आजादी के बाद से सबसे अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है । गरीबी , बेरोजगारी , महँगाई , सीमा सुरक्षा या क्रिकेट से भी अधिक चर्चा का विषय भ्रष्टाचार है । देश का कोई भी वर्ग नहीं है जो इससे विचलित नहीं है। फिर भी हमारे बुद्धिजीवियों ने इसको एक खोज का विषय , सामाजिक चिन्तन का विषय नहीं बनाया। जानकार व्यक्तियों से हमने पूछा कि इस विषय पर लिखी गई किसी किताब का नाम बताएँ । उन्होंने कहा कि ऐसी कोई किताब नहीं है जो भ्रष्टाचार की व्यापकता और उसके कारण तथा प्रतिकार से सम्बन्धित हो। एक-दो किताबें हैं ( ज्यादा भी हो सकती है ) जिनमें भ्रष्टाचार की घटनाओं का विवरण है ; विभिन्न जाँच आयोगों की रपटों पर यह किताबें आधारित हैं । प्रशासनिक सुधार के उद्देश्य से एक संथानम आयोग नियुक्त हुआ था । प्रशासनिक दायरे में लिखी गई यह रिपोर्ट अभी तक भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में सर्वाधिक प्रसिद्ध दस्तावेज है । इसी तरह बाद के दिनों की बोहरा कमेटी की रिपोर्ट है ।
भारत पर लिखने वाले विदेशी बुद्धिजीवियों को हमने ढूँढ़ा तो एक दशक पहले लिखा गया स्वीडेन के अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल (अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता) का विशाल ग्रंथ एशियन ड्रामा मिला । दक्षिण एशिया के राष्ट्रों की गरीबी और उसके कारणों को समझने के लिए ग्रंथ लिखा गया था । मिर्डल को हम यह श्रेय देते हैं कि भ्रष्टाचार की समस्या पर उन्होंने एक स्वतंत्र अध्याय लिखा है ( अध्याय २० , भाग – २)। मिर्डल ने भी यह टिप्पणी की है कि भारत पर लिखनेवाले देशी-विदेशी बुद्धिजीवियों ने इस समस्या पर चिन्तन या विश्लेषण की कोई किताब नहीं लिखी है ।
इस कमी का का जो भी कारण मिर्डल की समझ में आया हो , हमारे लिए इसका एक कारण बहुत स्पष्ट है । भारतीय बुद्धिजीवियों ने नहीं लिखा है तो उसकी एक वजह यह है कि पश्चिमी बुधिजीवियों ने अभी तक भ्रष्टाचार की समस्या को एक विषय नहीं बनाया है और इस विषय पर सोचने का कोई तरीका पेश नहीं किया है। न ही किसी विदेशी संस्था ने इस विषय पर अनुसंधान के लिए अनुदान दिया है । इन दिनों भारतीय अनुसंधान का विषय काफ़ी हद तक अनुदान देनेवाली विदेशी संस्थाओं द्वारा निर्धारित होता है । जहाँ तक विदेशी बुधिजीवियों द्वारा किताब न लिखने का सवाल है , आजकल विदेशी बुद्धिजीवियों का जो हिस्सा एशिया के देशों पर किताब लिखता है , वह उच्च कोटि का नहीं होता । इन विदेशी बुद्धिजीवियों की दृष्टि में एशिया के लोग पश्चिम के लोगों से घटिया होते हैं , इसलिए भ्रष्टाचार जैसी चीजें उनके लिए स्वाभाविक हैं, पारम्परिक हैं । ये लोग ’विकास’ को एक विशेष अर्थ में समझते हैं ,और इस विकास के चलते अगर महँगाई , बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसी समस्याएँ बढ़ने लगती हैं तो उन्हें विकास के लिए आवश्यक भी मानते हैं । (मनमोहन सिंह द्वारा हाल ही में लोक सभा में ’विकास’ बनाम मंहगाई और भ्रष्टाचार की बाबत ऐसी बकवास किए जाने को सुनकर किशनजी के इन शब्दों को मैंने बोल्ड किया है – अफ़लातून। )
इस प्रकार के विदेशी बुद्धिजीवियों के मुकाबले में काफ़ी ऊँचे दरजे का विचारक होने के बावजूद मिर्डल की दृष्टि बहुत साफ़ नहीं है , एक स्थान पर वह कहता है कि एशिया के देशों में भ्रष्टाचार की एक परम्परा है, इसी अध्याय के दूसरे स्थान पर कहता है कि यूरोप के देशों में काफ़ी पहले इस पर काबू पा लिया गया है । ऐसी मान्यता के कारण मिर्डल कोई समाधान नहीं सुझा पाता । लेकिन उसने भ्रष्टाचार को एक मौलिक समस्या का दरजा दिया है क्योंकि एशिया के देशों में रजनैतिक हलचल का और गद्दी पलटने का सबसे बड़ा मुद्दा यही है । यह तानाशाही के मार्ग को भी प्रशस्त करता है , आर्थिक क्षेत्र में भी इसका दुष्परिणाम निर्णायक होता है , विकास की योजनाओं का कार्यान्वयन सम्भव नहीं हो पाता है। ( जारी , अगला हिस्सा- राजनैतिक दल और भ्रष्टाचार ).( यह भी देखें : राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक )
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मौंजूं लेख है।
उत्तर प्रदेश में पीसीएस अधिकारी रहे डा.हरदेव सिंह ने अपने अनुभवों पर आधारित किताब लिखी है -“क्यों बेईमान हो जाती है नौकरशाही।” इसमें भारतीय नौकरशाही के बेईमान हो जाने के कारणों पर विचार किया गया है।
कभी इस किताब के बारे में लिखूंगा।
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