती है । अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जायें , तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जायेंगे…. उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए , कानून को अपने हाथों में ले कर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए । ( संपूर्ण गांधी वांग्मय खंड : ८९ )

३० नवंबर ‘४७ के प्रार्थना प्रवचन में गांधी जी ने कहा , ‘ हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार है कि हिन्दुत्व की रक्षा का एक मात्र तरीका उनका ही है । हिंदू धर्म को बचाने का यह तरीका नहीं है कि बुराई का बदला बुराई से । हिंदू महासभा और संघ दोनों हिंदू संस्थाएं हैं । उनमें पढ़े – लिखे लोग भी हैं । मैं उन्हें अदब से कहूंगा कि किसी को सता कर धर्म नहीं बचाया जा सकता…

‘.. कनॉट प्लेस के पास एक मस्जिद में हनुमान जी बिराजते हैं , मेरे लिए वह मात्र एक पत्थर का टुकड़ा है जिसकी आकृति हनुमान जी की तरह है और उस पर सिन्दूर लगा दिया गया है । वे पूजा के लायक नहीं ।पूजा के लिए उनकी प्राण प्रतिष्ठा होनी चाहिए , उन्हें हक से बैठना चाहिए । ऐसे जहां तहां मूर्ति रखना धर्म का अपमान करना है ।उससे मूर्ति भी बिगड़ती है और मस्जिद भी । मस्जिदों की रक्षा के लिए पुलिस का पहरा क्यों होना चाहिये ? सरकार को पुलिस का पहरा क्यों रखना पड़े ? हम उन्हें कह दें कि हम अपनी मूर्तियां खुद उठा लेंगे , मस्जिदों की मरम्मत कर देंगे । हम हिन्दू मूर्तिपूजक हो कर , अपनी मूर्तियों का अपमान करते हैं और अपना धर्म बिगाड़ते हैं ।

‘ इसलिए हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे जो भी मुझे सुनना चाहते हैं और सिखों को बहुत अदब से कहना चाहूंगा कि सिख अगर गुरु नानक के दिन से सचमुच साफ हो गये , तो हिन्दू अपने आप सफ हो जायेंगे । हम बिगड़ते ही न जायें , हिंदू धर्म को धूल में न मिलायें । अपने धर्म को और देश को हम आज मटियामेट कर रहे हैं । ईश्वर हमें इससे बचा ले ‘। ( प्रार्थना प्रवचन ,खंड २ , पृ. १४४ – १५० तथा संपूर्ण गांधी वांग्मय , खंड : ९० )

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को अपने अंतिम संबोधन ( १८ नवंबर ‘४७ ) में उन्होंने कहा , ‘ मुझे पता चला है कि कुछ कांग्रेसी भी यह मानते हैं कि मुसलमान यहां न रहें । वे मानते हैं कि ऐसा होने पर ही हिंदू धर्म की उन्नति होगी । परंतु वे नहीं जानते कि इससे हिंदू धर्म का लगातार नाश हो रहा है । इन लोगों द्वारा यह रवैया न छोड़ना खतरनाक होगा … काफी देखने के बाद मैं यह महसूस करता हूं कि यद्यपि हम सब तो पागल नहीं हो गये हैं , फिर कांग्रेसजनों की काफी बडी संख्या अपना दिमाग खो बैठी है..मुझे स्पष्ट यह दिखाई दे रहा है कि अगर हम इस पागलपन का इलाज नहीं करेंगे , तो जो आजादी हमने हासिल की है उसे हम खो बैठेंगे… मैं जानता हूं कि कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपनी आत्मा को मुसलमानों के चरणों में रख दिया है , गांधी ? वह जैसा चाहे बकता रहे ! यह तो गया बीता हो गया है । जवाहरलाल भी कोई अच्छा नहीं है । रही बात सरदार पटेल की , सो उसमें कुछ है । वह कुछ अंश में सच्चा हिंदू है ।परंतु आखिर तो वह भी कांग्रेसी ही है ! ऐसी बातों से हमारा कोई फायदा नहीं होगा , हिंसक गुंडागिरी से न तो हिंदू धर्म की रक्षा होगी , न सिख धर्म की । गुरु ग्रन्थ-साहब में ऐसी शिक्षा नहीं दी गयी है । ईसाई धर्म भी ये बातें नहीं सिखाता । इस्लाम की रक्षा तलवार से नहीं हुई है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में मैं बहुत-सी बातें सुनता रहता हूं । मैंने यह सुना है कि इस सारी शरारत की जड़ में संघ है । हिंदू धर्म की रक्षा ऐसे हत्याकांडों से नहीं हो सकती । आपको अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी । वह रक्षा आप तभी कर सकते हैं जब आप दयावान और वीर बनें और सदा जागरूक रहेंगे, अन्यथा एक दिन ऐसा आयेगा जब आपको इस मूर्खता का पछतावा होगा , जिसके कारण यह सुंदर और बहुमूल्य फल आपके हाथ से निकल जायेगा । मैं आशा करता हूं कि वैसा दिन कभी नहीं आयेगा । हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि लोकमत की शक्ति तलवारों से अधिक होती है । ‘

संयुक्त राष्ट्रसंघ के समक्ष तत्कालीन हिंदुस्तानी प्रतिनिधिमण्डल की नेता श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित की आवाज में आवाज मिलाकर जब पाकिस्तानी प्रतिनिधिमण्डल के नेता विदेश मन्त्री जफ़रुल्ला खां , अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत एम. ए. एच. इरफ़ानी ने भी दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों पर अत्याचार का विरोध किया , तब गांधीजी अत्यन्र्त प्रसन्न हुए और १६ नवंबर ‘४७ को प्रार्थना में उन्होंने यह कहा , ‘ हिंदुस्तान(अविभाजित) के हिंदू और मुसलमान विदेशों में रहने वाले हिंदुस्तानियों के सवालों पर दो राय नहीं हैं , इससे साबित होता है कि दो राष्ट्रों का उसूल गलत है ।इससे आप लोगों को मेरे कहने से जो सबक सीखना चाहिए , वह यह है कि दुनिया में प्रेम सबसे ऊंची चीज है ।अगर हिंदुस्तान के बाहर हिंदू और मुसलमान एक आवाज से बोल सकते हैं , तो यहां भी वे जरूर ऐसा कर सकते हैं , शर्त यह है कि उनके दिलों में प्रेम हो … अगर आज हम ऐसा कर सके और बाहर की तरह हिंदुस्तान में भी एक आवाज से बोल सके , तो हम आज की मुसीबतों से पार हो जायेंगे! ( संपूर्ण गांधी वांग्मय , खण्ड : ९० )

विस्फोट के संस्थापक संजय तिवारी ने ’अयोध्या के राम’ की बाबत सर्वोदय कार्यकर्ता नारायण देसाई से एक साक्षात्कार में यह सवाल पूछा था :

सवाल- मोरारी बापू ने भी तीन किश्तों में गांधी कथा कही है और यह बताने की कोशिश की है गांधी के राम और अयोध्या के राम दोनों एक ही हैं. आप क्या कहेंगे?
जवाब- मैंने उनकी दांडी की वह कथा सुनी है जो गांधी पर उनकी पहली कथा है. वे जो कहना चाहते हैं वे कह रहे हैं लेकिन मेरा स्पष्ट मत है कि गांधी के राम और अयोध्या के राम एक ही नहीं है. गांधी जी ने खुद कहा था कि मेरा राम दशरथ का पुत्र राम नहीं है. वे कहा करते थे उनका राम वह तत्व है तो अल्ला में भी है, भगवान में भी है और ईसा मसीह में भी है. इसलिए मैं ऐसा बिल्कुल नहीं मानता हूं. एक बात मैं और बता दूं कि जब गांधी के बारे में मैं ऐसा कह रहा हूं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे रामचरित मानस को मान नहीं देते थे. आश्रम में नियमित रामचरित मानस का पाठ होता था. फिर भी वे जिस राम के सहारे थे वह अयोध्या के राम नहीं थे.

