प्रशासनिक सुधार
प्रशासनिक सुधार भ्रष्टाचार रोकने के लिए दूसरे नम्बर पर आता है । फिर भी अगर मौलिक ढंग का सुधार हो तो काफी असरदार हो सकता है । राज्य मूलरूप से एक दण्ड व्यवस्था और सुरक्षा व्यवस्था है । जहाँ दण्ड और सुरक्षा विश्वसनीय नहीं रह जाती हैं वहाँ राज्य और उसके अनुशासन के प्रति आस्था कमजोर हो जाती है । अदालतों के द्वारा सजा देना दण्ड का स्थूल हिस्सा है । राज्य के प्रशासक अपना दायित्व निर्वाह करें और उसमें असफलता के लिए उत्तरदायी रहें – यह असल चीज है । आजादी के बाद के भारत में प्रशासकों का उत्तरदायित्व खतम हो गया है , जो प्रशासक एक विदेशी मालिक के सामने भय से जवाबदेही का निर्वाह करते थे , वे खुद अपने लिए शासन के नियम आदि बनाने लगे । आजादी के बाद प्रशासन का नया नियम बनाना इन्हीं पर छोड़ दिया गया और उन्होंने इस प्रकार का एक नौकरशाही का एक ढाँचा बनाया जिसमें जवाबदेही की कोई गुंजाइश ही नहीं है । कोई ईमारत या पुल या बाँध बनाया है और बनने के एक साल बाद ढह जाता है – ऐसी घटनायें सैकड़ों होती रहती हैं । उसकी जवाबदेही के बारे में सर्वसाधारण को कुछ मालूम नहीं रहता है । इस प्रकार की असफलता या लापरवाही के लिए कोई प्रतिकार भारतीय शासन व्यवस्था में नहीं है । जन साधारण के प्रति प्रशासक कभी भी जवाबदेह नहीं रहता है ।गुलामी के दिनों में अपने विदेशी मालिकों के प्रति भारतीय प्रशासकों की जितनी वफ़ादारी थी , अपने देश के जनसाधारण के प्रति अगर उसकी आधी भी रहती तो भ्रष्टाचार का एक स्तर खत्म हो जाता । लोकतंत्र में केवल राजनेता प्रशासकों को जवाबदेह नहीं बना सकता है क्योंकि लोकतंत्र में राजनेता और प्रशासन का गठबंधन भी हो जाता है । जनसाधारण को अधिकार रहे कि उसको सही समय पर , सही ढंग से कानून के मुताबिक प्रशासन मिले । अगर कोई पेंशन का हकदार है और अवकाश लेने के बाद दो साल तक उसको पेंशन नहीं मिलती है; किसानों को जल आपूर्ति नहीं हो रही है और उनसे सालों से जल कर लिया जा रहा है ; किसी का बकाया सरकार पर है और सालों बाद उसे बिना सूद वापस मिलता है – ये सारी हास्यास्पद घटनायें रोज लाखों लोगों के साथ होती रहती हैं । इसलिए आम आदमी के लिए लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है । विकसित देशों में लोकतंत्र हो या तानाशाही , आम आदमी इतना असहाय नहीं रहता है । इसका सम्पर्क लोकतंत्र या तानाशाही से नहीं है बल्कि प्रशासन प्रणाली से है । प्रशासन के स्तर पर किस प्रकार के सुधार भ्रष्टाचार निरोधक होंगे , उसके और कुछ उदाहरण हम नीचे दे रहे हैं ।
पुलिस , मिनिस्टर , जज और वकील रोज करोड़ों की रिश्वत सिर्फ इसलिए लेते हैं कि अदालत समय से बँधी नहीं है । किसी अपराध में १०० रु. का जुरमाना है या दस दिन की सजा होनी है , उसके लिए २५ बार वकील को फीस देनी पड़ती है , छह महीने जेल में रहना पड़ता है । न्यायपालिका एक क्रूर मजाक हो गई है । यह कितनी विडम्बना है कि आम आदमी न्यायपालिका के नाम से आतंकित होता है – जबकि न्यायपालिका राहत की जगह है । निर्दोष आदमी ही अदालत से अधिक डरता है । अगर सिर्फ एक सुधार हो जाए कि न्यायालय में एक निश्चित समय के अन्दर फैसला होगा तो देर होने की वजह से होनेवाले भ्रष्टाचार में दो तिहाई कमी आ जाएगी । यदि जजों की संख्या दस गुनी भी अधिक कर दी जाए, तब भी राष्ट्र का कोई आर्थिक नुकसान नहीं होगा क्योंकि जिस समाज में न्याय होगा उसकी उपार्जन-क्षमता भी बढ़ जाती है ।
तबादला या ट्रांसफ़र प्रशासनिक भ्रष्टाचार का एक प्रमुख स्तम्भ है । तबादला कराने और रोकने के लिए बाबू से लेकर मंत्री तक सब रिश्वत लेते-देते हैं । तबादले की प्रथा ही एक औपनिवेशिक प्रथा है । प्रशासकों को जन विरोधी बनाने के लिए विदेशी शासकों ने इसका प्रचलन किया था । तबादला सिर्फ पदोन्नति या अवनति के मौके पर होना चाहिए । मध्यम और नीचे स्तर के कर्मचारियों की नियुक्ति यथासम्भव उनके गाँव के पास होनी चाहिए । अगर नियुक्ति गलत जगह पर नहीं हुई है तो तबादला दस साल के पहले नहीं होना चाहिए । बड़े अफ़सरों की नियुक्ति जहाँ भी हो , लम्बे समय तक होनी चाहिए ताकि उनके कार्यों का परिणाम देखा जा सके । अधिकांश निर्णय नीचे के कर्मचारियों और पंचायत जैसी इकाइयों के हाथ में होना चाहिए ताकि निर्णय की जिम्मेदारी ठहराई जा सके । गुलामी के दिनों में जब कलक्टर और पुलिस अफ़सर भी अंग्रेज होते थे , गोरे लोग ही हर निर्णय पर अपना अन्तिम हस्ताक्षर करते थे – यही प्रथा अब भी चालू है । मामूली बातों से लेकर गंभीर मामलों के हरेक विषय के लिए निर्णय की इतनी सीढ़ियाँ हैं कि गलत निर्णय की जिम्मेदारी नहीं ठहराई जा सकती है ।
पिछले वर्षों में योग्य नौजवानों का समूह रिश्वत देनेवाला बन गया है । प्रथम श्रेणी में एम.एससी पास करने के बाद सप्लाई इन्स्पेक्टर की नौकरी पाने के लिए मंत्री और दलाल को रुपए देने पड़ते हैं । रिश्वत की रकम अक्सर बँधी रहती है | रोजगार के अधिकार को सांवैधानिक अधिकार बनाकर इस रिश्वत को खतम किया जा सकता है । बेरोजगारी का भत्ता इसके साथ जुड़ा हुआ विषय है । इसकी माँग एक लम्बे अरसे से देश के नौजवानों की ओर से की जा रही है , फिर भी योजना आयोग या विश्वविद्यालयों की ओर से अभी तक एक अध्ययन नहीं हुआ कि इसके अच्छे या बुरे परिणाम क्या होंगे , सरकार पर इसका कितना बोझ पड़ेगा इत्यादि । नौजवानों को भ्रष्टाचार का शिकार होने देना और बेकारी भत्ते को सांवैधानिक बनाकर सरकारी खर्च बढ़ाना – इसमें से कौन बुराई कम हानिकारक है ? हो सकता है कि दोनों के परे कोई रास्ता दिखाई दे ।
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अच्छा चल रहा है…
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