जस्टिस सुधर अग्रवाल ने अपने फैसले में कहा है ,

’वर्ष १५२८ में जब बाबरी मस्जिद बनी तब अयोध्या या और कहीं भी ऐसी मान्यता  नहीं थी कि जहां  बाबरी मस्जिद बनाई गई थी, वहां राम जन्मभूमि थी। वर्ष १५५८ में लिखी रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसका कोई जिक्र नहीं किया है । वाल्मीकी रामायण सहित किसी अन्य भाषाओं की रामायण में भी राम जन्म भूमि का उल्लेख नहीं मिलता है । राम जन्म भूमि का विचार पहली बार ईस्ट इंदिया कंपनी के एक एजेंट ने १८५५ में सामने रखा ।’

राम का नाम लेते हुए गोली खाने वाले गांधी की भावना और आचरण गोस्वामी तुलसीदास की इन पंक्तियों से प्रतिपादित होता है :

परहित सरिस धरम नहि भाई , पर पीड़ा सम नहि अधमाई

चूंकि ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट की शातिरी के पहले अयोध्या में यदि कोई विवाद था तो उसका समाधान भी था इसलिए तुलसीदास को , ’मांग के खईबो ,मसीद में सोईबो’ में दिक्कत नहीं थी।




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प्रख्यात चिन्तक बर्ट्रेण्ड रसल ने अपनी लम्बी आत्मकथा के आखिरी हिस्से में कहा था कि दुनिया की सभी समस्याएं तीन श्रेणियों में रखी जा सकती हैं :

जो मनुष्य की खुद से या खुद में पैदा होने वाली समस्याएं हैं ,  जो समस्याएं समाज के अन्य लोगों से जुड़ी हैं तथा मनुष्य और प्रकृति के द्वन्द्व से पैदा समस्याएं । विनोबा भावे ने १९३० में इन तीन प्रकारों को व्यक्ति ,समष्टि तथा सृष्टि के रूप में मन्त्रबद्ध किया ।

नारायण देसाई

नारायण देसाई

गत दो वर्षों में हमारे देश में दो लाख से ज्यादा लोगों नी आत्मह्त्या की । इनमें से ज्यादातर किसान थे। इनकी आत्महत्या की जड़ में हमारी अर्थव्यवस्था से जुड़े कारण भले ही रहे हों ,इन लोगों ने अपनी सबसे मूल्यवान वस्तु को समाप्त करने का फैसला व्यक्तिगत स्तर पर लिया होगा। अमीर देशों के अस्पतालों में भर्ती होने वालों में सड़क दुर्घटनाओं में मृत तथा घायल हुए लोगों के बाद मानसिक समस्याओं वाले रोगियों का ही नम्बर आता है । अवसाद एक प्रमुख व्याधि बन गया है । हृदय रोग से प्रभावित होने वालों की उम्र लगातार घटती जा रही है । तलाक लेने वाले जोड़ों की संख्या में वृद्ध हो रही है ।

समष्टि से जुड़ी समस्याओं में सबसे अहम है आर्थिक विषमता । डांडी यात्रा से पहले गांधी द्वारा वाइसरॉय को लिखे पत्र में कहा गया था यदि आप हमारे देश के कल्याण के बारे में सचमुच गंभीर हैं तो देश से जुड़ी प्रमुख समस्याओं और मांगों के सन्दर्भ में क्या कर रहे हैं बतायें । इस पत्र में चौथे नम्बर पर नमक कानून वापस लेने की बात जरूर थी लेकिन देश की न्यूनतम मजदूरी पाने वाले से लगायत प्रधान मन्त्री के वेतन के अनुपात तथा इन सबसे कई गुना ज्यादा वाईस रॉय को मिलने वाले वेतन का हवाला दिया गया था तथा इन ऊँची तनख्वाहों को आधा करने की मांग की गयी थी ।

दारिद्र्य का मूल्यांकन औसत से किया जाना एक धोखा देने वाली परिकल्पना है । भारत वर्ष में ऊपर के तथा मध्य वर्गों में आई आर्थिक मजबूती के कारण यह भ्रम पाल लेना गलत होगा की गरीबी मिट गयी । गरीब की मौत सौ फीसदी का मानक है , ऊंचे औसतों से उसमें फरक नहीं आता ।

संगठित हिंसा का स्वरूप चिन्ताजनक हो गया है । अखबारों में विज्ञापनों के बाद हत्याओं की खबरें सर्वाधिक होती हैं । अणुशस्त्रों के समर्थकों द्वारा कहा जाता है  कि  इतने बम बन गये हैं कि उनके ’निरोधक गुण’ के कारण तीसरे महायुद्ध का खतरा टल गया । दुनिया के युद्धों के स्वरूप पर गौर करने से हम पाते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध में समर में प्रत्यक्ष लगे सैनिक असैनिक नागरिकों की तुलना में ज्यादा मारे गये थे । दूसरे विश्वयुद्ध में तथा इसके बाद के सभी युद्धों में यह प्रक्रिया उलट गयी है । अब युद्धों में असैनिक नागरिकों की मौत प्रत्यक्ष लड़ रहे सैनिकों से कहीं ज्यादा हो रही हैं ।

आतंकवाद , हमारे देश में व्याप्त जातिगत विषमता , आदिवासी का शोषण तथा दुनिया भर में व्याप्त लैंगिक भेद भाव प्रमुख सामाजिक समस्याएं हैं । उपभोगवाद द्वारा राग ,द्वेष और घृणा पोषित हुए हैं ।

’ओज़ोन परत मे छि्द्र” कहने पर उक्त छिद्र के बहुत छोटा होने की छवि दिमाग में बनती है। हकीकत है कि वह ’छिद्र’ आकार में एशिया महादेश से भी बड़ा है । हम साधु को स्वामी कह कर सम्बोधित करते हैं लेकिन पश्चिमी सभ्यता का ’सामाजिक अहंकार’ मनुष्य को प्रकृति का स्वामी मानता है । धरती के विनाश का खतरा है। गांधी ने मनुष्य को प्रकृति का स्वामी नहीं प्रकृति को शिरोधार्य माना ।

आज से १०० साल पहले ये समस्याएं कुछ कम जटिल रूप में मौजूद थीं । लेकिन इनकी बुनियाद उससे भी करीब डेढ़ सौ साल पहले औद्योगिक क्रान्ति के साथ पड़ चुकी थी । डार्विन के सिद्धान्त survival of the fittest से पश्चिम के सामाजिक अहंकार को बल मिला था। गांधी ने विश्व में व्यक्ति केन्द्रित पूंजीवाद और समष्टि केन्द्रित समाजवाद को समझा । पूंजीवाद और साम्यवाद इस आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था की जु्ड़वा सन्ताने हैं, यह गांधी समझ सके। आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था के दुष्परिणामों और उसके भविष्य के संकेतों को समझने के पश्चात एक कवि के समान सृजन की विह्वलता के साथ उन्होंने ’हिन्द स्वराज’ की रचना की । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ’निर्झरेर स्वप्नभंग’ को अपनी प्रथम रचना मानते हैं , उसके पहले की कविताओं को तुकबन्दियां मात्र मानते हैं । ठीक उसी प्रकार ’हिन्द स्वराज’ गांधी की प्रथम स्रुजनात्मक रचना है । जहाज के कप्तान से स्टेशनरी की मांग करना , दाहिने हाथ से लिखते लिखते थक जाने पर बांए हाथ से लिखना उनकी उत्कटता के द्योतक थे।(हिन्द स्वराज की रचना इंग्लैंण्ड से अफ़्रीका पानी के जहाज से जाते वक्त लिखी गयी थी) । उन्होंने यह स्पष्ट कहा भी जब मुझसे बिलकुल नहीं रुका गया तब ही मैंने इसकी रचना की।

तेनसिंग और हिलेरी ने आपस में यह समझदारी बना ली थी कि वे दुनिया को यह नहीं बतायेंगे कि किसने एवरेस्ट की चोटी पर पहला कदम रखा । परन्तु ऊपर पहुंचने के बाद उन दोनों ने जो किया वह गौर तलब है । हिलेरी ने अपना झण्डा गाड़ा और तेनसिंग ने वहाँ की बरफ़ उठा कर मस्तक पर लगाई।

मौजूदा अर्थव्यवस्था अब उत्पादन से ज्यादा कीमतों और ब्याज के हेर-फेर पर निर्भर है । मौजूदा संकट सभ्यता के अंत का प्रथम भूचाल है । सत्य ,अहिंसा,साधन शुद्धि आदि के गांधी के ’तत्व ’ हैं । यह तत्व हमेशा प्रासंगिक रहेंगे । चरखा गांधी का तन्त्र है जो सतत परिवर्तनशील रहेगा। अपने जीवन काल में ही गांधी ने स्थानीय तकनीक से १०० गज धागा बनाने वाले चरखे की खोज के लिए एक लाख रुपये के ईनाम की घोषणा की थी ।

गांधी ने स्वराज का अर्थ सिर्फ़ राजनैतिक स्वराज से नहीं लिया था। उसका सन्दर्भ समूची संस्कृति से था। जरूरतों को अनिर्बन्ध बढ़ाना नहीं स्वेच्छया नियन्त्रित करना ताकि हर व्यक्ति स्वराज का अनुभव करे। ’हिन्द स्वराज” ने आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था के शक्तिवाद , उद्योगवाद , उपभोक्तावाद,बाजारवाद के विकल्प में सत्याग्रह,प्रकृति के साथ साहचर्य ,सादगी,प्रेम,स्वावलंबन पर आधारित विकास की परिकल्पना दी।

[ काशी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में मौजूदा वैश्विक संकट और ’हिन्द स्वराज’ विषयक श्री नारायण देसाई द्वारा दिए गए व्याख्यान के आधार पर । व्याख्यान का आयोजन प्रोफेसर किरन बर्मन ने किया था। ]

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[गांधी जयन्ती को बीते कल दो ही दिन हुए थे । सलीम मिले तो चार पंक्तियां सुनाईं । मैंने कहा लिख दीजिए तो लिखते – लिखते चार पंक्तियां और जुड़ गयीं । कवि और शायर के अलावा सलीम और मैं राजनैतिक साथी भी हैं। ]

बिखर चुका है गरीबों का शिराजा बापू ।

कैसे रह पाये मुफ़लिस भी यहां जिन्दा बापू ।

पूँजीपतियों के अब चंगुल में है निजाम-ए-चमन ।

खुदकु्शी के सिवा अब कुछ नहीं चारा बापू । ।

ये चादर छीन लेते हैं, बिछौने छीन लेते हैं ।

यहां तक के नेवाले और ठिकाने छीन लेते हैं ।

कहाँ अब खेलने जायें गरीब-ए-शहर के बच्चे ?

अमीर-ए-शहर के बच्चे खिलौने छीन लेते हैं । ।

– सलीम शिवालवी .

(शिराजा = व्यवस्था )

्सलीम शिवालवी

्सलीम शिवालवी

्सलीम शिवालवी

्सलीम शिवालवी


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[ दिवराला ( राजस्थान ) सती – कांड के बाद भारतीय संस्कृति में नर – नारी सम्बन्धों पर सितम्बर – अक्टूबर १९८७ में जनसत्ता के दिल्ली संस्करण के सम्पादक श्री बनवारी के कई लेख छपे । इन लेखों पर अपनी  प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मैंने (किशन पटनायक )बनवारीजी को एक लेख-पत्र लिखा । यह जनसत्ता में नहीं छपा तो मैंने उसे ’हंस’ को भेज दिया तो उसमें यह प्रकाशित हुआ और बाद में सामयिक वार्ता में भी । ]

प्रिय बनवारीजी ,

भारतीयता पर आपका जो भी लेख मेरी नजर से गुज्रता है , मैं उसे अवश्य पढ़ता हूँ । कारण , मेरी भी यह मान्यता है कि आधुनिकतावाद हमारे देश को घोर मूल्यहीनता और दरिद्रता की ओर ले जा रहा है । परन्तु आपके लेखों को पढ़ते वक्त मुझे कभी कभी परेशानी होती है । मुझे लगता है आपके प्रतिपादनों से कट्टर हिन्दूवाद को ही बल मिलेगा । अगर आपका लक्ष्य है कि भारतीयता के आधार पर एक नई संस्कृति और समाज का निर्माण हो तो कट्टर हिन्दूवाद के बढ़ने से इस लक्ष्य पर प्रतिकूल असर होगा । कई बार इच्छा हुई कि आपसे मिलकर बातचीत करूँ । परन्तु दूरी के कारण ऐसा नहीं हो सका । इसलिए आपको सम्बोधित करते हुए यह लेख-पत्र लिख रहा हूँ । आपके लेखों से मेरे मन में जो संशय उत्पन्न होता है उसी को इस लेख-पत्र में लिपिबद्ध कर रहा हूँ ।

आधुनिकतावाद के विरोध में और भारतीयता के समर्थन में इस वक्त देश में एक छोटा सा वैचारिक समूह बना हुआ है । इतिहासकार धर्मपाल , कन्नड़ लेखक अनन्तमूर्ति और हिन्दी लेखक निर्मल वर्मा भी शायद इस धारा के अन्तर्गत हैं | अरुण शौरी को मैं इस धारा का नहीं मानता हूँ । वे सिर्फ़ हिन्दूवाद के पक्षधर हैं । वे भारतीयतावादी नहीं हैं । राजनीति व अर्थनीति में वे सम्पूर्ण आधुनिकतावादी हैं । अनन्तमूर्ति व निर्मल वर्मा को मैंने ठीक ढंग से नहीं पढ़ा है । आपके लेखों को कुछ ज्यादा पढ़ा है । वैसे तो आपकी धारा को भारतीयतावादी कहता हूँ लेकिन जब मुझे इसमें खतरा दिखाई देता है तब इसे ’बौद्धिक हिन्दूवाद’ कहता हूँ । साम्प्रदायिक हिन्दूवाद और कट्टर हिन्दूवाद से सम्पूर्ण भिन्न होने पर भी इसकी कुछ ऐसी कमजोरियाँ हैं कि साम्प्रदायिक और कट्टर हिन्दूवाद के लिए वह एक चुनौती बनने के बजाय एक ढाल बन जाता है । सती – प्रथा पर विवाद के सन्दर्भ में यही हो रहा है । राजपूत जाति के तलवारधारी संरक्षकगण और पुरी के शंकराचार्य के भक्त लोग आपको अपना पक्षधर मानेंगे । १९३४ के बिहार भूकम्प के दिनों में गांधीजी के बयान का तीखा विरोध रवि ठाकुर ने तो किया था , लेकिन कट्टर हिन्दूवादी लोगों की हिम्मत नहीं हुई कि गांधीजी को अपना पक्षधर मानें ।* [* १९३४ के बिहार के भूकम्प के बाद गांधीजी ने एक बयान में कहा था कि यह (भूकम्प) अछूतों के साथ किए गए दुर्व्यवहार के पापों का फल है । इस बयान पर विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा था कि गांधीजी ऐसा कहकर अन्धविश्वासों को बढ़ावा दे रहे हैं – यह पापों का कैसा फल है जिसकी सबसे अधिक मार अछूतों पर ही पड़ी हो । ] गांधीजी की भारतीयता में जहाँ आधुनिकतावाद के खिलाफ़ धार थी वहाँ कट्टर हिन्दूवाद के खिलाफ़ भी तीखी धार थी । गांधी और रवि ठाकुर दोनों का लक्ष्य था भारतीय संस्कृति का नव सृजन । दोनों का विवाद एक ही खेमे का अन्दरूनी  संघर्ष था । दोनों से कट्टर हिन्दूवाद भयभीत था । उनके पहले स्वामी विवेकानन्द से भी कट्टर हिन्दूवाद भयभीत था ।

भारतीयता की सबसे आत्मघाती प्रवृत्ति यह है कि भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों की कल्पनाओं में वह इतना रम जाती है उसकी सारी विकृतियो , विवेकहीनताओं और जड़ताओं के प्रति भी उसे ममता होने लगती है । वह दुविधा में सोचती है ,’ दिखने में अमानवीय होने पर भी उनके पीछे जरूर कोई ब्रह्मांड विषयक सत्य रहा होगा सो उन पर प्रहार करना गलत हो सकता है ।’ आपके लेख और जनसत्ता के सम्पादकीय में इसी प्रकार की दुर्बलता छिपी हुई है । इस उद्धरण को देखें , ’ जो लोग इस जन्म को ही आदि और अन्त मानते हैं और अपने व्यक्तिगत भोग में ही सबसे बड़ा सुख देखते हैं , उन्हें सती प्रथा कभी समझ में नहीं आएगी । यह उस समाज से निकली है जो मृत्यु को सर्वथा अन्त नहीं मानता , बल्कि उसे एक जीवन से दूसरे जीवन की तरफ़ बढ़ने का माध्यम समझता है । ऐसा समाज ही सती – प्रथा के उचित होने पर कोई सार्थक बहस कर सकता है । उसी हिसाब से अब नये सिरे से सती प्रथा पर विचार होना चाहिए । मगर यह अधिकार उन लोगों को नहीं है जो भारत के आम लोगों की आस्था और मान्यताओं को समझते नहीं हैं ।ऐसे लोग कोई फैसला देंगे तो उसकी वैसे ही धज्जियाँ उड़ेंगी जैसे राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले की दिवराला में उड़ी(’दिवराला की सती’-सम्पादकीय ’जनसत्ता’ )।”

बोलने की यह शैली इस प्रकार है – ’हमारे समाज में बुराई हो सकती है , जब हमारा विवेक जगेगा तब हम इसका विरोध करेंगे । लेकिन खबरदार ! हमारे ढंग से न सोचनेवालों को कोई अधिकार नहीं है कि हमारी बुराई पर उँगली उठाए ।’ तो क्या हम भी पश्चिमी समाज की ग़लतियों पर या आदिवासी समाज के जादू – टोनों पर उँगली न उठाएँ ?  जब बाल – विवाह , बाल-विधवा , स्त्री-निरक्षरता आदि के बारे में भारतीय विवेक नहीं जगा था , तब तक ईसाई-धर्म प्रचारकों या राममोहन राय जैसे पश्चिमपरस्त लोग ही इन प्रथाओं पर उँगली उठाते थे ? जब भारतीयता पर गर्व करने वालों का विवेक जग गया और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर , विवेकानन्द , रवि ठाकुर , गांधी , अम्बेडकर जैसे लोग समाज का नेतृत्व करने लगे , तब अपनी बुराइयों को जानने के लिए हमें ईसाई प्रचारकों के लेख पढ़ने की जरूरत नहीं रह गई । आजादी के चालीस सअल बाद हम फिर से पुरानी स्थिति में चले गये हैं । पुरी के शंकराचार्य ही भारतीयतावादियों के मुखपात्र बन गये हैं । आप जैसे भारतीयतावदियों का विवेक सती प्रथा की घटना के विरुद्ध जागृत नहीं हुआ । उपरोक्त उद्धरण में आपने माना है कि सती प्रथा के विरुद्ध भी एक भारतीय दृष्टि हो सकती है । परन्तु उस दृष्टि का प्रतिनिधित्व आपने अपने लेख में नहीं किया है । उलटा उस लेख की तर्क पद्धति ऐसी है कि उसके अनुसार सती प्रथा का विरोध करनेवाला कोई भी व्यक्ति पश्चिमी संस्कृति का दलाल प्रमाणित हो जाएगा , वह ईश्वरचन्द्र विद्यासागर क्यों न हों ।  सती प्रथा के समर्थन में सैद्धान्तिक बहस का जो ढाँचा आपने बनाया है , उस ढाँचे के अन्दर बाल – विवाह और जाति – प्रथा भी ब्रह्मांड विषयक एक महान सत्य पर आधारित माने जाएँगे और उनका विरोध करनेवाले ईसाई प्रचार के शिकार मान लिए जाएँगे ।

आपका कहना है कि जन्म – मृत्यु और काल – सम्बन्धी जो भारतीय अवधारणा है , उसी को मानने वाले समाज में सती – प्रथा तर्कसंगत है । आपका यह प्रतिपादन गैरतार्किक है । यह तब तार्किक होगा जब पत्नी के मर जाने पर पति भी , राजा के मर जाने पर प्रजाकुल भी , नौकर के मर जाने पर मालिक भी सती हो जाएगा । जब तक उस जन्म – मृत्यु की अवधारणा के साथ यह धारणा भी नहीं जुड़ती है कि स्त्री को पति-सर्वस्व अनुशासन में रहना पड़ेगा और विधवा का कोई सार्थक सामाजिक जीवन नहीं हो सकता , तब तक औरत के सती होने की प्रथा नहीं बन सकती है । जिस तरह मुसलमान समाज में तलाक देने की प्रथा दूसरे समाज की तुलना में निकृष्ट है , उसी तरह विधवा के सामाजिक जीवन के मामले में हिन्दू समाज की प्रथा निकृष्ट है । यहाँ विधवा नारी का अपना कोई सामाजिक जीवन नहीं होता है । जिस समाज की विधवा नारी एक सामान्य और सम्मानपूर्ण जीवन बिता सकती हो , उसी समाज में ही सती की घटना को स्वेच्छा से प्रेरित कहा जा सकता है । आत्मोसर्ग के जिस कार्यक्रम में भीड़ जुटकर उल्लास मनाती है  , उसमें देहत्याग के व्यक्तिगत निर्णय की गंभीरता नहीं हो सकती है । अपने आप में यह एक बर्बर काण्ड है – सती की इच्छा जो भी हो । इसलिए विनोबाजीके शरीर-त्याग से सती-समारोह और तलवारधारी राजपूत संरक्षकों के कार्यक्रमों की तुलना नहीं की जानी चाहिए ( स्वेच्छा का तर्क दहेज के सम्बन्ध में भी दिया जाता है ) ।

जन्म – मृत्यु की भारतीय अवधारणा यानी आत्मा की अनन्तता के साथ अगर नारी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण जुड़ जाता है तब विधवा का क्या रूप होगा ? उसका प्रसंग रामकृष्ण परमहंस में मिलता है । यह प्रसंग सचमुच एक पवित्र क्रांतिकारी प्रसंग है । पुरी के शंकराचार्य इसको पढ़ेंगे तो उनको पसीना छूट जाएगा । रामकृष्ण की बीमारी के दिनों में  कभी शारदादेवी ने इच्छा प्रकट की थी कि वे सती होना चाहती हैं । रामकृष्ण ने कहा – हरगिज नहीं , मेरे बाद भी समाज को तुम्हारी जरूरत रहेगी । रामकृष्ण के मर जाने के बाद जब शारदादेवी प्रथानुसार अपनी देह से सारे आभूषण , सिन्दूर , कंगन , लालकिनारी वाली साड़ी उतारने जा रही थीं , रामकृष्ण का आविर्भाव उनके सामने हुआ । निर्देश मिला – ’ तुम यह सब मत उतारो । तुम क्या यह सोचती हो कि मेरा खात्मा हो गया है ?’ फिर शारदादेवी मृत्यु तक उन आभूषणों कोप पहने रहीं । कितनी कटु बातें उनको सुननी पड़ी होंगी , क्या- क्या उन्होंने झेला होगा , यह अनुमान का विषय है । हिन्दू धर्म और भारतीयतावाद का दुर्भाग्य है कि रामकृष्ण और गांधी को ठुकराकर पुरी के शंकराचार्य को पथ-प्रदर्शक माना जाए ।

जारी

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      बात मध्यप्रदेश की है, किन्तु कमोबेश पूरे देश पर लागू होती है। मध्यप्रदेश हाईस्कूल का परीक्षा परिणाम इस साल बहुत खराब रहा। मात्र 35 फीसदी विद्यार्थी ही पास हो सके। परिणाम निकलने के बाद प्रदेश के कई हिस्सों से छात्र-छात्राओं की आत्महत्याओं की खबरें आईं।
        इतने खराब परीक्षा परिणाम की विवेचना चल रही है। मंत्री एवं अफसरों ने कहा कि शिक्षकों के चुनाव में व्यस्त होने के कारण परीक्षा परिणाम बिगड़ा है। किसी ने कहा कि आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा खत्म कर देने से यह हुआ है। लेकिन सच तो यह है कि लगातार बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था का यह परिणाम है। सरकार खुद इसे लगातार बिगाड़ रही है।
        इस परीक्षा परिणाम में एक मार्के की बात यह है कि सबसे ज्यादा अंग्रेजी और गणित  इन दो विषयों में ही विद्यार्थी फेल हुए हैं। अंग्रेजी में 3 लाख 21 हजार और गणित में 2 लाख विद्यार्थी फेल हुए हैं। कुछ दिन पहले घोषित मध्यप्रदेश हायर सेकेण्डरी की परीक्षा में भी फेल विद्यार्थियों में ज्यादातर अंग्रेजी व गणित में ही अटके हैं। अमूमन यही किस्सा हर साल का और देश के हर प्रांत का है। अंग्रेजी और गणित विषय आम विद्यार्थियों के लिये आतंक का स्त्रोत बने हुए हैं।
        गणित का मामला थोड़ा अलग है। गणित के साथ समस्या यह है कि इसे रटा नहीं जा सकता। इसकी परीक्षा में नकल भी आसान नहीं है। शुरुआती कक्षाओं में गणित को ठीक से न पढ़ाने की वजह से बाद की कक्षाओं में गणित कुछ भी समझ पाना एवं याद करना बहुत मुश्किल होता है। गणित विषय की बेहतर पढ़ाई की व्यवस्था जरुरी है।
        लेकिन अंग्रेजी क्यों इस देश के बच्चों पर लादी गई है ? पूरी तरह विदेशी भाषा होने के कारण बच्चों के लिए यह बहुत बड़ा बोझ बनी हुई है। देश के कुछ मुट्ठी भर अभिजात्य परिवारों को छोड़ दें , जिनकी संख्या देश की आबादी के एक प्रतिशत से भी कम होगी, तो देश के लोगों के लिए अंग्रेजी एक अजनबी, विदेशी और बोझिल भाषा है। अपनी जिन्दगी में दिन-रात उनका काम भारतीय भाषाओं या उसकी स्थानीय बोलियों में चलता है। उनमें अंग्रेजी के कुछ शब्द जरुर प्रचलित हो गए हैं, लेकिन अंग्रेजी भाषा बोलना, लिखना या पढ़ना उनके  लिए काफी मुश्किल काम है। फिर भी अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रुप में सारे बच्चों पर थोपी जा रहा है। पहले माध्यमिक शालाओं में कक्षा 6 से इसकी पढ़ाई शुरु होती थी, अब लगभग सारी सरकारों ने इसे पहली कक्षा से अनिवार्य कर दिया है।
        अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रुप में भारत के सारे बच्चों को पढ़ाने के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं, जो सब खोखले और गलत हैं। यह कहा जाता है कि अंग्रेजी दुनिया भर में बोली जाती है। अंग्रेजी से हमारे लिए दुनिया के दरवाजे खुलते हैं। हमारे देश को आगे बढ़ना हैं, शोध कार्य करना है, वैज्ञानिक प्रगति करना है, व्यापार करना है, विदेशों में नौकरी पाना है, तो अंग्र्रेजी सीखना ही होगा। लेकिन यह सत्य नहीं है। अंग्रेजी का प्रचलन सिर्फ उन्हीं देशों में     है जो कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं और वहां भी आम लोग अंग्रेजी नहीं जानते हैं। दुनिया के बाकी देश अपनी-अपनी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और वहां जाने, उनके साथ संवाद करने और उनको समझने के लिए उनकी भाषा सीखने की जरुरत होगी। स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, रुसी, पु्र्तगाली, इटेलियन, डच, चीनी, जापानी, अरबी, फारसी, कोरियन आदि भी अंतर्राष्ट्रीय भाषाएं हैं। यदि दुनिया के दरवाजे वास्तव में भारतीयों के लिए खोलने हैं तो इन भाषाओं को भी सीखना पड़ेगा।
        फिर अंतर्राष्ट्रीय जगत से तो बहुत थोड़े भारतीयों को काम पड़ता है। उच्च स्तरीय शोधकार्य करने वाले मुट्ठी भर लोग ही होते हैं। उसके लिए देश के सारे बच्चों पर अंग्रेजी क्यों थोपी जाए ? उन्हें क्यों कुंठित किया जाए ? बार-बार फेल करके उनके आगे बढ़ने के रास्ते क्यों रोके जाए ? प्रतिवर्ष पूरे देश में विभिन्न कक्षाओं में अंग्रेजी में फेल होते बच्चों की संख्या जोड़ी जाए, तो यह करोड़ों में होगी। क्या यह स्वतंत्र भारत का बहुत बड़ा अन्याय नहीं है ? जिन्हें उच्च स्तरीय शोधका्र्य करना है या विदेश जाना है, वे जरुरत होने पर अंग्रेजी या कोई भी विदेशी भाषा का छ: महीने का कोर्स करके कामचलाऊ ज्ञान हासिल कर सकते हैं। दूसरों देशों के नागरिक ऐसा ही करते हैं। सिर्फ भारत जैसे चंद पूर्व गुलाम देशों में ही एक विदेशी भाषा पूरे देश में थोपी जाती है। सच कहें तो, दुनिया का कोई भी देश एक विदेशी भाषा में प्रशासन, शिक्षा, अनुसंधान आदि करके आगे नहीं बढ़ पाया है।
        कई अभिभावक सोचते हैं कि अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाकर वे उसे ऊपर तक पहुंचा सकेगें। ‘‘इंग्लिश मीडियम’’ का एक पागलपन इन दिनों चला है और हर जगह घटिया निजी स्कूलों के रुप में इंग्लिश मीडियम की कई दुकानें खुल गई हैं। इंग्लिश मीडियम का मतलब है कि बच्चों को अंग्रेजी सिर्फ एक विषय के रुप में नहीं पढ़ाना, बल्कि सारे विषय अंग्रेजी भाषा में पढ़ाना। यह बच्चों के साथ और बड़ा अन्याय होता है। अपनी मातृभाषा में अच्छे तरीके से और आसानी से जिस विषय को वे समझ सकते थे, उसे उन्हें एक विदेशी भाषा में पढ़ना पड़ता है। उनके ऊपर दोहरा बोझ आ जाता है। अक्सर वे भाषा में ही अटक जाते हैं, विषय को समझने का नंबर ही नहीं आता है। फिर वे रटने लगते हैं। लेकिन विदेशी भाषा में रटने की भी एक सीमा होती है। इसमें कुछ ही बच्चे सफल हो पाते हैं, बाकी बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए यह एक मृग-मरीचिका ही साबित होता है। देश के करोड़ों बच्चे अंग्रेजी के इस मरुस्थल में क्लान्त और हैरान भटकते रहते हैं, कोई-कोई दम भी तोड़ देते हैं।
        यह सही है कि आज भी देश का ऊपर का कामकाज अंग्रेजी में होता है। प्रशासन, न्यायपालिका, उच्च शिक्षा, उद्योग, व्यापार सबमें ऊपर जाने पर अंग्रेजी का वर्चस्व मिलता हैं। अंग्रेजी न जानने पर ऊपर पहुंचना और टिकना काफी मुश्किल होता है। लेकिन इसका इलाज यह नहीं है कि सारे बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाई जाए। यह एक अस्वाभाविक स्थिति है और गुलामी की विरासत है, इसे जल्दी से जल्दी बदलना चाहिए। देश के शासक वर्ग ने अंग्रेजी की दीवार को इसीलिए बनाकर रखा है कि देश के करोड़ो बच्चे आगे नहीं बढ़ पाए और उनकी संतानों का एकाधिकार बना रहे। अंग्रेजी को अनिवार्य रुप से स्कूलों में पढ़ाने से यह एकाधिकार
टूटता नहीं, बल्कि मजबूत होता है।  अभिजात्य वर्ग के बच्चों को तो अंग्रेजी विरासत में मिलती है। फर्राटे से अंग्रेजी न बोल पाने और न लिख पाने के कारण साधारण पृष्ठभूमि के बच्चे प्राय: हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। आधुनिक भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व न केवल भेदभाव, विशेषाधिकारों और यथास्थिति को बनाए रखने का बहुत बड़ा औजार है, बल्कि देश की प्रगति को रोकने का बहुत बड़ा कारण भी है। जिस देश के ज्यादातर बच्चे कुंठित एवं हीन भावना के शिकार होंगें, उनके ऊपर दोहरी शिक्षा का अन्यायपू्र्ण बोझ लदा रहेगा, वे ज्ञान-विज्ञान के विषयों को समझ ही नहीं पाएंगे और उनके आगे बढ़ने के रास्ते अवरुद्ध रहेगें, वह देश कैसे आगे बढ़ेगा।
        अंग्रेजी के वर्चस्व का दूसरा नुकसान यह भी होता है कि देशी परिस्थितियों के मुताबिक मौलिक सोच, स्वतंत्र चिन्तन व देशज शोध-अनुसंधान भी काफी हद तक नहीं हो पाता है। पूरा देश नकलचियों का देश बना रहता है और कई बार नकल में अकल भी नहीं लगाई जाती है।
        इसीलिए समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया ने आजाद भारत में सार्वजनिक जीवन से अंग्रेजी के वर्चस्व को हटाने का आह्वान किया था। डॉ. लोहिया की जन्म शताब्दी इस वर्ष मनाई जा रही है और यदि इस दिशा में हम कुछ कर सकें, तो यह उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी। यह वर्ष महात्मा गांधी की  अद्वितीय पुस्तक ‘‘हिन्द स्वराज’’ का भी शताब्दी वर्ष है। इसमें लिखे गांधी जी के इन शब्दों को भुलाकर हमने अपनी बहुत बड़ी क्षति की है –
        ‘‘ अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। ……………यह क्या कम जुल्म  की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। ………. यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है ?’’

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(लेखक समाजवादी जन परिषद का राष्ट्रीय अध्यक्ष है।)

 

    सुनील
    ग्राम पोस्ट -केसला, वाया इटारसी, जिला होशंगाबाद (म.प्र.) 461 111
    फोन नं० – 09425040452

ई – मेल   sjpsunilATgmailDOTcom

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    पिछले भाग : एक , दो

    युनाइटेड फार्म वर्कर्स आर्गनाइजिंग कमेटी के जिस कार्यक्रम को अधिक सफलता मिली है , वह है बहिष्कार । सीजर ने देखा कि केवल हड़ताल से काम बनता नहीं और एक मजदूर की जगह लेने के लिये अन्य मजदूर तैयार हैं , तो उसने दूसरा उपाय बहिष्कार का सोचा । अमरीका के बड़े – बड़े शहरों में जाकर उसने लोगों को यह समझाया कि केलिफोर्निया के उन उत्पादकों के अंगूर मत खरीदिए , जो अत्याचारी हैं और मजदूरों पर अन्याय कर रहे हैं । ये अंगूर एक खास प्रकार के होते हैं । इसलिए ग्राहकों के लिए पहचानना आसान होता है । बहिष्कार का यह कार्यक्रम काफी सफलता पा रहा है । इस समय अमरीका के कुछ प्रमुख शहरों में तथा इंग्लैण्ड , केनेडा , आयर्लैंड आदि कुछ देशों में भी केलिफोर्निया के उन अंगूरों की दूकानें बन्द हैं । इसके कारण सारे आन्दोलन को काफी प्रसिद्धि भी मिली है ।

    भूपतियों के क्रोध का सीजर को कई बार शिकार बनना पड़ा है । उसकी सभाओं में उस पर अंडे फेंके गये हैं । लेकिन फिर भी उसके व्याख्यान जारी रखने पर उसी श्रोता – मंडली ने उसका उत्साह से अभिनन्दन किया है । आंदोलन को बदनाम करने के लिये कुछ हिंसक उपद्रवियों को उसमें घुसाने की चेष्टा भी की गयी है । लेकिन त्याग और तपस्या पर अधिष्ठित  इस आंदोलन में ऐसे तत्व अधिक दिनों तक टिक नहीं पाये हैं ।

    १९६६ में सीजर और उसके साथियों ने अपने स्थान डेलेनी से केलिफोर्निया की राजधानी सेक्रामेन्टो तक की ३०० मील की पद-यात्रा की । इस पद-यात्रा को बहुत अच्छी प्रसिद्धि मिली । पद-यात्रा का उद्देश्य था राजधानी में गवर्नर से भेंट करना। लेकिन पूरी यात्रा समाप्त करके जब पचास पद-यात्री सेक्रामेन्टो पहुंचे , तब बारिश  में भीगते हुए उनके साथ और कई जाने – माने लोग और हजारों नागरिक शामिल हो गये थे । गवर्नर साहब ने इन लोगों से भेंट करने की अपेक्षा शनि और रविवार की छुट्टी मनाने के लिए चला जाना अधिक पसंद किया । लेकिन उसी समय अंगूर-उत्पादकों की एक बड़ी कम्पनी श्चेन्लीवालों ने मजदूरों के साथ एक कान्ट्रैक्ट पर दस्तख़त किये , जिसके अनुसार मजदूरों को प्रति घण्टे पौने दो डालर मजदूरी देने का तय हुआ । यह मजदूरों के लिए आज तक हुई सबसे बड़ी जीत थी ।

    सीजर की एक पद्धति ने उसे न चाहते हुए भी काफी प्रसिद्धि दी है । वह है अनशन । उसने आज तक अनेक बार अनशन किये हैं । सीजर को गांधी का चेला करार देनेवाला भी शायद यही सबसे बड़ा तत्व होगा ।

    अनशन के बारे में सीजर कहता है :

    ” मैंने अपने काम का आरम्भ ही अनशन से किया था । किसी पर दबाव डालने या अन्याय का प्रतिकार करने के लिए नहीं । मैंने तो सिर्फ़ इतना ही सोचा था कि एक बड़ी जिम्मेवारी का काम ले रहा हूँ । गरीब लोगों की सेवा करनी है । सेवा करने के लिए कष्ट उठाने की जो तैयारी होनी चाहिए , वह मुझमें है या नहीं , इसीकी परीक्षा करने के लिए वे अनशन थे । “

    लेकिन हर वक्त इसी उद्देश्य से उपवास नहीं हो सकते थे । बीच में एक बार उसने उपवास इसलिए किए थे कि उसे लग रहा था कि उसके साथियों में अहिंसा पर निष्ठा कम हो रही है । चुपचाप उपवास शुरु कर दिये । पहले तीन – चार दिन तक तो उसकी पत्नी और आठ बच्चों को भी पता नहीं चला कि सीजर खा नहीं रहा है । लेकिन फिर उसने अपनी शैय्या युनाइटेड फार्म वर्कर्स आर्गनाइजिंग कमेटी के दफ्तर  में लगा ली । सिरहाने गाँधी की एक तसवीर टँगी हुई है । बगल में जोन बाएज़ के भजनों के रेकार्ड पड़े हैं । कमरे के बाहर स्पैनिश क्रांतिकारी एमिलियानो ज़पाटा का एक पोस्टर लिखा था : ‘ विवा ला रेवोल्यूशियो’ जिसका अर्थ होता है – इन्कलाब जिन्दाबाद । दूसरी ओर मार्टिन लूथर किंग की तसवीर । “उपवास का सबसे बड़ा असर मुझ ही पर हुआ ”  सीजर ने कहा । गाँधी के बारे में  मैंने काफी पढ़ा था । लेकिन उसमें से बहुत सारी बातें मैं इस उपवास के समय ही समझ पाया । मैं पहले तो इस समाचार को गुप्त रखना चाहता था , लेकिन फिर तरह तरह की अफवाहें चलने लग गयीं । इसलिए सत्य को प्रकट करना पड़ा कि मैं उपवास कर रहा हूँ । लेकिन मैंने साथ ही यह भी कहा कि मैं इसे अखबार में नहीं देना चाहता हूँ , न हमारी तसवीरें ली जानी चाहिए । बिछौने में पड़े – पड़े मैंने संगठन का इतना काम किया  , जितना पहले कभी नहीं किया था । उपवास के समाचार सुनकर लोग आने लगे । दसेक हजार लोग आये होंगे । खेत – मजदूर आये । चिकानो तो आये ही , लेकिन नीग्रो भी आये , मेक्सिकन आये , फिलिपीन भी आये । मुझे यह पता नहीं था कि इस उपवास का असर फिलिपीन लोगों पर किस प्रकार का होगा । लेकिन उन लोगों की धार्मिक परम्परा में उपवास का स्थान है ।  कुछ फिलिपीन लोगों ने आकर घर के दरवाजे  , खिड़कियों रँग दिया , कुछ ने और तरह से सजाना शुरु किया । ये लोग कोई कलाकार नहीं थे । लेकिन सारी चीज ही सौन्दर्यमय थी । लोगों ने आकर तसवीरें दीं । सुन्दर सुन्दर तसवीरें । अक्सर ये तसवीरें धार्मिक थीं । अधार्मिक तसवीरें थीं तो वह जान केनेडी की । और लोगों ने इस उपवास के समय मार्टिन लूथर किंग और गांधी के बारे में इतना जाना , जितना सालभर के भाषणों से नहीं जान पाये । और एक बहुत खूबसूरत चीज हुई । मेक्सिको के केथोलिक लोग वहाँ के प्रोटेस्टेन्ट लोगों से बहुत अलग – अलग रहते थे । उनके बारे में कुछ जानते तक नहीं थे । हम लोग रोज प्रार्थना करते थे । एक दिन एक प्रोटेस्टेन्ट पादरी आया , जो श्चेन्ली में काम करता है । मैंने उसे प्रार्थना सभा में बोलने के लिए निमंत्रण दिया । पहले तो वह मान ही नहीं रहा था , पर मैंने कहा कि प्रायश्चित का यह अच्छा तरीका होगा । उसने कहा कि मैं यहाँ बोलने की कोशिश करूँगा तो लोग मुझे उठाकर फेंक देंगे । मैंने उनसे कहा कि यदि लोग आपको निकाल देंगे तो मैं भी आपके साथ निकल आऊँगा । उन्होंने कबूल कर लिया । भाषण से पहले उनका पूरा परिचय दिया गया , ताकि किसीके मन में यह भ्रम न रहे कि यह केथोलिक है । उनका भाषण अद्भुत हुआ । मैथ्यू के आधार पर उन्होंने अहिंसा की बात की । लोगों ने भी बहुत ध्यान से और उदारता से उनको सुना । और फिर तो हमारे पादरी ने जाकर उनके गिरजे में भाषण किया । “

     शियुलकिल नदी के किनारे कई घण्टों तक बातें हुई । इन बातों में सीजर की जिज्ञासा ने मुझे श्रोता न रखकर वक्ता बना दिया था । मेरे पिताजी का गांधी से मिलन , प्यारेलाल और पिताजी का सम्बन्ध , राम – नाम पर गांधीजी की आस्था , प्राकृतिक चिकित्सा पर श्रद्धा , विनोबा का व्यक्तित्व , भूदान और ग्रामदान की तफसील , शांति – सेना के बारे में , सब कुछ उसने पूछ डाला । उठने से पहले मैंने सीजर से दो प्रश्न किये । पहला प्रश्न था : ” अहिंसा की प्रेरणा आपको कहाँ से हुई ? ” उसने कहा : ” मेरी माँ से । बचपन ही से वह हम बच्चों को  यही कहती रहती थी कि बड़ों से डरना नहीं चाहिए और झगड़ा हो तो उनको सामने मारना भी नहीं चाहिए । मैंने इस उद्देश्य को अपने खेलों में बड़ों के साथ झगड़ा होने पर आजमाकर देखा । मैं बड़ों से डरता नहीं था , लेकिन उनको मारता भी नहीं था । मैंने देखा कि इसका काफी असर होता है । शायद इसीसे अहिंसा के बारे में मेरी श्रद्धा के बीज डाले गये होंगे । “

      दूसरा प्रश्न था : ” गांधी के बारे में आप कब और किस प्रकार आकर्षित हुए ? “

      उसके जवाब में सीजर ने एक मजेदार किस्सा बताया : ” १९४२ में मैं १५ साल का था । एक सिनेमा की न्यूज रील में गांधी के आन्दोलन के बारे में कुछ चित्र दिखाये गये । मैंने देखा कि एक दुबला – पतला- सा आदमी इतनी बड़ी अंग्रेज सरकार का मुकाबला कर रहा है । मैं प्रभावित तो हुआ ,  लेकिन थियेटर से बाहर आने पर उस दुबले-पतले आदमी का नाम भूल गया । तो उसके बारे में अधिक जानकारी कैसे प्राप्त करता ? लेकिन मेरे मन में उस आदमी का चित्र बन गया । अकस्मात एक दिन अखबार में मैंने उसी आदमी की तसवीर देखी । मैंने लपककर अखबार उठा लिया और उस आदमी का नाम लिख लिया । फिर पुस्तकालय में जाकर उनके बारे में जो कुछ भी मिला , पढ़ लिया । “

    इस लेख का अन्त हम सीजर शावेज के उस वचन से करेंगे , जो उसने अपने एक अनशन के बाद कहे थे : ” हम अगर सचमुच में ईमानदार हों , तो हमें कबूल करना होगा कि हमारे पास कोई चीज हो तो वह अपना जीवन ही है । इसलिए हम किस प्रकार के आदमी हैं , यह देखना होत तो यही देखना चाहिए कि हम अपने जीवन का किस प्रकार उपयोग करते हैं । मेरी यह पक्की श्रद्धा है कि हम जीवन को देकर ही जीवन को पा सकते हैं । मुझे विश्वास है कि सच्ची हिम्मत और असली मर्दानगी की बात तो दूसरों के लिए अपने जीवन को पूरी तरह अहिंसक ढंग से समर्पण करने में ही है । मर्द वह है , जो दूसरों के लिए कष्त सहन करता है । भगवान हमें मर्द बनाने में सहायता करें । “

    

   

 

    

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[ नारायण देसाई के लिखे यात्रा वृत्तांत ‘ यत्र विश्वंभवत्येकनीड़म ‘ से सीजर शावेज पर अध्याय । पिछला भाग ( सीजर शावेज से मुलाकात ) ]

सीजर शावेज का व्यक्तित्व

शियुलकिल नदी के किनारे , फिलाडेलफिया शहर की भीड़ से कुछ दूर , उस बगीचे में बातें कर तथा बाद में पश्चिमी किनारे पर डेलेनो में , जहाँ सीजर काम करते हैं वहाँ जा कर , एक- बार वाली नेल्सन एवं उनकी पत्नी द्वारा आयोजित निदर्शन में हिस्सा लेकर तथा सीजर के साथियों के साथ बाद में जो जानकारी प्राप्त हुई , उसमें से कुछ महत्वपूर्ण नीचे दे रहा हूँ ।

सीजर एस्टैडा शावेज के माता – पिता दोनों मेक्सिकन थे , लेकिन उसका खुद का जन्म मार्च ३१ , १९२७ को अमरीकन नागरिक के नाते हुआ था । मेक्सिकन अमरीकन या चिकानो लोग अमरीका के सबसे गरीब लोगों में से हैं और इन्हीं गरीबों के लिए अहिंसक रीति से लड़ते – लड़ते सीजर ने चिकानो गांधी उपाधि प्राप्त की है । दस वर्ष की उम्र में उसके माता – पिता जिस बगीचे में काम करते थे , वह बिक गया और सीजर के परिवार को वहाँ से हटना पड़ा । कैलिफोर्निया के एक और स्थान पर आकर जब वे रहने लगे , तब सीजर अपने भाइयों के साथ बूट पालिश का धन्धा कर माता – पिता की कमाई में कु्छ मदद करने लगा । पढ़ाई सात दरजे तक हुई । बाकी पढ़ाई सब अनुभव से । एक जंगल में लकड़ी काटने का काम किया तब मालिक की मेहरबानी से उसी जंगल में झोपड़ी बनाने की इजाजत मिली । बढ़ईगिरी का यहीं पहला सबक था ।

दस साल की अवस्था में ही सीजर शावेज का बचपन पूरा हो चुका था । जवानी के आरम्भ ही से कौम के प्रश्न उसके अपने प्रश्न बन गये । खेतों में और बगीचों में मजदूरी का काम मिलता था , लेकिन उसकी स्थिरता का कोई भरोसा नहीं था । गोरे लोग अपनी दूकानों पर लिखे रहते थे : ‘ कुत्तों तथा मेक्सिकनों का प्रवेश निषेध ।’

अमरीका का यह पश्चिम प्रान्त मजदूरों के शोषण के इतिहास का साक्षी रहा है । १८६० तक तो वहाँ के मूल निवासी रेड इण्डियनों को , जो अर्ध गुलामी में रहते थे , साफ कर दिया जा चुका था । उनके स्थान पर खेतों में चीनी मजदूर आ गये थे , जो यों तो ‘दक्षिण पैसेफिक रेलवे’ डालने के लिए चीन से लाये गये थे , लेकिन काट-कसर से रहनेवाले और मेहनतकश चीनी लोगों को वहीं के बेकार गोरे लोग सहन नहीं कर पाये । १८८२ में चाईनीज एक्स्क्लूजन ऐक्ट ( चीनी हटाओ कानून ) द्वारा धनाढ्य मालिकों ने उनकी जगह पर जापानी मजदूरों को लाना शुरु कर दिया । लेकिन थोड़े ही दिनों में जापानी मजदूरों के प्रति द्वेष का भाव बन गया ; क्योंकि उन्होंने और मजदूरों को पीछे छोड़ दिया । अलावा इसके वे अमरीकन लोगों से बेहतर किसान थे और ऐसी जमीन को उन्होंने खेती के लायक बना दिया , जो अमरीकनों के हाथों में बंजर पड़ी थी । इस आपत्ति का उपाय १९११ में विदेशी जमीन कानून बनाकर किसी विदेशी को जमीन ने देने का तय करके निकाला गया । उसके बाद वहाँ पर भारत , अरब और अरमेनिया के मजदूर आये । इनमें अरमेनिया और यूरोप से आये हुए लोगों पर गोरे होने के कारण कम जुल्म गुजारा जाता था । और आज वहाँ बसे हुए किसानों के पितामह वे ही लोग थे । मेक्सिको से भूमिहीन मजदूर अक्सर आते – जाते रहे । चूँकि वे मेक्सिको से गैर – कानूनी ढंग से आते थे , इसलिए उनको कम मजदूरी देकर काम करवाना भूमिपतियों के लिए और भी आसान हो गया । १९२० के बाद फिलीपीन द्वीप से और भी सस्ते मजदूर लाये गये , जिसके कारण कुछ समय तक मेक्सिकन मजदूरों की कीमत घट गयी । १९२९ में अमरीका के टेक्सस से मजदूरो ने आकर फिलिपीन मजदूरों को समुद्र – पार भेज दिया । १९३४ में फिलिपीन स्वतन्त्र होने के बाद वहाँ से मजदूरों का लाना बन्द हो गया । १९४२ तक चीनी मजदूर शहरों में चले गये थे , जापानी लोगों को ( लड़ाई के कारण ) पकड़कर कन्सन्ट्रेशन कैम्पों (यातना शिविर ) में रखा गया था , यूरोपीय मजदूर पढ़-लिखकर आगे बढ़ गये थे और उनमें बहुत सारे बगीचों के मालिक बन गये थे । बाकी गोरे लोग युद्ध के आर्थिक उत्पादन के क्षेत्रों में लग गये थे । इसलिए मेक्सिको सरकार से बातचीत करके ‘ ब्रेसरो’ (खेत – मजदूर ) का कार्यक्रम बनाया गया , जिसमें मेक्सिको से मजदूरों को कटनी के समय ट्रकों में भरकर केलिफोर्निया तथा अन्य दक्षिण- पश्चिमी राज्यों में लाया जाता था और कटनी खतम होते ही फिर उन्हें ट्रकों भरकर मेक्सिको लौटाया जाता था । यह व्यवस्था भूमिपतियों को इतनी अनुकूल पड़ गयी कि युद्ध समाप्त होने के बाद भी ‘ब्रेसरो’ कार्यक्रम जारी रखा गया। वाशिंगटन में इस कार्यक्रम के समर्थकों ने यह दलील दी कि गोरे लोग कपास , बीट आदि की फसल काटने का मेहनत का काम नहीं कर पायेंगे । लोग आसानी से भूल गये कि थोड़े ही वर्ष पहले यह सारा काम गोरे लोगों ने किया था और अगर ठीक से जीवन – निर्वाह करने लायक रोजी मिले तो अब भी काले-गोरे लाखों लोग यह काम करने को तैयार थे । लेकिन दरिद्र और लाचार मेक्सिकन लोग कम मजदूरी में अधिक समय तक काम करने को तैयार थे । १९५९ में एक अन्दाज के अनुसार ४ लाख विदेशी मजदूर काम करते थे , जब कि देश में ४० लाख लोग बेकार बैठे थे । १९६४ में कानून से ‘ब्रेसेरो’ प्रोग्राम को बन्द किया गया । उसके बाद मजदूरों में हड़ताल आदि के जरिए संगठन करके अपनी स्थिति सुधारने की कुछ आशा बढ़ी । लेकिन अंगूर के उत्पादक मालिकों ने तब तक और उपाय ढूँढ़ लिये थे । अमरीका में एक कानून के अनुसार ‘स्थायी निवासी विदेशियों ‘ को हरा कार्ड लेकर अमरीका में रहने की छूट दी गयी थी। मेक्सिकन लोग मजदूरी के पैसे लेकर वापस अपने देश चले जाते थे । कानून यह है कि जहाँ कहीं किसानों और मालिकों के बीच विवाद रजिस्टर किया गया हो , वहाँ विदेशी मजदूर काम नहीं कर सकते हैं । लेकिन इस प्रकार के विवाद रजिस्टर करने में ही ढीलाढाली की जाती थी और विदेशी मजदूरों को लाकर स्थानीय मजदूरों की हड़तालें तुड़वायी जाती थीं।

इसी प्रकार का वातावरण था , जब सीजर शावेज ने कैलिफोर्निया की सेन जोआक्वीन उपत्यका में अंगूर के बागों में काम करनेवालों के संगठन की जिम्मेदारी सँभाली ।

जब तक सीजर नहीं आया था , मजदूर नेताओं ने खेत – मजदूरों के संगठन को अशक्य-सा(नामुमकिन) मान रखा था । ये मजदूर अधिकांश अनपढ़ हैं , एक जगह बहुत दिन टिकते नहीं हैं और ऐसे अल्पसंख्यक समुदायों से आये हैं जिनके बारे में बहुसंख्यक लोगों को विशेष सहानुभूति नहीं है। इसी कारण इन लोगों की हड़तालें बार – बार तोड़ी गयी थीं ।

इधर सीजर को भी संगठन से बहुत आशा नहीं थी । जब लॉस एन्जेलिस में स्थापित कम्युनिटी सर्विस आर्गनाइजेशन की ओर से फ्रेड रास नामक एक सज्जन ने उससे सम्पर्क करने की कोशिश की तो पहले तो दो – तीन दिन वह उससे मिलना ही टालता रहा । ” अरे , ये लोग यहाँ पर रिपोर्टरों को भेजते हैं , और फिर वहाँ जाकर हम लोगों के बारे में अजीब – अजीब रिपोर्ट लिखते हैं । उन्हें और काम ही क्या है ? ” यह थी सीजर की मनोवृत्ति । लेकिन फ्रेड रास इससे हार मानने वाला नहीं था । उसने आखिर एक दिन सीजर को पकड़ ही लिया। कम्युनिटी सर्विस आर्गनाइजेशन के बारे में बातें करने के लिए एक मीटिंग बुलाने की उसकी इच्छा थी ।

” आपको सभा में कितनी लोग चाहिए ? ” सीजर ने पूछा ।

” चार – पाँच होंगे तो चलेगा । ” रास ने कहा ।

“और बीस हों तो ? “

” तब तो पूछना ही क्या ? “

इस सभा में जिन लोगों को सीजर ने बुलाया था , उनमें से कुछ को तो उसने कह रखा था कि ” जब मैं अपनी सिगरेट एक हाथ से दूसरे हाथ में लूँ , तब आप लोग शरारत शुरु कर सकते हैं । ” लॉस एन्जेलिस से उनकी अवस्था के बारे में रिपोर्ट लिखने के लिए आने वालों के बारे में सीजर को इतनी चिढ़ थी । लेकिन सभा में सीजर ने देखा कि फ्रेड रास कोई दूसरे ही प्रकार का आदमी था । उसके बाद तो कई सभाओं में सीजर फ्रेड के पीछे – पीछे दौड़ता रहा ।

सीजर पहले – पहल कम्युनिटी सर्विस आर्गनाइजेशन में वोटर रजिस्ट्रेशन अभियान के निमित्त शामिल हुआ । फ्रेड ने सीजर को इस संस्थान के संगठन का अध्यक्ष बनाया । ” मैं कहा जाता ? धनवानों के पास ? उनसे तो मेरी कोई जान – पहचान भी नहीं । इसलिए मैंने अपनी घाटी के १६ लोगों को अपने साथ किया । वैसे तो उनको कानून मतदाताओं के नाम भर्ती करवाने का कोई अधिकार नहीं था , क्योंकि उनमें से हर एक ने कभी न कभी कोई जुर्म किया था । उनको तो मत देने का भी अधिकार नहीं था । लेकिन वे घर – घर जाकर द्वार तो खटखटा सकते थे । और उन्होंने मेहनत भी काफी की । “

सीजर की सबसे बड़ी कुशलता कोई है तो वह संगठन – शक्ति की है । इसी कुशलता के कारण उसने इतिहास में पहली बार अंगूर के बगीचे में काम करनेवाले गरीब , अनपढ़ , असहाय मजदूरों को संगठित किया । ‘ संगठन के लिए सबसे बड़ी चीज चाहिए समय । अगर आपके पास समय हो तो आप संगठन कर सकते हैं ।’ सीजर का यह वाक्य शायद भारत में उतना समझ में नहीं आयेगा , जहाँ फुर्सत है । और सीजर के समय का अर्थ कोरा समय नहीं होता । उसका अर्थ होता है प्रेम-सभा समय । इसीके कारण तो वह अब भी छोटे-बड़ों के पास जाकर उनके सुख – दुख का अंतरंग साथी बन सकता है । जब सीजर के नेतृत्व में एक हड़ताल चल रही थी , तब डेनि नामक एक मजदूर ने हड़ताल का विरोध करते हुए कहा था : ” मुझे बन्दूक दीजिए तो अभी उनमें से कइयों की लाशें गिरा दूँगा । ” इस हड़ताल में सीजर के लोगों की जीत हो गयी । तब ये लोग चाहते थे कि डेनि को अब यहाँ से लात मारकर भगाया जाय । लेकिन सीजर ने कहा : “क्या आप एक आदमी से डर गये ? आपको मालूम है कि सच्ची चुनौती किस बात में है ? उसे निकालने में नहीं , लेकिन उसे अपने में लाने में सच्ची चुनौती है । अगर आप अच्छे संगठक हों , तो जरूर उसे अपने में आने को राजी कर लेंगे – लेकिन आप आलसी हैं । “

अंगूर के बगीचे के मजदूरों के संगठन को अभी तक बहुत बड़ी सफलता तो नहीं मिली है । आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य सरकार के कानून द्वारा संगठन के अधिकार प्राप्त करना है । हड़ताल का साधन हमेशा सफल नहीं होता । मुख्य कारण यह है कि अंगूर – उत्पादकों को दूसरे मजदूर आसानी से मिल जाते हैं । अतएव सीजर के संगठन युनाइटेड फार्म वर्कर्स आर्गनाइजिंग कमेटी ने कई जगह नये मजदूरों को काम पर जाने से रोकने के लिए पिकेटिंग की है । हड़ताल में शामिल होने वाले मजदूरों को युनाइटेड फार्म वर्कर्स आर्गनाइजिंग कमेटी कुछ दूसरा काम देने का भी प्रयत्न करती है । लेकिन वर्षों तक चलने वाली हड़ताल को टिकाये रखने के लिये समिति के पास पैसे नहीं हैं । हड़ताल को टिकाये रखनेवाला मुख्य तत्व है संगठन के नेताओं का सादा जीवन । उनके और मजदूरों के जीवन में अन्तर नहीं है । मजदूरों के कष्ट सीजर और उनके साथियों के कष्ट बन जाते हैं ।

हाँ , कई साथियों में इतना धीरज नहीं है । मालिक लोग जब पीछे से ट्रकें लाकर मजदूरों को रास्ते चलते कुचल डालते हैं , मेक्सिको से आये हुए नये मजदूरों को हड़ताल करनेवाले लोगों से झगड़ा करने के लिए किराये पर रखते हैं , सीजर या उसके साथियों को खुले आम गालियाँ देते हैं , तब सीजर के साथियों में से कोई – कोई चिढ़ जाता है । सीजर उन्हें कभी हँसकर , कभी गंभीरता से समझाता है । वे कहते हैं : ” अहिंसा के रास्ते से देर लगती है । ” सीजर कहता है : ” हिंसा के रास्ते से जो सफलता मिलती है , वह स्थायी नहीं होती । “दलीलें चलती रहती हैं । अन्त में बात वही होती है , जो सीजर कहता है , लेकिन सीजर को भी मालूम है कि केवल उसकी अपनी अहिंसा – निष्ठा से काम बननेवाला नहीं है । इसलिए वह सारे कार्यकर्ताओं को अहिंसा की महिमा समझाने की कोशिश करता रहताह है ।

[ शेष भाग अगली किश्त में ]

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